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तेलंगाना : जाति सर्वेक्षण रपट के फलाफल के मायने

इस रपट में जो बात सबसे चौंकाने वाली है, वह है मुस्लिम ओबीसी की संख्या। किसी को यह अंदाज़ा नहीं था कि 12.56 प्रतिशत मुसलमानों में से केवल 2.48 प्रतिशत ही ओबीसी होने का दावा नहीं करेंगे। मुस्लिम सामान्य जातियों सहित सभी सामान्य जातियों की राज्य की आबादी में हिस्सेदारी प्रतिशत 15.79 है। पढ़ें, प्रो. कांचा आइलैय्या शेपर्ड का यह विश्लेषण

तेलंगाना मंत्रिमंडल की एक उप समिति ने गत 3 फरवरी, 2024 को सरकार द्वारा राज्य में करवाए गए जाति सर्वेक्षण की रिपोर्ट जारी की। राज्य सरकार ने सर्वेक्षण की रपट को मंजूर कर अगले दिन 4 फरवरी को उसे विधानसभा के पटल पर रखा। मोटे तौर पर सर्वेक्षण में यह सामने आया है कि गैर-मुस्लिम ओबीसी, राज्य की कुल आबादी का 46.25 प्रतिशत और मुस्लिम ओबीसी 10.08 प्रतिशत हैं। अनुसूचित जातियां कुल आबादी का 17.43 प्रतिशत हैं और अनुसूचित जनजातियां 10.45 प्रतिशत। गैर-मुस्लिम सामान्य जातियां (अन्य जातियां) 13.31 प्रतिशत हैं। गैर-मुस्लिम ओबीसी में केवल हिंदू ही नहीं हैं। इनमें ईसाई, सिक्ख और बौद्ध भी शामिल हैं। यद्यपि उनकी संख्या बहुत कम है। मगर इस रपट में जो बात सबसे चौंकाने वाली है, वह है मुस्लिम ओबीसी की संख्या। किसी को यह अंदाज़ा नहीं था कि 12.56 प्रतिशत मुसलमानों में से केवल 2.48 प्रतिशत ही ओबीसी होने का दावा नहीं करेंगे। मुस्लिम सामान्य जातियों सहित सभी सामान्य जातियों की राज्य की आबादी में हिस्सेदारी प्रतिशत 15.79 है।

यह भी हो सकता है कि मुस्लिम ओबीसी में गरीबों का प्रतिशत अन्य मुसलमानों से ज्यादा हो। इस समय तेलंगाना में मुसलमानों को केवल चार फीसद आरक्षण उपलब्ध है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) मुसलमानों को आरक्षण देने का विरोध करती आई है।

संयुक्त आंध्र प्रदेश में आदिवासी, कुल आबादी का सात फीसद थे। तेलंगाना में वे 10.45 फीसद हैं। इसका कारण है लम्बाडा आदिवासियों, जो मैदानों में रहते हैं, की बड़ी आबादी। इसके साथ ही वननिवासी आदिवासी जैसे गोंड और कोया भी यहां बड़ी संख्या में हैं।

सर्वेक्षण के निहितार्थ

इस राज्य-स्तरीय जाति एवं आर्थिक-सामाजिक सर्वेक्षण के राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर जनकल्याण नीतियों और राजनीति के लिए गंभीर निहितार्थ हैं। देश में पहली बार किसी कांग्रेस राज्य सरकार ने ऐसा सर्वेक्षण करवाया है। राहुल गांधी ने इस मुद्दे पर राष्ट्रीय अभियान शुरू किया था। उनका कहना था कि ओबीसी, एससी व एसटी मिलकर देश की कुल आबादी का 90 प्रतिशत हैं, मगर वे सत्ता के प्रतिष्ठानों से बाहर हैं। कन्याकुमारी से कश्मीर तक की अपनी भारत जोड़ो यात्रा और मणिपुर से मुंबई तक की भारत जोड़ो न्याय यात्रा में उन्होंने वायदा किया था कि 2024 के आम चुनाव के बाद यदि कांग्रेस सरकार बनाती है तो वह राष्ट्रीय स्तर पर समग्र जाति जनगणना करवाएगी।

राहुल गांधी ने जाति जनगणना के मुद्दे को इतने जोर-शोर से इसलिए उठाया ताकि वे भाजपा की केंद्र सरकार को असमंजस में डाल सकें। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ओबीसी मतदाताओं का ख़ासा समर्थन हासिल करने में सफल रही है। अगर भाजपा फिर से सत्ता में आ सकी – भले ही अपने गठबंधन साथियों की बैसाखियों पर – तो इसका बहुत बड़ा कारण उत्तर भारत में उसे मिला ओबीसी का समर्थन था। राहुल गांधी अपना उग्र ओबीसी-समर्थक एजेंडा सामने रख कर भाजपा के ओबीसी किले को धराशायी करना चाहते हैं और इस प्रयास में जाति जनगणना उनके हाथों में एक कारगर हथियार है।

तेलंगाना विधानसभा में सामाजिक, जाति, आर्थिक, रोजगार और राजनीतिक सर्वेक्षण रिपोर्ट के लिए उपयोग में लाए गए फार्म को दिखाते मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी

ऊंची जातियों का विरोध

सत्ता में आने के 14 महीनों के भीतर जाति सर्वेक्षण करवाने में सफलता हासिल करने के लिए रेवंत रेड्डी सरकार प्रशंसा की पात्र है। यह इसलिए क्योंकि राज्य और राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर जातियों की आबादी की गिनती करवाने में कई जटिलताएं थीं। सामान्यतः जनगणना केंद्र सरकार करवाती है। पर अब तक किसी भी केंद्र सरकार ने हर दस साल में होने वाली जनगणनाओं में कभी भी विभिन्न जातियों की जनसंख्या की गिनती नहीं करवाई है। सन् 2011 की जनगणना के बाद तत्कालीन यूपीए सरकार ने एक आधा-अधूरा सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण करवाया था, जिसमें मुमकिन है कि जातियों के बारे में आंकड़े भी इकठ्ठा किए गए होंगे। मगर इन आंकड़ों को सार्वजनिक नहीं किया गया। सन् 2014 में भाजपा केंद्र की सत्ता में आ गई और उसने इस सर्वेक्षण की रपट को ठंडे बस्ते में डाल दिया। मोदी सरकार की जाति जनगणना करवाने में तनिक भी रूचि नहीं है, क्योंकि आरएसएस और भाजपा लंबे समय से सामान्य जातियों पर निर्भर रहे हैं।

आम तौर पर गैर-ओबीसी सामान्य जातियां इस तरह की किसी भी कवायद के खिलाफ रही हैं, क्योंकि इससे जो आंकड़े सामने आएंगे, वे नए राजनीतिक समीकरणों को जन्म देंगे। मंडल के बाद के दशकों में ओबीसी एक अलग वोटबैंक के रूप में उभरे हैं। इससे कांग्रेस का मुस्लिम और दलित वोट बैंकों की मदद से चुनाव जीतने का पुराना फार्मूला किसी काम का नहीं बचा है। उल्टे ओबीसी वोटबैंक के सहारे भाजपा चुनाव-दर-चुनाव जीत हासिल करती जा रही है।

ओबीसी क्या चाहते हैं?

ओबीसी काफी लंबे समय से जाति जनगणना की मांग कर रहे हैं। वह इसलिए क्योंकि इसके आंकड़े जारी होते ही उच्चतम न्यायालय द्वारा ओबीसी के लिए आरक्षण पर लगाई गई 27 प्रतिशत की ऊपरी सीमा को चुनौती दी जा सकेगी। मोदी सरकार द्वारा सामान्य जातियों के आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) को 10 प्रतिशत आरक्षण देने के निर्णय के बाद ओबीसी नेता जाति जनगणना की मांग को लेकर और मजबूती से लामबंद हो गए हैं। ईडब्ल्यूएस आरक्षण सरकार ने एक अधिनियम के ज़रिये लागू किया और इसे पहले अखिल भारतीय सेवाओं में लागू किया गया। इस नए कोटे को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई, मगर उसने इसे सही ठहराया।

नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली बिहार की सरकार जाति सर्वेक्षण करवाने वाली पहली राज्य सरकार थी। वहां सर्वेक्षण से पता चला कि ओबीसी राज्य की कुल आबादी का 63.14 फीसद हैं। इस आंकड़े के आधार पर बिहार सरकार ने ओबीसी आरक्षण को बढ़ाने का प्रयास किया, मगर पटना हाईकोर्ट ने उसे ‘असंवैधानिक’ घोषित कर दिया।

सर्वेक्षण में तेलंगाना में गैर-मुस्लिम ओबीसी आबादी का जो प्रतिशत सामने आया है, वह अपेक्षानुरूप है। यद्यपि ये आंकड़े एक राज्य सरकार द्वारा अपने राज्य योजना मंडल के माध्यम से एकत्रित किये गए हैं, मगर इनका एक नतीजा तो यह होगा कि सरकार को इस साल होने वाले स्थानीय संस्थाओं के चुनाव में ओबीसी को 42 फीसद आरक्षण देने का अपना वायदा पूरा करना होगा।

एससी व एसटी के संदर्भ में जो आंकड़े सामने आए हैं, उनके चलते सरकार को यह स्पष्ट करना होगा कि इन वर्गों के लिए निर्धारित कोटे के उप-विभाजन के संबंध में उसका क्या दृष्टिकोण है। साथ ही, बिहार की तरह, तेलंगाना सरकार भी राज्य के अंतर्गत नियोजन में ओबीसी कोटा को वर्तमान 27 प्रतिशत से बढ़ाने की कोशिश करेगी। मगर इन दोनों मामलों में उसे न्यायिक अवरोधों का सामना करना पड़ेगा।

यह आलेख गत 13 फरवरी, 2024 को अंग्रेजी दैनिक ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में ‘आफ्टर कास्ट सर्वे, तेलंगाना विल फेस हर्डल्स इन ट्विकिंग कोटाज’ से प्रकाशित है। हम इसेका हिंदी अनुवाद लेखक की सहमति से प्रकाशित कर रहे हैं।

(अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कांचा आइलैय्या शेपर्ड

राजनैतिक सिद्धांतकार, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता कांचा आइलैया शेपर्ड, हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक और मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद के सामाजिक बहिष्कार एवं स्वीकार्य नीतियां अध्ययन केंद्र के निदेशक रहे हैं। वे ‘व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू’, ‘बफैलो नेशनलिज्म’ और ‘पोस्ट-हिन्दू इंडिया’ शीर्षक पुस्तकों के लेखक हैं।

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