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सामाजिक न्याय की जमीनी दास्तान (इतिहास का पुनरावलोकन)

कुल आठ अध्यायों में विभाजित इस किताब में पाठक उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, केरल, तमिलनाडु आदि राज्यों में सामाजिक न्याय आंदोलनों के इतिहास, वर्तमान और भविष्य में इसकी दशा-दिशा जान सकेंगे। इसके अलावा असम सहित तमाम आदिवासी बहुल क्षेत्रों में चल रहे आंदोलनों का निहितार्थ क्या है, वे यह भी समझ सकेंगे। आज ही घर बैठे अमेजन से खरीदें यह किताब। मूल्य– 300 रुपए (अजिल्द)

संपादक : नवल किशोर कुमार व अनिल वर्गीज

आलेख व साक्षात्कार : रामचंद्र कटियार, एन.के. नंदा, श्रावण देवरे, डा. हिरालाल अलावा, प्रो. पी. सनल मोहन, प्रो. उत्तम बाथारी और संपादकद्वय

मूल्य : 300 रुपए (अजिल्द)

ऑनलाइन खरीदें : अमेजन

कुल आठ अध्यायों में विभाजित यह किताब महाराष्ट्र, दक्षिण भारत, उत्तर भारत की हिंदी पट्टी, असम और समग्र आदिवासी जगत में सामाजिक न्याय के लिए हुए आंदोलनों के इतिहास और वर्तमान में इनकी दशा-दिशा की पड़ताल करती है। इनमें एक ओर महाराष्ट्र में जोतीराव फुले के आंदोलन से लेकर दलित पैंथर आंदोलन और वर्तमान में ओबीसी-मराठा राजनीतिक गतिविधियों की रूपरेखा है, तो दूसरी ओर बिहार में जनेऊ आंदोलन से लेकर त्रिवेणी संघ के योगदानों, मुंगेरीलाल आयोग व इस संदर्भ में जननायक कर्पूरी ठाकुर के साहसी पहल की दास्तान है। साथ ही यह बिहार में हुए जाति सर्वेक्षण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को सामने लाती है।

वहीं यह किताब तमिलनाडु में द्रविड़ आंदोलन के विभिन्न आयामों यथा– तमिल भाषा को स्थापित करने के लिए किया गया आंदोलन से लेकर अयोती दास-पेरियार के आंदोलनों और वर्तमान के संघर्ष तक की तस्वीर प्रस्तुत करती है। इसके अलावा इस किताब में पाठक उत्तर प्रदेश में अर्जक संघ के संस्थापक रहे महामना रामस्वरूप वर्मा के करीबी सहयोगी रहे रामचंद्र कटियार की जुबानी सामाजिक न्याय की अनकही कहानी पढ़ सकेंगे। दक्षिण भारत में सामाजिक न्याय की बयार केरल में कैसे बही, इसके बारे में पाठक प्रो. पी. सनल मोहन से एक विस्तृत साक्षात्कार भी पाठक पढ़ सकेंगे।

वहीं यह किताब आदिवासी विमर्श के संदर्भ में असम के आदिवासियों और मूलनिवासियों की ऐतिहासिक समस्याएं, जो आज भी प्रासंगिक हैं, को समग्रता में प्रस्तुत करती है। साथ ही पाठक आदिवासी इलाकों में प्रतिनिधित्व व स्वयात्तता के लिए हुए आंदोलनों के बारे में डा. हिरालाल अलावा के अनुभवों से रू-ब-रू हो सकेंगे।

किताब के कुछ अंश

“रामस्वरूप वर्मा जी कहते थे कि जातियों को जोड़ना मेंढक तौलने के बराबर है। आप एक झोला मेंढक लाओ। उसे तराजू के एक पलड़े पर रखो। जब तक दूसरा झोला लेने जाओगे, आधे भाग जाएंगे। जाति जोड़ने की चीज ही नहीं है। जाति तोड़कर ही एकता स्थापित की जा सकती है। और जब तक जाति रहेगी तब तक ब्राह्मणवाद प्रभावी रहेगा, क्योंकि संविधान में एक भी ऐसी धारा नहीं है जिससे जातिगत भेदभाव को बढ़ावा मिले। वह तो ब्राह्मणवाद का हथियार है कि इनको बांटो। आज आप देख लीजिए। हर जाति के नेता तैयार किए गए हैं। हर जाति की एक पार्टी बन गई है। बंटवारा हो गया कि नहीं? फायदा तो ब्राह्मण वर्ग को ही मिल रहा है। अब वे जिसको चाहते हैं, इशारा करते ही जी-हुजूरी करने आ जाता है।”
रामचंद्र कटियार, इसी पुस्तक में

“बाल गंगाधर तिलक ने गणेश उत्सव का प्रारंभ 1892-93 में किया। इस उत्सव का सबसे पहले विरोध किया बाल ठाकरे के पिता प्रबाेधनकार के.सी. ठाकरे ने। उन्होंने गणेश उत्सव के खिलाफ बहुत आक्रामक लिखा और आक्रामक भाषण भी दिया। उन्होंने बहुजनों को कहा कि यह गणपति हमारा नहीं, ब्राह्मणों का है। उन्होंने जो यह कहानी रची है कि हाथी का सिर काटकर गणपति के ऊपर लगाया, गलत है। यह लोगों को गुमराह करने का तरीका है। उस दौर के सभी सत्यशोधकों ने इस उत्सव का विरोध किया था।”
श्रावण देवरे, इसी पुस्तक में

“सामान्यतः ऐसा माना जाता है कि असम जातिवाद से मुक्त है। परंतु यह सही नहीं है। पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी के नववैष्णव भक्ति संत शंकरदेव की उदारता और सामंजस्य पर आधारित आदर्श, समय के साथ कमजोर पड़ते गए और ब्राह्मणवादी मूल्यों ने असम के समाज में घुसपैठ बना ली। समाज के सभी क्षेत्रों में ऊंची जातियों का वर्चस्व स्पष्ट नजर आता है।”
उत्तम बथारी, इसी पुस्तक में

“अगर संवैधानिक व्यवस्था के तहत हर जगह आदिवासियों को प्रतिनिधित्व मिलता है तो कुछ हद तक स्वायत्तता की स्थिति बनती है, ऐसा हम लोग मान सकते हैं। लेकिन स्वायत्तता के उद्देश्यों को हासिल करने के लिए उसके आगे भी बहुत कुछ है।”
हिरालाल अलावा, इसी पुस्तक में

“हम 19वीं सदी के मध्य में केरल की स्थिति को देखें – मतलब 20वीं सदी के सुधारों से पहले – तो हम पाएंगे कि क्रिश्चियन मिशनरी सोसाइटी (सीएमएस) और लंदन मिशनरी सोसाइटी (एलएमएस) के तत्वाधान में प्रोटेस्टेंट मिशनरियां त्रावणकोर की अछूत जातियों के बीच काम कर रहीं थीं। वे केरल के दक्षिणी हिस्से (त्रावणकोर) तक सीमित नहीं थीं। वे पूर्वी केरल (मलाबार) में भी सक्रिय थीं, विशेषकर बासेल मिशन। इस कारण उस क्षेत्र, जिसे हम आज केरल कहते हैं, में 20वीं सदी के कथित समाज सुधार आंदोलनों, जाति सुधार आंदोलनों व जाति विरोधी आंदोलनों के उभार के पहले ही बदलाव शुरू हो गए थे।”
पी. सनल मोहन, इसी पुस्तक में

“महाराष्ट्र में जोतीराव फुले (जो एक शूद्र थे) और उनके गैर-ब्राह्मण सत्यशोधक आंदोलन ने डॉ. आंबेडकर (जो एक अछूत या अति-शूद्र थे) के उदय की राह प्रशस्त की। तमिलनाडु में इसका उल्टा हुआ। वहां एक आदि द्रविड़ (अछूत) ने पेरियार और उनके गैर-ब्राह्मण आंदोलन के उदय की राह प्रशस्त की।”
अनिल वर्गीज, इसी पुस्तक में

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थोक खरीदने के लिए fpbooks@forwardpress.in पर ईमेल करें या 7827427311 पर कार्यालय अवधि (सुबह 11 बजे से लेकर शाम सात बजे तक) फोन करें

इसके अलावा अमेजन से भी इसे घर बैठे आसानी से खरीदा जा सकता है।

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