दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा है। 2015 में कुल 70 सीटों में से 67 और 2020 में 62 सीट जीतने वाली पार्टी इस बार महज़ 22 सीटों पर सिमट गई। चुनाव नतीजे बताते हैं कि इस बार झुग्गी, दलित और मुसलमान वोटरों के बीच आम आदमी पार्टी को पहले जैसा समर्थन नहीं मिला है। शायद अपने कोर वोटर की अनदेखी और उनके मुद्दों पर ख़ामोश रहने की क़ीमत अरविंद केजरीवाल को चुकानी पड़ी है।
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने कुल 48 सीटों पर जीत हासिल करके तक़रीबन 27 साल बाद दिल्ली की सत्ता में वापसी की है। इसी के साथ 2013 से दिल्ली में चला आ रहा आम आदमी पार्टी का वर्चस्व भी ख़त्म हो गया। नतीजे बता रहे हैं कि आम आदमी पार्टी का कोर वोटर माने जाने वाले जेएमडी समूह, यानी कि झुग्गी, मुसलमान और दलित वोटरों में भाजपा के साथ-साथ इस बार कांग्रेस ने भी सेंध लगाई है। आम आदमी पार्टी विधानसभा की कुल 12 आरक्षित सीटों में से महज़ 8 पर ही जीत दर्ज कर पाई है। बवाना, मादीपुर, मंगोलपुरी और त्रिलोकपुरी में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा है। 2015 और 2020 के विधानसभा चुनाव में इन तमाम सीटों पर आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार विजयी हुए थे।
हालांकि यह नहीं कहा जा सकता कि दिल्ली के दलित और मुसलमान वोटरों ने आम आदमी पार्टी से पूरी तरह किनारा कर लिया है, लेकिन इन वर्गों में पार्टी के लिए इस बार 2013, 2015 या 2020 जैसा उत्साह बिल्कुल नहीं दिखा। भले ही मुसलमान बहुल मानी जाने वाली सात में से छह सीटों पर पार्टी उम्मीदवारों की जीत हुई है, लेकिन पार्टी का वोट प्रतिशत घटा है। मुस्तफाबाद की सीट पर मुसलमान वोटों के बिखराव का ख़मियाज़ा पार्टी उम्मीदवार आदिल अहमद ख़ान को उठाना पड़ा है।

12 आरक्षित और 7 मुसलमान बहुल सीटें आम आदमी पार्टी की बड़ी ताक़त रही हैं। पिछले दो चुनाव के दौरान इनमें 19 की 19 सीट जीतने वाली आम आदमी पार्टी ने इस बार पांच सीटें भाजपा के हाथों गंवा दीं। जंगपुरा, संगम विहार, मालवीय नगर, महरौली और शाहदरा जैसी सीटों पर मुसलमान वोटर भले ही अपने दम पर जीत हासिल नहीं कर सकते, लेकिन जीत में अहम भूमिका निभाते रहे हैं। मुसलमान वोटरों की उदासीनता के चलते आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों को इन तमाम सीटों पर हार का सामना करना पड़ा है। जंगपुरा में उपमुख्यमंत्री रहे मनीष सिसोदिया और मालवीय नगर में पार्टी के बड़े नेता माने जाने वाले सोमनाथ भारती नज़दीक़ी मुक़ाबले में हार गए।
इससे भी बड़ा झटका पार्टी को बवाना, मादीपुर, मंगोलपुरी और त्रिलोकपुरी सीटों पर लगा है। ये सीटें आम आदमी पार्टी की सबसे मज़बूत सीटों में गिनी जाती थीं। बवाना में आम आदमी पार्टी को 2020 में 48.4 फीसद वोट मिले थे। इस बार पार्टी उम्मीदवार महज़ 38.3 फीसद वोट हासिल कर पाया। करोल बाग़ सीट पर 2020 में आम आदमी पार्टी को 62.2 फीसदी वोट मिले थे, लेकिन इस बार पार्टी के मिले वोटों की हिस्सदारी घटकर महज़ 50.8 फीसदी रह गई। पटेल नगर सीट पर 2020 के 60.8 फीसदी वोटों के मुक़ाबले इस बार आम आदमी पार्टी को सिर्फ 49 फीसदी वोट ही मिले। मादीपुर सीट पर 2020 में आम आदमी पार्टी के पक्ष में 56 फीसद लोगों ने मतदान किया था। इस बार पार्टी का वोट प्रतिशत गिरकर महज़ 36 फीसदी रह गया।
मंगोलपुरी सीट पर आम आदमी पार्टी को वोट प्रतिशत में 2020 के मुक़ाबले 13 फीसदी वोटों की गिरावट आई है। इसी तरह त्रिलोकपुरी सीट पर भी 2020 के मुक़ाबले पार्टी को लगभग 6 फीसदी वोट कम मिले हैं। नतीजों से साफ है कि आम आदमी पार्टी के दलित वोटरों में भाजपा के अलावा कांग्रेस ने भी सेंध लगाई है। जबकि मुस्तफाबाद और ओखला सीट पर एमआईएम उम्मीदवारों ने मुसलमान वोटरों के एक बड़े हिस्से को अपनी तरफ लुभाया है। हालांकि ओखला से आम आदमी पार्टी उम्मीदवार अमातुल्लाह अपनी सीट बचाने में कामयाब रहे, लेकिन मुस्तफाबाद में पार्टी को अप्रत्याशित हार का सामना करना पड़ा है। मुसलमान वोटरों की ठीकठाक संख्या ने कांग्रेस उम्मीदवारों के पक्ष में भी मतदान किया है।
दिल्ली के कुल वोटरों में 16.75 फीसदी हिस्सेदारी दलित मतदाताओं की है। मुसलमान वोटर यहां 13 फीसदी से थोड़ा ज़्यादा हैं। सामान्य सीटों में भी कम से कम 25 सीट ऐसी हैं, जहां दलित वोटर मुसलमान और दूसरे जातीय समूहों के साथ मिलकर नतीजा तय करते हैं। इसके अलावा दिल्ली की हर सीट का परिसीमन कुछ इस तरह है कि उसमें कम से कम एक जेजे क्लस्टर ज़रूर है। 2015 के चुनाव में इन तमाम वोटरों के बीच आम आदमी पार्टी को लेकर भारी उत्साह था। इस चुनाव में झुग्गियों और जेजे क्लस्टर में रहने वाले वोटरों ने भी आम आदमी पार्टी का भरपूर साथ दिया। इस हवा में निम्न वर्ग के अलावा निम्न मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग का भी एक हिस्सा आम आदमी पार्टी को मिला। नतीजा यह हुआ कि पार्टी को शानदार जीत मिली और उसके कुल 67 उम्मीदवारों को जीत हासिल हुई।
2015 के चुनाव में कांग्रेस के अलावा बसपा को भी कोई सीट नहीं मिली। दोनों ही पार्टियों की वोट हिस्सेदारी में भारी गिरावट आई। 2020 में भी नतीजे तक़रीबन यही रहे। हालांकि इस चुनाव में आम आदमी पार्टी को 62 सीट मिलीं तथा कांग्रेस व बसपा अपना खाता भी नहीं खोल पाईं। कुल मिलाकर दलित और मुसलमान वोटरों ने आम आदमी पार्टी को एक मज़बूत बुनियाद के साथ इमारत भी बनाकर दी। लेकिन पार्टी इन दोनों ही वोटर समूहों की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी। मुफ्त बिजली, पानी, महिलाओं के लिए बस सेवा और रेहड़ी-पटरी वालों के हितों में कुछ फैसले लेकर पार्टी ने अपना जनाधार तो बनाए रखा लेकिन भावनात्मक मुद्दों पर आम आदमी पार्टी की चुप्पी उसे भारी पड़ी।
झुग्गियों पर डीडीए की बुलडोज़र कार्रवाई, सीएए-एनआरसी मुद्दे पर आंदोलन और फिर उत्तरी दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगों पर चुप्पी से पार्टी के कोर वोटर माने जाने वाले जेएमडी समूह यानी झुग्गी, दलित और मुसलमान तीनों में ही असंतोष उभरने लगा। नतीजा यह हुआ कि इस बार बूथों में इनमें से कोई भी समूह पार्टी के पक्ष में लड़ता या लाइन लगाकर वोट डालता नज़र नहीं आया। सही में देखा जाए तो इस बार आम आदमी पार्टी के अधिकांश उम्मीदवार अपने दम पर जीत कर आए हैं। न तो पार्टी के पक्ष में कोई लहर दिखी न ही पार्टी नेताओं के साथ कार्यकर्ताओं का कोई भावनात्मक लगाव नज़र आया।
आम आदमी पार्टी अपनी हार के लिए नेताओं के ख़िलाफ की गई पुलिस, सीबीआई और ईडी की कार्रवाई को ज़िम्मेदार मान रही है। इसके अलावा पार्टी पिछले तेरह साल में पनपे सत्ता विरोधी रुझान और भाजपा द्वारा वोटर लिस्ट में हेराफेरी को हार की वजह बता रही है। ये वजहें भी हो सकती हैं, लेकिन पार्टी को यह भी सोचना चाहिए कि जो समूह उसके पक्ष में जी-जान से जुटे थे, मुफ्त के पूर्णकालिक कार्यकर्ता मुहैया करा रहे थे, हर आंदोलन में साथ थे वो पार्टी नेताओं के जेल में डालने पर चुप्पी क्यों साध गए? ज़ाहिर है उनका आम आदमी पार्टी से मोह भंग हो गया था। पार्टी अपनी हार पर मंथन ज़रूर करेगी। इस मंथन में जांच का बिंदु यह भी होना चाहिए कि पार्टी की मज़बूत सीटों पर मतदान प्रतिशत कम क्यों हुआ?
अंत में अरविंद केजरीवाल के बयान से ही बात ख़त्म करते हैं। एक समय में उनसे सवाल किया गया था कि आपकी विचारधारा क्या है? तब उन्होंने कहा था कि हम नए तरीक़े की राजनीति करने आए हैं। जिसमें सबका फायदा होगा वही हमारी विचारधारा है। लेकिन उनका कोर-वोटर यानी दलित और मुसलमान सिर्फ फायदा नहीं वैचारिक प्रतिबद्धता भी देखता है। अगर उनके मुद्दों पर, उनके उत्पीड़न पर, उनके अस्तित्व और सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर कोई दल ख़ामोशी इख़्तियार करके सोचता है कि वह सत्ता में बना रह जाएगा या सत्ता पा जाएगा तो फिर यह ख़ामाख़्याली है। यही शायद आम आदमी पार्टी के साथ भी हुआ है।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)