नव दलित लेखक संघ (नदलेस), दिल्ली ने ‘ग़ज़लशाला’ नाम से विविध ग़ज़ल संग्रहों पर परिचर्चा सत्र शुरू किया है। इस परिचर्चा को एक साल तक चलाया जाएगा। इसका उद्देश्य, हिंदी और हिंदी से इतर ग़ज़ल में आंबेडकरवादी स्वर की तलाश करना और आंबेडकरवादी ग़ज़ल का एक निश्चित स्वरूप निर्धारित करना है। पूरे सत्र में कुल बारह या उससे अधिक ग़ज़ल संग्रहों पर ऑनलाइन परिचर्चा/गोष्ठी आयोजित की जाएंगी ताकि इनके आधार पर आंबेडकरवादी ग़ज़ल की पहचान की जा सके और उसके जरूरी मानदंड तय किए जा सकें।
इसी क्रम में ‘ग़ज़लशाला’ के तहत पहली ऑनलाइन परिचर्चा गत 27 अक्टूबर, 2024 को तेजपाल सिंह ‘तेज’ के ग़ज़ल संग्रह ‘कौन दिशा में उड़े चिरैया’ को केंद्र में रख कर की गई। यह संग्रह तेजपाल सिंह ‘तेज’ की प्रतिनिधि ग़ज़लों का संकलन है, जिनका संकलन और संपादन वरिष्ठ ग़ज़लकार हरेराम नेमा ‘समीप’ द्वारा किया गया है।
परिचर्चा में भाग लेने वाले वक्ताओं में हरेराम नेमा ‘समीप’, डॉ. कुसुम वियोगी और इंद्रजीत सुकुमार रहे। लेखकीय वक्तव्य हेतु तेजपाल सिंह ‘तेज’ और ‘ग़ज़ल, कल और आज’ विषय पर शोध पत्र प्रस्तुत करने हेतु लोकेश कुमार उपस्थित रहे। विशेष टिप्पणी करने वालों में आर.पी. सोनकर आदि उल्लेखनीय थे। गोष्ठी की अध्यक्षता बंशीधर नाहरवाल ने की और संचालन नव दलित लेखक संघ की सहसचिव सलीमा अली ने किया। इस परिचर्चा में देश भर से सैकड़ों साहित्यकारों ने उपस्थिति दर्ज कराई।
सबसे पहले इस रिपोर्ट के लेखक डॉ. अमित धर्मसिंह ने लेखक और अतिथि वक्ताओं का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया और बताया कि “इस सत्र के पूरा होने के बाद तमाम परिचर्चित ग़ज़ल संग्रहों की समीक्षा, कुछेक प्रतिनिधि ग़ज़लों, प्रस्तुत किए गए शोधपत्रों, कार्यक्रमों की रपट और आंबेडकरवादी ग़ज़ल की पहचान से जुड़े लेखों आदि का संकलन नव दलित लेखक संघ की ओर से पुस्तकाकार प्रकाशित किए जाने की योजना है।”
तेजपाल सिंह ‘तेज’ के गजल संग्रह ‘कौन दिशा में उड़े चिरैया’ पर प्रथम वक्ता के तौर पर इंद्रजीत सुकुमार ने विस्तार से अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि “आज के समय में बेबाकी से कुछ भी लिखना बड़ा ही जोखिम भरा काम है, लेकिन तेजपाल सिंह ‘तेज’ जी ने अपनी ग़जलों में इस प्रकार का जोखिम उठाया है। उन्होंने न सिर्फ दलितों और वंचितों के हक़ में कलम चलाई है, बल्कि आज की राजनीति और समाज में फैली बहुत-सी बुराइयों को भी अपनी ग़जलों में निशाना बनाया है। वे भाषा में सहज और सरल होते हुए भी, प्रतीकात्मक रूप से अपनी बात कहने में पूरी तरह सफल हुए हैं। इस कारण उनकी ग़जलों का साधारणीकरण हो जाता है और पाठक आराम से उनके कथ्य, मर्म और भावना से संबंध बना लेता है।”
इस मौके पर डॉ. कुसुम वियोगी ने कहा कि “तेजपाल सिंह ‘तेज’ की रचनाधर्मिता को किसी एक खांचे में रखकर नहीं देखा जा सकता है। इन्होंने जीवन में जिन भी विषयों को छुआ है, उन पर इन्होंने अपने अलग ही ढंग से कलम चलाई है। इस कारण इनकी गज़लें दलित और जनवाद से अधिक जन-सरोकार और जनतांत्रिक मूल्यों की ग़ज़लें हैं। अच्छा होता कि प्रस्तुत ग़जल संग्रह का शीर्षक ‘कौन दिशा में उड़े चिरैया’ की जगह ‘कौन दिशा में उड़े रे चिरैया’ होता। इससे इसकी मारकता और संप्रेषणीयता और बढ़ जाती।”
‘कौन दिशा में उड़े चिरैया’ गजल संग्रह के संपादक हरेराम नेमा ‘समीप’ ने बताया कि “यह शीर्षक तेजपाल सिंह ‘तेज’ की एक ग़ज़ल ‘कौन दिशा में उड़े चिरैया/अम्बर-अम्बर आग पली है’ से लिया गया है। यह प्रतीकात्मक है। इससे तेजपाल सिंह ‘तेज’ की ग़ज़लधर्मिता को बड़ी आसानी से समझा जा सकता है। वे गहरे अहसास वाले शायर है। उनकी गजलों में जीवन, रिश्तों और समाज से जुड़े हुए जनतांत्रिक मूल्य आसानी से देखे जा सकते हैं। उनके शिल्प पर उनका कथ्य भारी पड़ता है। इस कारण उनकी ग़ज़लें यदि थोड़ा बहुत ग़ज़ल के मानदंड से हट भी जाती हैं तो भी उनकी पठनीयता, संप्रेषणीयता और प्रासंगिकता पर कुछ खास फर्क नहीं पड़ता है।”
लोकेश कुमार ने ‘ग़ज़ल, कल और आज’ विषय पर अपने शोध पत्र का सार प्रस्तुत करते हुए कहा कि “भारत में ग़ज़ल अमीर खुसरो से होती हुई गालिब और फिर हिंदी शायर दुष्यंत कुमार, अदम गोंडवी जैसे शायरों तक पहुंची है। भले ही देश में ग़ज़ल का इतिहास बहुत पुराना रहा हो, लेकिन हिंदी में उसकी पहचान बनाने में दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी जैसे शायरों का बहुत बड़ा हाथ है।”
वहीं आर.पी. सोनकर ने तेजपाल सिंह ‘तेज’ की ग़ज़लों पर सारगर्भित टिप्पणी रखते हुए कहा कि “मैंने उनकी जितनी गज़लें पढ़ीं, उनमें से कुछेक को छोड़ दें तो ज्यादातर ग़ज़लें ग़जल-व्याकरण ‘फायलातुन’ पर खरी उतरती हैं। दूसरे, उनका कथ्य इतना प्रबल है कि पाठक का ध्यान व्याकरण पर कम ही जाता है।”
डॉ. अमित धर्मसिंह ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि “आंबेडकरवादी ग़ज़ल में शिल्प उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितना कि सब्जी में हरा धनिया। इसके होने से ग़ज़ल का महत्व और बढ़ जाता है। लेकिन इसका, यह मतलब कतई नहीं कि ग़ज़ल के जटिल व्याकरण में उलझकर आंबेडकरवादी लेखक ग़ज़ल लिखना ही छोड़ दें। अपनी ग़ज़लों में रूढ़िवाद, पाखंडवाद आदि को स्थान न दें। उन्हें चाहिए कि वे ग़ज़ल लिखने का निरंतर अभ्यास करते रहें। धीरे-धीरे कथ्य के साथ-साथ शिल्प भी निखर ही आएगा। इसके लिए प्रतिष्ठित ग़ज़लकारों से शिल्प संबंधी सुझाव व सुधार लेने में भी कोई बुराई नहीं है।”
वहीं अपने वक्तव्य में तेजपाल सिंह ‘तेज’ ने अपनी रचना यात्रा पर समुचित प्रकाश डाला और बताया कि “मेरी ग़ज़लें एसी वाले कमरों में बैठकर नहीं लिखी गई हैं और न ही ये किसी मठ से जुड़ी रही हैं। मेरी ग़ज़लें राह चलते, ट्रेनों और बसों आदि में सफर करते हुए बन पड़ी हैं। इस कारण मेरी ग़ज़लों के विषय भी लोक जगत और समाज से आए हैं।”
इसके बाद उन्होंने ‘कौन दिशा में उड़े चिरैया’ संग्रह के दो-तीन ग़ज़लों का पाठ भी किया।
अध्यक्षीय वक्तव्य में बंशीधर नाहरवाल ने कहा कि “तेजपाल सिंह ‘तेज’ की ग़ज़लों पर वक्ताओं और लेखक को सुनकर लगा कि ग़ज़ल के विषय में आज बहुत-सा अज्ञान छंट गया है। इस पूरे सत्र से निश्चित ही हमारे साथ-साथ और भी बहुत से आंबेडकरवादी लेखक ग़ज़ल लिखने का बेहतर प्रयास करेंगे।”
गोष्ठी में जुड़ने वाले साहित्यकारों में डॉ. गीता कृष्णांगी, जलेश्वरी गेंदले, सुषमा भास्कर, पुष्पा विवेक, राजीव अम्बाड़े, ऐदलसिंह, मदनलाल राज़, लता नागडावाने, सुरेंद्र आंबेडकर, ओमप्रकाश गौतम, ज्ञानेंद्र सिद्धार्थ, डॉ. प्रिया राणा, अनुपा एस.एस., जयराम कुमार पासवान, अनिल रंगारी, जोगेंद्र सिंह, श्यामलाल राही, अशोक जोरासिया, बीर बहादुर महतो, सी.एम. बौद्ध, डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह, राधेश्याम कांसोटिया, राजेंद्र वर्मा, रामदास बरवाली, डॉ. उषा सिंह, फूलसिंह कुस्तवार, मनोज कुमार, उमेश राज़, प्रमोद युगन्धर, दिनेश कुमार, चितरंजन गोप लुकाटी, जालिम प्रसाद, रामसूरत भारद्वाज, ज्योति पासवान, देवीलाल धान्दव, सोनू गोयल, जगतारण डहरे, जगदीश कश्यप, रोशन लाल, संजीव कश्यप, कृष्ण कुमार, डॉ. रामावतार मेघवाल सागर, अमित रामपुरी, सत्यपाल सिंह कर्दम, रूप सिंह रूप और सुरेश कुमार जिलोवा आदि उपस्थित रहे।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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