पटना पुस्तक मेला के कारण पटना का ऐतिहासिक गांधी मैदान गुलजार है। मेला खुलने से लेकर रात में बंद होने तक घुमने वालों की भीड़ लगी रहती है। शनिवार, रविवार और छुट्टी के दिन में मेले में काफी मजमा लगता है। मेले में बड़ी संख्या में प्रकाशक भी अपनी पुस्तक और पाठ्य सामग्री के साथ मौजूद हैं। यह मेला आगामी 17 दिसंबर तक चलेगा।
इस बार पुस्तक मेला का चालीसवां संस्करण है। हर संस्करण में यह मेला समृद्ध होता रहा है। इसका स्वरूप भी बदलता रहा है। चालीसवां संस्करण आते-आते मेला का पूरी तरह कायाकल्प हो गया है। मेले में अब सरकारी स्टॉलों और सरकारी योजनाओं का प्रचार हावी हो गया है। इसे मेले के विस्तार के रूप में देखा जाना चाहिए। स्टॉलों की शृंखला में दो लाइन सिर्फ सरकारी विभागों के प्रचार और विज्ञापन से भरा पड़ा है। इसमें केंद्र और राज्य सरकार के विभागों का कब्जा है। यह इस बात का प्रमाण है कि पुस्तक मेले में पहुंच रही दर्शकों की भीड़ और मजमा के बीच सरकार अपनी योजनाओं को पहुंचाना चाहती है और उस भीड़ के माध्यम से आम लोगों तक पहुंचना चाहती है।
प्रकाशन जगत की त्रासदी है कि इसमें सवर्ण व्यापारियों का कब्जा है। सभी बड़े प्रकाशक सवर्ण हैं और उनका सिस्टम पर प्रभाव भी है। बड़े प्रकाशकों की भीड़ में गैर-सवर्ण जातियों के प्रकाशकों का हस्तक्षेप भी बढ़ने लगा है। लेकिन सवर्ण और गैर-सवर्ण के बीच रेखा खींचना आसान काम नहीं है। बाजार के दबाव में सवर्ण प्रकाशक भी गैर-सवर्ण सरोकारों से जुड़ी पुस्तकें प्रकाशित कर रहे हैं। ऐसी किताबों को ग्राहक भी मिल रहे हैं।
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पुस्तक मेले को दो संदर्भ में देखने की जरूरत है। पहला है ग्राहक और दूसरा है पाठक। जो पाठक हैं, वह मेले में ग्राहक भी बनें जरूरी नहीं है। ठीक वैसे ही जो ग्राहक हैं, वे पाठक भी हों, जरूरी नहीं है। प्रकाशकों की ओर से एक आम शिकायत रहती है कि डिजिटल पब्लिकेशन ने प्रिंट पब्लिकेशन को नुकसान पहुंचाया है। यह भी कह सकते हैं कि मोबाइल की सुलभता ने पुस्तकों को दुर्लभ बना दिया है। अब पुस्तकें डिजिटल प्लेटफार्म से भी बिक रही हैं। संभव है इसका भी असर पुस्तक मेला पर पड़ा हो।
मेले के संदर्भ में डॉ. मुसाफिर बैठा कहते हैं कि मेले की शुरुआत 6 दिसंबर को हुई। यह दिन डॉ. भीमराव आंबेडकर का महापरिनिर्वाण दिवस है। लेकिन इस बड़े संदर्भ और परिप्रेक्ष्य की मेले में अनदेखी की गई है। डॉ. आंबेडकर बहुजन सरोकार के सबसे बड़े नायक हैं। मेले में आने वालों का बड़ा हिस्सा बहुजन पाठक और ग्राहकों का है, लेकिन उनके नायक की अनदेखी करना दुखद है। वे कहते हैं कि डॉ. आंबेडकर की स्मृति और सम्मान में मेले में उद्घाटन के दिन कोई कार्यक्रम रहना चाहिए था, लेकिन नहीं रखा गया। बल्कि दलित संदर्भ का कोई कार्यक्रम ही संभवतः मेले की इस बार की योजना में सम्मिलित नहीं है। डॉ. बैठा कहते हैं कि सहभागिता के ख्याल से भी देखेंगे तो मेला आयोजकों की ओर से निर्धारित कार्यक्रमों में बहुजनों की लगभग शून्य भागीदारी है। अपवाद की बात करें तो कविता पाठ के आयोजनों में मेरे (मुसाफिर बैठा) अलावा एक और नाम शामिल था। मेला का बुक स्टॉल खरीदना दिनों-दिन महंगा हो रहा है। राज्य सरकार के साथ सुर मिलाकर चलने वाला प्रकाशक प्रभात प्रकाशन सबसे ज्यादा क्रेताओं को आकर्षित कर पा रहा है। उन्होंने कहा कि यह हर्ष की बात है कि दिल्ली से आया बौद्ध, दलित, आदिवासी विचारों के पुस्तकों का प्रकाशक और वितरक सम्यक प्रकाशन अच्छी संख्या में खरीददारों को आकर्षित कर रहा है। प्रकाशन के मालिक संदीप बौद्ध इस संबंध में कहते हैं कि बहुजन सरोकार से जुड़ी किताबों की काफी मांग है।
हाजीपुर से आए धर्मेंद्र प्रसाद कहते हैं कि बहुजन साहित्य में फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें लोगों को आकर्षित कर रही हैं। इस स्टॉल पर बहुजन और गैर-सवर्ण सरोकारों से जुड़ी बहुआयामी पुस्तकें उपलब्ध हैं। इसके साथ विशाल पब्लिकेशन की पुस्तकें बहुजनों के संदर्भ का प्रतिनिधित्व कर रही हैं।
पटना के रामेश्वर चौधरी का कहना है कि पुस्तक मेले में आगरा, मेरठ या दिल्ली के प्रकाशकों की संख्या काफी कम है। प्रभात प्रकाशन या वाणी प्रकाशन का पटना में भी बड़ा कारोबार है। इसलिए इसे अब पटना का ही प्रकाशन माना जाना चाहिए। अधिकतर प्रकाशन पटना वाले ही हो गए हैं। वे कहते हैं कि साहित्य के बाजार में गैर-साहित्यिक कारोबार हावी हो गया है। सरकारी प्रचार और खाने-पीने की सामग्री भी खूब बिक रही है। इससे इतर पटना की ही चौधरी माया यादव कहती हैं कि पुस्तक मेला भी बाजार के दबाव से मुक्त नहीं हो सकता है। मेले में प्रकाशकों की संख्या भले घट रही हो, लेकिन खर्च का दायरा बढ़ता जा रहा है। इस खर्चे की भरपाई के लिए नए-नए विकल्पों की तलाश जरूरी हो गई है। इसके लिए सरकारी प्रचार के साथ खाद्य पदार्थों के स्टॉल का सहारा लिया जा रहा है।
जहानाबाद से आये रवींद्र सिंह कहते हैं कि मेले के साहित्यिक और सांस्कृतिक मंच पर सवर्णों का आधिपत्य मेले की शुरुआत से आज तक बना हुआ है। मेले का स्वरूप बदल गया है, सरोकार बदल गया है, लेकिन आयोजनों पर सवर्णों का वर्चस्व यथावत कायम है। इसमें बदलाव की कोई संभावना भी नहीं दिख रही है।
मेले के बहुजन परिप्रेक्ष्य की बात करें तो सांस्कृतिक और साहित्यिक कार्यक्रमों का बहुजनों के संदर्भ से कोई लेना-देना नहीं है। आयोजकों में बहुजनों की भागीदारी नगण्य है। लेकिन पाठक और ग्राहक के रूप में बहुजनों की हिस्सेदारी को नकारा नहीं जा सकता है। ये अपने सरोकार से जुड़ी पुस्तकें भी तलाश रहे हैं और खरीद भी रहे हैं। इसमें बुद्ध और आंबेडकर से जुड़े साहित्य को ज्यादा पंसद किया जा रहा है। पेरियार और जोतीराव फुले पढ़े जा रहे हैं। इस आयोजन को हम दलित-पिछड़ों के संदर्भ में देखें तो कह सकते हैं कि बाजार के दवाब में बहुजन नायकों को सवर्ण प्रकाशन छाप और बेच रहे हैं। लेकिन इस वर्ग के अपने प्रकाशक भी बड़ी संख्या में छोटी-छोटी पहल कर रहे हैं। इस पहल से कई बड़े प्रकाशक भी निकल रहे हैं। पटना पुस्तक मेला बाजार के सरोकार में आत्मालोचना का मौका उपलब्ध कराता है और इस मेले की उपयोगिता भी इसी रूप देखी जानी चाहिए।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)