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दिल्ली विधानसभा चुनाव : हर पार्टी की नज़र दलित वोटरों पर

सत्तर सदस्यीय दिल्ली विधानसभा में 12 सीटें अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित हैं। लेकिन दिल्ली की 16.75 प्रतिशत फीसदी से ज़्यादा आबादी इन 12 सीटों तक महदूद नहीं है। पढ़ें, सैयद जैगम मुर्तज़ा का यह विश्लेषण

दिल्ली में इस बार विधानसभा के चुनाव रोचक होने जा रहे हैं। दस साल से ज़्यादा सत्ता में रही आम आदमी पार्टी को पहली बार सत्ता विरोधी माहौल का सामना करना पड़ रहा है। इतने ही अरसे से सत्ता से बाहर रही कांग्रेस सत्ता विरोधी वोटों को अपने साथ लामबंद करने की कोशिश में है। इन दोनों की लड़ाई में भाजपा को उम्मीद है कि इस बार पार्टी बेहतर प्रदर्शन कर पाएगी। लेकिन सत्ता में वापसी के लिए तीनों ही पार्टियों की उम्मीदें दलित वोटरों पर टिकी हैं।

सत्ता अगर शक्ति हासिल करने का खेल है तो दिल्ली सरकार इस मामले में नगर निगम से भी कमज़ोर नज़र आती है। दिल्ली में शक्तियों के बंटवारे को लेकर पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह के विवाद हुए हैं, उसे देखकर लगता है कि सरकार लेफ्टिनेंट गवर्नर चलाते हैं। बड़े फैसले लेने पर चुनी हुई सरकार और केंद्र द्वारा नियुक्त किए गए एलजी के बीच विवाद सही मायने में अदालतें भी तय नहीं कर पाई हैं। दिल्ली में चुनी हुई सरकार की शक्तियां लगातार कम हुई हैं। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में पुलिस प्रशासन के अलावा भी कई अन्य विभाग हैं, जिनके अफसर मुख्यमंत्री की सुनते तक नहीं हैं। 

लेकिन इसके बावजूद दिल्ली में सत्ता पाने के लिए तमाम बड़ी पार्टियां पूरा ज़ोर लगा रही हैं। इसकी एक वजह है कि दिल्ली में सत्ता का मतलब सिर्फ प्रशासनिक शक्तियां हासिल करना या फैसले लेने का अधिकार पाना नहीं है। दिल्ली में सत्ता का मतलब है चर्चा में लगातार बने रहना।

दिल्ली चूंकि राष्ट्रीय राजधानी है तो हर समय मीडिया की नज़र में रहती है। यहां घटने वाली हर घटना पर देश भर की नज़र रहती है। यहां से देश के किसी भी कोने में सियासी और सामाजिक संदेश पहुंचा पाना आसान है। दिल्ली में सरकार भले ही शक्तिविहीन है, लेकिन यहां सत्तासीन दल अक्सर राष्ट्रीय राजनीति का एजेंडा तय करता है। दिल्ली की घटनाएं कई बार देश की राजनीतिक दिशा तय कर देती हैं। दिल्ली में महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दों पर हमने केंद्र की सरकार बदलते देखा है। 

अरविंद केजरीवाल के लिए आसान नहीं इस बार जीत की राह

कुल मिलाकर दिल्ली एक बड़ा मंच है जिसे कोई खोना नहीं चाहता। हालांकि यहां पर पिछले दो चुनाव तक़रीबन एकतरफा ही हुए हैं, लेकिन इस बार हालात थोड़े बदले हुए हैं। जिस भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के मुद्दे पर आम आदमी पार्टी का जन्म हुआ था वो अब देश की सियासत में मुद्दा ही नहीं बचा है। राफेल विमान डील, बड़े उद्योगपतियों को नाजायज़ फायदा पहुंचाने, इलेक्टोरल बॉन्ड समेत तमाम मुद्दे हैं, लेकिन इनमें कोई भी जनता को प्रभावित करता नज़र नहीं आ रहा। 

शायद जनता ने मान लिया है कि भ्रष्टाचार उसकी नियति है। इससे भी बड़ी बात है कि आम आदमी पार्टी समेत कोई भी दल भ्रष्टाचार के मसले पर नैतिक पक्षकार होने का दावा करने की हालत में नहीं है।

ख़ुद आम आदमी पार्टी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर मुंह खोलने की हालत में नहीं है। पूर्व मुख्यमंत्री और पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल समेत पार्टी के कई बड़े नेता घोटालों में जेल यात्रा कर आए हैं। इस बीच भाजपा पर करप्शन धोने वाली वाशिंग मशीन होने का ठप्पा लग चुका है। कांग्रेस अब भले ही शुचिता की बात करे, मगर उसके अतीत का झोला बहुत भारी है। 

मतलब यह कि दिल्ली में चुनाव के आयाम बदल चुके हैं। तक़रीबन सभी दलों को उस स्कीम से उम्मीदें हैं जो सही मायने में वोटरों को प्रभावित करने की रिश्वत ही कही जाएगी। दिल्ली में आम आदमी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सत्ता की दावेदार हैं। तीनों के ही पास एक-एक स्कीम है। भाजपा लाडली बहना योजना के सहारे है, कांग्रेस सीधे महिला लाभार्थी के खाते में पैसे भेजने की न्याय योजना के सहारे है। आम आदमी पार्टी ने मुख्यमंत्री महिला सम्मान योजना के तहत 2100 रुपए प्रतिमाह देने का ऐलान किया है। सीधे तौर पर यह सभी महिलाओं को फायदा पहुंचाने की योजनाएं नज़र आती हैं। लेकिन अगर ग़ौर से देखा जाए तो इनके निशाने पर ग़रीब वोटर हैं। इनमें भी मुख्य ज़ोर दलित, पिछड़ी और मुसलमान महिलाओं को प्रभावित करना है।

यह तय है कि इस बार भी दिल्ली में सत्ता की चाबी दलित वोटरों के हाथ में है। अगर तीनों मुख्य पार्टियों के एजेंडा और अभी तक की बयानबाज़ी पर ग़ौर करें तो साफ नज़र आता है कि सभी को दलित वोटरों से आस है। इसकी कई वजहें हैं। एक तो 70 सदस्यीय दिल्ली विधानसभा में 12 सीटें अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित हैं। लेकिन दिल्ली की 16.75 प्रतिशत फीसदी से ज़्यादा आबादी इन 12 सीटों तक महदूद नहीं है। सामान्य सीटों में भी कम से कम 25 सीट ऐसी हैं, जहां दलित वोटर मुसलमान और दूसरे जातीय समूहों के साथ मिलकर नतीजा तय करते हैं। हालांकि देखने में ओबीसी, पूर्वांचली और पंजाबी वोटरों का दबदबा नज़र आता है, लेकिन दिल्ली में असली खेल दलित और मुसलमान ही मिलकर तय करते हैं। लेकिन सवाल यह है कि दलित आख़िर इस बार किसकी तरफ हैं?

दिल्ली में दलित वोटरों का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस को मिलता रहा है। कांग्रेस से नाराज़ होकर इन वोटरों का रुख़ भाजपा की तरफ मुड़ जाता था। वर्ष 2013 के विधान सभा चुनाव तक बहुजन समाज पार्टी भी दिल्ली में अच्छे ख़ासे वोट पा जाती थी। लेकिन अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद उभरी आम आदमी पार्टी 2013 के बाद से ही दलित वोटरों को अपने पाले में रख पाने में कामयाब रही है। अगर आरक्षित सीटों के नतीजों पर ही नज़र डालें तो बात बहुत हद तक साफ हो जाती है। 2008 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने 12 आरक्षित सीटों में से 9 पर जीत हासिल की थी। इस चुनाव में 2 सीटें भाजपा और एक अन्य के खाते में गई थीं। लेकिन 2013 में दलित वोटर नई बनी आम आदमी पार्टी की तरफ चले गए। पार्टी को 9 सीट पर जीत मिली जबकि कांग्रेस 12 में से एक भी सीट नहीं जीत पाई। 2015 और 2020 में हुए विधान सभा चुनावों में आम आदमी पार्टी ने 12 की 12 आरक्षित सीटों पर जीत हासिल की।

इनके अलावा बाबरपुर, घोंडा, शाहदरा, पटपड़गंज, कालकाजी, तुग़लकाबाद, मालवीय नगर, संगम विहार, पालम, नजफगढ़, द्वारका, जनकपुरी, वज़ीरपुर, तीमारपुर और मुंडका जैसी सीटों पर आम आदमी पार्टी की जीत में दलित वोटरों ने अहम भूमिका निभाई थी। इस बार भी पार्टी को उम्मीद है कि दलित वोटर उसके साथ रहेंगे। लेकिन दिल्ली में कई बार बड़ी और दबंग जातियों का समर्थन दलित वोटरों का रुख़ तय करता है। दलित वोटरों का एक बड़ा तबक़ा लोकसभा चुनावों में भाजपा की तरफ चला जाता है। दिल्ली की सात लोकसभा सीटों पर हुए पिछले तीन चुनावों से यह बात साफ हो जाती है। वर्ष 2014 के बाद से लगातार भाजपा दिल्ली में एक भी लोकसभा सीट नहीं हारी है। लेकिन विधान सभा और नगर निगम चुनाव में यही वोटर आम आदमी पार्टी की तरफ लौट आता है। कांग्रेस को उम्मीद है कि इस चुनाव में वो मुसलमान, दलित और सिख वोटरों के सहारे वापसी कर सकती है। दूसरी तरफ भाजपा की उम्मीदें सवर्ण, पंजाबी और जाट, गूजर समेत कुछ ओबीसी जातियों पर टिकी हैं।

अगर कांग्रेस मज़बूती से चुनाव लड़ती है तो दिल्ली का चुनाव दिलचस्प होने जा रहा है। लेकिन यह तभी होगा जब दलित और मुसलमान आम आदमी पार्टी से मुंह मोड़ें। ऐसा हुआ तो दिल्ली में त्रिशंकु विधानसभा भी हो सकती है। हालांकि यह अभी अनुमान ही है, क्योंकि वोटिंग होने तक दिल्ली का चुनाव अभी कई रंग बदलेगा।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में जन्मे सैयद ज़ैग़़म मुर्तज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन और मॉस कम्यूनिकेशन में परास्नातक किया है। वे फिल्हाल दिल्ली में बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य कर रहे हैं। उनके लेख विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिका और न्यूज़ पोर्टलों पर प्रकाशित होते रहे हैं।

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