दलित साहित्य पूर्णतः मनुष्यता की अभिव्यक्ति का साहित्य है। यह डॉ. आंबेडकर से प्रेरित और प्रभावित है, जो समाज में स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के पक्षधर थे। सुमित्रानंदन पंत की काव्यपंक्ति “वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान” में एक-एक शब्द संवेदना की ओर ही संकेत करते हैं। इस काव्य पंक्ति के अनुसार कविता आह या दर्द से निकलती है। दर्द की अनुभूति जितनी गहरी और तीव्र होगी, कविता उतनी ही उत्कृष्ट होगी। कविता के संदर्भ में आह मुहावरा नहीं, सत्य है। दलित कविता पर एकदम सटीक बैठता है। दलित कविता दर्द से निकलती है, क्योंकि सदियों से दलितों ने दर्द, शोषण और अन्याय का ही अनुभव किया है। दलित कविता में दर्द और अनुभव की अभिव्यक्ति प्रमुख है, इसलिए सहानुभूति और समानुभूति का प्रश्न दलित साहित्य में आकर दम तोड़ देता है। दलित विमर्श के अमिट हस्ताक्षर लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि का नाम अदब से लिया जाता है। उनकी कविताओं में गहराई और स्वानुभूति का प्रभावकारी वर्णन है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं का यथार्थ गहरे भावबोध के साथ सामाजिक शोषण के विभिन्न पहलुओं से टकराता है और मानवीय मूल्यों की पक्षधरता में खड़ा दिखाई देता है।
इस संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं कि “दलित साहित्य का वैचारिक आधार डॉ. आंबेडकर का जीवन संघर्ष एवं ज्योतिबा फुले और बुद्ध का दर्शन है।”[1]
दलित कविता हिंदी दलित साहित्य की सशक्त विधा है। हिंदी दलित कविता की विकास-यात्रा में ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं का एक विशिष्ट और महत्वपूर्ण स्थान है। इसकी मुख्य विशेषता है कवि की ‘स्वानुभूति’ है, जिसके कारण कविताओं में धार और व्यंग्यात्मकता आती है, इसी के चलते दलित कविता का जो अर्थबोध और शिल्प-विधान उभरता है, वह अनन्य है।
हिंदी क्षेत्र में आधुिनक दलित कविता की विकास यात्रा ‘सरस्वती’ (1914) में छपी हीरा डोम की कविता ‘अछूत की शिकायत’ से शुरू होती है। जबकि अतीत की बात करें तो यह कबीर और रैदास से होते हुए वर्तमान तक पहुंचती है। दलित कविता का तेवर पारंपरिक कविताओं से बिल्कुल भिन्न है। इसमें प्रेम-वर्णन या प्रकृति चित्रण न होकर सदियों से शोषित, पीड़ित जनों की आवाज है। यह ब्राह्मणवादी, मनुवादी और क्रूर वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ खुला संघर्ष है। यह दलितों की पहचान और अस्मिता की कविता है। दलित कविता का परिचय देते हुए कंवल भारती कहते हैं– “दलित कविता उस तरह की कविता नहीं है, जिसे आमतौर पर कोई प्रेम या विरह में पागल होकर गुनगुनाने लगता है। यह वह कविता भी नहीं है, जो पेड़-पौधों, फूलों और नदियों, झरनों और पर्वतमालाओं की चित्रकारी में लिखी जाती है। यह किसी का शोकगीत और प्रशस्तिगान भी नहीं है। दरअसल यह वह कविता है, जिसे शोषित, पीड़ित, दलित अपने दर्द की अभिव्यक्ति करने के लिए लिखता है। यह वह कविता है, जिसमें दलित कवि अपने जीवन के संघर्ष को उतारता है। यह दमन, अत्याचार, अपमान और शोषण के खिलाफ युद्धगान है। यह स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व-भाव की स्थापना और लोकतंत्र की प्रतिष्ठा करती है, इसीलिए इसमें समतामूलक और समाजवादी समाज की परिकल्पना है। संक्षेप में दलित कविता जाति और वर्ग-विहीन समाज की स्थापना करने वाली दलितों द्वारा लिखी गई क्रांतिकारी कविता है”।[2]
दलित कविता का क्रांतिकारी मिजाज लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखता है और मानवीय मूल्यों की स्थापना इसका मुख्य उद्देश्य है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित साहित्य के मुख्य हस्ताक्षर हैं। उनके बिना दलित कविता की कल्पना नहीं की जा सकती है। चूंकि वे स्वयं दलित समुदाय से हैं, इसलिए उनकी कविताओं में गहन स्वानुभूति व्यक्त हुई है। उन्होंने वर्ण-व्यवस्था आधारित भारतीय समाज में जो भोगा और देखा, उसे ही कविता में व्यक्त किया है। उनके चार कविता संग्रह हैं– ‘सदियों का संताप’, ‘बस्स! बहुत हो चुका’, ‘अब और नहीं’, और ‘शब्द झूठ नहीं बोलते’। इन सभी संग्रहों में मानवीय मूल्यों को सूक्ष्मता से उभारा गया है। उनका मानना भी था कि “दलित साहित्य समाज समानता, भाईचारा और मानवीय स्वतंत्रता की स्थापना के लिए प्रतिबद्ध है। मनुष्य ही उसके लिए सर्वोपरि है। इस प्रकृति में जो कुछ भी हमारे सामने है, वह मनुष्य की ही देन है। इसलिए मनुष्य की महत्ता को स्वीकार करते हुए दलित साहित्य मनुष्यता का साहित्य है”।[3]
कहने का अभिप्राय यह है कि दलितों के साथ जिन-जिन स्तरों पर अमानवीय व्यवहार हुआ है तथा जिनके कारण मानवता बार-बार शर्मसार हुई है, उन सभी को गंभीरता से कविताओं में जगह दी गई है। इस अर्थ में ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताएं महत्वपूर्ण हैं।
सर्वविदित है कि भारतीय समाज वर्ण-व्यवस्था पर आधारित समाज है, जिसके अंतर्गत तथाकथित दलित वर्ग ने जातिगत शोषण का दंश झेला है। दलित समाज मेहनतकश रहा है, उसने हाड़-तोड़ परिश्रम से संसाधनों को अर्जित किया है व अपना पेट भरा है। वह विपरीत परिस्थिति में रहकर मेहनत करता है फिर भी उसके मेहनत के परिणामों पर उसका हक नहीं। यहां तक कि पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं से भी वह वंचित है। ‘लेखा-जोखा’ कविता में ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं–
“पसीना मिश्रित जल से
उगायीं फसलें लगाए पेड़
पल भर ठिठक कर
जानना चाहा धूप का रंग
न फसल ही अपनी हो सकी
न पेड़ ही
तपती दुपहर में
रजबाहे की नालियों में
बहते गंगाजल से
बुझायी प्यास अनेक बार
बिना हिसाब किये-
कितनी रेत समायी पेट में
कितना पानी बदल लहू में
फिर भी,
न गंगा ही अपनी हो सकी
न रजबाहे की रेत ही”[4]
प्राचीन काल से वर्तमान में आधुनिकता के दौर में भी झूठ, पाखंड और आडंबरों का बोलबाला है। हिंदू धर्मग्रंथों में जो कुछ भी ब्राह्मणों ने लिखा है और उसका प्रचार-प्रसार किया उसके कारण ही दलितों में भय पैदा करके उन्हें शिक्षा से वंचित रखा। सामाजिक और आर्थिक रूप से हर काल में उनको उपेक्षित रखकर हाशिये पर धकेल दिया गया। वर्तमान में जागरूक दलित उस जाल से बाहर आने में कामयाब हुए हैं, लेकिन अधिकांश आबादी अब भी हिंदू धर्मग्रंथों के जालरूपी शब्दों में उलझी है। ओमप्रकाश वाल्मीकि सवर्ण समुदाय के दोहरेपन और चरित्र जटिलताओं के चलते उनके कहे ‘शब्दों’ पर ध्यान केंद्रित करवाते हैं। उनके अनुसार, शब्द झूठ नहीं बोलते, लेकिन हर शब्द का इतिहास होता है और उसकी विरासत होती है। शब्द मनुष्य की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थितियों के दस्तावेज होते हैं। दलित लंबे अरसे से इन्हीं शब्दों के द्वारा छले गए हैं। कविता पढ़ते वक्त मन में सवाल आता है कि क्या शब्द झूठ बोलते हैं? उत्तर है, शब्द झूठ नहीं बोलते। पर मनुष्य शब्दों का झूठा प्रयोक्ता है। इसी से शब्द बदनाम होते हैं–
“मेरे प्रदेश का शब्दजीवी
जात-पात नहीं मानता
ऐलान करता है
डंके की चोट पर….
रात इतनी गहरी
कि खत्म होने का नाम नहीं लेती
फिर भी
मेरे प्रदेश का शब्दजीवी
इनकार करता है
जात-पात के अस्तित्व से!”[5]
डॉ. आंबेडकर के विचार दलित साहित्य का दार्शनिक आधार हैं। उनके अनुसार दलितों के शोषण का मूल आधार हिंदू धर्मग्रंथ हैं, जिसके कारण लोगों को ग़ुलाम जैसी जिंदगी जीने को विवश किया गया। ऋग्वेद के दसवें मंडल में व्याख्यायित वर्ण-व्यवस्था ने एक विशेष वर्ग के हाथों में सारे अधिकार सौंप दिए। परिणामतः दलित समुदाय की स्थिति पशु के समान हो गई, जो समाज में हर कहीं दिखता था, परंतु उसका हिस्सा वह नहीं बन पाया। उसने तथाकथित अछूत समाज में जन्म लिया, जिसके चलते आजीविका के मूल संसाधनों को भी एकत्रित करने में जातीय दंश झेलना पड़ा। ब्राह्मणवादी और सामंतवादी तत्वों के गठजोड़ द्वारा जातिगत हिंसा की प्रक्रिया वहीं नहीं रुकी, वर्तमान में भी दलितों के साथ जारी है–
“मेरे जिस्म के मानचित्र पर
उभर रहे हैं–
बनकर फफोले
कहीं बेलछी
तो कहीं शेरपुर
कहीं पारस बिगहा
तो कहीं नारायणपुर
इन फफोलों को सहलाने के लिए
मेरे हाथ मेरे पास नहीं हैं
वे तो बहुत पहले
मेरे बाप-दादाओं ने
रख दिए थे गिरवी
किसी सेठ साहूकार की तिजोरी में
दो मुट्ठी चावल के बदले”।[6]
दलित समुदाय ने सदियों से जातिगत भेदभाव को झेलते हुए अपना विकास किया। वह उन प्राकृतिक संसाधनों को भी हासिल करने के लिए लड़ाई लड़ी, जो एक मनुष्य होने के नाते मिलनी चाहिए थी। मनुवाद एवं ब्रह्मणवाद ने वैचारिक स्तर पर जो घृणा और नफरत फैलाई, उसके चलते दलितों की स्थिति दयनीय हो गई। भेदभाव, शोषण और उत्पीड़न उनकी रोजमर्रा के जीवन में शामिल हो गया। मगर दलितों में इसके विपरीत मानवता के प्रति गहरा लगाव होने लगा। यह चेतना स्वानुभूति के कारण विकसित हुई। परिणामस्वरूप दलित मानवीय मूल्यों को तरजीह देने लगे। ओमप्रकाश वाल्मीकि लोगों को नफरती भाव से दूर रहने को कहते हैं–
“अच्छे लगते हैं पेड़
और उनका हरापन
उससे भी ज्यादा अच्छे लगते हैं
हंसते-खिलखिलाते वे लोग
जो नफरत नहीं करते
आदमी से
सपने में भी!”।[7]
क्रूर अतीत, जिसमें दलितों की स्थिति बिल्कुल मानवता के खिलाफ थी। वह कदम-कदम पर जातिगत भेदभाव का सामना करता है। शोषण तंत्र यानी ब्राह्मणवादी हिंसक तत्वों के कारण दलितों का सामाजिक जीवन बिल्कुल अस्त-व्यस्त था। इनसब के बावजूद वह बदले की भावना त्यागकर बदलाव चाहता है। ‘भय’ कविता में ओमप्रकाश वाल्मीकि लिखते हैं–
“तुम्हारे हाथ बढ़े होते
मेरी ओर
प्रेम गंध का स्पर्श लेकर
सच कहता हूं
मैं सीने से नहीं
लिपट जाता तुम्हारे कदमों से
बिछ जाता
धूल बनकर जमीन पर”।[8]
दलित वर्ग के भीतर विद्रोह और आक्रोश के स्वर रक्तपिपासू ब्रह्मणवाद के खिलाफ उठते रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि इस समुदाय को आखिर चाहिए क्या था? वह ऐसी भेदभाव और क्रूर व्यवस्था के सामने किन मांगों को लेकर विद्रोही तेवर के साथ खड़ा दिखाई देता है। जवाब है– सिर्फ मनुष्य होने का दर्जा। ‘खामोश आहटें’ कविता में वाल्मीकि ने मनुष्यता के विकास में जरूरी मूलभूत मांगों को इन शब्दों में दर्ज किया है–
“कभी नहीं मांगी बलिश्त भर जगह
नहीं मांगा आधा राज भी
मांगा है सिर्फ न्याय
जीने का हक
थोड़ा-सा आकाश
थोड़ा-सा पीने लायक पानी
थोड़ा-सा सुख
थोड़ा-सा चैन
थोड़ी-सी धूप
थोड़ी-सी हवा
थोड़ी-रोशनी
थोड़ी-सी किताबें
थोड़ा-सा अपनापन”।[9]
मनुष्यता के लिए संवेदना बेहद महत्वपूर्ण भाव है। इसे वाल्मीकि की इस बात से समझा जा सकता है कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने उनको इतना सताया, पीड़ा दी। अछूत समुदाय में जन्म के कारण सामाजिक रूप से मनुवादियों के द्वारा बहिष्कृत हुए। इस उच्चवर्णीय व्यवस्था में जीने की इच्छा उनकी कभी नहीं हुई। वह शुक्रगुजार हैं कि उनका जन्म उच्चवर्णीय मां के गर्भ से नहीं हुआ। यथा–
“अच्छा ही हुआ
मैं नहीं जन्मा
उच्चवर्णीय मां के गर्भ से
होता मैं भी
संवेदनहीन
जड़
परजीवी
फूंकता कान में मंत्र
नवजात शिशु के
जात-पांत के प्रपंच का”।[10]
ओमप्रकाश वाल्मीकि कविता के उद्देश्य को लेकर जागरूक थे। उनका मानना था कि कविता मात्र आनंद, रस और मनोरंजन के लिए नहीं होती। कविता हमें मनुष्यता के निकट ले जाती है और मन में आशा, परिवर्तन के लिए गहरा विश्वास जगाती है। मानवीय दुर्बलताओं के प्रति सचेत करती है। वे लिखते हैं–
“सुबह होने से पहले
मैं तुम्हें बता देना चाहता हूं
कि सुबह आएगी धीरे-धीरे
तेज रोशनी चारों ओर फैलाकर
अंधेरे को उजाले में बदल देगी”।[11]
बहरहाल, ओमप्रकाश वाल्मीकि हिंदू संस्कृति के मुखौटों में छिपे हिंसक, अनैतिक और भेदभाव आधारित क्रूर जाति-व्यवस्था को बेनकाब करते हैं। वे उत्पीड़न और वेदना से उपजे सवालों को अपनी कविताओं में उठाते हैं एवं उनका समाधान आंबडेकरवाद और बुद्धिज्म के रास्ते सुझाते भी हैं। परंतु यह कहना गलत नहीं होगा कि वर्तमान की लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में वैधानिक रोक के बावजूद भेदभावों का जारी रहना राज्य के माथे पर धब्बा है। इक्कीसवीं सदी में भी मुक्ति की कोई राह मनुवादी मानसिकता ने नहीं छोड़ी है। लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताएं बदलाव की आशा तो जगाती ही हैं।
संदर्भ
[1] ओमप्रकाश वाल्मीकि, दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2005, पृ. 38-39
[2] कंवल भारती, दलित कविता का संघर्ष, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, 2012, पृ. 13
[3] ओमप्रकाश वाल्मीकि, दलित साहित्य : अनुभव, संघर्ष एवं यथार्थ, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2020, पृ. 8
[4] ओमप्रकाश वाल्मीकि, अब और नहीं…, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2022, पृ. 9
[5] ओमप्रकाश वाल्मीकि, शब्द झूठ नहीं बोलते, अनामिका प्रकाशन, दिल्ली, 2012, पृ. 64
[6] ओमप्रकाश वाल्मीकि, सदियों का संताप, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2020, पृ. 16
[7] ओमप्रकाश वाल्मीकि, बस्स! बहुत हो चुका, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2012, पृ. 92
[8] वही, पृ. 90
[9] वही, पृ. 61
[10] ओमप्रकाश वाल्मीकि, अब और नहीं…, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2022, पृ. 102
[11] ओमप्रकाश वाल्मीकि, सदियों का संताप, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2020, पृ. 49
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)