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छत्तीसगढ़ में दलित ईसाई को दफनाने का सवाल : ‘हिंदू’ आदिवासियों के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट

मृतक के परिजनों को ईसाई होने के कारण धार्मिक भेदभाव और गांव में सामाजिक तथा आर्थिक बहिष्कार का सामना करना पड़ रहा है। जबकि पीड़ित दलित ईसाई परिवार तीन पीढ़ियों से ईसाई धर्म को मानता रहा है। उसके पूर्वजों को भी उसी गांव के कब्रिस्तान में दफ़नाया गया था। बता रहे हैं डिग्री प्रसाद चौहान

यह कोई कहानी नहीं, बल्कि तीन सप्ताह से अधिक समय तक दफ़नाने के लिए दो गज जमीन हेतु तीन पीढ़ियों की आस्था और पार्थिव शरीर की संघर्ष यात्रा की सच्ची घटना है, जिसकी गूंज बीते 27 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट में भी सुनाई दी। फिर उसी दिन शासन-प्रशासन ने मृतक के परिजनों पर दबाव डालकर पार्थिव शरीर को मृतक के गांव से करीब 45 किलोमीटर दूर करकापाल में दफन करवा दिया।

धर्म आधारित भेदभाव का यह मामला छत्तीसगढ़ के अनुसूचित जनजातियों के लिए अधिसूचित क्षेत्र बस्तर संभाग के जगदलपुर जिले के दरभा थाने में अवस्थित छिंदावाड़ा गांव का है। ग्राम सभा ने पुरातन रूढ़ि-प्रथागत सामाजिक व्यवस्था का हवाला देते हुए गैर-हिंदू (दलित ईसाई) मृतक के पार्थिव शरीर को गांव की सीमा क्षेत्र में दफ़नाने से रोक लगा दी। 

सवाल है कि क्या यहां के आदिवासी स्वयं को हिंदू और दलित व ईसाईयों को पराया मानने लगे हैं?

सनद रहे कि एक दलित ईसाई व्यक्ति सुभाष बघेल की मृत्यु बीते 7 जनवरी को हुई थी। उनके बेटे रमेश बघेल उन्हें गांव के कब्रिस्तान में दफनाने की कोशिश कर रहे थे। गांव की रूढ़ि व प्रथा के परंपरागत संरक्षक ग्राम सभा ने गांव के सार्वजनिक कब्रगाह में शव को दफनाने की मनाही का फरमान सुना दिया। इसके विरोध में 9 जनवरी को मृतक के बेटे ने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। उसी दिन हुई सुनवाई में छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने कहा कि “गांव में दफ़नाने से बड़े पैमाने पर जनता में अशांति और वैमनस्य पैदा हो सकता है।” और उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता को अपने पिता को करकापाल के कब्रिस्तान में दफ़नाने को कहा। इसके बाद पीड़ित ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में रमेश बघेल बनाम छत्तीसगढ़ राज्य और अन्य के रूप में दर्ज है।

अपीलकर्ता के मृत पिता के अंतिम संस्कार स्थल के बारे में सर्वोच्च न्यायलय के न्यायाधीशों की युगल पीठ के सदस्यों के बीच सहमति नहीं बन सकी। बीते 27 जनवरी को सुनाए गए फैसले में जस्टिस बी.वी. नागरत्ना की राय इसके पक्ष में थी कि मृतक के पार्थिव शरीर को गांव के सार्वजनिक कब्रगाह में दफन किया जाय। जबकि जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा ने कहा कि मृतक के पार्थिव शरीर को केवल ईसाइयों के लिए निर्धारित क्षेत्र में ही दफ़न किया जा सकता है। इसके बाद पीठ ने 7 जनवरी से शव के शवगृह में पड़े होने के कारण विवाद को एक बड़ी पीठ के पास भेजने से परहेज किया और सर्वसम्मति से निर्देश पारित करने का विकल्प चुना कि शव को करकापाल गांव में ईसाइयों के लिए निर्धारित स्थान पर दफनाया जाए, जो याचिकाकर्ता के पैतृक स्थान से लगभग 20-25 किलोमीटर दूर है।

लेकिन स्थानीय जानकारों के मुताबिक़ सुप्रीम कोर्ट ने राज्य शासन के जिस हलफनामे पर आंख बंदकर यकीन किया है, वह कथित रूप से चिह्नित कब्रगाह और मृतक के मूल निवास स्थान के बीच की दूरी संबंधी तथ्य वास्तविकता से परे है। मृतक के गांव से करकापाल की दूरी लगभग 45 किलोमीटर है और वहां ईसाई कब्रगाह के रूप में कोई जगह सरकारी अभिलेखों में दर्ज नहीं है।

मृतक के गांव छिंदावाड़ा स्थित कब्रगाह में दफन उसके एक पूर्वज की कब्र

 क्या यह सवाल नहीं उठता है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशद्वय तथ्यों को समझने में चूक गए हैं? इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट के दोनों न्यायाधीशों ने अपने निर्णय में कहा है कि राज्यों को ईसाईयों के लिए चिह्नित कर पृथक कब्रिस्तान का निर्धारण करना चाहिए। जाहिर तौर पर इसका असर राष्ट्रव्यापी होगा।

दरअसल, इस निर्णय से हिंदू राष्ट्र के संरचना में गैर-हिंदू धर्मावलंबियों तथा हाशियाकृत समुदायों को दोयम दर्जे की नागरिकता पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की विचारधारा को बल मिलेगा। इस फैसले में देश के तमाम प्रशासकीय निकायों में देश के लोगों को उन सभी के जाति, धर्म, संप्रदाय और लिंग के अनुरूप आम निस्तार के लिए छह हज़ार से अधिक जातियों, अनेकानेक धर्मों और संप्रदायों के लिए पृथक-पृथक शवदाह गृह, कब्रगाह, स्कूल, कालेज, सड़क, अस्पताल तथा उत्पादन और पेशा व रोजगार को अलग-अलग चिह्नित किए जाने का बीज छुपा है। इससे देश में भयंकर रूप से अलगाववाद का विस्तार होगा।

तथ्य यह है कि मृतक के परिजनों को ईसाई होने के कारण धार्मिक भेदभाव और गांव में सामाजिक तथा आर्थिक बहिष्कार का सामना करना पड़ रहा है। जबकि पीड़ित दलित ईसाई परिवार तीन पीढ़ियों से ईसाई धर्म को मानता रहा है। उसके पूर्वजों को भी उसी गांव के कब्रिस्तान में दफ़नाया गया था।

बीते 27 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद शासन-प्रशासन के दबाव में अपने गांव से करीब 45 किलोमीटर दूर करकापाल में मृतक के पार्थिव शरीर को दफन करते परिजन
 बीते 27 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद शासन-प्रशासन के दबाव में अपने गांव से करीब 45 किलोमीटर दूर करकापाल में मृतक के पार्थिव शरीर को दफन करते परिजन

स्थानीय ग्रामसभा ने यह कहते हुए विरोध किया कि गांव के कब्रिस्तान का इस्तेमाल केवल हिंदू आदिवासियों के लिए किया जा सकता है, ईसाईयों के लिए नहीं। छिंदावाड़ा में घटित उक्त घटना आर्यकालीन बर्बर सामाजिक-व्यवस्था के अनुरूप पारंपरिक रूप से गांव की सत्ता द्वारा गैर हिंदू-धर्मों तथा उनकी उपासना पद्धतियों पर प्रतिबंध लगाने वाले शासनादेशों तथा समाज में हाशियाकृत समुदायों एवं उनके दफ़्न शवों को कब्रिस्तानों से निकालकर गांव सीमा से बाहर फेंके जाने की अनगिनत घटनाओं में से एक है। इन तमाम घटनाओं की जड़ में रूढ़िगत पारंपरिक व्यवस्था के आधार पर गठित ग्रामसभा को बताया जा रहा है, जिसका गठन ग्राम गणराज्य को पुनर्स्थापित करने के निहितार्थ को आधार देने के मकसद से देश व प्रदेश में लागू पेसा कानून के नियम के तहत किया गया है। जबकि पेसा अधिनियम भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 के उपबंध 1 और 2 का उल्लंघन नहीं करता है, जिसके अनुसार–

(1) राज्य किसी भी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा।

(2) कोई भी नागरिक केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर निम्नलिखित के संबंध में किसी निर्योग्यता, दायित्व, प्रतिबंध या शर्त के अधीन नहीं होगा–

(क) दुकानों, सार्वजनिक रेस्तरां, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों तक पहुंच; या

(ख) कुओं, तालाबों, स्नानघाटों, सड़कों और सार्वजनिक समागम स्थलों का उपयोग, जो पूर्णतः या आंशिक रूप से राज्य निधि से बनाए गए हों या आम जनता के उपयोग के लिए समर्पित हों।

लेकिन पेसा अधिनियम की आड़ में अधिसूचित क्षेत्रों में परंपरागत ग्राम सभाओं द्वारा दलितों, आदिवासियों और गैर-हिंदू धर्मावलंबियों को विशेष लक्ष्य करते हुये जीवन के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है। उन्हें सार्वजनिक वितरण प्रणाली, उनके बच्चों को स्कूलों में दाखिला, जन्म-मृत्यु तथा जाति एवं सामाजिक प्रास्थिति संबंधी दस्तावेजों तक पहुंच से दूर किया जा रहा है ताकि सरकार द्वारा संचालित लोक कल्याण योजनाओं से उन्हें वंचित किया जा सके।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि आम और औसत भारतीय समाज की धुरी ही जन्मगत जाति और लिंग आधारित भेदभाव पर टिकी है। भारत का प्रत्येक गांव एक उच्चवर्णीय साम्राज्य है, जो कि ऊंच-नीच और भेदभाव पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के अभेद्य किले हैं। करीब 76 वर्षों पहले हमारे पूर्वजों ने अपने कबीलाई व्यवस्था से आगे बढ़कर एक लोकतांत्रिक राष्ट्र व राज्य की अवधारणा को आत्मसात करते हुये भारत के संविधान को जीवन का हिस्सा बनाया था। यह बड़ी विडंबना है कि आर्ययुगीन सामाजिक मान्यताओं के अवशेष आज भी देश के सर्वोच्च न्यायालय में कुंडली मारकर काबिज़ हैं और ‘सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने’ के नाम पर इस देश में अन्यायपूर्ण अलगाववाद थोपने की कोशिश कर रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट का उपरोक्त फैसला धर्म और समुदाय विशेष के लिए पृथक निस्तार के नाम पर गैर-हिंदू धर्मावलंबियों तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों को और अधिक हाशियाकृत और लुप्तप्राय बना देगा।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

डिग्री प्रसाद चौहान

लेखक छत्तीसगढ़ में जाति विरोधी आंदोलनों में एक सक्रिय कार्यकर्ता तथा छत्तीसगढ़ पीयूसीएल का निवर्तमान अध्यक्ष हैं

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