मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह का इस्तीफा और उसके बाद राष्ट्रपति शासन लागू होना देर से हुआ और इससे वहां के लोगों को बहुत कम उम्मीद जगी है। अगर एन. बीरेन सिंह और केंद्र सरकार पिछले 21 महीनों से राज्य में चल रही अशांति और हिंसा की जिम्मेदारी स्वीकार करे तो कुछ उम्मीद जग सकती है। दरअसल, केंद्र को एन. बीरेन सिंह का इस्तीफा राजनीतिक दबाव के चलते स्वीकार करना पड़ा है। वजह यह कि भाजपा को केंद्र में एनडीए के सहयोगियों के साथ-साथ असंतुष्ट विधायकों और सत्तारूढ़ पार्टी के सहयोगी विशेषरूप से मेघालय में सक्रिय नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) और नगालैंड की नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) के बढ़ते दबाव का सामना करना पड़ा।
हालांकि, मणिपुर के राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि केवल मुख्यमंत्री के इस्तीफे और उसके बाद राष्ट्रपति शासन से राज्य में स्थितियां नहीं बदलेंगी। एन. बीरेन सिंह को लेकर भाजपा विधायकों में असंतोष स्पष्ट है। हाल ही में उनके भीतर विद्रोह के संकेत मिले हैं। इसके अलावा एनपीपी, एनपीएफ और जदयू जैसे गठबंधन दल भी एन. बीरेन सिंह से असंतुष्ट थे। ऐसे में एन. बीरेन सिंह का इस्तीफा देना और राष्ट्रपति शासन का भाजपा का उद्देश्य मणिपुर पर अपनी पकड़ बनाए रखने की एक कोशिश प्रतीत होती है। भाजपा विधायकों को जनता की नाराजगी का सामना करना पड़ रहा था और अंततः पार्टी को अपनी छवि बचाने के लिए यह कदम उठाना पड़ा।
गत 24 जनवरी, 2025 को सभी मैतेई विधायकों और सांसदों को मैत्रेई समुदाय के संगठन आरम्बाई तेंगोल ने इंफाल के कांगला किले में बुलाया था। इसके संस्थापक मणिपुर से राज्यसभा सांसद लैशेम्बा सनाजाउबा हैं। तत्कालीन मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह को छोड़कर सभी 38 विधायक और 2 सांसद इस बैठक में शामिल हुए थे। इन सभी ने मणिपुर की राजनीतिक अखंडता और मैतेई समुदाय की एकता को बनाए रखने की शपथ ली। इस बैठक के दौरान एन. बीरेन सिंह के इस्तीफे और राज्य की भावी राजनीतिक रणनीति की पटकथा तैयार की गई। इस बैठक के कारणों में शामिल थे–
- नगा संगठन, यूनाइटेड नगा काउंसिल (यूएनसी) के दबाव में 7 जिलों को खत्म करने की मांग की गई। (यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इबोबी सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने दिसंबर, 2016 में मणिपुर में 7 नए जिले बनाए थे। नगा समुदाय इन नए जिलों से असंतुष्ट है, क्योंकि इनमें से कुछ प्रस्तावित संयुक्त नगालैंड क्षेत्र से बाहर हैं और कुकी व अमार समुदायों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं।)
- इन जिलों को रद्द करने के लिए इसी वर्ष जनवरी में यूएनसी, मणिपुर सरकार और मैतेई संगठनों के बीच त्रिपक्षीय सहमति बनी थी।
- इस आम सहमति को लागू करने से नगा-कुकी संघर्ष फिर भड़क सकता है, क्योंकि मणिपुर में जिलों की सीमाएं अत्यंत ही संवेदनशील मुद्दा है।
- एन. बीरेन सिंह मणिपुर में सत्ता पर अपनी पकड़ को मजबूत कर रहे थे, जैसा पहले कभी नहीं देखा गया।
- आरम्बाई तेंगोल और उसके सहयोगियों के बीच मतभेद उभर आये थे। तेंगोल और यूएनएलएफ (मैतई समुदाय का एक उग्रवादी संगठन) के बीच एक समझौता हुआ।
- पार्टी के विधायकों ने एन. बीरेन सिंह के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था और साथ में एनपीपी और एनपीएफ जैसे सहयोगी दलों में भी सिंह के नेतृत्व से नाखुश थे।
- मणिपुर की स्थिति को लेकर केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा पर घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय दोनों तरह का दबाव था।
कंगला किले में बैठक के दौरान एन. बीरेन सिंह के इस्तीफे के संबंध में एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए गए, जिससे मैतेई विधायकों और सांसदों के बीच राजनीतिक एकता मजबूत हुई और समुदाय के भीतर विभिन्न संगठनों के बीच आम सहमति बनी।
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पिछले साल 10 दिसंबर को मणिपुर से भाजपा के 7 विधायक (कुकी समुदाय के) ने नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर मुंह पर काला कपड़ा बांधकर मौन धरना दिया था। दिसंबर, 2024 में एनडीए के सहयोगी दलों ने भी एन. बीरेन सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। नगा संगठनों ने केंद्र सरकार को अल्टीमेटम जारी कर मांग की कि 2015 के नगा शांति समझौते को 26 जनवरी से पहले सार्वजनिक किया जाए और इसके क्रियान्वयन के लिए केंद्र और राज्य की भाजपा सरकार पर लगातार दबाव डाल रहे थे। राज्य सरकार ने सशस्त्र संगठनों के खिलाफ केवल सतही कार्रवाई की है, जिससे चल रही हिंसा और अशांति में कोई बदलाव नहीं आया है। केंद्रीय सुरक्षा बलों को भी मैतेई और कुकी समुदायों के बीच संतुलन बनाने के लिए मशक्कत करनी पड़ी है। हालांकि उनकी तैनाती और कार्रवाई में पक्षपात की धारणा बनी हुई है।
गौरतलब है कि दोनों समुदायों – मैतेई व कुकी – के युवा संगठन हथियारयुक्त और सांप्रदायिक हो गए हैं तथा गुरिल्ला शैली के संघर्षों में संलग्न हैं। मणिपुर में वर्तमान में सशस्त्र युवा संगठनों का एक समानांतर प्रशासन चल रहा है। यह मानते हुए कि यह एक स्थायी समाधान है, कुकी समुदाय ने अलग प्रशासन के लिए अपनी व्यवस्था स्थापित कर ली है। इसके विपरीत, मैतेई समुदाय पहाड़ी क्षेत्रों में अवैध रूप से बसने वाले कुकी लोगों को हटाने और सीमा पर बाड़ लगाने की मांग कर रहा है। तथाकथित ‘डबल-इंजन सरकार’ अवैध बसने वालों की पहचान करने और उनका हिसाब रखने में विफल रही है। वह म्यांमार सीमा पर केवल 30 किलोमीटर लंबी बाड़ लगाने में कामयाब रही है। हिंसा के कारण विस्थापित व्यक्तियों का अभी तक पुनर्वास नहीं किया गया है, और राज्य प्रशासन कुकी क्षेत्रों में प्रभावी ढंग से काम नहीं कर रहा है। शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, सरकारी परिवहन और अन्य सार्वजनिक सेवाएं सुचारू रूप से नहीं चल रही हैं। चूराचांदपुर और इंफाल के बीच सरकारी फ़ाइलें हेलिकाप्टर से नेपाली या नगा अधिकारियों के द्वारा अदान-प्रदान होता है। अनौपचारिक रूप से, कुकी क्षेत्र में एक अलग प्रशासन चल रहा है, जहां कुकी लोग इंफाल से जुड़ने के बजाय स्थानीय प्रशासनिक सेवाओं और मिजोरम से आ रही सेवाओं, जिनमें आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति आदि शामिल है, पर भरोसा करना पसंद करते हैं।
पिछले 50 वर्षों में मणिपुर ने एक राजनीतिक इकाई के रूप में विभिन्न जातीय समुदायों के सह-अस्तित्व वाले राज्य के रूप में जो पहचान बनाई थी, वह पिछले 21 महीनों की हिंसा और अशांति से बिखर गई है। कोई भी सरकारी निकाय, समुदाय या राजनीतिक नेता इस उथल-पुथल की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है। राज्य का भविष्य अंधकारमय दिखाई देता है, और कई निवासी, मौजूदा स्थिति से परेशान होकर अन्यत्र पलायन करने को मजबूर हो रहे हैं। जो पलायन नहीं कर रहे, वे अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं। जातीय विभाजन ने राज्य की सामाजिक, भौगोलिक और राजनीतक एकता को खत्म कर दिया है, जिससे यह सांस्कृतिक और राजनीतिक दोनों रूप से कमजोर हो गया है। याद रखा जाना चाहिए कि मणिपुर सिर्फ एक राज्य नहीं, बल्कि एक भू-सांस्कृतिक परिवार है, जिसमें मैतेई, नगा, कुकी, मिज़ो, नेपाली और मुस्लिम समुदाय शामिल हैं, जो सभी इसकी भौगोलिक-सांस्कृतिक पहचान के अभिन्न अंग हैं।
एन. बीरेन सिंह के इस्तीफे और गत 13 फरवरी को मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद बड़ा सवाल यह हो गया है कि क्या 3 मई, 2023 से पहले जैसा मणिपुर में शांति और स्थिरता का माहौल बहाल हो पाएगा? राज्य के निवासी चाहते हैं कि सरकार निष्पक्ष, स्वतंत्र और आम सहमति से काम करे। हथियारबंद समूहों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए, उन्हें हथियारविहीन किया जाना चाहिए और उनकी गतिविधियों को अवैध घोषित किया जाना चाहिए। जब तक समुदायों का नेतृत्व ये हथियारबंद समूह करते रहेंगे, तब तक राज्य में लोकतांत्रिक सरकार का अस्तित्व कमज़ोर रहेगा।
इसे ऐसे भी देखा जाना चाहिए कि मणिपुर में कुकी जनजाति व मैतेई समुदाय के बीच अविश्वास की खाई काफी बढ़ गई है, जिसे केवल एक ऐसी सरकार द्वारा ही दूर किया जा सकता है, जो एक समावेशी सर्व-समुदाय और सर्वदलीय समिति की देखरेख में काम करे। संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थाओं को निष्पक्ष और स्वतंत्र रूप से काम करना चाहिए व अपने सरकारी कर्तव्यों के साथ-साथ संवैधानिक दायित्व के रूप में अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करना चाहिए। मणिपुर के बारे में राजनीतिक, विकासात्मक और प्रशासनिक निर्णय इंफाल में जनप्रतिनिधियों और प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा लिए जाने चाहिए। यदि ऐसे निर्णय प्रधानमंत्री कार्यालय या दिल्ली में भाजपा कार्यालय से तय किए जाते हैं, तो राज्य में शांति और स्थिरता की संभावनाएं कम हो जाएंगीं। साथ ही, ‘सबका साथ सबका विकास’ के नारे सिर्फ जुमले ही साबित होंगे।
राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होने के संबंध में हिंसा और विस्थापन से प्रभावित लोगों का मानना है कि पिछले 21 महीनों में जो विनाश हुआ है और लोगों के मन में अविश्वास पैदा हुआ है, उसके बाद उन्हें अब अपनी रिहायशी जमीन वापस मिलने की उम्मीद जगी है। वहीं भाजपा आम जनता के बीच अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है और उसकी सरकार को अब जनता का समर्थन नहीं रहा है। राज्य सरकार कुकी क्षेत्रों की चिंताओं को दूर करने में विफल रही है और राज्य का एक बड़ा हिस्सा पिछले 21 महीनों से अनुच्छेद 355 के अधीन रहा है। राज्य के निवासी एक ऐसी सरकार की मांग कर रहे हैं, जो निष्पक्ष, स्वतंत्र और आम सहमति से काम करे। वे मांग कर रहे हैं कि अशांति में योगदान देने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए। वे कह रहे हैं कि पूर्व मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह को, जो सरकार के मुखिया थे, पिछले 21 महीनों से राज्य में फैली अशांति, असुरक्षा और हिंसा की जिम्मेदारी लेनी चाहिए।
वहीं दूसरा पक्ष यह कि इस्तीफे के बाद एन. बीरेन सिंह भले ही राजनीतिक सत्ता खो चुके हैं, लेकिन वह अराम्बाई तेंगोल के माध्यम से मैतेई समुदाय को प्रभावित करना जारी रखेंगे। समुदाय के विभिन्न संगठनों और राजनीतिक नेताओं के बीच आम सहमति और एकता बनेगी, क्योंकि एन. बीरेन सिंह के कार्यों को मैतेई और कुकी हितों को कमजोर करते हुए नगा समुदाय को खुश करने के रूप में माना जाता था। अगर राज्य में राष्ट्रपति शासन नहीं लगाया गया होता, तो निम्नलिखित स्थितियां उत्पन्न हो सकती थीं–
- राज्य में उग्रवाद फिर से उभर सकता था (उग्रवादी संगठन पहले से ही ताकत हासिल कर रहे थे)।
- नगा-कुकी संघर्ष फिर से भड़क सकता था।
- मणिपुर की क्षेत्रीय और राजनीतिक अखंडता के लिए गंभीर खतरा होता। विधानसभा का सत्र 10 फरवरी को बुलाना संवैधानिक रूप से आवश्यक था; हालांकि, मुख्यमंत्री, जो पहले ही पार्टी सदस्यों का विश्वास खो चुके थे, विधानसभा का सामना नहीं कर सकते थे। एन. बीरेन सिंह ने समुदाय के दबाव के कारण पद छोड़ दिया, लेकिन राष्ट्रपति शासन लगाना केंद्रीय गृह मंत्री और भाजपा के लिए एक मजबूरी बन गई थी, क्योंकि पार्टी के 38 विधायक 24 जनवरी से राष्ट्रपति शासन लागू होने तक नए मुख्यमंत्री के नाम पर सहमत नहीं हो सके।
अब जबकि एन. बीरेन सिंह ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है और राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया है, एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि मणिपुर में आगे क्या होगा? हालांकि अभी राज्य विधानसभा भंग नहीं हुई है, लेकिन नए मुख्यमंत्री पर आम सहमति बनने तक राष्ट्रपति शासन लागू रहेगा। अगला मुख्यमंत्री भी संभवतः मैतेई समुदाय से होगा, जिसमें राधेश्याम (पूर्व आईपीएस और कैबिनेट मंत्री) या शारदा देवी (भाजपा अध्यक्ष) संभावित उम्मीदवार हैं। वैसे दो परस्पर विरोधी समुदायों के बीच सुलह और शांति समझौता होने की बहुत कम उम्मीद है, क्योंकि कुकी अलग प्रशासन के अलावा किसी अन्य मांग पर बातचीत या समझौता करने को तैयार नहीं दिखते हैं।
बहरहाल, पृथक प्रशासन और असंवैधानिक मांगों के लिए सरकारी और राजनीतिक समर्थन मणिपुर में किसी भी समुदाय के लिए उज्जवल भविष्य नहीं लाएगा। हालांकि केंद्रीय सुरक्षा बलों की उपस्थिति हिंसा और असुरक्षा की स्थिति को नियंत्रित तो कर सकती है, लेकिन यह स्थायी शांति और सुरक्षा स्थापित नहीं कर सकती है। केवल एक समर्पित सरकार ही अंतर-समुदाय सहयोग और शांति बहाल कर सकती है। पिछले तीन दशकों में मणिपुर में कई बार अंतर-समुदाय हिंसा हुई है, लेकिन इससे कभी भी ऐसी स्थिति नहीं आई थी, जिसकी वजह से पृथक-प्रशासन या ऐसी सरकार बनी रही, जो जनता का विश्वास और विधायकों का समर्थन खो चुकी हो। समुदाय के प्रतिनिधियों और नेताओं को पहाड़ी क्षेत्रों में नशीली दवाओं की खेती, तस्करी और सरकारी हथियारों के अवैध कब्जे को रोकने की जिम्मेदारी भी लेनी चाहिए। जनप्रतिनिधि और सरकार यह सुनिश्चित करने के लिए उत्तरदायी हैं कि ऐसा माहौल न बने कि जिससे कट्टरपंथी युवा संगठनों को बढ़ावा मिले और उन तक हथियारों की पहुंच हो जाए। हिंसा से प्रभावित समुदायों को मणिपुर में अपने भविष्य के लिए अंतर-समुदाय विश्वास को फिर से बनाने के लिए सुलह और बातचीत की तलाश करनी चाहिए। घाटी और पहाड़ी दोनों ही मणिपुर राज्य के अटूट भौगोलिक अंग और साझी पहचान हैं।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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