भारत में सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को ऊपर उठाने के लिए सकारात्मक कार्यवाही के तौर पर प्रतिनिधित्व का सिद्धांत लागू किया गया, जिसे आरक्षण के नाम से जाना जाता है। आरक्षण के इतिहास, स्वतंत्र भारत में आरक्षण व्यवस्था, आरक्षण बचाने हेतु प्रथम संविधान संशोधन, दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने के संबंध में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के विचार उसकी शुरुआत से अब तक निरंतर बदलते रहे हैं। इससे उसकी कथनी और करनी में अंतर देखा जा सकता है।
आरक्षण का संक्षिप्त इतिहास
भारतीय उपमहाद्वीप में विशेषकर हिंदू सनातन धार्मिक व्यवस्था में जन्म के आधार पर जाति की मौजूदगी के प्रमाण हज़ारों साल पुराने हैं, जिसे प्रारंभ में वर्ण-व्यवस्था कहा जाता था। इस व्यवस्था को और प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए जाति की महीन सरंचना बनाई गई और उसे तथाकथित पवित्र धर्मशास्त्रों में मान्यता दी गई। ऐसे ग्रंथ लिखे गए जो वर्ण व जाति के अनुसार व्यवसाय, संसाधनों तक पहुंच तथा ऊंच-नीच तथा श्रेष्ठता व निकृष्टता स्थापित करने लगे। बहुसंख्यक आबादी को अधिकारविहीन और संसाधनविहीन बनाकर न केवल ग़ुलाम बना लिया गया, बल्कि उनको देखना और छूना तक पाप की श्रेणी में रख दिया गया। हज़ारों वर्षों तक शिक्षा, संपत्ति और राजसत्ता पर उच्चवर्णीय हिंदुओं का एकतरफ़ा क़ब्ज़ा रहा। जाति वर्ण आधारित भेदभाव, शोषण, अन्याय व अत्याचार की यह अमानवीय प्रथा अंग्रेजों के भारत में राज क़ायम करने तक यथावत रही। उन्नीसवीं सदी में शिक्षा तक अछूतों, शूद्रों और औरतों की कुछ पहुंच बनी। उनको फ़ौज में शामिल होने का मौक़ा मिला और ज़मीन पर पांव टिकाने की मोहलत मिली तो उन्हें अपने मानव होने का अहसास हुआ और आगे चलकर अपने मानवधिकारों के लिए संघर्ष किये।
वर्तमान के आरक्षण जैसी व्यवस्था के सिद्धांत को भारत जैसे जातिवादी देश में लाने का श्रेय अंग्रेजों को जाता है। उसे लागू करने का काम सबसे पहले कोल्हापुर के राजा छत्रपति शाहूजी महाराज ने किया, जिन्होंने सन् 1902 में अपने राज्य में पचास फ़ीसदी राजकीय पद शूद्रों के लिए आरक्षित कर दिया था। इसके बाद मद्रास प्रेसीडेंसी सहित अन्य स्थानों पर भी यह प्रयोग हुए तथा सरकारी पदों पर ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती मिली। विधान मंडलों और अन्य निर्वाचित मंडलों में अछूतों को आरक्षण गांधी-आंबेडकर पूना करार के बाद अस्तित्व में आया। जबकि मद्रास प्रांत के निर्वाचित मंडलों में गैर-ब्राह्मणों के लिए आरक्षण 1920 में ही अस्तित्व में आ गया था। आज़ाद भारत में संविधान में यह व्यवस्था की गई कि शिक्षा व सरकारी नियुक्तियों तथा लोकसभा व विधानसभाओं में अनुसूचित जाति व जनजाति को उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण दिया जाएगा। इस संबंध में संविधान के अनुच्छेद 15(4) व अनुच्छेद 29(2) का उल्लेख ज़रूरी है, जो यह कहता है कि कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिये या अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिये विशेष उपबंध करने से नहीं रोकेगी। इसी तरह संविधान का अनुच्छेद 16(4), 46 और 335, 15(4) भी दलित, आदिवासी व पिछड़े वर्गों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने का वादा करते हैं। संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 को संशोधित करके 103वें संविधान संशोधन अधिनियम-2019 को लागू किया गया जिसके कारण सवर्ण ग़रीबों (ईडब्ल्यूएस) को भी आरक्षण दिया गया।
इस तरह हम पाते हैं कि अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति वर्गों को सन् 1950 में संविधान लागू होने के साथ ही आरक्षण हासिल हो गया था। वर्ष 1990 में मंडल आयोग की एक सिफ़ारिश लागू की गई, जिसके तहत अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) को केंद्रीय सरकार की नौकरियों में 27 फ़ीसदी आरक्षण दिया गया। इसके बाद वर्ष 2006 में तत्कालीन डॉ. मनमोहन सिंह सरकार ने उच्च शिक्षण संस्थानों में दाखिले और नियुक्तियों में ओबीसी के लिए आरक्षण लागू किया। यह सामाजिक न्याय के लिए चले लंबे आंदोलन का परिणाम था। लेकिन सन् 2019 में केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने बिना किसी मांग या आंदोलन के आनन फ़ानन में सवर्ण ग़रीबों को दस फ़ीसदी आरक्षण दे दिया। इस प्रकार देखें तो दलित ईसाईयों को छोड़कर अब लगभग सभी जाति धर्मों के लोगों को किसी न किसी रूप में आरक्षण मिल रहा है।
आरएसएस और आरक्षण
सन् 1925 में नागपुर में ब्राह्मण किशोरों को इकट्ठा करके डॉ. के.बी. हेडगेवार ने एक हिंदू राष्ट्रवादी संगठन जरीपट्टका मंडल स्थापित किया, जो बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बना और इस वर्ष उसकी स्थापना को सौ साल पूरे होने जा रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ – जिसे उसके सदस्य संघ कहते हैं और बाहर के लोग आरएसएस के नाम से जानते हैं – अपनी स्थापना काल से ही कट्टरपंथी सनातनी मान्यताओं का संगठन रहा है। उसने हिंदू सनातनियों की वर्ण व जाति की विषम व्यवस्था को कभी भी चुनौती नहीं दी। सदैव ही उसने ब्राह्मण वर्चस्व को हिंदुत्व के आवरण में आगे बढ़ाया और दलित-पिछड़ों के लिए संविधान प्रदत्त विशेष अधिकारों का विरोध किया। हालांकि अब उसका शीर्ष नेतृत्व बार-बार यह दावा करता है कि संघ अपने जन्म से ही सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों को आरक्षण दिए जाने का समर्थक रहा है। लेकिन क्या आरएसएस का यह दावा सच्चाई के क़रीब है?
आरएसएस के आरक्षण का ‘पुरजोर समर्थक’ होने की बात करते हुए संगठन के सह-सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने 11 अगस्त, 2021 को कहा कि यह सकारात्मक कार्रवाई का जरिया है और जब तक समाज का एक खास वर्ग ‘असमानता’ का अनुभव करता है, तब तक इसे जारी रखा जाना चाहिए। आरक्षण की बात करते हुए होसबाले ने स्पष्ट रूप से कहा कि वह और उनका संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आरक्षण के पुरजोर समर्थक हैं। उन्होंने कहा कि “सामाजिक सौहार्द और सामाजिक न्याय हमारे लिए राजनीतिक रणनीतियां नहीं हैं और ये दोनों हमारे लिए आस्था की वस्तु हैं।” होसबाले ने कहा कि “जब हम समाज के अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्गों के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करते हैं तो निश्चित रूप से आरक्षण जैसे कुछ पहलू सामने आते हैं। मेरा संगठन और मैं दशकों से आरक्षण के प्रबल समर्थक हैं। जब कई परिसरों में आरक्षण विरोधी प्रदर्शन हो रहे थे, तब हमने पटना में आरक्षण के समर्थन में एक प्रस्ताव पारित किया और एक संगोष्ठी आयोजित की थी।”[1]
विगत 28 अप्रैल, 2024 को हैदराबाद के एक कार्यक्रम में मोहन भागवत ने कहा कि संघ ने कभी भी कुछ खास वर्गों को दिए जाने वाले आरक्षण का विरोध नहीं किया है। उन्होंने कहा, “संघ का मानना है कि जब तक जरूरत है, आरक्षण जारी रहना चाहिए।”[2] आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत का दावा है कि “संविधान सम्मत सभी आरक्षणों को संघ का पूरा समर्थन है, सामाजिक विषमता दूर करने के लिए संविधान में जितना, जहां आरक्षण दिया गया है, उसको संघ का पूरा समर्थन है और रहेगा। आरक्षण कब तक चलेगा, इसका निर्णय जिनके लिए आरक्षण दिया गया है, वही करेंगे। उनको जब लगेगा कि अब हमको इसकी आवश्यकता नहीं है, तब फिर देखेंगे, लेकिन तब तक इसको जारी रहना चाहिए। ऐसा संघ का बहुत सुविचारित मत है और तबसे है जबसे यह प्रश्न चर्चा में आया। उसमें बदलाव नहीं हुआ है।”[3]
भागवत का यह बयान 17-19 सितंबर, 2018 को विज्ञान भवन, दिल्ली में आयोजित व्याख्यान के दौरान पूछे गए सवाल के जवाब के रूप में सामने आया, जिसमें उन्होंने दावा किया कि आरएसएस सदैव ही आरक्षण की नीति का समर्थक रहा है। हम आजकल यह अकसर देखते हैं कि आरएसएस के नेता विभिन्न मंचों से यह बात बार-बार कहते हैं कि संघ कभी भी आरक्षण का विरोधी नहीं रहा है। संघ का यह बहुत सुविचारित मत है, उसमें बदलाव नहीं हुआ है। लेकिन क्या वाक़ई आरएसएस का आरक्षण पर यह सदैव से सुविचारित मत रहा है? तथ्य इसकी पुष्टि नहीं करते।
हम जानते हैं कि आरएसएस जाति व वर्ण आधारित सामाजिक व्यवस्था का समर्थक, संविधान का विरोधी और आरक्षण के ख़िलाफ़ रहा है। सबसे पहले हमें 1932 के पूना पैक्ट और उसके बाद अस्तित्व में आए राजनीतिक आरक्षण पर ध्यान देना होगा, जिस पर तत्कालीन संघ प्रमुख केशव बलिराम हेडगेवार ने चुप्पी साधे रखी।
आरक्षण पर आरएसएस का आधिकारिक बयान संघ के मुख्य विचारक और दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवलकर के विचारों में मिलता है। गोलवलकर लिखते हैं– “डॉ. आंबेडकर ने अनुसूचित जाति के विशेषाधिकार का प्रावधान सन् 1950 में हमारे गणतंत्र की स्थापना से मात्र दस वर्ष की अवधि के लिए किया था, परंतु इसे निरंतर बढ़ाया जा रहा है। केवल जातिगत आधार पर अनवरत विशेषाधिकार उनमें पृथक बने रहने के निहित स्वार्थ भाव जगाने को बाध्य होंगे। इस कारण शेष समाज के साथ उनकी एकात्मकता को क्षति पहुंचेगी। अतः यह उचित होगा कि विशेषाधिकार लोगों की आर्थिक स्थिति पर आधारित हो। इससे समस्या जनित तनाव कम होंगे और दूसरे लोगों के मन की यह जलन भी दूर होगी कि केवल तथाकथित हरिजन ही विशेषाधिकारों का मज़ा लूट रहे हैं।”[4]
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संघ के सरसंघचालक और विचारक गोलवलकर एक मिथ गढ़ रहे हैं कि अनुसूचित जाति को विशेषाधिकार (आरक्षण) सिर्फ़ दस वर्षों के लिए था, जिसको निरंतर बढ़ाया जा रहा है। जबकि राजनीतिक प्रतिनिधित्व में दस वर्ष के उपरांत समीक्षा की बात की गई है, न कि शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण पर। लेकिन गोलवलकर दलितों को संविधान प्रदत्त अधिकारों को विशेषाधिकार कह कर उसके बारे में अफ़वाह फैला कर जनमानस को आरक्षण के विरुद्ध भड़का रहे हैं। दूसरी बात यह है कि वे आरक्षण के आधार पिछड़ापन को बदल कर आर्थिक स्थिति पर आधारित करना चाहते हैं। यह थी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आरक्षण को लेकर शुरुआती आधिकारिक सोच, जिस पर आरएसएस 1980 के दशक तक क़ायम रहा। गोलवलकर की भाषा पर भी गौर किया जाना चाहिए। वे कहते हैं, “केवल तथाकथित हरिजन ही विशेषाधिकारों का मजा लूट रहे हैं।” आरक्षण समता के सिद्धांत की स्थापना के लिए किया गया विधिक उपचार है, लेकिन गोलवलकर को लगता है कि दलित आरक्षण का मजा लूट कर आनंद ले रहे हैं। उनकी हजारों वर्षों की पीड़ा का कोई अहसास संघ के दूसरे प्रमुख के शब्दों में नहीं झलकता, बल्कि उपहास का भाव ही ज्यादा नजर आता है। आरक्षण को समानता के सिद्धांत के विरुद्ध बताने वाले उच्चतम न्यायालय के आदेश का भी हवाला संघ के पदाधिकारी व विचारक अपने भाषणों व आलेखों में देते रहे हैं। उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरक्षण के ख़िलाफ़ दिए गए इस निर्णय को पहले संविधान संशोधन के ज़रिए बदला गया था।
पहला संविधान संशोधन और आरएसएस
संविधान को लागू होने के मात्र चौदह महीने बाद ही विभिन्न उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों ने संवैधानिक संकट की स्थिति पैदा कर दी। स्वतंत्र भारत के सामाजिक न्याय के एजेंडे को चुनौती मिलने लगी। भूमि सुधार, ज़मींदारी उन्मूलन, उद्योगों का राष्ट्रीयकरण, रोज़गार और शिक्षा में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण आदि के कारण जहां एक ओर वंचित तबकों को न्याय मिलने की आस जगी तो दूसरी ओर इन मामलों में आए न्यायपालिका के निर्णयों ने उनमें हताशा का माहौल पैदा कर दिया। मद्रास हाईकोर्ट ने शिक्षा संस्थानों में जाति के आधार पर आरक्षण देने वाले आदेश को ख़ारिज करते हुए कहा कि यदि ऐसे आदेशों को संवैधानिक माना गया तो जाति, वर्ग, नस्ल और भाषाई आधार पर भेदभाव को रोकने वाला अनुच्छेद 15(1) अप्रभावी हो जाएगा। इस निर्णय के विरुद्ध तत्कालीन तमिलनाडु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। तब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस हीरालाल जे. कानिया, जस्टिस सुधीर रंजन दास, जस्टिस फज़ल अली, जस्टिस एम. पतंजलि शास्त्री, जस्टिस मेहर चंद महाजन, जस्टिस विवियन बोस और जस्टिस बी.के. मुखर्जी की संविधान पीठ ने शिक्षा संस्थानों में आरक्षण के साथ हीi सरकारी नौकरियों में समुदाय के आधार पर आरक्षण को भी निरस्त कर दिया।
स्वतंत्र भारत में जब से आरक्षण की संवैधानिक नीति अपनाई गई है, तब से इसका विरोध सवर्ण हिंदुओं की तरफ़ से किया जा रहा है। हालांकि संविधान का अनुच्छेद 16(4) स्पष्ट रूप से कहता है– “इस अनुच्छेद की कोई भी बात राज्य को पिछड़े नागरिकों के किसी भी वर्ग के पक्ष में जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिए उपबंध करने से नहीं रोकेगी।” लेकिन उपरोक्त चंपकम दोराय राजन बनाम मद्रास राज्य मामले का न्यायालय से फ़ैसला आया कि आरक्षण का प्रावधान मूल अधिकार का उल्लंघन है। तत्कालीन केंद्र सरकार को संसद के ज़रिए पहला संविधान संशोधन करके अनुच्छेद 15(4) जोड़ना पड़ा, जिससे यह अर्थ निकलकर सामने आया कि सरकार द्वारा सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए विशेष प्रावधान करना किसी भी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं है।[5]
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संवैधानिक अवरोधों को हटाने के उद्देश्य से 12 मई, 1951 को संसद में संविधान (प्रथम संशोधन) विधेयक पेश किया गया। जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार कानून सहित कई कानूनों को संविधान की नवीं सूची में शामिल करने के अलावा इस विधेयक का एक उद्देश्य आरक्षण के अधिकार के लिए संविधान में ऐसा प्रावधान करना था ताकि मौलिक अधिकारों के संरक्षण के नाम पर इससे छेड़छाड़ न किया जा सके। इस प्रथम संविधान संशोधन विधेयक की व्यापक आलोचना की गई। हिंदुत्ववादी राजनीति करने वाले श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने इस विधेयक पर हमला बोलते हुए इसे संविधान के मौलिक सिद्धांतों की जड़ें काटने जैसा कहा। ऐसे ही हृदय नाथ कुंजरु के भाई गोपीनाथ कुंजरू और एन.सी. चटर्जी जैसे हिंदुत्ववादियों ने भी इसकी ज़ोरदार मुख़ालफ़त की। आरएसएस के मुखपत्र ‘आर्गेनाइज़र’ के संपादक के.आर. मलकानी ने भी इसके विरोध में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था।
तत्कालीन क़ानून मंत्री डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने अपने जवाब में कहा “अब जो बात हमें ध्यान में रखनी होगी वह यह है कि राज्य के नीति निदेशक तत्वों के अनुच्छेद 46 में सरकार को यह ज़िम्मेदारी दी गई है कि वह जनता के उन तबकों, जिन्हें कमज़ोर वर्ग कहा जाता है, के हितों और कल्याण को बढ़ावा देने के लिए जो भी संभव हो करे। मेरी समझ में कमज़ोर वर्गों से आशय है पिछड़े वर्ग या ऐसे अन्य वर्ग जो अभी तक अपने पैरों पर खड़े होने में समर्थ नहीं हो सके हैं, जैसे अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां। इसलिए, न सिर्फ सरकार बल्कि इस संसद की भी यह ज़िम्मेदारी है कि वह अनुच्छेद 46 के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जो कुछ कर सकती है, अवश्य करे। और अगर उन उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हुई है तो मेरे लिए यह समझ पाना मुश्किल है कि हम अनुच्छेद 29(2) एवं 16(4) में संशोधन करने से कैसे बच सकते है, क्योंकि इन अनुच्छेदों की व्याख्या इस ढंग से की गई है और की जा रही है जिससे उन लोगों की प्रगति को रोका जा सके, जिन्हें पिछड़ा वर्ग कहा जाता है। यही कारण है कि अनुच्छेद 15 में संशोधन किया जाना चाहिए।”[6]
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और क़ानून मंत्री डॉ. आंबेडकर प्रथम संविधान संशोधन के पक्ष में पुरज़ोर तरीक़े से लड़ रहे थे तब हिंदुत्व ब्रिगेड के श्यामाप्रसाद मुखर्जी व आरएसएस के चिंतक के.आर. मलकानी जैसे लोग इस संशोधन के ख़िलाफ़ ज़हर उगल रहे थे। संसद में प्रथम संविधान संशोधन विधेयक के हर प्रावधान पर चर्चा हुई। इस दौरान “हिंदुवादी नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी की गृहमंत्री सी. राजगोपालाचारी और क़ानून मंत्री डॉ. बी.आर. आंबेडकर से लंबी और गर्मागर्म बहस हुई। बहस के दौरान दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर ज़िद और ग़ैर-ज़िम्मेदारी का आरोप लगाया।”[7]
“बहस के अंतिम दौर तक सदन में काफ़ी रोषपूर्ण माहौल बन गया था। संशोधनों पर मतदान की प्रक्रिया को लेकर श्यामाप्रसाद मुखर्जी और एच.वी. कामथ ने अध्यक्ष जी.वी. मावलंकर और क़ानून मंत्री डॉ. बी.आर. आंबेडकर से तीखी बहस की।”[8] अंतत: संविधान का प्रथम संशोधन विधेयक बहुमत से पारित हो गया। संशोधन के पक्ष में 228 और विपक्ष में महज़ 20 मत पड़े। संसद के 50 सदस्यों ने मतदान में भाग नहीं लिया। इस तरह से सामाजिक पिछड़ेपन पर आधारित आरक्षण की रक्षा हो सकी। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया ने साबित किया कि आरएसएस और हिंदू महासभा के लोग सामाजिक रूप से पिछड़े समुदायों को दिए गए आरक्षण के संवैधानिक प्रावधानों के विरोध में खड़े थे।
आरक्षण पर आरएसएस का नीतिगत दृष्टिकोण
संघ का दावा है कि वह समाज में एकता एवं समरसता का पक्षधर है। उसका दावा है कि वह संपूर्ण समाज को एक परिवार मानता है और उस परिवार के ‘कम विकसित, शक्तिहीन, अपंग अथवा अस्वस्थ’ सदस्यों को ‘स्वस्थ व सबल’ बनाने के लिए कर्तव्यभाव से सबकुछ करने को तत्पर है। आरएसएस के अनुसार, आरक्षण का उद्देश्य सामाजिक समता के साथ-साथ समरसता युक्त समाज का निर्माण करना है। लेकिन उसका यह भी मानना है कि आरक्षण स्थायी व्यवस्था नहीं है। इसका लक्ष्य स्वावलंबी तथा समर्थ समाज खड़ा करना है। आरएसएस के मुताबिक, “अनुसूचित जाति व जनजाति वर्गों के उत्थान के लिए किए जा रहे प्रयासों में केवल जाति का आधार पर्याप्त नहीं है, शैक्षणिक एवं आर्थिक स्थिति का भी विचार करना चाहिए। आरक्षण आज सत्ता एवं वोट की राजनीति का हथियार मात्र रह गया है। परिणामस्वरूप अपने ही समाज में परस्पर तनाव व अविश्वास की स्थिति बन चुकी है। संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने सन् 1981, 1994 तथा 2006 में आरक्षण के संबंध में प्रस्ताव पारित किए हैं।”[9]
संघ के नीतिगत दृष्टिकोण में भी आरक्षण को स्थाई व्यवस्था न मानकर तात्कालिक मानना और उसका आधार जाति के बजाय आर्थिक करने की कोशिश पर बल दिया गया है। आरक्षण पर आरएसएस के प्रस्तावों की बार-बार चर्चा होती है। सबसे पहला प्रस्ताव 1981 में गुजरात में हुई आरक्षण विरोधी हिंसा के बाद पारित किया गया था, जो कि इस प्रकार हैं[10]–
(क) विषमता से मुक्त एवं सौहार्दपूर्ण समाज के निर्माण के राष्ट्रीय संकल्प की पूर्ति के लिए केवल संवैधानिक राजनीतिक प्रयत्नों पर निर्भर रहना पर्याप्त नहीं है। इसके लिए निःस्पृह विचारकों की एक समिति का निर्माण किया जाए जो आरक्षण से उत्पन्न समस्याओं के (पहलुओं) पर गहन चिंतन कर हरिजन एवं जनजातियों की सामाजिक एवं आर्थिक उन्नति के लिये ठोस सुझाव प्रस्तुत करे।
(ख) वर्तमान स्थिति में रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के मतांतरित दलित ईसाइयों, मुसलमानों को भी आरक्षण देने की अनुशंसा की गई है, जो कि असंवैधानिक व सामाजिक व राष्ट्रीय दृष्टि से अहितकर है।
(ग) प्रतिनिधि सभा ईसाई तथा मुस्लिम मतावलंबियों की मांग का कड़ा विरोध करती है कि उनके संप्रदाय में सम्मलित हुए अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लोगों को भी आरक्षण की सुविधाएं प्राप्त हो। यह मांग अजा व अजजा को मिलने वाले लाभ में कटौती करेगी।
(घ) कुछ राजनीतिक दल मुस्लिमों का वोट प्राप्त करने के लिए धर्म के आधार पर आरक्षण की मांग कर रहे हैं। यह सर्वथा असंवैधानिक, देश विरोधी और देश तोड़ने का षड्यंत्र है।
उपरोक्त प्रस्ताव गुजरात में आरक्षण विरोधी हिंसा की छाया में बनकर तैयार हुआ, जिसमें आरक्षित वर्गों के प्रति किसी तरह की हमदर्दी नजर नहीं आती, बल्कि आरक्षण से उत्पन्न समस्याओं के समाधान पर ज्यादा जोर है और आरक्षण की समीक्षा हेतु एक समिति गठित करने तथा दलित ईसाईयों व दलित मुसलमानों को आरक्षण से दूर रखने की चिंता अधिक दिखलाई पड़ती है।
गुजरात की आरक्षण विरोधी हिंसा और आरएसएस
गौरतलब है कि गुजरात में 1981 और 1985 में आरक्षण के ख़िलाफ़ जमकर हिंसा हुई और उसमें दलितों को निशाना बनाया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जो कि अपनी अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में राजनीतिक सहीपन के लिए आरक्षण पर प्रस्ताव पारित करके उसकी समीक्षा के लिए ग़ैर-राजनीतिक लोगों की समिति बनाने का संकल्प पारित कर रहा था, उसका नीचे का कैडर आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान क्या भूमिका निभा रहा था, यह जानना बहुत ज़रूरी है।
आरएसएस के 49 वर्षों तक सक्रिय कार्यकर्ता रहे गुजरात लोक सेवा आयोग के पूर्व सदस्य मूलचंद राणा इस संबंध में अपना अनुभव बताते हुए अपनी आत्मकथा में लिखते हैं– “1981 का आरक्षण विरोधी आंदोलन अहमदाबाद के बीजे मेडिकल कालेज से शुरू होकर पूरे राज्य में आग की तरह फैल गया। बीजे मेडिकल कालेज उस समय संघ कार्य का सुविधा संपन्न केंद्र था। पूरे गुजरात से चिकित्सा अध्ययन के लिए आने वाले छात्रों में से कई संघ के पुराने स्वयंसेवक थे। आरक्षण विरोधी आंदोलन का नेतृत्व डॉ. केतन देसाई के हाथों में था। पोस्ट ग्रेजुएशन आरक्षण के विरोध का यह आंदोलन यहीं नहीं रूका, बल्कि यह 19 जनवरी, 1981 को आरक्षण को पूर्ण रूप से समाप्त करने की मांग तक पहुंच गया। रातों-रात आरक्षण हटाने के लिए समितियां भी बनाई गईं।”[11]
आरक्षण विरोधी दूसरे आंदोलन के बारे में मूलचंद राणा बताते हैं– “सन् 1985 में शुरू हुआ आरक्षण विरोधी आंदोलन भी अहमदाबाद की इंजीनियरिंग और मेडिकल कालेज से ही शुरू हुआ। रातों-रात बने अभिभावक मंडल संगठन ने पूरा कार्यभार संभाला।”[12] वे आगे कहते हैं कि “उस समय शहर में स्थिति नियंत्रण के बाहर हो गई। खून-ख़राबा, छुरेबाज़ी, आगज़नी आदि रोज़ की घटना बन गई। पूरे शहर को सेना को सौंप दिया गया। दस दलित युवकों की जान चली गई। कई दिनों तक कर्फ़्यू लगा रहा।”[13] और यह भी कि “उस समय हिंदू युवा हिंदू होने के बजाय उच्च वर्णीय ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य थे। पूरा गुजरात उत्तेजित होकर दलितों पर हो रहे हमलों का गवाह बन कर भीष्म पितामह की तरह देख रहा था। ‘सर्वे हिंदू सहोदरा’ का नारा कहीं गुम हो गया था और भीतर से जल रहे दलितों में उनकी दुर्दशा करने वाली टोलियों में आरएसएस के लोग भी शामिल थे।”[14]
आरएसएस के आरक्षण संबंधी दोमुंहेपन को उजागर करते हुए अपनी जीवनी ‘व्यामोह-संघ से समाज की ओर, एक निराशाजनक अनुभव’ की भूमिका में संघ के दलित स्वयंसेवक मूलचंद राणा साफ़-साफ लिखते हैं– “पिछले पांच वर्षों के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख अर्थात् सरसंघचालक द्वारा आरक्षण संबंधी प्रावधानों के बारे में दिये गये बयानों से मैं शर्मिदा था। एक ओर यह कहा जाता था कि आरक्षण पर मौजूदा संवैधानिक प्रावधान सही है। फिर धीरे-धीरे उसमें कभी आर्थिक मानदंड तो कभी आरक्षण की समीक्षा करने की राय से आरक्षण प्रावधानों को भारी विवादों के तहत लाया जाता और जैसे ही समाज में चर्चा होने लगती तो फिर धीरे से मीडिया की गलत सूचना को आगे बढ़ाकर मामले को सफलतापूर्वक रफा-दफा कर दिया जाता।”[15]
गुजरात में स्नातकोतर कक्षाओं में आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान वहां के तत्कालीन गृहमंत्री ने आरोप लगाया था कि आरक्षण विरोधी आंदोलन में आरएसएस का हाथ है। इस पर आरएसएस ने प्रतिक्रिया दी थी कि “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जो सुसंगठित हिंदू समाज के निर्माण के लिये दृढ़ प्रतिज्ञ है, समाज विघटन के किसी कार्य को करने का स्वप्न में भी विचार नहीं कर सकता।” तत्कालीन आरएसएस प्रमुख ने इस विषय पर संघ की भूमिका स्पष्ट करते हुए कहा कि “समाज के दुर्बल तत्वों के लिये आरक्षण कुछ अधिक समय के लिये आवश्यक ही है, तथापि उसके क्रियान्वयन की पद्धति कार्यकर्ताओं एवं विचारकों द्वारा सूक्ष्म परीक्षण हो एवं उसका एक उचित सर्वमान्य हल निकाला जाय। ऐसे प्रश्नों को दलगत राजनीति का विषय न बनाया जाय व उनके ऊपर सदा निष्पक्ष विचार हो, जिससे समाज का सामंजस्य बना रहे।”[16]
मंडल कमीशन विरोधी आंदोलन में आरएसएस की भूमिका
आरक्षण के इतिहास में एक अहम मोड़ तब आया जब वी.पी. सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा व वाम मोर्चा (रामो-वामो) सरकार ने मंडल कमीशन की अनुशंसाओं को लागू किया। उस वक्त न केवल संघ के प्रचारक से राजनेता बने लालकृष्ण आडवाणी उसके जवाब में कमंडल लेकर राम रथ पर आरूढ़ होकर यात्रा निकालने लगे, बल्कि भाजपा ने समर्थन वापस लेकर सरकार ही गिरा दी। आरएसएस के हिंदी मुखपत्र ‘पांचजन्य’ ने विश्वनाथ प्रताप सिंह को ग़द्दार, देशद्रोही, हिंदू समाज का विभाजक और जयचंद का वंशज लिखा था। मंडल कमीशन की अनुशंसाओं को लागू करने के ख़िलाफ़ जो छात्र आंदोलन व आरक्षण विरोधी हिंसा हुई, उसमें आरएसएस के कार्यकर्ताओं की भूमिका को बार-बार रेखांकित किया गया है।
मंडल आयोग के संदर्भ में संघ के अधिकृत विचार क्या थे, इसकी जानकारी आरएसएस के तत्कालीन सरकार्यवाह होंगासांद्रा वेंकटरमइया शेषाद्री (एच.वी. शेषाद्री) द्वारा 8 मार्च, 1991 को संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के समक्ष रखे गये प्रतिवेदन में मिलती है। प्रतिवेदन इस प्रकार है–
“विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा मंडल आयोग की अचानक एकांगी घोषणा की आलोचना चारों तरफ हुई। छात्रों के आत्मदाह की हृदय विदारक घटनाओं के प्रति सरकार की हृदयहीन उपेक्षा का यही परिणाम हुआ कि मंडल आयोग के पक्ष एवं विरोध में जन आंदोलन भड़क उठा। साथ ही हिंदू समाज की विभिन्न जातियों के बीच उग्र तनाव उत्पन्न हुआ। यह निर्णय सचमुच में पिछड़े हुए लोगों के लिए था या अपने लिये सुरक्षित वोट बैंक तैयार करने के लिए, ऐसा संदेह का वायुमंडल उत्पन्न हुआ। वैसे तो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों को लिये आरक्षण की नीति कुछ वर्षों से चली आ रही है, उसको अमल में लाने से कौन-सी समस्याओं का निर्माण हुआ, इसका भी विचार होना आवश्यक है। इसके साथ ही आर्थिक पिछड़ेपन का भी विचार करना उचित होगा। समाज के दुर्बल घटकों के बारे में सभी का दृष्टिकोण सहानुभूतिपूर्ण होना चाहिए। साथ ही साथ समाज का विघटन न हो, इसका भी ध्यान रखना होगा। इसलिए शिक्षाविद्, अर्थतज्ञ, प्रशासनतज्ञ, राजनीतिज्ञ, समाजशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ताओं को साथ लेकर जाति के आधार पर आरक्षण देने की नीति के विषय में फिर से विचार होना चाहिए।”[17]
मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू किए जाने पर वी.पी. सिंह की सरकार गिर गई और मंडल आयोग की रिपोर्ट के दांव से चित्त भाजपा और उसका मूल संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बौखला गए। उनके कार्यकर्ताओं ने किस तरह की भूमिका निभाई, इसकी एक बानगी सत्येंद्र प्रताप सिंह ने अपनी पुस्तक ‘जाति का चक्रव्यूह और आरक्षण’ के ‘मंडल कमीशन और राजनीति’ नामक अध्याय में विस्तारपूर्वक लिखा है। वे बताते हैं–
1. “मंडल आयोग के लागू होने के बाद मांडा नरेश विश्वनाथ प्रताप सिंह की गोरखपुर में रैली होने वाली थी। यह रैली कई मामलों में अहम थी। उसने एक विभाजन रेखा खींच दी। समाज दो धड़ों में बंट चुका था– मंडल समर्थक और मंडल विरोधी। वी.पी. सिंह की रैली को देखते हुए गोरखपुर में सुरक्षा की कड़ी व्यवस्था की गई। इसी बीच 17 दिसंबर, 1990 को एक अज्ञात-सा संगठन सवर्ण लिबरेशन फ़्रंट उभरा। उसने चेतावनी थी कि किसी भी हालात में वी.पी. सिंह की सभा नहीं होने दी जाएगी। अन्य पिछड़े वर्ग का आरक्षण लागू होने का भाजपा पिछले दरवाज़े से विरोध कर रही थी। आरएसएस और उसके आनुषंगिक संगठन खुलेआम आरक्षण के विरोध में मैदान में कूद पड़े थे। आरएसएस व उससे जुड़े जितने भी छोटे-मोटे समूह थे, सभी आरक्षण के विरोध में सक्रिय थे। जिधर से जनता दल के नेताओं के वाहन निकलते, पथराव शुरू हो जाते थे… इसी बीच सभा के संयोजक अजय सिंह को सूचना मिली कि कुछ संघी गुंडे उनके बंगले में घुसने की कोशिश कर रहे हैं और अहाते में खड़े वाहनों पर पत्थर फेंकने की क़वायद में हैं… अजय सिंह पर बम फेंके जाने पर जीप में बैठे युवा धड़ाधड़ उतर चुके थे। यह तो पता नहीं चला कि बम किसने फेंका, लेकिन सामने पड़े विश्व हिंदू परिषद के महानगर मंत्री आनंद कुमार गुप्ता और उनके सहयोगियों को युवाओं ने पीटना शुरू कर दिया। शरद यादव ने इस गुंडागर्दी के बीच जनसभा में ही कहा कि आज की घटनाओं के पीछे भाजपा तथा आरएसएस का हाथ है।”[18]
2. मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने पर जहां आरएसएस-भाजपा के नेता परोक्ष रूप से विरोध कर रहे थे, वहीं विश्व हिंदू परिषद और भाजपा के जिला स्तर के कार्यकर्ता खुले आम आरक्षण और वी.पी. सिंह के विरोध में उतर आए। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी पहले से ही रथ लेकर निकल पड़े थे और देश भर में दंगे हो रहे थे। शरद यादव ने कहा कि “हम वर्तमान केंद्र की सरकार को ख़बरदार करना चाहते हैं कि हमें उनकी नीयत का पता है। हमें यह भी पता है कि अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास मंडल कमीशन द्वारा उत्पन्न पिछड़े व दलितों के जागरण को कब्र में भेजने की चतुर द्विज चाल है।”[19]
3. “मंडल के बरअक्स कमंडल आंदोलन भी साथ-साथ चल रहा था। विश्वनाथ प्रताप सिंह की ओर से आरक्षण की घोषणा के तुरंत बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र ‘ऑर्गेनाईजर’ में इसके ख़िलाफ़ “राजा’ज कास्ट वार” नाम से लेख प्रकाशित हुआ, जिसमें लिखा गया कि आरक्षण की राजनीति करके सामाजिक ताने-बाने के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है, जो उच्च गुणवत्ता के बजाय औसत दर्जे और प्रतिभा पलायन को बढ़ावा देता है। जाति विभाजन तेज करता है।”[20]
4. “जब जनता दल, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसे दल आरक्षण की सुविधाओं के विस्तार की मांग कर रहे थे, आरएसएस का मुखपत्र लगातार आरक्षण के ख़िलाफ़ लिख रहा था। आरएसएस का मानना था कि नौकरियों में कोटे को धीरे-धीरे कम किया जाना चाहिए।”[21]
5. “झटकों के बावजूद भाजपा आरएसएस की मूल विचारधारा पर टिकी रही। जब 1995 में केंद्रीय सामाजिक कल्याण मंत्री सीताराम केसरी ने आरक्षण के मसले पर सर्वदलीय बैठक बुलाई तो उसमें भाजपा की ओर से पहुंचे अटलबिहारी वाजपेयी एकमात्र नेता थे, जिन्होंने अनुसूचित जाति एवं जनजाति को प्रमोशन में आरक्षण देने का विरोध किया और एससी, एसटी, ओबीसी आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से अधिक किए जाने के समर्थन से साफ़ इंकार कर दिया।”[22]
‘इंडियन एक्सप्रेस’ के संपादक पद पर बैठकर मंडल कमीशन के ख़िलाफ़ आंदोलन चलाने वाले अरुण शौरी ने ‘वरशिपिंग द फाल्स गॉड’ नाम से किताब लिख कर यह बताने की कोशिश की कि अनुसूचित जाति व जनजाति को जो सुविधाएं मिल रही हैं, उसमें डॉ. भीमराव आंबेडकर की भूमिका नगण्य है। यह शौरी द्वारा फैलाया गया एक सफ़ेद झूठ है। जबकि सच यह है कि 1943 में डॉ. आंबेडकर की पहल पर राष्ट्रीय स्तर पर अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया। आंबेडकर वायसराय की कार्यकारी परिषद में सदस्य के रूप में शामिल हुए। वायसराय को आरक्षण के प्रावधान के लिए मनाया और कार्यकारिणी के कुछ सदस्यों द्वारा इसके ख़िलाफ़ दी जा रही सलाहों का खंडन किया। इसके बाद अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण के प्रावधान के साथ मैट्रिक के बाद स्कॉलरशिप योजना और ओवरसीज स्कॉलरशिप योजना लागू हुई और स्वतंत्रता के बाद अनुसूचित जनजाति के लिए भी इस प्रावधान को विस्तार मिला।
18 जुलाई, 2004 को ‘ऑर्गेनाईजर’ में लिखे एक लेख में डॉ. एल.एस. माधवराव ने न सिर्फ़ डॉ. आंबेडकर द्वारा की गई आरक्षण व्यवस्था की आलोचना की, बल्कि निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग पर भी तंज कसा। साथ ही तर्क दिया कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां सॉफ़्टवेयर पर भारी भरकम राशि खर्च कर रही हैं और अगर आरक्षण की बात की जाती है तो वे अपने कदम पीछे खींच सकती हैं। माधवराव ने यह भी कहा कि “आंबेडकर की आरक्षण नीति के कारण गरीब ब्राह्मण बच्चों के ऊपर कुल्हाड़ी चल रही है, जो अपने परिश्रम, प्रतिभा और ईमानदारी के कारण जाने जाते हैं और उनकी मेरिट पर असर पड़ रहा है।”[23]
अर्थशास्त्री सुरजीत एस. भल्ला ने 14 जून, 2013 को ‘ओबीसी कोटा: ब्लाइंड ओवरसाइट’ नाम से लेख लिखा, जिसमें उन्होंने कहा कि कालेज या रोज़गार में ओबीसी आरक्षण के लिए कोई नैतिक, दार्शनिक या आर्थिक आधार नहीं है। 2014 में केंद्र की सत्ता में भाजपा के आते ही सुरजीत भल्ला और जोश में आ गए। उस दौरान ऑक्सस इन्वेस्टमेंट में चेयरमैन और ओब्ज़रवेटरी ग्रुप में सीनियर इंडियन एनलिस्ट भल्ला ने 2015 में ओबीसी आरक्षण के विरोध में ‘कास्ट रिजर्वेशंस: हाफ़ प्रेगनेंट कंस्टीट्यूशन, हाफ़ प्रेगनेंट स्टेट’ नाम से 14 पृष्ठों का शोध पत्र लिख डाला। उन्होंने उन तमाम अवधारणाओं को एक झटके में ख़ारिज कर दिया, जिसमें मंडल आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि जातीय आधार पर भारतीय समाज में आसानी से सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग की पहचान हो सकती है।
आरक्षण पर आरएसएस-भाजपा नेताओं के बार-बार बदलते विचार
आरक्षण को लेकर संघ, भाजपा और संघ के विचार-परिवार से जुड़े नेता अपने लेखों में निरंतर आग उगलते रहे हैं और अपनी सुविधा के अनुसार मनचाहे विचार भी व्यक्त करते रहे हैं। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े रहे संघी विचारक राम बहादुर राय ने जाति आधारित आरक्षण को भस्मासुर की संज्ञा तक दी थी। उन्होंने लिखा– “ब्रिटिश सरकार भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध मुस्लिम पृथकतावाद और देशी नरेशों के अतिरिक्त अब हिंदू समाज के दलित वर्गों के प्रवक्ता के रूप में डॉ. आंबेडकर को गांधी जी के विरुद्ध खड़ा करने में सफल हो गई। दलित वर्गों और मुसलमानों के मताधिकार का निर्णय करने का अधिकार ब्रिटिश प्रधानमंत्री को मिल गया। उसने अगस्त, 1932 में दलित वर्गों को पृथक मताधिकार देकर हिंदू समाज को दो-फाड़ करने के षड्यंत्र को अंजाम दिया। इसके कारण गांधी जी को आमरण अनशन आरंभ करना पड़ा। इस अनशन में से पूना पैक्ट निकला, जिसने भारतीय राजनीति में जाति के आधार पर आरक्षण का भस्मासुर पैदा कर दिया।”[24]
“आरक्षण नीति का इस्तेमाल राजनीतिक उद्देश्यों के लिए किया जा रहा है और इसलिए इसकी समीक्षा की जानी चाहिए” यह बयान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत का है, जिन्होंने सितंबर, 2023 में संघ के मुखपत्रों – पांचजन्य व ऑर्गेनाइज़र – को दिए अपने साक्षात्कारों में दिया था। उन्होंने आरक्षण की समीक्षा हेतु अराजनीतिक समिति बनाने का प्रस्ताव रखा, जिसका काम यह देखना था कि आरक्षण का लाभ किन लोगों को और कब तक मिलना चाहिए। संघ के तत्कालीन प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने वर्ष 2017 में जयपुर लिटरेचर फ़ेस्टिवल के दौरान आरक्षण को जारी रखने का विरोध करते हुए उसकी एक समय सीमा तय करने की ज़रूरत बताई थी और कहा था कि इसके हमेशा जारी रहने से सामुदायिक भेदभाव को बढ़ावा मिलेगा। यह समानता के सिद्धांत के ख़िलाफ़ है। उन्हें मौक़े दीजिए, आरक्षण नहीं।
आरक्षण पर संघ भाजपा की अंदरूनी सोच का सबसे सटीक बयान हिंदुत्व की राजनीति के सबसे मुंहफट राजनेता डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी के उस बयान से मिलता है, जो उन्होंने जोधपुर में एक लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान दिया था। स्वामी ने कहा था कि “हमारी सरकार आरक्षण को पूरी तरह ख़त्म नहीं करेगी। ऐसा करना पागलपन होगा। लेकिन हमारी सरकार आरक्षण को उस स्तर पर पहुंचा देगी, जहां उसका होना या नहीं होना बराबर होगा।”[25] इसी तरह आरएसएस विचारक एम.जी. वैद्य ने भी सामाजिक आधार पर जारी आरक्षण की खुलकर मुखालफत करते हुए कहा कि “अब जाति आधारित आरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि कोई भी जाति पिछड़ी नहीं रही है। अधिक से अधिक अनुसूचित जाति, जनजाति के लिए इसे जारी रखें, वह भी केवल 10 वर्षों के लिए। इसके बाद जाति आधारित आरक्षण को पूरी तरह ख़त्म कर देना चाहिए।”[26]
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत संघ की आरक्षण संबंधी दुविधा को अपने कार्यकर्ताओं के मध्य कुछ इस प्रकार रखते हैं– “आरक्षण जैसे विषय पर तो एक प्रकार से कहें तो दुविधा ही है। बिल्कुल आज का संदर्भ लेकर देखें तो अन्याय है। मेरिट वाला विद्यार्थी पीछे रह जाता है, केवल किसी जाति में जन्मा है, इसलिये वह आगे जाता है, अन्याय नहीं है क्या? अन्याय है, कैसे इसको संभालना? व्यवस्था ठीक करने तक यह होते रहेगा। समाज में आक्रोश बढ़ेगा। आक्रोश बढ़ेगा तो दूरी बढ़ेगी। दूरी बढ़ेगी तो यह अन्याय कभी समाप्त नहीं होगा। कभी इधर से उधर अन्याय होगा। कभी उधर से इधर अन्याय होगा।… व्यवस्था बड़ी निर्मम होती है, पर अपनी लीक पर चलती है। जो उस पर चलेगा, उसके साथ चलेगा जो बीच में आएगा, वह रौंदा जाएगा। बात सत्य है कि आरक्षण पर राजनीति हुई है, आरक्षण हुआ ही नहीं।”[27]
मोहन भागवत अपने संघ के कार्यकर्ताओं व पदाधिकारियों का मार्गदर्शन करते हुए जिस तरह से बातें कहते हैं, वह संघ की कथनी और करनी के फ़र्क़ को भी स्पष्ट करता है। जैसे कि वे आरएसएस के एक समय के सरसंघसंचालक बालासाहब देवरस, जिनको सामाजिक समरसता का चैंपियन माना जाता है, से संबंधित दृष्टांत सुनाते हैं कि बालासाहब देवरस से आरक्षण के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि “कोई आरक्षण का विरोध करेगा, किंतु हम नहीं करेंगे, तो बताइये किस-किस को आरक्षण मिलना चाहिए? जिनको आरक्षण चाहिए, उनको ही यह तय करना है कि कितने दिन आरक्षण चलना चाहिए। यह भी उन्हें ही तय करना है कि कितने दिन चाहिए। जब उन्हें लगे कि अब नहीं चाहिए, तब आरक्षण समाप्त करना चाहिए। इसका मतलब बाला साहब ने इच्छानुसार आरक्षण की वकालत की। ऐसा नहीं होता है। सामने के लोगों को जो भाषा समझ में आती थी, उसी भाषा में उन्होंने उत्तर दिया। ऐसा होने के बाद वे शांत हो गए।”[28]
अपना अनुभव बयान करते हुए भागवत कहते हैं कि “एक तथाकथित दलित संपादक ने मुझसे एक प्रश्न पूछा कि आरक्षण के बारे में संघ क्या कहता है? मैंने बोला– कौन-सा आरक्षण? वे बोले कि आपको यह आरक्षण मालूम नहीं? मैने कहा– आरक्षण नहीं चल रहा, राजनीति चल रही है। अपने देश में आरक्षण संविधान निर्माताओं ने दिया, तभी आरक्षण की बात हुई। उसके बाद तो सारी राजनीति की बात ही हुई।”[29]
आरएसएस की नजर में आरक्षण कब तक रहेगा?
वैसे आरएसएस आरक्षण को लेकर अपने विचारों को सुविधानुसार बदलता रहता है, लेकिन इन दिनों वह आरक्षण को तब तक जारी रखने की बात कहता है जब तक कि आरक्षित वर्ग उसके लिए मना नहीं कर दें। इससे आरएसएस की उदारवादी और समर्थक छवि बनती है, लेकिन आरएसएस का कैडर जब उनसे यही सवाल पूछता है तब उनका जवाब डिप्लोमैटिक न होकर सीधा व सपाट होता है, जिसमें वह आरक्षण की समाप्ति का रोड मैप बताते हैं। मोहन भागवत का एक बयान आरएसएस के पदाधिकारियों व कार्यकर्ताओं के मध्य व्यक्तिगत वितरण हेतु पहुंचने वाली पुस्तिकाओं में दर्ज है, जिनमें इस तरह प्रश्नोत्तर हुआ है–
“प्रश्न : आरक्षण के प्रति (शासन की नौकरियो मैं) सामान्य तौर पर अनुभव किया है कि नौकरी में लोगों के प्रति उतना क्रोध नहीं रहा। लेकिन राजनीतिज्ञों के स्वार्थ के कारण आरक्षण पर आरक्षण की जो नीतियां निकलकर आई हैं, शासन में एक बार नौकरी लगने के लिये आरक्षण होना, यहां तक सभी सहमत हैं, लेकिन उसके बाद जो परिस्थितियां बनती हैं, पदोन्नति के लिये आरक्षण, फिर अगली पदोन्नति पर आरक्षण और फिर उसमें उनके विद्वेषों का सामना, इन सबके कारण खाई बढ़ रही है। तो राजनीति के कारण आरक्षण की इस नीति को कहीं न कहीं किसी मंच पर उठाकर इसको रोका जा सकता है क्या?
जवाब : ताकत होगी तब रोका जा सकता है। रोका जा सकता तो आता ही नहीं। अपने प्रस्ताव में हमने जो कहा है, उसका विवरण देते समय ये सारी बातें आई हैं। देश के सुप्रीम कोर्ट ने भी ऐसी कुछ बातें कही है। उसमें एक ये भी बात है, लेकिन ये सब अपने अनुभव का विचार करते समय एक निर्देश तो पूज्य बालासाहब ने दिया था, उसे सब लोगों को ध्यान में रखनी चाहिए। प्रतिनिधि सभा में जब प्रस्ताव की चर्चा चल रही थी, स्वभाविक रूप से प्रस्ताव के विपक्ष में भी अपनी प्रतिनिधि सभा का बहुत बड़ा वर्ग था। तब चर्चा थमी ही नहीं, प्रस्ताव पास नहीं हुआ, ऐसी स्थिति थी तो पूज्य बालासाहब ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि इस प्रश्न का विचार करते समय जो दशकों से, शतकों से इन सब बातों से वंचित है, ऐसे परिवार में अपना जन्म हुआ है, इस मानसिकता में आकर इस विषय का विचार करें, फिर जो उचित आपको लगता है, वह कहें। आज सुबह जो घटना मुझे पता चली, वह मैंने बताई, इससे मेरे ध्यान में और अधिकता से यह बात आई। उसका जीवन देखकर किसी को लगेगा नहीं कि उसके सामने ऐसी समस्या आई। संघ की परिधि में होने के कारण उसका आना-जाना, बोलना-फिरना सब ठीक है। लेकिन एक जाति विशेष का होने के कारण उस जाति का संरक्षण छोड़ने के बाद उसकी यह अवस्था हो गई। फिर उसको अपने कार्यकर्ता के पास मदद के लिए आना पड़ा।
हम अगर उस जाति में नहीं हैं तो हमे यह अनुभव कभी नहीं हुआ। उसको यह अनुभव आएगा, ये स्थिति का भी अंतर है। इसे ध्यान में रखकर इन सब चीजों का विचार करना चाहिए। बाकी हमने यह कहा है कि आरक्षण स्पर्धा में हो, बढ़ोतरी में न हो, ये सब बातें विवरण देते समय आई हैं, प्रस्ताव में नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों में भी इन बातों का उल्लेख कही न कहीं है, लेकिन देश की राजनीति वोटों से ऊपर उठकर उसपर विचार करे।
इस तरह की परिस्थिति लाने का सार्मथ्य जब तक हमारा नहीं बनता तब तक इसमें परिवर्तन नहीं आएगा। क्योंकि बाकी किसी को इससे कोई लेना-देना नहीं कि पूरा समाज एक लाइन पर आकर खड़ा हो, उनको सिर्फ वोटो से लेना-देना है। केवल अपने स्वयंसेवक और उनके पीछे हमारा सामर्थ्य, इसी की प्रामाणिक इच्छा यह है कि समाज में इस प्रकार की एक समरस रचना हो। समरसता के आधार पर हमारी ताक़त जब तक बढ़ती नहीं, ये बातें चलेंगीं और जैसे मैंने कहा यह अवस्था आये, अपना कार्य है, ऐसा मानकर हमको अपने लक्ष्य से विचलित न होते हुए आगे बढ़ना पड़ेगा।”[30]
आरएसएस का आर्थिक आधार वाला आरक्षण
7 जनवरी, 2019 को अचानक नरेंद्र मोदी सरकार कैबिनेट की बैठक में बिना किसी मांग या आंदोलन अथवा ज़रूरत के आनन-फ़ानन में आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रस्ताव लेकर आई। यह वादा भाजपा के घोषणापत्र में नहीं था। न इस पर विचार-विमर्श चला। बावजूद इसके आर्थिक आधार पर आरक्षण संबंधी इस विधेयक को कैबिनेट में मंज़ूरी देकर 8 जनवरी, 2019 को पहले लाेकसभा में पारित कराने के बाद और 9 जनवरी, 2019 को राज्यसभा में भी पारित कर दिया गया और इस तरह से यह असंवैधानिक आरक्षण को संसद की मंजूरी मिल गई। इसके लिए “संविधान (124वां संशोधन) अधिनियम-2019 पारित हो गया और संविधान के मूल ढांचे में बदलाव कर आर्थिक आरक्षण को मूर्त रूप दे दिया गया। फिर क्या आश्चर्य कि 12 जनवरी, 2019 को राष्ट्रपति की भी इसे मंज़ूरी मिल गई।
आरक्षण को लेकर आरएसएस को अपनी मनमर्जी करने का मौका नरेंद्र मोदी की सरकार रहते हुए मिल गया है, जहां उन्होंने आरक्षण समाप्ति की अपनी योजना पर व्यवस्थित काम शुरू कर दिया है। उसका प्रथम चरण सवर्ण आरक्षण लागू करना रहा, जिसने आरक्षण के आधार को बदल दिया है और दूसरा कदम अनुसूचित जाति व जनजाति वर्ग में उपवर्गीकरण करके आरक्षण में बंटवारा करवा दिया है। निस्संदेह सवर्ण आरक्षण विधेयक की पूरी पटकथा संघ मुख्यालय में लिखी गई। बरसों के चिंतन-मनन के बाद आरएसएस ने अपने स्वयंसेवक नरेंद्र मोदी की सरकार के ज़रिए अपनी लिखी हुई स्क्रिप्ट पर अमल करवाते हुए महज़ 72 घंटे के अंदर संविधान में वह बदलाव करवा दिया, जो संविधान के मूल आधारों में एक है। वैसे तो आरएसएस संविधान और आरक्षण व्यवस्था में लंबे समय से बदलाव चाहता था। वह आरक्षण की समीक्षा करने तथा उसे जाति के सामाजिक पिछड़ेपन से आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर लाना चाहता था। सवर्ण ग़रीबों को आरक्षण देने के निर्णय से आरएसएस की यह परिकल्पना साकार हो गई। जिस तेज़ी से बिना किसी मांग व आंदोलन के आरक्षण के आधार को बदला गया, वह आरक्षण को समाप्त करने के नए तौर-तरीक़ों के लिए मार्ग प्रशस्त करेगा।
आरक्षण में उपवर्गीकरण और आरएसएस
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आरक्षण को लेकर सोच को और अधिक स्पष्ट करते हुए विजय कुमार लिखते हैं– “आरक्षण के नाम पर जो राजनीति हो रही है, संघ उसे पसंद नहीं करता। क्या ही अच्छा हो, यदि एक बार आरक्षण का लाभ जिसे मिल गया है, अगली बार उसकी बजाय उसी वर्ग के किसी दूसरे को यह सुविधा मिले, जिससे शेष लोग भी आगे बढ़ सकें।”[31]
संघ और भाजपा सदैव ही यह चाहते थे कि अनुसूचित जाति, जनजाति व पिछड़े वर्ग के आरक्षण को विभिन्न उपजातियों में विभाजित कर दिया जाए और आरक्षण के कोटे में उपकोटे की व्यवस्था की जाए। अंतत: उन्हें उच्चतम न्यायालय का साथ मिला और दलित, आदिवासी आरक्षण में यह फ़ैसला हो गया। उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुसूचित जाति व जनजाति आरक्षण में उपवर्गीकरण के पक्ष में दिए गए फ़ैसले को इसके आगे की कड़ी में एक और मज़बूत कदम कहा जा सकता है। दलितों व आदिवासियों के आरक्षण में कोटे के भीतर कोटे की मांग आरएसएस की तरफ़ से लंबे समय से चलती रही है। संघ के विभिन्न विचारकों और प्रकाशनों में तथा संघ कार्यकर्ताओं से संवाद में यह अक्सर सुनने को आते रहता था कि जो लोग सक्षम हो चुके हैं, उनको आरक्षण छोड़ देनी चाहिए अथवा एक पीढ़ी आरक्षण का लाभ लेने के बाद दूसरी बार उसका फ़ायदा न लें। इसके अलावा भी संघ ने दलित-पिछड़ी जातियों में आपस में इस विचार को बहुत मज़बूती से स्थापित किया कि कुछ संचित जातियां अधिकांश वंचित जातियों के हिस्से का फ़ायदा उठा ले रही है, इसलिए वंचित दलितों के लिए आरक्षण में उपवर्ग बनाकर अलग कोटा दे दिया जाना चाहिए। अंतत: अप्रैल, 2024 में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति वर्ग के आरक्षण में उपवर्गीकरण के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला आ गया और सबसे पहले हरियाणा की भाजपा सरकार ने बाक़ायदा उसे लागू करके संघ के प्रिय एजेंडे को लागू भी कर दिया है। इस तरह से आरएसएस ने सामाजिक न्याय, जाति जनगणना और संविधान बचाने के नाम पर आ रही एकजुटता की हवा निकाल कर दलित-आदिवासी समुदाय की विभिन्न उपजातियों को परस्पर ही संघर्ष में धकेल दिया है।
आरक्षण को बांटने की लड़ाई में अग्रणी निभाने वाले डॉ. ओ.पी. शुक्ला स्वीकार करते हैं कि उनकी और आरएसएस की सोच मिलती है और वे आरएसएस के विचार का समर्थन करते हैं– “सितंबर, 2015 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि आरक्षण नीति की समीक्षा होनी चाहिए, जिससे पता चल सके कि इससे किस-किसको कितना लाभ पहुंचा है? हमने संघ प्रमुख का समर्थन किया। आखिर आरक्षण नीति की समीक्षा करने में बुराई ही क्या थी?”[32]
आरएसएस में आरक्षण क्यों नहीं?
कमजोर वर्गों को प्रतिनिधित्व देने के संवैधानिक प्रावधानों का विरोध और समर्थन का खेल खेलने वाले आरएसएस की निर्णायक बॉडी में विभिन्न वर्गों की भागीदारी का क्या आलम है, इस पर सदैव सवाल उठते रहे हैं। संघ का अब कहना यह है कि प्रारंभिक वर्षों में जो स्वयंसेवक जुड़े थे, वे ब्राह्मण ही थे, इसलिए संघ के उच्च निर्णायक पदों पर कुछ समुदायों की ही उपस्थिति नजर आती थी। लेकिन अब परिदृश्य बदल चुका है और विभिन्न पदों तक गैर-ब्राह्मण या गैर-सवर्ण पदाधिकारी पहुंचने लगे हैं। लेकिन क्षत्रिय समुदाय से संबद्ध एक ‘एक्स’ हैंडल से विगत दिनों की गई पोस्ट में आरएसएस की सर्वोच्च निर्णायक बॉडी का समाजशास्त्रीय ऑडिट किया गया, जो कुछ इस प्रकार है– “कुल 47 सदस्य हैं आरएसएस की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में, जिनमें 39 ब्राह्मण, 4 वैश्य, 1 खत्री, 1 कायस्थ, 1 ओबीसी, 1 जैन हैं।”[33]
क्या भावी हिंदू राष्ट्र में यही सबकी सहभागिता रहेगी? संघनिष्ठ लोग कह सकते हैं कि आरएसएस के विभिन्न आनुषंगिक संगठनों के मुखिया और कार्यकारिणी में सब वर्गों का प्रतिनिधित्व है। माना कि ऐसा है। लेकिन वे सभी एक्सटेंशन काउंटर हैं। मूल संगठन की सर्वोच्च निर्णायक इकाई में दलित, आदिवासी, पिछड़े और यहां तक कि क्षत्रिय समुदाय का क्या प्रतिनिधित्व है? अगर नहीं है तो क्यों नहीं है? संघ के सौ साल होने जा रहे हैं। क्या समाज के सभी वर्गों को भागीदारी देने में एक सौ साल का समय कम होता है? इससे तो बेहतर हमारा संविधान है, जिसके चलते भारत के सर्वोच्च पद राष्ट्रपति पर दलित, आदिवासी, महिला, अल्पसंख्यक और सवर्ण सबकी भागीदारी हो चुकी है।
आरक्षण समर्थक दिखने की राजनीति
हालांकि संघ और भाजपा की सार्वजनिक रूप से घोषित नीति आरक्षण के पक्ष में प्रतीत होती है। उस पर भी संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण को पुरज़ोर समर्थन तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बयान कि “जब तक मैं ज़िंदा हूं, तब तक बाबासाहब के आरक्षण पर कोई आंच नहीं आएगी।”[34] वे ऐसा साबित करने की कोशिश करते हैं कि संघ व भाजपा आरक्षण के सबसे बड़े समर्थक हैं। लेकिन यह सिर्फ़ ज़बानी जमाखर्च है। इसके ज़रिए दलित, आदिवासी व पिछड़े समुदायों में वैचारिक विभ्रम पैदा करके उनके मध्य आ रही चेतना को पलट देने का षड्यंत्र है। बाक़ी संघ कुछ नहीं करेगा, संघ का स्वयंसेवक सब कुछ करेगा के रहस्यमय सिद्धांत के तहत संघ प्रमुख व संघ राजनीतिक रूप से सहीपन रखते हुए आरक्षण का पुरज़ोर समर्थन करेगा और संघ के स्वयंसेवक उसको नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। इस सत्य से प्रतिदिन साक्षात्कार किया जा सकता है। संघ व भाजपा अपने आचरण से आरक्षण को हर रोज़ कमजोर कर रहे हैं, लेकिन सैद्धांतिकी में वे आरक्षण के सबसे प्रबल समर्थक बनकर अपने दोमुंहेपन को क़ायम रखे हुए हैं। संघ का समय-समय पर आरक्षण को लेकर बदलता मत कोई वैचारिक शिफ़्ट नहीं है और न ही आत्मशुद्धि या प्रायश्चित है। यह महज़ एक सधी हुई रणनीति है, जो आरक्षण जैसे संवैधानिक उपचार को निरंतर निरर्थक साबित करने की कोशिश में काम कर रही है। जबकि दूसरी तरफ़ उसके प्रतिबद्ध स्वयंसेवक अपनी सरकार के माध्यम से सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथों में बेचकर वहां आरक्षण को ख़त्म कर रहे हैं। लैटरल एंट्री, संविदा पर नियुक्तियां, बैकलॉग सहित बहुत सारे तौर तरीक़े तो है ही आरक्षण समाप्ति के लिए।
संदर्भ
[1] https://hindi.theprint.in/india/rss-is-a-strong-supporter-of-reservation-it-should-continue-till-there-is-inequality-in-the-society-hosbale/233038/
[2] https://dainik.bhaskar.com/0GL9uc1EzPb
[3] मोहन भागवत, भविष्य का भारत-संघ का दृष्टिकोण, विमर्श प्रकाशन, नई दिल्ली, नवंबर 2022, पृष्ठ 85-86
[4] एम.एस. गोलवलकर, श्रीगुरुजी समग्र, सुरुचि प्रकाशन, खंड-11, पृष्ठ-340-341
[5] त्रिपुरदमन सिंह, वे सोलह दिन (नेहरू, मुखर्जी और संविधान का पहला संशोधन), पेंगुइन रैंडम हाउस इंडिया, 2022, पृष्ठ 101
[6] डॉ. बाबासाहब आंबेडकर : राइटिंग्स एंड स्पीचेज, महाराष्ट्र सरकार, खंड 15, पृष्ठ 334
[7] सत्येंद्र प्रताप सिंह, जाति का चक्रव्यूह और आरक्षण, राजपाल एंड संस, नई दिल्ली, 2023, पृष्ठ 182
[8] वही, पृष्ठ 166
[9] विषय बिंदु, शरद प्रकाशन, आगरा, 2012, पृष्ठ 118-119
[10] वही, पृष्ठ 119-120
[11] मूलचंद राणा, व्यामोह-संघ से समाज की ओर, एक निराशाजनक अनुभव, सम्यक विश्व प्रकाशन, 2020, पृष्ठ 47
[12] वही, पृष्ठ 49
[13] वही, पृष्ठ 50
[14] वही, पृष्ठ 51
[15] वही, पृष्ठ 20
[16] राजेंद्र सिंह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और राष्ट्रीय परिदृश्य, लोकहित प्रकाशन, 2001, पृष्ठ 15
[17] एच.वी. शेषाद्री, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं राष्ट्रीय परिदृश्य, लोकहित प्रकाशन, लखनऊ, पृष्ठ 106-107
[18] सत्येंद्र प्रताप सिंह, उपरोक्त, पृष्ठ 101, 102 व 103
[19] वही, पृष्ठ 107
[20] वही, पृष्ठ 128
[21] वही, पृष्ठ 129
[22] वही
[23] वही, पृष्ठ 136
[24] राम बहादुर राय, यह संविधान : हमारा या अंग्रेजों का, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018, पृष्ठ-26
[25] सत्येंद्र प्रताप सिंह, उपरोक्त, पृष्ठ 82
[26] वही, पृष्ठ 87
[27] मोहन राव भागवत, हिन्दुत्व : सामाजिक समरसता, सुरुचि प्रकाशन, दिल्ली, 2015, पृष्ठ 46
[28] वही, पृष्ठ 47
[29] वही, पृष्ठ 48
[30] वही, पृष्ठ 27-28
[31] विजय कुमार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : क्या, क्यों, कैसे?, प्रभात प्रकाशन, 2022, पृष्ठ 84
[32] डॉ. ओ.पी. शुक्ला, हमारा संविधान : एक पुनरावलोकन, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019, पृष्ठ 127
[33] क्षत्रिय मूलनिवासी संघ का एक्स पर पोस्ट- https://x.com/kmm_bharat/status/1867942837473390806?s=46&t=OuDB8W12T3ir6sTaX7Kt_Q
[34] https://hindi.theprint.in/opinion/reservation-is-being-is-being-finished-and-the-government-is-saying-reservation-is-alive/68633/
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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