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वी.टी. राजशेखर : एक बहुजन पत्रकार, जो दलित-बहुजन-मुस्लिम एकता के लिए लड़ते रहे 

राजशेखर की सबसे बड़ी चिंता जाति-आधारित असमानता को समाप्त करने और वंचित वर्गों के बीच एकता स्थापित करने की थी। हालांकि उनकी पत्रिका का नाम ‘दलित वॉयस’ था, लेकिन इसमें दलितों के अलावा आदिवासियों, पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समुदायों के प्रश्नों को प्रमुखता दी गई। पढ़ें, अभय कुमार का यह आलेख

दलितों, आदिवासियों, पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों की सशक्त आवाज़ वी.टी. राजशेखर, अब हमारे बीच नहीं रहे। गत 20 नवंबर को मैंगलोर के एक अस्पताल में उनका निधन हो गया। वे 93 वर्ष के थे। पत्रकारिता के क्षेत्र में उनका अनुभव छह दशकों से भी अधिक का था। वे एक विचारधारा-संपन्न पत्रकार थे और ‘दलित वॉयस’ पत्रिका के संस्थापक और संपादक के रूप में प्रसिद्ध थे।

देश के प्रमुख अंग्रेज़ी समाचार पत्रों में दो दशक तक काम करने के बाद, राजशेखर ने महसूस किया कि ये संस्थाएं केवल ब्राह्मणवादी जातियों के हितों की रक्षा करती हैं। उन्होंने देखा कि मुख्यधारा का मीडिया कमजोर, पीड़ित और उत्पीड़ित वर्गों की समस्याओं को केवल दिखावे के लिए उठाता है। राजशेखर ने व्यक्तिगत रूप से अनुभव किया कि तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया पूरी तरह से उच्च जातियों के प्रभाव में है, जहां दलित, आदिवासी, पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों की समस्याओं के लिए कोई वास्तविक स्थान नहीं है।

यह तथ्य छिपा नहीं है कि दुनिया के ‘सबसे बड़े’ लोकतंत्र का मीडिया अपने देश की सामाजिक विविधता का प्रतिबिंब नहीं बन पाया है। इस देश में कोई दलित या आदिवासी राष्ट्रपति तो बन सकता है, लेकिन किसी राष्ट्रीय अखबार का संपादक नहीं। सत्ताधारी वर्ग भली-भांति जानता है कि मीडिया में उसका हित कौन-सी जातियां साध सकती हैं। सत्ता को यह भी एहसास है कि अखबारों और समाचार चैनलों पर पूर्ण नियंत्रण रखकर ही वह अपने वर्चस्व को बनाए रख सकती है। ये वही कटु सच्चाइयां थीं, जिन्होंने राजशेखर को बहुजन मीडिया के निर्माण और सशक्तिकरण की ओर प्रेरित किया।

कुछ लोग यह गलतफहमी रखते हैं कि वी.टी. राजशेखर का जन्म एक दलित परिवार में हुआ था। मगर सच्चाई यह है कि उनका जन्म 1932 में कर्नाटक के एक शेट्टी समुदाय में हुआ, जो पिछड़ी जाति की श्रेणी में शामिल है। उनके पिता एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी थे, और उनके शुरुआती जीवन में उन्हें जातिगत भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा। हालांकि, जब उन्होंने राष्ट्रीय मीडिया में प्रवेश किया, तो ब्राह्मणवादी व्यवस्था को करीब से देखा। चाहे तथाकथित राष्ट्रीय अंग्रेज़ी समाचार पत्र हों या प्रगतिशील अखबार, हर जगह संपादकीय टीम और प्रबंधन ब्राह्मणवादी व्यवस्था से भरे हुए थे।

अपने कॉलेज के दिनों में राजशेखर मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित थे। वे वर्ग संघर्ष पर जोर देते थे और उन्होंने कपड़ा मिलों के श्रमिकों के बीच काम किया। हालांकि, वे कम्युनिस्ट पार्टी में औपचारिक रूप से शामिल नहीं हुए, लेकिन उनके नेताओं के करीब थे। उनका मानना था कि वर्ग संघर्ष के ज़रिए सामाजिक शोषण से मुक्ति संभव है। लेकिन जब उन्होंने मीडिया और बाहरी दुनिया में ब्राह्मणवादी प्रभुत्व को देखा, तो उनका दृष्टिकोण बदलने लगा। उन्होंने महसूस किया कि भारत में जातिवाद के खिलाफ संघर्ष ही असल वर्ग संघर्ष है।

वी.टी. राजशेखर (1932 – 20 नवंबर, 2024, तस्वीर साभार कन्नड़ वेबसाइट राष्ट्रध्वनि डॉट कॉम)

अपनी एक किताब (इंट्रोड्यूसिंग वी.टी. राजशेखर एंड दलित वॉइस, 2008, पृ.3-4) में इन प्रश्नों पर चर्चा करते हुए राजशेखर कहते हैं कि “वर्ग की मार्क्सवादी अवधारणा भारत के संदर्भ में जाति के अलावा और कुछ नहीं है। जिस तरह सभी उच्च जातियां शासक वर्ग से संबंध रखती हैं, उसी तरह शासक वर्ग के लोग उच्च जातियों से आते हैं। इसलिए, भारत में वर्ग संघर्ष को जाति संघर्ष का रूप लेना होगा।”

धीरे-धीरे राजशेखर कार्ल मार्क्स के विचारों से हटकर डॉ. आंबेडकर, पेरियार और राममनोहर लोहिया के विचारों के करीब आते गए। इसका असर उनके लेखन और विचारों में स्पष्ट रूप से दिखने लगा। उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से दलितों, आदिवासियों, पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों की आवाज़ उठानी शुरू की। लेकिन उनके ये विचार अखबार मालिकों को पसंद नहीं आए, और अंततः उन्हें ‘इंडियन एक्सप्रेस’ से निकाल दिया गया।

हालांकि, उनके पास बड़े अंग्रेज़ी अखबारों में दो दशकों से अधिक का अनुभव था, लेकिन अब ब्राह्मणवादी मीडिया में उनकी कोई कदर नहीं थी। उनके लेख किसी भी बड़े अखबार में प्रकाशित नहीं हो रहे थे। लेकिन शायद यह अंधकार उनके जीवन में एक नई सुबह लाने वाला था।

इस कठिन समय में, मशहूर अंग्रेज़ी लेखक मुल्क राज आनंद ने उनकी मदद की। आनंद ने न केवल उन्हें ‘दलित वॉयस’ नामक पत्रिका प्रकाशित करने का सुझाव दिया, बल्कि उन्हें वित्तीय सहायता भी प्रदान की। इस प्रकार, 1981 में ‘दलित वॉयस’ का पहला अंक प्रकाशित हुआ। यह पत्रिका अंग्रेज़ी में प्रकाशित होती थी, लेकिन इसके लेख अन्य भाषाओं में भी अनुवादित किए जाते थे। सीमित संसाधनों के बावजूद, ‘दलित वॉयस’ न केवल भारत में, बल्कि विदेशों में भी लोकप्रिय हो गई। खासतौर पर मुस्लिम देशों में इसके अंकों का बेसब्री से इंतजार किया जाता था। राजशेखर की यह यात्रा केवल पत्रकारिता का नहीं, बल्कि सामाजिक संघर्ष का एक अमूल्य अध्याय है। उन्होंने अपनी आवाज़ को सशक्त माध्यम बनाकर बहुजन समाज के लिए वह मंच प्रदान किया, जिसकी लंबे समय से जरूरत थी।

राजशेखर की निर्भीक पत्रकारिता और उनकी गहरी राजनीतिक समझ ‘दलित वॉयस’ की सफलता का मुख्य कारण थीं। उन्होंने कभी इस बात की परवाह नहीं की कि उनकी पत्रिका किसे प्रसन्न या अप्रसन्न कर रही है। उनके अल्पसंख्यकों के साथ गहरे और प्रगाढ़ रिश्ते इस तथ्य से साफ झलकते हैं कि ‘दलित वॉयस’ का प्रकाशन एक चर्च द्वारा किया जाता था। लेकिन सांप्रदायिक ताकतों ने चर्च को धमकियां दीं, जिसके कारण चर्च को मजबूर होकर पत्रिका का प्रकाशन रोकना पड़ा। यही नहीं, भगवा संगठनों ने शहर के अन्य प्रिंटिंग प्रेसों को भी डराकर ‘दलित वॉयस’ का प्रकाशन बंद कराने की कोशिश की।

कठिनाइयों और बाधाओं का सामना करते हुए ‘दलित वॉयस’ तीन दशकों तक सफलतापूर्वक प्रकाशित होती रही। भले ही उच्च जातियों की लॉबी ने इसे बदनाम करने और राजशेखर को दबाने के हरसंभव प्रयास किए। उनके खिलाफ ‘हिंदू विरोधी’ और ‘ब्राह्मण विरोधी’ होने का प्रोपेगंडा फैलाया गया। इतना ही नहीं, उन पर कई मुकदमे दर्ज कराए गए। राज्य मशीनरी का दुरुपयोग करते हुए उन्हें गिरफ्तार किया गया, और उनका पासपोर्ट 20 वर्षों के लिए जब्त कर लिया गया ताकि वे विदेश जाकर बहुजनों की आवाज़ न उठा सकें।

राजशेखर बेहद साहसी पत्रकार थे। तमाम मुश्किलों के बावजूद उन्होंने न केवल ‘दलित वॉयस’ का संपादन जारी रखा, बल्कि 100 से अधिक पुस्तकों के माध्यम से बहुजनों के मुद्दों को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाया।

राजशेखर की सबसे बड़ी चिंता जाति-आधारित असमानता को समाप्त करने और वंचित वर्गों के बीच एकता स्थापित करने की थी। हालांकि उनकी पत्रिका का नाम ‘दलित वॉयस’ था, लेकिन इसमें दलितों के अलावा आदिवासियों, पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समुदायों के प्रश्नों को प्रमुखता दी गई। वे समझते थे कि ब्राह्मणवाद से मुक़ाबले के लिए सभी उत्पीड़ित समुदायों को एक साथ आना होगा ताकि भारत में समता पर आधारित एक नया समाज बनाया जा सके। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए, उन्होंने दलितों और मुसलमानों की एकता को अत्यंत महत्वपूर्ण समझा और उन्हें एक मंच पर लाने का भरपूर प्रयास किया। उनका मानना था कि भारत के अधिकांश मुसलमान मूलतः दलित हैं, जिन्होंने जातिगत शोषण से बचने के लिए इस्लाम को अपनाया। उनके शब्दों में, “मुसलमानों की अधिकांश आबादी मूलनिवासी आबादी से धर्मांतरित है, जो ब्राह्मणवादी गुलामी से छुटकारा पाने के लिए इस्लाम में चली गई।” (वही, पृ. 21-22)

उनका विचार था कि दलितों और मुसलमानों के बीच ‘खून का रिश्ता’ है। दोनों समुदायों के खान-पान और जीवनशैली में अद्भुत समानताएं हैं। साथ ही, दोनों जातिगत असमानता के शिकार हैं। राजशेखर इस्लाम को गरीबों और उत्पीड़ितों का धर्म मानते थे। उन्होंने एस.के. बिस्वास की पुस्तक (दलित एंड मुस्लिम एज ब्लड ब्रदर्स, 2008, पृ. 9) की प्रस्तावना में यह विचार स्पष्ट किया। उन्होंने लिखा, “इस्लाम एक इंकलाबी मज़हब है। यह अमीरों का धर्म नहीं है। यह मुख्यतः गरीबों और उत्पीड़ित जनता का धर्म है।”

इस अभियान में राजशेखर के सबसे बड़े समर्थक मौलाना अबुल हसन अली नदवी थे, जिन्होंने बैंगलोर में आयोजित एक कार्यक्रम में ‘दलित वॉयस’ का विमोचन किया था। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष और इस्लाम के बड़े विद्वान मौलाना नदवी ने दलित-मुस्लिम एकता को मजबूत करने के लिए उनका पूरा समर्थन किया। अपनी किताब (मुस्लिम फेल्योर टू एम्ब्रेस दलित्स, 2010, पृ. 17) में राजशेखर ख़ुद इस बात का ज़िक्र करते हैं– “मौलाना अली मियां हमारे अच्छे पुराने दोस्त थे। वह एकमात्र अपवाद थे। वह हमसे जुड़ना चाहते थे लेकिन जल्दी ही उनकी मृत्यु हो गई।”

हालांकि, वी.टी. राजशेखर ने दलित-मुस्लिम एकता को मजबूत करने का प्रयास किया, लेकिन उन्हें इस बात पर गहरा अफसोस था कि शीर्ष मुस्लिम नेतृत्व, जिसमें उलेमा शामिल थे, दलितों को साथ लाने के लिए गंभीर कदम उठाने में असफल रहा। उन्होंने शिकायत की कि उत्पीड़ितों के साथ खड़े होने के इस्लाम के संदेश को मुस्लिम नेतृत्व ने गहराई से नहीं अपनाया। इसके विपरीत, ये नेता ब्राह्मणवादी नेतृत्व के करीब जाने को अधिक उत्सुक दिखे, जबकि दलितों और अपने समाज के गरीब मुसलमानों के प्रति उनकी कोई विशेष रुचि नहीं थी।

राजशेखर ने अपनी बात को मजबूती प्रदान करने के लिए पवित्र ग्रंथ क़ुरान का हवाला दिया और कहा कि शीर्ष पर बैठी 5 प्रतिशत मुस्लिम आबादी अपने धर्म की असली रूह को समझने में असफल रही है। उन्होंने क़ुरान के कई आयतों का ज़िक्र करते हुए कहा कि इस्लाम का पैग़ाम है कि मुसलमान समाज में जो सबसे ज़्यादा कमज़ोर और पीड़ित हैं, उन्हें गले लगाएं और उनके अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ें। उन्होंने मुहम्मद साहब की ज़िंदगी की मिसाल देते हुए कहा कि हज़रत बिलाल (580-640) एक ग़ुलाम थे, मगर पैग़ंबर-ए-इस्लाम ने उन्हें पहला मुअज्जिन चुना और यह शिक्षा दी कि मुसलमानों को पीड़ित लोगों को न सिर्फ़ अपनाना चाहिए बल्कि उन्हें अपना नेता भी बनाना चाहिए।

राजशेखर ने दुनिया के कई हिस्सों में पीड़ित अश्वेत लोगों की बात करते हुए कहा कि उनकी मुक्ति के लिए इस्लाम ने द्वार खोले। मगर उन्हें दुख था कि भारत की मुस्लिम नेतृत्व दलितों की मुक्ति के लिए चिंतित नहीं है। राजशेखर मुस्लिम नेतृत्व से पूछते हैं, “यदि आप स्वीकार करते हैं कि भारत के दलित सबसे अधिक उत्पीड़ित हैं, तो क्या आपने उन्हें अपने मज़हब का ‘संरक्षक’ और ‘नेता’ बनाया है?” फिर वह ख़ुद ही इसका उत्तर देते हैं– “नहीं।” (वही, पृ. 14-15) उन्होंने कहा कि शीर्ष मुस्लिम नेतृत्व को क़ुरान का हुक्म है कि वे पीड़ित और कमजोर (मुस्तज़अफीन) के साथ अच्छा सुलूक करें, जिन्हें धरती पर सताया जा रहा है। मज़लूम तबकों को मुसलमानों को अपनी क़यादत करने के लिए न्योता देना चाहिए। उन्हें गहरा दुख था कि मुस्लिम अमीर ब्राह्मणवादी तरीकों का अनुकरण करते हैं और दलितों के साथ दोस्ती करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते। उन्होंने मुसलमानों को चेतावनी दी कि आज जो कुछ उनके साथ बुरा हो रहा है, वह अल्लाह का क़हर है, क्योंकि उन्होंने पीड़ितों का साथ देने के अपने फ़र्ज़ से मुंह मोड़ लिया है।

राजशेखर ने सांप्रदायिकता के सवालों पर भी खुलकर बात की। उन्होंने यह स्वीकार किया कि कुछ सांप्रदायिक दंगों में ब्राह्मणवादी ताकतों ने मुसलमानों के खिलाफ दलितों और आदिवासियों का इस्तेमाल किया। साथ ही, उन्होंने यह भी कहा कि कई बार ब्राह्मणवादी ताकतें मुसलमानों के धार्मिक स्थलों पर हमला करवाने के लिए दलितों का इस्तेमाल करती हैं। परंतु, उन्होंने मुस्लिम नेतृत्व को इस बात के लिए जिम्मेदार ठहराया कि वे इस साजिश को पहचानने में असफल रहे कि इन तमाम मुस्लिम विरोधी हिंसा के पीछे असली ताकत कौन है। राजशेखर ने उदाहरण देते हुए कहा कि अगर मुसलमानों को पत्थर से चोट लगी है, तो उन्हें पत्थर को दोषी ठहराने की बजाय यह समझना चाहिए कि पत्थर फेंकने वाला कौन है। उन्होंने कहा कि मुस्लिम नेतृत्व यह बात समझने को तैयार नहीं है कि ब्राह्मणवादी ताकतें भूखे दलितों का इस्तेमाल कर रही हैं, और उनका उद्देश्य दलितों और मुसलमानों के बीच फूट डालना है। वे नहीं चाहतीं कि जिनके बीच ‘खून का रिश्ता’ है, वे एक साथ आएं। मुस्लिम नेतृत्व को दलितों को दोष देने की बजाय उनसे दोस्ती करनी चाहिए और उन्हें अपने साथ लाना चाहिए।

राजशेखर ने कहा कि दलितों और मुसलमानों के बीच कोई स्वाभाविक झगड़ा नहीं है। इसलिए उन्होंने मुस्लिम नेतृत्व से आग्रह किया कि वे दलितों को दोषी ठहराने के बजाय पूरे परिप्रेक्ष्य को समझें और उन परिस्थितियों को सुधारने का प्रयास करें, जो दोनों समुदायों के बीच विभाजन पैदा करती हैं।

राजशेखर ने यह स्पष्ट किया दोनों समुदाय उत्पीड़न का शिकार हुए हैं और उनके बीच एकता के रास्ते में जो भी बाधाएं हैं, उन्हें दूर करना दोनों पक्षों की जिम्मेदारी है। उन्होंने विशेष रूप से मुस्लिम नेतृत्व से अपील की कि वे दलितों के साथ एकता स्थापित करें और उत्पीड़ित समाजों को सशक्त बनाने के लिए साझा प्रयास करें। राजशेखर बार-बार जोर देते थे कि वंचित वर्गों के नेताओं का यह कर्तव्य है कि वे दलित-मुस्लिम एकता की राह में आने वाली बाधाओं को दूर करें। उन्होंने मुस्लिम समुदाय के ऊपरी 5 प्रतिशत तबके और धार्मिक नेतृत्व से अपील की कि वे दलितों के साथ एकजुटता बनाने के लिए आगे आएं।

हालांकि यह बात भी महत्वपूर्ण है कि एकता की कोशिशें दलित नेतृत्व की ओर से भी होनी चाहिए। दलित नेतृत्व की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वे मुसलमानों के साथ सहयोग करें और त्वरित लाभ के लिए ब्राह्मणवादी पार्टियों के जाल में न फंसें। सांप्रदायिक शक्तियों के उभार के बाद मुसलमानों पर हमले तेज़ हो गए हैं। यही वह समय है जब दलित नेतृत्व को मुसलमानों के साथ एकजुटता दिखाते हुए सामने आना चाहिए और यह स्पष्ट संदेश देना चाहिए कि बाबासाहेब आंबेडकर के अनुयायी किसी भी प्रकार की सांप्रदायिक राजनीति और अल्पसंख्यक विरोधी हमले को बर्दाश्त नहीं करेंगे। बाबासाहेब आंबेडकर ने स्वयं पूरी ज़िंदगी अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया, और उनकी लोकतंत्र की परिकल्पना अल्पसंख्यक अधिकारों के बिना अधूरी है। इसके बावजूद, मुसलमानों के बीच यह धारणा पाई जाती है कि दलित राजनीतिक पार्टियां मुस्लिम मुद्दों पर उतनी तत्परता नहीं दिखातीं, जितना बाबासाहेब का संदेश उन्हें सिखाता है।

आज सांप्रदायिकता के इस माहौल में वंचित तबकों को आपस में लड़ाने की एक बड़ी साज़िश रची जा रही है। इसलिए, वंचित वर्गों को अपनी कमजोरियों को दूर करते हुए और पुराने गिले-शिकवे भुलाते हुए संकट की इस घड़ी में अभूतपूर्व एकता का प्रदर्शन करना चाहिए। साथ ही यह समझना चाहिए कि सांप्रदायिकता से किसे लाभ होता है और किसका हक़ मारा जाता है।

राजशेखर का उद्देश्य ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक बड़ा मोर्चा खोलना था। उन्हें लगता था कि ब्राह्मणवादी ताकतें मुस्लिम विरोधी माहौल खड़ा करके दलितों को अपने पाले में ला रही हैं और उनका इस्तेमाल सांप्रदायिकता फैलाने में कर रही हैं। इसलिए राजशेखर मानते थे कि जब तक दलित और मुसलमान एक साथ नहीं आते, भारत में क्रांतिकारी परिवर्तन संभव नहीं है। उन्होंने तीस वर्षों तक अपने इस मिशन को जारी रखा। वे न केवल ‘दलित वॉयस’ के पन्नों पर दलित-मुस्लिम एकता की बात लिखते रहे, बल्कि देश के कई हिस्सों में जाकर मुस्लिम नेतृत्व का ध्यान इस मुद्दे पर आकर्षित किया।

राजशेखर के विचारों में एक बड़ा सवाल यह भी था कि क्या दलित और मुस्लिम एकता की बात करने से बेहतर यह नहीं है कि हम सभी धर्मों के दलितों के बीच एकता की बात करें। पसमांदा विमर्श ऐसे सवाल बार-बार उठाता है कि मुस्लिम समाज को एक ‘मोनोलिथ’ समाज समझने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। मुस्लिम समाज में अशराफ जातिया, जो संख्या में कम हैं, अक्सर मुस्लिम नेतृत्व को अपनी जेब में रखती हैं और दलित तथा पिछड़ी जातियों के मुसलमानों को नेतृत्व में आने से रोकती हैं। इसीलिए, यह बेहतर है कि एकजुटता पिछड़ेपन के आधार पर हो।

हालांकि, राजशेखर अपनी लेखनी में शीर्ष मुस्लिम नेताओं से काफी निराश थे और अशराफ जातियों की कमियों को उजागर करते थे। कुछ अशराफ साथी यह सवाल उठाते हैं कि जब राज्य का दमन मुस्लिम पहचान पर इतना बढ़ गया है, तो क्या मुसलमानों को अशराफ और पसमांदा में बांटना उचित है? यह सवाल महत्वपूर्ण है, क्योंकि मुसलमान आज हर तरफ़ अपनी धार्मिक पहचान के आधार पर भेदभाव और हिंसा का शिकार हो रहे हैं। लेकिन क्या इस वजह से मुस्लिम समाज के भीतर जाति, वर्ग, लिंग और भाषा के आधार पर व्याप्त असमानता को नजरअंदाज किया जाना चाहिए?

राजशेखर के सवालों को उठाने का साहस किसी और पत्रकार में नहीं था। वे सच्चे मायनों में बहुजन विचारधारा की निर्भीकता के प्रतीक थे। उनके जीवन और पत्रकारिता का संदेश स्पष्ट है कि सत्ताधारी जातियों और वर्गों के साथ समझौता करने से वंचित समाज का भला नहीं हो सकता। क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए कठिन और साहसिक रास्ता ही एकमात्र विकल्प है। उन्होंने दिखाया कि असमानता और उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष में दृढ़ता और एकता आवश्यक है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

अभय कुमार

जेएनयू, नई दिल्ली से पीएचडी अभय कुमार संप्रति सम-सामयिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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