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कुलदीप नैयर पत्रकारिता सम्मान-2023 से नवाजे गए उर्मिलेश ने उठाया मीडिया में दलित-बहुजनाें की भागीदारी नहीं होने का सवाल

उर्मिलेश ने कहा कि देश में पहले दलित राष्ट्रपति जब के.आर. नारायणन थे, उस समय एक दलित राजनीतिक परिस्थितियों के कारण देश का राष्ट्रपति तो बन सकता था, लेकिन वह किसी अखबार का मान्यता प्राप्त पत्रकार या फिर संपादक नहीं बन सकता था। आज भी देश के किसी भी अखबार का संपादक दलित नहीं है। पढ़ें, यह खबर

स्थान था नई दिल्ली के दीनदयाल उपाध्याय मार्ग पर अवस्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान का सभागार। कुर्सियां लगभग आधी खाली थीं और मौका था कुलदीप नैयर पत्रकारिता सम्मान-2023 के लिए चयनित वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश को सम्मान किए जाने का। मंच पर पुरस्कार समिति के अध्यक्ष आशीष नंदी, कुमार प्रशांत, विजय प्रताप और अशोक कुमार सिंह के साथ उर्मिलेश मौजूद थे। दर्शकों में देश के मीडिया जगत और बौद्धिक जगत की कई नामी-गिरामी हस्तियां मौजूद थीं। उनमें ओम थानवी भी शामिल रहे।

सम्मान कार्यक्रम के आरंभ में गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशांत ने सभागार में खाली पड़ी कुर्सियों के बारे में कहा कि आज हम जिस दौर से गुजर रहे हैं, उस दौर में हम कितनी संख्या में इस कार्यक्रम में मौजूद हैं, यह मायने नहीं रखता, क्योंकि यह दौर ही सत्ता द्वारा दमन का है। यहां सभागार में जितने लोग भी मौजूद हैं, उनकी मौजूदगी ही उनका प्रतिरोध है।

कुमार प्रशांत के संबोधन के बाद वरिष्ठ पत्रकार प्रियदर्शन ने उर्मिलेश के सम्मान में प्रशस्ति पत्र पढ़ा, जिसके तहत उन्होंने उर्मिलेश के चार दशकों की पत्रकारिता और उनके लेखन कार्यों का उल्लेख किया। इसके बाद आशीष नंदी और कुमार प्रशांत ने उर्मिलेश को सम्मान के रूप में एक लाख रुपए का चेक, प्रशस्ति पत्र व पुस्तकें प्रदान की।

उर्मिलेश को कुलदीप नैयर पत्रकारिता सम्मान – 2023 प्रदान करते आशीष नंदी और कुमार प्रशांत

सम्मान समारोह में आकर्षण का केंद्र उर्मिलेश रहे। उन्होंने अपने संबोधन के प्रारंभ में गांधी शांति प्रतिष्ठान के प्रति आभार प्रकट किया और कहा कि वे दो बार चौंके। पहली बार 1993 में जब उन्हें ‘टाइम्स’ समूह द्वारा फेलोशिप दिए जाने की घोषणा की गई थी और दूसरी बार तब जब उन्हें कुलदीप नैयर पत्रकारिता सम्मान दिए जाने की सूचना मिली। उर्मिलेश ने कहा कि ‘टाइम्स’ समूह द्वारा फेलोशिप दिए जाने पर चौंकने की वजह यह थी कि यह समूह अंग्रेजी के पत्रकारों को फेलोशिप देता था और वे हिंदी के पत्रकार थे। दूसरी बार चौंकने की वजह आज के हालात हैं, जबकि पत्रकारिता पर सत्ता और पूंजीवादी ताकतें पूरी तरह हावी हैं।

हालांकि उर्मिलेश ने बाद में यह भी कहा कि आज मीडिया की जो स्थिति है, पूर्व में भी ऐसी ही थी। लेकिन इसके पहले उन्होंने ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ का जिक्र करते हुए कहा कि जिन देशों में प्रेस स्वतंत्र है, वहां के विकास संबंधी अन्य सूचकांक अच्छे हैं। उन्होंने नार्वे और डेनमार्क आदि का जिक्र किया और सोदाहरण बताया कि प्रेस के स्वतंत्र रहने का मतलब किसी भी देश में लोकतंत्र की मजबूती और वहां चौमुखी विकास का परिचायक है। जबकि आज ग्लोबल हंगर इंडेक्स के लिहाज से देखें तो भारत भुखमरी के मामले में सबसे निचले पायदान पर है। यहां तक कि भूटान, बांग्लादेश और रवांडा जैसे देश इससे आगे हैं। उन्होंने रवांडा का उल्लेख करते हुए कहा कि रवांडा वह देश रहा है जहां सत्ता और मीडिया ने मिलकर लोकतंत्र को न केवल कमजोर किया, बल्कि वहां लाखों लोगों के नरसंहार के कारण बने।

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उर्मिलेश ने यह जोर देते हुए कहा कि मीडिया और सत्ता का संबंध जैसा आज है, वैसा ही पहले भी रहा। 1950 के दशक में तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा केरल, जम्मू-कश्मीर और पंजाब में निर्वाचित सरकारों को गिरा दिया गया। तब भी मीडिया सरकार के समर्थन में खड़ी थी और आज भी मीडिया सरकार के समर्थन में खड़ी है। हालांकि उन्होंने गणेश शंकर विद्यार्थी और अबु बाकर का उल्लेख करते हुए यह कहा कि ये दोनों स्वतंत्रता संग्राम के समय अत्यंत ही साहसी पत्रकार रहे और दोनों की हत्या की गई। उन्होंने अबु बाकर का विशेष उल्लेख करते हुए कहा कि उन्हें यही दिल्ली गेट पर तोप से उड़ा दिया गया था। उनके ऊपर आरोप लगाया गया था कि वे बगावती पत्रकार हैं। उर्मिलेश ने इस बात पर अफसोस भी व्यक्त किया कि अबु बाकर को आज तक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम शहीद के रूप में याद नहीं किया जाता है। उन्होंने गणेश शंकर विद्यार्थी की पत्रकारिता का उल्लेख करते हुए कहा कि उन्होंने अपनी पत्रिका ‘प्रताप’ में सभी को जगह दिया। उनकी पत्रिका में वामपंथी और दक्षिणपंथी सभी के आलेख छप रहे थे। हालांकि दक्षिणपंथियों को जगह कम मिलती थी।

मीडिया में जाति का उल्लेख करते हुए उर्मिलेश ने कहा कि पहले भी मीडिया में विविधता का अभाव था और अब भी विविधता का अभाव है। उन्होंने कहा कि मीडिया में दलित, पिछड़े और आदिवासी समाज के पत्रकारों का अभाव आज भी है। उन्होंने कहा कि आजादी के बाद भी देश की मीडिया में एक ही तरह के वर्ण और एक ही तरह की जाति के लोग भरे पड़े हैं। मीडिया में इस पर विचार नहीं किया जाता। उन्होंने कहा कि आज की सियासत में अधिक विविधता है, लेकिन पत्रकारिता में विविधता है ही नहीं। यह देखकर आश्चर्य होता है कि आजदी के बाद इतने सारे लोकतांत्रिक प्रयासों के बावजूद इस मुद्दे पर लिखने वाला पहला व्यक्ति विदेशी है, जिनका नाम राॅबिन जेफरी है। उन्होंने अपनी किताब ‘इंडियाज न्यूजपेपर रिवोल्यूशन : कैपिटलिज्म, पॉलिटिक्स एंड दी इंडियन लैंग्वेज प्रेस, 1977-99’ में इसका उल्लेख किया। बाद में उनकी इस किताब का अनुवाद इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन ने करवाया। इसमें इस बात का उल्लेख है कि भारतीय प्रेस इतना राष्ट्रवादी क्यों रहा है और इसमें एक ही तरह के वर्ण और जाति के लोग क्यों भरे पड़े हैं। उन्होंने कहा कि आज देश में लोकतंत्र और प्रेस की जो समस्या है, उनमें एक समस्या यह भी है। उन्होंने कहा कि मीडिया में विविधता के सवाल पर लिखने वाले दूसरे व्यक्ति रहे बी.एन. उनियाल, जो कि ब्राह्मण थे। उन्होंने उनके द्वारा लिखित आलेख ‘इन सर्च ऑफ ए दलित जर्नलिस्ट’ (16 जनवरी, 1996 को पायनियर में प्रकाशित) का जिक्र करते हुए कहा कि अपने आलेख में उनियाल ने यह कारण बताया है कि यह आलेख उन्होंने एक विदेशी पत्रकार द्वारा यह पूछे जाने पर लिखा कि भारत में कोई एक दलित पत्रकार का नाम बताएं ताकि उसे उद्धृत कर सकूं। वह विदेशी पत्रकार कांशीराम और मायावती की राजनीति पर एक आलेख लिख रहे थे।

उर्मिलेश के मुताबिक, उनियाल ने विदेशी पत्रकार को बताया कि तीन दशकों की अपनी पत्रकारिता के दौरान वे किसी दलित पत्रकार से नहीं मिले। लेकिन उन्होंने उस विदेशी पत्रकार को सात दिन में किसी दलित पत्रकार के बारे में बताने की बात कही। अपने आलेख में उनियाल ने लिखा कि भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त सैंकड़ो पत्रकारों में एक भी दलित पत्रकार नहीं मिला। उन्होंने कहा कि यह हालात तब थे जब देश में पहले दलित राष्ट्रपति के.आर. नारायणन थे। उस समय एक दलित राजनीतिक परिस्थितियों के कारण देश का राष्ट्रपति तो बन सकता था, लेकिन वह किसी अखबार का मान्यता प्राप्त पत्रकार या फिर संपादक नहीं बन सकता था। आज भी देश के किसी भी अखबार का संपादक दलित नहीं है। रॉबिन जेफरी को अपने दस साल के रिसर्च में एक दलित पत्रकार रवींद्रदास मिले, जो तमिलनाडु में सीपीआई के मुखपत्र के लिए पत्रकारिता करते थे। उर्मिलेश ने कहा कि रवींद्रदास भी इस कारण पत्रकारिता कर पाए, क्योंकि अन्य लोगों को यह मालूम नहीं था कि वे दलित हैं। आज देश के विभिन्न मीडिया संस्थानों में दलित, ओबीसी पत्रकार हैं, लेकिन वे अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि के बारे में चुप रहते हैं। रवींद्रदास भी चुप रहते थे और आज के दलित-ओबीसी पत्रकार भी चुप रहते हैं।

उन्होंने कहा कि मीडिया में विविधता और मीडिया के मालिकों से संबंधित यूपीए-2 के दौरान 2013 में लोकसभा की स्टैंडिंग कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि विविधता होनी चाहिए और कोई भी अखबार का मालिक एक ही संस्करण का स्वामी हो। इस कमेटी के अध्यक्ष राव इंद्रजीत सिंह थे, जो अभी भाजपा में है। लेकिन आज तक किसी भी सरकार ने उस कमेटी की अनुशंसाओं को लागू नहीं किया है और परिणाम यह है कि आज एक मालिक के पास देश के विभिन्न शहरों में अखबारों के संस्करण है।

सबसे आखिर में अपने अध्यक्षीय संबोधन में तानाशाही और उसके विविध आयामों की चर्चा की। उन्होंने कहा कि नरेंद्र मोदी ने आरंभ से ही अपने तानाशाही रवैये का संकेत दिया था और यह कि लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी में प्रधानमंत्री पद की दावेदारी बढ़ाने के लिए उनका उपयोग किया।

(संपादन : राजन/अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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