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‘प्राचीन भाषाओं और साहित्य के वंशज अपनी ही धरती पर विस्थापन का दंश झेल रहे हैं’

अवार्ड समारोह को संबोधित करते हुए डॉ. दमयंती बेसरा ने कहा कि भाषा ही तय करती है कि कौन इस देश का मूलनिवासी है। आदिवासी भाषाएं प्राकृत और संस्कृत जैसी भाषाओं की जननी हैं। इसलिए आदिवासी लोग धरती के सबसे पुराने लोग हैं। हमारी प्राचीनता असंदिग्ध है। पढ़ें, अटूट संतोष की रिपोर्ट

भाषा हमारी पहचान है और साहित्य हमारी सामुदायिक चेतना की अभिव्यक्ति है। हमें कभी भी नहीं सोचना चाहिए कि हम छोटे या कमजोर लोग हैं। हम आदिवासी ही देश के मूल निवासी हैं। हमसे ही बाकी दुनिया ने सब कुछ सीखा है। हमारी भाषा, संस्कृति और सभ्यता इस धरती पर सबसे पुरानी है। आदिवासी भाषाओं से ही प्राकृत और अन्य भाषाएं निकलीं हैं। ये बातें पद्मश्री डॉ. दमयंती बेसरा ने कहीं। वे गत 30 नवंबर, 2024 को रांची में आयोजित तीसरे जयपाल-जुलियुस-हन्ना अवार्ड समारोह और बहुभाषाई आदिवासी-देशज दुरङ परफॉरमेंस आयोजन में बोल रही थीं। इसका आयोजन प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन ने जमशेदपुर के टाटा स्टील फाउंडेशन के सहयोग से किया था।

इस अवसर पर विनोद मोतीराम आत्राम की ‘हिरवाल मेटा’ (गोंडी), शिखा मिंज की ‘निरदन’ (सादरी) और आलबिनुस हेम्ब्रम की ‘सिरजो़नरे जीवेदो़क’ (संताली) काव्य संग्रहों को पुरस्कृत किया गया। तीनों आदिवासी कवियों को सम्मानित करते हुए पद्मश्री डॉ. दमयंती बेसरा ने कहा कि हमें जागरूक होना चाहिए। हम कभी संपन्न थे और अब विपन्न हो रहे हैं, तो इसका कारण विस्थापन जैसी समस्याएं हैं। उन्होंने कहा कि हमेशा आदिवासी ही विस्थापित क्यों हो? इसका हमें प्रतिकार करना चाहिए।

डॉ. बेसरा ने कहा कि भाषा ही तय करती है कि कौन इस देश का मूलनिवासी है। आदिवासी भाषाएं प्राकृत और संस्कृत जैसी भाषाओं की जननी हैं। इसलिए आदिवासी लोग धरती के सबसे पुराने लोग हैं। हमारी प्राचीनता असंदिग्ध है। उन्होंने अवार्ड विजेताओं को बधाई देते हुए कहा कि युवा लोग मातृभाषाओं में लिख रहे हैं, जो इस बात का प्रमाण है कि आदिवासी भाषा और संस्कृति की विरासत कितनी मजबूत है।

अवार्ड समारोह को संबोधित करतीं पद्मश्री डॉ. दमयंती बेसरा

डॉ. रामदयाल मुंडा जनजातीय शोध संस्थान, रांची के सभागार में आयोजित समारोह की शुरुआत पुरखा स्मरण से हुई। इसके बाद अतिथियों ने नगाड़ा बजाकर समारोह का औपचारिक उद्घाटन किया। प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन की अध्यक्ष ग्लोरिया सोरेङ ने स्वागत करते हुए कहा अवार्ड का उद्देश्य आदिवासी रचनाकारों को एक ऐसा मंच प्रदान करना है, जहां उनकी आवाजें सुनाई दें और उनका सृजनात्मक संघर्ष एक नई ऊंचाई तक पहुंचे। यह अवार्ड केवल सम्मान नहीं है, बल्कि आदिवासी समाज की रचनात्मकता और संघर्षशीलता को पहचान और प्रोत्साहन देने का माध्यम भी है। इस अवसर पर, सबसे पहले मैं अपने पिता, प्यारा केरकेट्टा को याद करती हूं, जिन्होंने हमें इस उपलब्धि तक पहुंचने का मार्ग दिखाया।

सम्मानित आदिवासी साहित्यकारों के साथ पद्मश्री दमयंती बेसरा व वंदना टेटे

सुप्रसिद्ध आदिवासी कवयित्री और प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन की सचिव वंदना टेटे ने अवार्ड और अवार्डियों का परिचय दिया। उन्होंने कहा कि इस अवार्ड की स्थापना हमने 2022 में की। इस अवार्ड को हमने देश के उन आदिवासी अगुओं के नाम पर शुरू किया है, जिन्होंने आदिवासियों की चेतना को ठोस करने में हिरावल भूमिका निभाई है। लोग आदिवासियों को उनके खान-पान, कपड़े, रहन-सहन के आधार पर देखते हैं। पर भाषा हमारे आदिवासियत की नींव है। वाचिक और लिखित साहित्य इसको अभिव्यक्त करता है। आदिवासी समाज अपनी भाषा के बगैर बेजान है। भाषा ही हमारे रचाव और बचाव के सृजन और संघर्ष का मूलाधार है।

सादरी काव्य संग्रह ‘निरदन’ के लिए पुरस्कृत शिखा मिंज ने अपने वक्तव्य में कहा कि हर दिन दुनिया को चाय से ताजगी देने वाले चाय बागान के आदिवासी मजदूरों की हालत बहुत सोचनीय है। वे मात्र 250 रुपए की हाजिरी में खटते हैं। चाय बागान के लोग सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से निम्नतर जिंदगी जीने को बाध्य हैं। अपनी कविताओं में इसे ही लिखती हूं। चाय बागानों में भी लिखने वाले लेखक और साहित्य प्रेमी हैं, लेकिन ऐसा कोई मंच नहीं है जो उनकी रचनात्मकता को स्थान दे, उन्हें प्रोत्साहित करे।

नांदेड़, महाराष्ट्र के गांव से आए गोंडी काव्य संग्रह ‘हिरवाल मेटा’ के लिए पुरस्कार विजेता विनोद मोतीराम ने बताया कि ग्रेजुएशन करने के बाद वे खेती-बाड़ी करते हैं। किसान हैं। कॉलेज की पढ़ाई के दौरान उन्होंने जाना कि साहित्य क्या होता है। वरिष्ठ गोंडी साहित्यकारों के सान्निध्य में आने के बाद उन्होंने मातृभाषा में लिखना शुरू किया। विनोद मोतीराम ने चिंता जाहिर की कि अगर युवा पीढ़ी अपनी भाषा भूल जाएगी तो आदिवासी समाज अपनी पहचान खो देगा।

संताली काव्य संग्रह ‘सिरजो़नरे जीवेदो़क’ के लिए पुरस्कृत होने वाले युवा आलबिनुस हेम्ब्रम ने भी अपने उद्गार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि आज हम सब किसी न किसी रूप में संघर्ष की स्थिति में हैं। अगर मैं लड़ नहीं सकता, तो मैं आदिवासी नहीं हूं, क्योंकि लड़ाई हमने अपने पुरखों से सीखी है। हम लड़ रहे हैं, अपने अस्तित्व, पहचान और अधिकार के लिए। भाषा और साहित्य इस संघर्ष में हमारा सबसे प्रभावी माध्यम है। मातृभाषा ही एक रचनाकार को उसके पुरखौती दर्शन और परंपराओं से जोड़े रखती है। दूसरी कोई भी भाषा में ऐसी ताकत नहीं है।

समारोह को संबोधित करते हुए टाटा स्टील फाउंडेशन के मैनेजर शिवशंकर काड्यांग ने कहा कि उनका संस्थान आदिवासियों की भाषाई विरासत को बचाने के लिए कई तरह की योजनाएं चला रहा है। असम, बंगाल और झारखंड में आदिवासी मातृभाषाओं में शिक्षण के लिए 800 से अधिक केंद्र चलाए जा रहे हैं। एक आदिवासी होने के नाते मैं इस बात को अच्छी तरह से समझता हूं कि भाषा हमारी सभ्यता और संस्कृति का मूल है। हम अपनी भाषाओं में पढ़ेंगे तो तेजी से आगे बढ़ेंगे। भाषा नई पीढ़ी को पुरखों की विरासत से जोड़ती है और उन्हें ज्यादा सक्षम ज्यादा सशक्त बनाती है।

समारोह के दूसरे सत्र में बहुभाषाई आदिवासी-देशज दुरङ परफॉरमेंस का कार्यक्रम हुआ। इसमें झारखंड, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र के 23 कवियों और गीतकारों ने 15 आदिवासी व देशज भाषाओं में कविताओं व गीतों का पाठ किया। इनमें शामिल हैं– असिंता असुर, रोशनी असुर, श्रद्धानंद असुर (असुर); मोनिका सिंह (भूमिज); विष्णु बिरहोड़ (बिरहोड़); बिरजिनिया तेलरा, सामुएल बिरजिया (बिरजिया); विनोद मोतीराम आत्राम (गोंडी); पानी पूर्ति (हो); नीता कुसुम बिलुङ (खड़िया); दिनेश दीनमणि (खोरठा); डॉ. शांति खलखो, रूबी भगत (कुड़ुख); रतन कुमार महतो ‘सत्यार्थी’, डॉ. वृंदावन महतो, गुलांचो कुमारी (कुड़मालि); ललित किशोर नाग, जादु मुण्डा (मुण्डारी); विकी मिंज (नागपुरी); तिलक सिंह मुंडा (पंचपरगनिया); शिखा मिंज (सादरी); लेदेम मार्डी, और आलबिनुस हेम्ब्रम (संताली)। इसके साथ ही कोल्हान से आए ‘हो’ दल, असुर लूर अखड़ा जोभीपाट व लोदम पाट और बिरजिया लूर अखड़ा रांची के बच्चों ने भी गीत-संगीत और नृत्य का आकर्षक प्रदर्शन किया।

समारोह के दौरान जयपाल सिंह मुंडा को समर्पित और आदि धर्म पर स्टोरीटेलर व फिल्न्मकार अश्विनी कुमार पंकज द्वारा बनाए गए दो प्रार्थना गीतों के वीडियो जारी किए गए। अश्विनी कुमार पंकज ने बताया कि इन वीडियो गीत के द्वारा आदिवासी नायकों, इतिहास और संघर्ष को विजुअली पुनर्सृजित करने का प्रयास किया गया है। क्योंकि आदिवासी इतिहास एवं व्यक्तित्व से जुड़े ऑडियो-विजुअल का घोर अभाव है। यहां तक कि 1950-60 के दशक के आदिवासी घटनाओं और शख्सियतों के भी विजुअल नहीं मिलते हैं। दो-चार रेखाचित्र बनाए गए हैं जिनमें आदिवासी कला और सौंदर्य का घोर अभाव है। वहीं आदि धर्म प्रार्थना गीत भी हिंदी में अभी तक पेश नहीं किया गया है। हिंदी में प्रस्तुत इस प्रार्थना गीत को अखिल भारतीय संदर्भ दिया गया है, जो भारत के सभी प्रकृतिधर्मी आदिवासियों के विश्वास को कलात्मक ढंग से नए अंदाज में प्रस्तुत करता है।

अवार्ड सत्र का संचालन शांति सावैयां ने, बहुभाषाई आदिवासी-देशज दुरङ परफॉरमेंस सत्र का संचालन आश्रिता कंडुलना ने और धन्यवाद ज्ञापन सलोमी एक्का ने किया।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अटूट संतोष

बीएड कर रहे रांची के अटूट संतोष एक युवा लेखक हैं। पहले पीएम यंग ऑथर्स फेलोशिप के तहत इनका एक उपन्यास ‘ससनः आजादी के अज्ञात मतवाले मुंडा आदिवासियों की कहानी’ (2022) नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित है। इसके अलावा कुछ लेख और कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में छपी हैं।

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