वंचित वर्गों के लिए उत्तरी दिल्ली के वजीरपुर के कारखाने उनके सपने साकार करने के साधन हैं। हाल में वहां स्वाभिमान अपार्टमेंट्स का उद्घाटन हुआ। इन अपार्टमेंट्स के फ्लैट आसपास के झुग्गीवासियों को उनके सिर पर छत मुहैया करवाने के लिए बनाए गए हैं। मगर इस योजना के लाभार्थी खुशियां नहीं मना रहे हैं। वे परेशान हैं। जिन्हें कब्ज़े के कागजात मिल गए हैं, उन्हें कब्ज़ा नहीं लेने दिया जा रहा है और 552 परिवारों के नाम पात्रता सूची से इस आधार पर हटा दिए गए हैं कि उनके पास 2014 से पहले के मतदाता परिचयपत्र नहीं हैं।
गत 3 जनवरी, 2025 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अशोक विहार के जेलरवाला बाग़ में स्वाभिमान अपार्टमेंट्स का उद्घाटन किया। इन अपार्टमेंट्स के निर्माण को 2009 में मंजूरी दी गई थी। पांच साल बाद, 2014 में निर्माण के लिए टेंडर निकाले गए। मूलतः इस परियोजना का क्रियान्वयन दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) को करना था, मगर बाद में इसे प्रधानमंत्री आवास योजना (शहरी) के स्व-स्थाने स्लम पुनर्विकास घटक में शामिल कर दिया गया। करीब 421 करोड़ रुपए की लागत से निर्मित स्वाभिमान अपार्टमेंट्स में बेसमेंट सहित तीन मल्टीस्टोरी ब्लॉक हैं, जिनमें कुल 1,675 फ्लैट हैं। परियोजना का उद्देश्य है झुग्गीवासियों को आधुनिक अधिसंरचना, सामुदायिक सुविधाओं और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट सहित बेहतर आवास और गरिमापूर्ण जीवन जीने का अवसर प्रदान करना। आसपास की झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों के जो निवासी स्वाभिमान फ्लैट के लिए पात्र पाए गए हैं, उनमें से प्रत्येक से 1.74 लाख रुपए जमा करवाए गए हैं, जिसमें से 30,000 रुपए उस कोष में जमा किये जाएंगे, जिससे अगले पांच सालों तक भवनों का रख-रखाव होगा। एक फ्लैट की वर्तमान कीमत करीब 25 लाख रुपए आंकी जा रही है। मगर आवश्यक धनराशि जमा कर देने के बाद भी पात्र झुग्गीवासियों को फ्लैटों का कब्ज़ा नहीं सौंपा जा रहा है। इस देरी से वे परेशान हैं और उनमें से कईयों को नहीं लगता कि अगले एक साल में भी वे अपने फ्लैट में रहने पहुंच पाएंगे। इस बीच कहीं बुलडोज़र उनके वर्तमान आशियाने को उजाड़ने न पहुंच जाएं, इस डर से उनमें से कई अपने गांवों और कस्बों में वापस लौटने की तैयारी कर रहे हैं।
करीब 52 साल के जितेंदर सिंह 30 साल से भी अधिक समय से अपनी पत्नी और चार छोटे बच्चों के साथ एक कमरे की अपनी झुग्गी में रह रहे हैं। वे कहते हैं, “हमने अपनी पत्नी और बेटियों को अपने गांव भेज दिया है। हम लोगों के पास इसके सिवा कोई और चारा नहीं था।” उनकी तरह सैकड़ों अन्य झुग्गीवासियों ने भी अपना सामान बांधना शुरू कर दिया है। इनमें वे लोग शामिल हैं जिन्हें या तो अब तक फ्लैट या कोई अन्य वैकल्पिक आवास आवंटित नहीं किया गया है, या जिन्हें आवंटित फ्लैट उनकी झुग्गियों से भी छोटे हैं या जिन्हें यह डर है कि फ्लैट पर कब्ज़ा मिलने के पहले ही उनके घर तोड़ दिए जाएंगे।
डीडीए की आवंटन नीति : लक्षित लाभार्थी सूची से बाहर
डीडीए द्वारा सर्वेक्षण और कागज़ी कार्यवाही में भारी लेटलतीफी की जा रही है, जिससे इन लोगों की समस्या और बढ़ी है। वर्ष 2021 तक एक के बाद एक कई सर्वेक्षण किए गए और पात्रता की शर्तों में अनेक बदलाव हुए। अंततः 552 परिवार पात्रता सूची से बाहर हो गए। वजह यह कि संशोधित नीति के अनुसार, केवल वे लोग ही पात्र होंगे, जिनके मतदाता परिचयपत्र 2014 के पहले से बने हों। कई रहवासियों ने दावा किया कि उनके पुराने परिचयपत्र गुम हो गए थे और उन्होंने नए दस्तावेज बनवाए हैं। मगर डीडीए को यह मंजूर न था।
कुछ परिवारों के पास यह साबित करने के लिए कि वे 2014 के पहले से वहां रह रहे हैं, पानी और बिजली के बिल हैं मगर उनके पास मतदाता परिचयपत्र नहीं है। कई ने मतदाता सूची में अपना नाम ही दर्ज नहीं करवाया क्योंकि सरकारें और राजनीतिक दल वर्ष 2009 में स्वीकृत स्वाभिमान अपार्टमेंट्स का 2017 में निर्माण शुरू होने से पहले उनकी फ़िक्र ही नहीं करते थे। कई को हर बार उनके गांव या शहर से दिल्ली वापस लौटने के बाद उनका पता बदलवाना फालतू की मशक्कत लगी और इसलिए उनके नाम लाभार्थियों की सूची से कट गए। कई के मतदाता परिचयपत्र खो गए। उनके बच्चों – जो अब वयस्क हो चुके हैं – के पास मतदाता परिचयपत्र हैं, लेकिन उनमें से ज्यादातर 2014 के बाद जारी किए गए हैं।

अधिकांश मामलों में परिवारों के मुखिया पढ़े-लिखे नहीं हैं और वे सरकारी प्रक्रियाओं की समझ नहीं रखते। मगर उन्होंने कड़ी मेहनत कर अपने बच्चों को पढ़ाया है और उनके सभी ज़रूरी दस्तावेज भी बनवाए हैं। सरकार ने उनके हालात बेहतर बनाने के लिए कुछ नहीं किया है। कई परिवारों का कहना है कि आश्वासनों के बावजूद अंतिम चरण में उनके नाम हटा दिए गए। उन्होंने कई तरह के दस्तावेज प्रस्तुत किए, मगर उनकी किसी ने नहीं सुनी। उन्हें नहीं पता कि वे अब कहां जाएं।
मगर उनके बच्चे – जिन्हें उन्होंने ढेर सारी उम्मीदों के साथ बड़ा किया है – अब आगे आ रहे हैं। इस झुग्गी बस्ती के कई युवा रहवासी दिल्ली विश्वविद्यालय के विद्यार्थी हैं। उनमें से जो लॉ पढ़ रहे हैं, वे अपने परिवार के आवास के अधिकार को हासिल करने के लिए कानूनी तरीके तलाश रहे हैं। उनकी शिक्षा ने उन्हें व्यवस्था को चुनौती देने में सक्षम बनाया है। गरीबी और सरकारी तंत्र की लालफीताशाही के चलते उनके माता-पिता यह नहीं कर सके।
झुग्गी बस्ती के जिन रहवासियों को फ्लैट पर कब्ज़े के दस्तावेज मिल भी गए हैं, वे भी कुएं और खाई के बीच फंसे हुए हैं। डीडीए ने प्रत्येक परिवार को 35-36 वर्ग गज क्षेत्रफल के फ्लैट आवंटित किए हैं, जो बड़े परिवारों के लिए अपर्याप्त हैं। उनसे कहा गया है कि वे तीन महीने के भीतर झुग्गी बस्ती छोड़ दें। जितेंदर के दो लड़के विवाह-योग्य हैं। वे चिंतित हैं कि उनके परिवार के सदस्यों की संख्या 6 से बढ़ कर 8 हो जाने पर उनका उस छोटे से फ्लैट में गुजर कैसे होगी। वे कहते हैं, “मैं और मेरी बहुएं एक कमरे में कैसे रहेंगीं? आगे हमारा परिवार और बड़ा होगा। हमारे पास अपने गांव लौट जाने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है।” रहवासी कहते हैं कि सरकार ने उनकी ज़रूरतों का ख्याल नहीं रखा है। फ्लैटों में उनकी झुग्गियों से भी कम जगह होगी। उन्हें डर है कि जी20 शिखर सम्मलेन के पहले जिस तरह उन्हें जबरदस्ती भगाया गया था, वैसा ही इस बार फिर होगा। वे चाहते हैं कि भगाए जाने से पहले वे स्वयं ही चले जाएं।
दिल्ली सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट (2023-24) के अनुसार शहर की एक-तिहाई आबादी को ढंग से आवास उपलब्ध नहीं हैं। इनमें 675 झुग्गी बस्तियां शामिल हैं, जिनमें साफ़ पानी और साफ़-सफाई उपलब्ध नहीं है और जहां बिजली भी आंखमिचौली खेलती रहती है। दिल्ली में 30 लाख से ज्यादा लोग झुग्गियों में रहते हैं। ये दिल्ली के कुल मतदाताओं का करीब 15 फीसद हैं। सन् 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में शहर के पूर्वी, उत्तरपूर्वी और दक्षिणपूर्वी हिस्सों में 15 निर्वाचन क्षेत्रों में जीत का अंतर 10 हज़ार वोटों से कम था। इससे साफ़ है कि झुग्गीवासी चुनावों में अहम भूमिका निभाते हैं।
यही कारण है कि दिल्ली विधानसभा चुनावों के एक महीने पहले प्रधानमंत्री द्वारा स्वाभिमान अपार्टमेंट्स का उद्घाटन किए जाने से किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। जितेंदर कहते हैं, “हमें हमारे बेहतर भविष्य के लिए नहीं, बल्कि राजनीतिक दलों के बेहतर भविष्य के लिए फ्लैट दिए जा रहे हैं।”
जेलरवाला बाग़ झुग्गी बस्ती के जिन रहवासियों ने फ्लैट के आवंटन के लिए ज़रूरी 1.74 लाख रुपए जमा कराए हैं, उनमें से अधिकांश या तो अपने गांव के मुखियाओं से कर्ज लिया है या फिर कस्बों और छोटे शहरों में अपनी ज़मीनें बेची हैं। कुछ लोगों को अपनी मेहनत की कमाई का एक बड़ा हिस्सा एक छोटे से फ्लैट के लिए खर्च कर देना अच्छा नहीं लगा। मगर उनके लिए इससे भी ज्यादा परेशानी की बात यह है कि पैसा जमा करने के बाद भी उन्हें फ्लैट कब मिलेगा, यह तय नहीं है।
उनकी चिंता को 2022 में कालकाजी एक्सटेंशन में हुए कथित घपले की यादों ने बढ़ा दिया है। यह दिलचस्प है कि उस परियोजना का उद्घाटन भी मोदी ने ही किया था। जेलरवाला बाग में लाभार्थियों को उन्हें आवंटित फ्लैट को देखने की इज़ाज़त भी नहीं है। इससे उनकी चिंताएं बढ़ रही हैं।
मोदी द्वारा अपार्टमेंट्स के उद्घाटन के पूर्व और उसके बाद भी कुछ दिनों तक लाभार्थी अपने फ्लैट देख सकते थे। मगर अब परिसर में प्रवेश बंद कर दिया गया है। डीडीए के अधिकारियों का कहना है कि उस निर्वाचन क्षेत्र से विधानसभा चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों को भी अंदर जाने की इज़ाज़त नहीं दी गई। इसका कारण है अपार्टमेंट्स में चोरी की घटनाएं। लाभार्थियों को लग रहा है कि उन्हें फ्लैट मिलने में और देरी होगी। कई को तो यह डर भी है कि आवंटन कहीं रद्द ही न कर दिए जाएं। वे 2014 से इस अनिश्चितता की स्थिति में जी रहे हैं।

इस स्लम पुनर्विकास परियोजना के टेंडर 2014 में जारी किये गए थे, मगर निर्माण 2017 में शुरू हुआ। सर्वेक्षण 2021 तक चलते रहे और निर्माण का काम अब भी अधूरा है। अधिकारियों का दावा है कि अगले कुछ महीनों में काम ख़त्म हो जाएगा।
जेलरवाला झुग्गीबस्ती के करीब 552 परिवारों के पास कब्जे के कागजात नहीं हैं। कुल 1,078 परिवारों के कब्ज़े के कागजात दिए गए हैं। इसका अर्थ यह है कि 1,675 फ्लैटों में से 597 को या तो किसी को आवंटित नहीं किया गया है या उन्हें किसी अन्य झुग्गी बस्ती के निवासियों को आवंटित कर दिया गया है, जो कि स्व-स्थाने पुनर्विकास परियोजना के नियमों के खिलाफ होगा। उनके पास अपने घर-गांव लौट जाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं बचा है।
विदित है कि साल 2023 में दिल्ली उच्च न्यायलय ने कहा था कि झुग्गीवासियों को केवल इस आधार पर पुनर्वास से वंचित नहीं किया जा सकता कि उनके पास 2014 से पहले दिल्ली में मतदाता होने का प्रमाण नहीं है। मगर रहवासियों का कहना है कि इस आदेश की अनदेखी की जा रही है। कुछ परिवारों ने उच्च न्यायालय में डीडीए के खिलाफ दूसरी याचिका दायर की है।
ये लोग थक गए हैं। वे न तो बहुत पढ़े-लिखे हैं और ना ही राजनीतिक रूप से प्रभावशाली हैं। वे सिर्फ अपने सिर पर छत के लिए लड़ते आम लोग हैं। स्वाभिमान परियोजना, झुग्गीवासियों को उनका स्वाभिमान वापस दिलवाने में न केवल असफल रही है, बल्कि उसने उनमें से कईयों को उस शहर को छोड़ने पर मजबूर कर दिया है, जिसे वे अपना घर मानते हैं।
(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश हरदेनिया)