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डायन प्रथा के उन्मूलन के लिए बहुआयामी प्रयास आवश्यक

आज एक ऐसे व्यापक केंद्रीय कानून की जरूरत है, जो डायन प्रथा को अपराध घोषित करे और दोषियों को कड़ी सज़ा मिलना सुनिश्चित करे। यदि विभिन्न समुदायों को आवश्यक स्वास्थ्य सुविधाएं मिलेंगी तो इससे ओझाओं का प्रभाव कम होगा और झारखंड में महिलाओं को डायन घोषित करने की कुप्रथा में कमी आएगी। बता रहे हैं मो. तबरेज़ आलम

डायन प्रथा की जड़ें अंधविश्वास और पितृसत्तात्मकता में हैं। कानूनी रोकों के बावजूद यह बर्बर प्रथा अब भी झारखंड में जिंदा है। यद्यपि इस प्रथा की मुख्य शिकार महिलाएं होती हैं – विशेषकर बुजुर्ग, अकेली रहनी वाली और हाशियाकृत समुदायों की महिलाएं – मगर इससे उनके परिवारों के पुरुष सदस्य और रिश्तेदार भी प्रभावित होते हैं। डायन प्रथा की पीड़िताओं को अक्सर आपदाओं या दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार ठहरा दिया जाता है जैसे फसल बर्बाद हो जाना, किसी रोग का फैलना, या परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु। इस तरह के आरोप अक्सर व्यक्तिगत दुश्मनी के चलते लगाए जाते हैं, जिसमें ज़मीन संबंधी या अन्य विवाद शामिल होते हैं। गांवों में ओझा होते हैं, जिनका यह दावा होता है कि वे डायन को पहचान सकते हैं। इस प्रथा के बने रहने का एक कारण ओझाओं की उपस्थिति भी है। हालांकि झारखंड सहित कई राज्यों ने डायन प्रथा पर रोक लगाने के लिए कानून बनाए हैं, मगर इन कानूनों को ठीक से लागू नहीं किया गया है। स्थानीय समुदायों में जागरूकता का अभाव है और वे इस प्रथा का विरोध नहीं करते। इसके अलावा, डायन प्रथा के बेरोकटोक जारी रहने के पीछे आदिवासी समुदायों के मुखियाओं सहित अन्य प्रभावशाली लोग भी हैं।

गहरी असमानता का लक्षण

जिन महिलाओं पर जादू-टोना करने का आरोप लगाया जाता है, उन्हें समाज में भारी बदनामी और हिंसा का सामना करना पड़ता है। उन पर शारीरिक अत्याचार होते हैं, उन्हें सार्वजनिक रूप से अपमानित किया जाता है और कभी-कभी उनकी हत्या भी कर दी जाती है। इन महिलाओं का उनके समुदाय के लोग बहिष्कार करते हैं, उन्हें अकेले जीना पड़ता है और उनके खिलाफ भयावह हिंसा की जाती है, जिसमें मारपीट, यौन हमला व चेहरे और शरीर का विरूपण शामिल है। इस कुप्रथा का शिकार मुख्यतः आदिवासियों और दलितों जैसे सामाजिक दृष्टि से हाशियाकृत समुदायों की महिलाएं होती हैं। ये महिलाएं पहले से ही शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं और आर्थिक संसाधनों की कमी से जूझ रही होती हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं के अनुसार अकेले झारखंड में हर साल 40-50 महिलाओं को डायन बताकर मार डाला जाता है। जादू-टोने के खिलाफ झारखंड सहित कई राज्यों में कानून हैं, मगर इन कानूनों को लागू करने वाली एजेंसियां इस सामाजिक कुप्रथा से निपटने में विफल रही हैं।

अतीत में जड़ें

ऐतिहासिक अभिलेख बताते हैं कि ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के पहले भी डायन प्रथा वि़द्यमान थी। ईर्ष्या अथवा जमीन से जुड़े विवादों की वजह से या अचानक किसी आपदा के आने के बहाने व्यक्तियों, विशेषकर महिलाओं पर जादू-टोना करने का आरोप लगाना आम था। समय के साथ पितृसत्तात्मक सामाजिक सोच ने इस प्रथा को अपना लिया। यह सोच महिलाओं – विशेषकर बुजुर्ग, विधवा व नि:संतान विधवा महिलाओं – को समुदाय पर बोझ मानती थी। इस तरह की महिलाओं पर जादू-टोना करने का आरोप लगाना बहुत आसान था। कई क्षेत्रों में डायन प्रथा ने संस्थागत स्वरूप अख्तियार लिया। वहां ओझाओं को यह जिम्मेदारी दी गई कि वे डायनों की पहचान करें और यह तय करें कि उनका इलाज किस तरह से हो। और यह इलाज अक्सर हिंसक हुआ करता था।

कानूनी प्रावधानों के बेहतर क्रियान्वयन की ज़रूरत

डायन प्रथा पर रोक लगाने के लिए कई कानून हैं, लेकिन उन पर ठीक से अमल नहीं हो रहा है। बिहार सरकार ने 1999 में डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम बनाया था, जिसे कुछ परिवर्तनों के साथ 2001 में झारखंड में भी लागू कर दिया गया। मगर कई पुलिस अधिकारी इन कानूनों से वाकिफ नहीं हैं या उन्हें इसे लागू करने के तरीके में प्रशिक्षण नहीं दिया गया है। इसके अलावा, दकियानूसी सोच और स्थानीय नेताओं के प्रभाव में समुदायों द्वारा इन कानूनों को लागू करने की कोशिश का विरोध किया जाता है। गैर-कानूनी होने के बावजूद ओझाओं का ग्रामीण क्षेत्रों में गहरा प्रभाव है और वे जो आरोप लगाते हैं, उन्हें पत्थर की लकीर माना जाता है। सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा लंबे समय से ज्यादा कड़े कानूनी कदम उठाए जाने की मांग की जाती रही है। इनमें शामिल हैं डायन प्रथा को बनाए रखने में उनकी भूमिका के लिए ओझाओं एवं आदिवासी मुखियाओं को जिम्मेदार ठहराया जाना। इसके अलावा, एक व्यापक राष्ट्रीय कानून की ज़रूरत भी है, जो डायन प्रथा को अपराध घोषित करे और दोषियों को कड़ी सज़ा मिलना सुनिश्चित करे। साथ ही पीड़ितों के पुनर्वास, उन्हें मुआवजा दिए जाने और उनके मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल के लिए मज़बूत तंत्र विकसित किया जाना आवश्यक है। इससे इस अपराध के पीड़ितों को राहत दी जा सकेगी।

डायन प्रथा के प्रकरणों में चिंताजनक वृद्धि

राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट में यह चौंका देने वाली जानकारी दी गई है, कि सन् 2000 से लेकर अब तक देशभर में डायन होने का आरोप लगाकर 2,500 महिलाओं की हत्या हो चुकी है। ‘क्राइम इन इंडिया’ रिपोर्ट 2022 के अनुसार अकेले 2022 में देश भर में डायन प्रथा से संबंधित 85 हत्याएं हुईं। इस प्रथा से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्यों में झारखंड, उड़ीसा, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ शामिल हैं। डायन प्रथा संबंधी हत्याओं की संख्या की दृष्टि से सन् 2022 में झारखंड तीसरे नंबर पर था। उस साल झारखंड में 11 ऐसी हत्याएं हुईं। उसके पिछले साल वहां इस तरह के तीन प्रकरण हुए थे। स्पष्टतः 2022 में ऐसे मामलों में बहुत तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई। उसी वर्ष छत्तीसगढ़ में ऐसे 25 और मध्य प्रदेश में 20 मामले हुए।

सामाजिक-आर्थिक व सांस्कृतिक कारक

बिहार में ‘निरंतर ट्रस्ट’ द्वारा 2023-24 में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम 1999 – जिसका उद्देश्य डायन प्रथा संबंधी हिंसा को नियंत्रित करना था – के बावजूद बिहार में कम-से-कम 75,000 महिलाओं को इस डर के साये में जीना पड़ता है कि उन्हें कभी भी डायन घोषित किया जा सकता है। डायन होने का आरोप जिन महिलाओं पर लगाया गया, उनमें से 97 फीसदी दलित, पिछड़ी या अति-पिछड़ी जातियों से थीं। इसके अलावा, 75 प्रतिशत पीड़िताओं की उम्र 46 से 66 वर्ष के बीच थी और उनमें से कई आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर और अशिक्षित थीं। इस सर्वेक्षण से यह भी सामने आया कि इन महिलाओं को न्याय हासिल करने में किस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यह अत्यंत चौंकाने वाला तथ्य है कि केवल 31 प्रतिशत पीड़िताओं ने अपनी आपबीती की शिकायत अधिकारियों से की और जिन महिलाओं ने शिकायत की, उनमें से 62 प्रतिशत की शिकायतों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।

इसके अलावा, सर्वेक्षण से यह भी सामने आया कि ग्रामीण इलाकों के नेता डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम के बारे में नहीं जानते हैं। सर्वे में शामिल नेताओं में से 85 प्रतिशत इस कानून से अनभिज्ञ थे। इन निष्कर्षों से यह साफ है कि गरीबी और अशिक्षा जैसे समाजिक-आर्थिक कारक महिलाओं को डायन घोषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ग्रामीण इलाकों – जहां शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच सीमित है – में डायन प्रथा आसानी से फैलती है।

स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव एवं पारंपरिक चिकित्सकों की भूमिका

‘इंडियास्पेन्ड’ ऑनलाइन डेटा पत्रिका द्वारा 2020 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, विशेषकर झारखंड में, डायन प्रथा को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। झारखंड की 75.95 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती हैं। वहां रहने वाले लोगों की गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा सेवाओं तक पहुंच अत्यंत ही सीमित है। इन समुदायों में ओझाओं व अन्य झोलाछाप डाक्टरों से इलाज करवाना आम बात है। ये चिकित्सक, जिनसे मामूली रोगों का इलाज करवाया जाता है, अक्सर लोगों में व्याप्त अंधविश्वास का लाभ उठाते हुए किसी व्यक्ति की बीमारी या मौत के लिए किसी महिला के डायन होने को जिम्मेदार ठहरा देते हैं। स्वास्थ्य सेवाओं की कमी और ओझाओं पर निर्भरता के कारण कमज़ोर वर्ग की महिलाओं पर हमेशा खतरा मंडराता रहता है।

पलामू, झारखंड में डायन प्रथा के विरूद्ध प्रदर्शन करते बच्चे (छाया: मो. तबरेज़ आलम)

झारखंड में डायन प्रथा के प्रकरणों का अध्ययन

झारखंड के कई प्रकरण डायन प्रथा के बर्बर और क्रूर चेहरे से हमें परिचित कराते हैं। मसलन, रांची के मांडर थाना क्षेत्र के कंजिया नामक गांव में 7 अगस्त, 2015 को पांच महिलाओं की हत्या इसलिए कर दी गई, क्योंकि ऐसा शक था कि वे जादू-टोना करती हैं। बाद में यह पता चला कि ये महिलाएं अपने गांव में शराबखोरी के खिलाफ अभियान चला रही थीं और शायद उनकी हत्या इसलिए की गई थी, ताकि उनका मुंह बंद किया जा सके। रांची जिले में ही एक अन्य मामले में इटकी थाना के मलटी गांव की 60 साल की बासो उरांव की जून, 2023 में यह आरोप लगाकर हत्या कर दी गई कि वह 14 साल के एक लड़के की मौत के लिए जिम्मेदार है। दिसंबर, 2022 में झारखंड के गिरिडीह जिले के बंधाबाद गांव में शांति देवी नाम की महिला को उसके घर से घसीटकर बाहर निकाला गया और एक भीड़ ने उस पर डायन होने का आरोप लगाकर उसकी पिटाई की। उसे गांव में बीमारियों और मौतों के लिए दोषी ठहराया गया।

डायन प्रथा पर रोक में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की भूमिका

अगर डायन प्रथा को जड़ से समाप्त किया जाना है तो इसके लिए बहुआयामी प्रयास किए जाने होंगे। इनमें शामिल हैं शिक्षा व स्वास्थ्य एवं सामाजिक सेवाओं तक बेहतर पहुंच। उड़ीसा के राज्य महिला आयोग द्वारा किए गए अध्ययन से यह सामने आया है कि महिलाओं पर डायन होने का आरोप लगाने के 27 प्रतिशत प्रकरणों का संबंध बच्चों और 43.5 प्रतिशत का बड़ों की बीमारियों से था। जाहिर है कि अगर ग्रामीण क्षेत्रों में पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध होंगी तो ओझाओं का प्रभाव कम होगा और डायन घोषित किए जाने की घटनाओं में भी कमी आएगी। इसके अलावा, विशेषकर ग्रामीण एवं आदिवासी इलाकों में, यौन एवं प्रजनन संबंधी स्वास्थ्य सुविधाओं की बेहतर उपलब्धता से प्रजनन से जुड़ी समस्याओं के मामले में पारपंरिक चिकित्सकों पर निर्भरता कम होगी। इसके अलावा लोगों को स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के बारे में शिक्षित करने एवं अंधविश्वासों का खंडन करने से भी डायन प्रथा से मुकाबला करने में मदद मिलेगी और महिलाओं पर डायन होने का आरोप लगने की घटनाओं में कमी आएगी।

कानूनी प्रावधान और उन पर अमल 

विभिन्न राज्यों में बिहार और झारखंड के डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम जैसे कानूनों – जो डायन प्रथा को अपराध घोषित करते हैं – के होने के बाद भी डायन प्रथा संबंधी हिंसा में कमी नहीं आई है। ‘पार्टनर्स फॉर लॉ एंड डेवलपमेंट’ नामक संस्था द्वारा किए गए एक अध्ययन में यह सामने आया कि पीड़ितों को पर्याप्त मुआवज़ा नहीं मिलता है। पुलिस और प्रशासन डायन प्रथा से जुड़े मामलों में तब तक दखल नहीं देते जब तक किसी की हत्या न हुई हो। इससे भी यह समस्या और गंभीर हुई है। चूंकि सरकार द्वारा इस तरह के मामलों में अपनी ओर से हस्तक्षेप नहीं किया जाता है, इसलिए अपराधी अपना काम बिना किसी डर के करते रहते हैं। कई मामलों में कानूनी जटिलताओं से बचने के लिए अधिकारी दोनों पक्षों में समझौता करवाते का प्रयास करते हैं, जिससे पीड़ितों को न्याय नहीं मिल पाता।

डायन प्रथा से संबंद्ध अपराधों से निपटने के लिए भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 323 (जानबूझकर किसी व्यक्ति को चोट पहुंचाना) व 295ए (धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए जानबूझकर कोई कृत्य करना) का प्रयोग किया जाता है। मगर ये कानून डायन प्रथा पर रोक लगाने में अप्रभावी हैं, क्योंकि उनमें इस प्रथा के सामाजिक और सांस्कृतिक आयामों के बारे में कोई कुछ भी नहीं कहा गया है। भारतीय न्याय संहिता-2023 के बारे में भी यही बात सच है।

झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़ और ओड़िशा के अपने-अपने कानून हैं। झारखंड एवं बिहार का डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम सीधे-सीधे डायन प्रथा को अपराध घोषित करता है। मगर इसे प्रभावी ढंग से लागू करने में काफी चुनौतियां हैं। असम में और कड़ा कानून है, जिसके अंतर्गत किसी महिला पर डायन होने का आरोप लगाने वाले को आजीवन कारावास और 5 लाख रुपए के जुर्माने तक की सज़ा हो सकती है। वहीं कर्नाटक में 2013 में अंधविश्वास से जनित आचरण का निषेध करने वाला कानून केवल डायन प्रथा तक सीमित नहीं है और वह इसके साथ-साथ अन्य नुकसानदेह अंधविश्वासों का भी निषेध करता है। राजस्थान महिला (अत्याचार निषेध व सुरक्षा) अधिनियम 2006 किसी महिला को डायन बताने या उस पर जादू-टोना करने का आरोप लगाने को अपराध घोषित करता है और दोषी के लिए तीन साल तक के कारावास और 5000 रुपए जुर्माने का प्रावधान करता है। मगर विभिन्न राज्यों के कानूनों में अंतर के कारण डायन प्रथा से संबंधित हिंसा पर रोक लगाने में कठिनाइयां पेश आ रही हैं।

सन् 2021 में झारखंड में राज्य सरकार द्वारा डायन प्रथा के उन्मूलन और उसके पीड़ितों के पुनर्वास के लिए ‘गरिमा’ नाम से एक कार्यक्रम शुरू किया गया। इसके अंतर्गत, डायन घोषित कर दी गई महिलाओं की काउंसलिंग, उन्हें किसी कौशल में प्रशिक्षित करने के उपरांत उनका पुनर्वास किया जाता है। डायन प्रथा के उन्मूलन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कानून बनाने के प्रयास अतीत में हुए हैं, लेकिन अब इस दिशा में कोई पहल नहीं की जा रही है। सन् 2003 में संसद में वीमेन एंड गर्ल्स (प्रिवेंशन ऑफ़ स्ट्रिपिंग, टीजिंग, मोलेस्टेशन, ब्रांडिंग एज विचेस, एंड ऑफरिंग एज देवदासीस) विधेयक प्रस्तुत किया गया था, लेकिन बाद मे उसे वापस ले लिया गया। इसी तरह, 2016 में डायन प्रथा से निपटने के लिए संसद में एक विधेयक प्रस्तुत किया गया, मगर वह आगे नहीं बढ़ सका। राष्ट्रीय स्तर पर एकमत होकर इस मामले में कोई कदम न उठाया जाना, इस कुप्रथा को समाप्त करने की राह में एक बड़ी चुनौती है।

आगे की राह

भारत में अब भी डायन प्रथा गहरी जड़ों वाली एक सामाजिक-सांस्कृतिक समस्या बनी हुई है, विशेषकर ग्रामीण इलाकों में। और इससे सबसे अधिक पीड़ित हैं हाशियाकृत महिलाएं। बेशक, इस प्रथा के खिलाफ कानून हैं, मगर अंधविश्वास, लैंगिक असमानताओं और सामाजिक-आर्थिक असमानताओं के चलते महिलाओं को निशाना बनाया जाना जारी है। डायन प्रथा के उन्मूलन के लिए बहुआयामी प्रयास ज़रूरी हैं। कानूनों में सुधार होने चाहिए, सामुदायिक जागरूकता कार्यक्रम चलाये जाने चाहिए और इस समस्या की जड़ों तक पहुंचा जाना चाहिए, जिनमें पितृसत्तामकता, शिक्षा का अभाव और आर्थिक वंचना शामिल हैं।

डायन प्रथा से मुकाबले के लिए किसी भी व्यापक रणनीति को कानूनी प्रावधानों से आगे जाना होगा। इसमें स्वास्थ्य सेवाओं तक बेहतर पहुंच, शिक्षा और सामुदायिक भागीदारी शामिल हैं। वर्तमान में उपलब्ध कानूनों का कड़ाई से और सतत क्रियान्वयन किया जाना चाहिए और डायनों को ‘खोजने वालों’ के खिलाफ कार्रवाई में विफल रहने वाले अधिकारियों की जवाबदेही सुनिश्चित की जानी चाहिए। इसके अलावा, स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच बढ़ाने और पारंपरिक चिकित्सकों को आजीविका कमाने के वैकल्पिक साधन उपलब्ध करवाने से अंधविश्वास से जनित कुप्रथाओं पर रोक लग सकती है। गरिमा जैसे कार्यक्रम, जो जागरूकता और मानसिक स्वास्थ्य पर केंद्रित हैं, पीड़ितों की सामाजिक और मनोवैज्ञानिक ज़रूरतों को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

इन प्रयासों के अलावा, विभिन्न जनकल्याण कार्यक्रमों एवं राष्ट्रीय स्तर पर जागरूकता अभियानों जैसे लिंग आधारित हिंसा के विरुद्ध राष्ट्रीय अभियान एवं संकल्प-100 डेज कैंपेन ने भी लैंगिक हिंसा व कमज़ोर वर्ग के महिलाओं को सहारा देने में झारखंड में अहम् भूमिका अदा की है। इस तरह की पहल, समाज का दृष्टिकोण को बदलने, आम लोगों में कानून की जानकारी बढ़ाने और महिलाओं को अपनी बात कहने के लिए मंच उपलब्ध करवाने की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। राज्य स्तर पर ‘मईंया सम्मान’ योजना ने डायन प्रथा की पीड़ितों को आर्थिक सम्बल उपलब्ध करवाकर उनकी ज़रूरतों को पूरा करने और उन्हें आर्थिक दृष्टि से सशक्त किया है। सामाजिक सुरक्षा और सामुदायिक शिक्षा प्रदान करने के इस तरह के कार्यकम, कानूनी ढांचे के पूरक होते हैं और ज़मीनी स्तर पर इस कुप्रथा से निपटने में सहायक हैं। सरकार, नागरिक समाज और स्थानीय समुदायों के सहयोग से इस क्रूर प्रथा का उन्मूलन संभव हो सकता है और हम एक ऐसे समाज का निर्माण कर सकते हैं, जिसमें महिलाओं को अंधविश्वास और सामाजिक बहिष्करण के चलते प्रताड़ित न किया जाए। हमें चाहिए कि हम भारत के सभी हिस्सों में महिलाओं के अधिकारों की रक्षा और उनकी सुरक्षा के लिए मिलजुल कर त्वरित कदम उठाएं। 

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(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

मो. तबरेज आलम

झारखंड के गिरिडीह जिले के डॉ. मो. तबरेज़ आलम को हाल में नई दिल्ली स्थित इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ दलित स्टडीज ने पीएचडी की उपाधि प्रदान की है। वे मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद से एमफिल एवं राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय से सामाजिक कार्य में स्नातकोत्तर हैं। आलम 'राइजिंग ट्री' के महासचिव और 'सोशल वर्क्स कलेक्टिव्स' के सह-संस्थापक हैं। उनकी एक पुस्तक 'मुस्लिम्स एज अनइक्वल: ए सोशियो-इकनोमिक स्टडी ऑफ़ झारखंड' (लैप लैबर्ट अकेडमिक पब्लिशिंग) एवं कई शोध प्रबंध प्रकाशित हैं।

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