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जवाबदेही और जिम्मेवारी

डॉ. बी.आर. आंबेडकर मानते थे कि स्वतंत्रता और समानता के बीच में “भाईचारे के बगैर सहज संबंध नहीं हो सकता” और भाईचारा जिम्मेवारी के भाव का ही सुगढ़ रूप है, जो “किसी व्यक्ति को यह देखने में मदद देता है कि दूसरे की भलाई में ही उसकी भलाई है।” स्वहित से प्रेरित अर्थ-प्रधान मानव (होमो इकोनॉमिकस) की धारणा पर मोहित मुख्यधारा के अर्थशास्त्र में इस किस्म के विचार आज भले एक किनारे कर दिए गए हों, लेकिन उनकी प्रासंगिकता खत्म नहीं हुई है। पढ़ें, ज्यां द्रेज व अमर्त्य सेन का यह आलेख

भारत में बहुत से लोग, चाहे वे अमीर हों या गरीब, चाहते हैं कि सरकारी संस्थान और ज्यादा जवाबदेही से काम करें। यथा एक विधवा जिसे पता नहीं चल पा रहा कि उसकी पेंशन की अर्जी का क्या हुआ। एक सफाईकर्मी, जिसका महीनों से वेतन बकाया है। बढ़ा-चढ़ाकर थमा दिए गए बिजली-बिल से हलकान एक आदमी और एक ट्रक-ड्राइवर, जो चुंगी-वसूली में लगे भ्रष्ट बाबुओं के हत्थे चढ़ गया है। इन सबमें एक बात समान है। ये सभी चाहते हैं कि सरकारी कर्मचारी अपने कर्तव्यों के न्यायसंगत निर्वाह के लिए जवाबदेह माने जाएं।

इस मुद्दे पर बहुत चर्चा हुई है और कुछ काम भी हुआ है। साल 2005 के सूचना का अधिकार कानून ने सरकारी प्राधिकरणों के कामकाज की पारदर्शिता के नए मानक बनाकर एक बड़ा योगदान दिया। कुछ राज्यों में शिकायत निवारण की बेहतर सुविधाएं अमल में आई हैं और यहां तक कि नए कानून भी बने हैं।

बहरहाल, बीते दस सालों में धारा उलटी दिशा में बह निकली है। केंद्र सरकार ने राजकाज की संस्थाओं को नागरिकों के प्रति जवाबदेह बनाने की जगह नागरिकों को राजकाज की संस्थाओं के प्रति जवाबदेह बनाने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई है। कई सार्वजनिक संस्थाओं को सरकार की जी-हजूरी में लगे सेवक के रूप में बदल दिया गया है।

सार्वजनिक संस्थाओं को ज्यादा जवाबदेह बनाने की कोशिशों में जान डालना निश्चत ही उपयोगी होगा। लेकिन सार्वजनिक संस्थाएं लोक-कल्याण के लिए काम करें, इसे सुनिश्चित करने के मामले में जवाबदेही के उपायों की अपनी सीमाएं हैं। सरकारी अधिकारी अपने पूर्व-निर्धारित कर्तव्यों का निर्वाह तत्परता से करें, इसके लिए दरअसल जवाबदेही दंड और इनाम की व्यवस्था के जरिए काम करती है। फिर भी, सरकारी कर्मचारियों के बहुत से काम ऐसे होते हैं कि उनकी पल-प्रतिपल निगरानी मुश्किल होती है। इसके अतिरिक्त दंड और इनाम का तरीका एक सीमित और पूर्व-निर्धारित दायरे में काम करता है, जिसमें संबंधित कर्मचारी की अपनी पहल और रचनाधर्मिता के लिए कोई जगह नहीं होती।

अपने लिए काम और मजदूरी के भुगतान के लिए आधार कार्ड की अनिवार्यता खत्म करने की मांग को लेकर झारखंड के मनिका में मनरेगा मजदूर (तस्वीर साभार : रोड स्कॉलर, एक्स हैंडिल)

मिसाल के तौर पर, स्कूल के शिक्षकों की हाजिरी की निगरानी करना बहुत मुश्किल नहीं है, लेकिन कोई शिक्षक/शिक्षिका पूरी ऊर्जा और उत्साह से पढ़ाता/पढ़ाती भी हो, इसे कोई कैसे सुनिश्चित करे? इसका एक मोटा-सा जवाब, जिसके कई लोग हिमायती भी हैं, यह है कि शिक्षक के वेतन को छात्र की उपलब्धियों से जोड़ दिया जाए। लेकिन स्कूल कोई कोचिंग सेंटर भर तो होता नहीं। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का संबंध छात्र की बेहतरी, क्षमता, बर्ताव, जीवन-मूल्य और सर्वांगीण विकास से होता है। जवाबदेही के कुछ उपाय गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को बेशक बढ़ावा दे सकते हैं, लेकिन उन सबकी सीमाएं हैं, क्योंकि कोई शिक्षक क्या करता है और उसके संभावित परिणाम क्या होने जा रहे हैं, इसे जान पाना किसी बाहरी पर्यवेक्षक के लिए मुश्किल है।

हमें यह मानकर चलना होगा कि जवाबदेही, जिम्मेवारी के प्रति व्यापक सरोकार का एक पहलू भर है। कोई शिक्षक जिम्मेदारी के साथ काम कर सकता है, क्योंकि वह दूसरों के प्रति जवाबदेह है। लेकिन वह ऐसा आत्म-प्रेरणा से भी कर सकता है कि मुझे अच्छा शिक्षक बनना है और छात्रों की क्षमता के विकास में मददगार होना है। एक और उदाहरण लें। ग़ज़ा पट्टी (फिलीस्तीन) में हजारों डॉक्टर, पत्रकार तथा राहत-कर्मी बमबारी के बीच घायलों के उपचार, घटनाओं की रिपोर्टिंग और भूखे लोगों को खिलाने के काम में जवाबदेही के कारण नहीं जुटे। इनमें से ज्यादातर लोग ग़ज़ा पट्टी की जनता या अपने पेशे से जुड़ी निजी प्रतिबद्धता के कारण ऐसा कर रहे हैं।

जवाबदेही और जिम्मेवारी के बीच अंतर करना कम-से-कम दो कारणों से जरूरी है। पहली बात, जिम्मेवारी की भावना सामाजिक प्रगति की बड़ी ताकत बन सकती है। जवाबदेही किसी व्यक्ति से वह काम करवा सकती है, जो कोई दूसरा आदमी चाहता है कि हो जाए और वह भी उसी सीमा तक, जिस सीमा तक उस काम की निगरानी हो सकती है। जिम्मेवारी के तहत वह काम करना शामिल है, जो लोग-बाग लोक-कल्याण की भावना से खुद ही करना चाहते हैं। आत्म-प्रेरणा जवाबदेही के दायरे के पार जाते हुए पहलकदमी और रचनाशीलता का बड़ा स्रोत साबित हो सकती है। दरअसल, जिम्मेवारी की संस्कृति ने दुनिया भर में सार्वजनिक संस्थाओं के सुचारू संचालन में केंद्रीय भूमिका निभाई है, जिनमें सिर्फ स्कूल ही नहीं, बल्कि अस्पताल, संग्रहालय, अदालत और संसद तक शामिल हैं।

दूसरी बात, जवाबदेही और जिम्मेवारी के बीच अंतर उन साधनों के मामले में भी है, जिनका इस्तेमाल इन दोनों को बढ़ावा देने के लिए किया जा सकता है। कई बार, जवाबदेही के उपाय जिम्मेवारी के निर्वाह को बढ़ावा देने में मददगार होते हैं। मिसाल के लिए, अगर किसी को पता हो कि समय पर काम के लिए आना हरेक के लिए जरूरी है तो उसके लिए समय पर काम पर आने की अपनी आदत को बनाए रखना आसान होता है। इस मामले में जवाबदेही और जिम्मेवारी एक-दूसरे के पूरक हैं। लेकिन जवाबदेही और जिम्मेवारी की भावना एक-दूसरे के उलट भी जा सकते हैं। मिसाल के लिए, ऊंच-नीच वाला माहौल जवाबदेही को बढ़ावा दे सकता है, भले ही वह नीचे के पदों पर बैठे लोगों का मनोबल हीन करके उनके भीतर से जिम्मेवारी की भावना कमजोर करे। इसी तरह, केंद्रीकरण की प्रवृत्ति जवाबदेही को बढ़ावा दे सकती है, जबकि विकेंद्रीकरण जिम्मेवारी की भावना को। बहुधा परस्पर पूरक होने के बावजूद जवाबदेही और जिम्मेवारी के अपने अलग-अलग दायरे हैं।

संविधान-सभा में आदिवासी जनता के अग्रणी प्रवक्ता रहे जयपाल सिंह मुंडा ने जवाबदेही के उपाय अमल में लाए बगैर जिम्मेवारी की भावना को बढ़ावा देने की अहमियत की एक दिलचस्प मिसाल पेश की थी। स्वतंत्र भारत के खेल मंत्री के रूप में उनकी शुरुआती पहलों में एक था– सभी दलों के संसद-सदस्यों के बीच क्रिकेट मैच का आयोजन करना। जान पड़ता है कि इस पहल के कारण संसद-सदस्यों के बीच बेहतर तालमेल कायम हुआ। जयपाल सिंह ने लिखा है– “मुकाबले ने, नेशनल स्टेडियम में लंच और डिनर ने, एक बड़ी कामयाबी हासिल की। सभी राजनीतिक दलों में नजदीकी कायम हुई और संसद के दोनों सदनों में दोस्ताना माहौल कायम हुआ।” इस “दोस्ताना माहौल” को कायम करने के पीछे उनकी मंशा संसदीय जीवन को ज्यादा खुशगवार बनाने भर की नहीं, बल्कि संसद को ज्यादा बेहतरी से कामकाज करने में सक्षम बनाने की भी थी। अफसोस कि वैसा माहौल आज जरा-सा भी शेष नहीं।

जैसा कि ऊपर की कहानी से जाहिर है, जिम्मेवारी में अक्सर एक पहलू सहयोग का होता है। बेशक, चाहे दूसरे लोग जो भी करें, लेकिन एक सिद्धांतनिष्ठ व्यक्ति जिम्मेवारी की भावना से ही काम करेगा, ठीक उस पैदल यात्री की तरह जो सड़क पार करने के लिए हरी बत्ती का इंतजार करता है, भले ही दूसरे लोग फटाफट आगे निकल रहे हों। लेकिन, ज्यादातर लोगों के लिए जिम्मेवारी की भावना से काम करना तब आसान हो जाता है जब दूसरे भी ऐसा कर रहे हों।

इस बुनियादी किस्म की सूझ के दूरगामी नतीजे निकलते हैं। इनमें से एक यह है कि गैर-जिम्मेदाराना रवैया एक ‘सामाजिक फंदे’ का रूप ले सकता है, जिसमें गैर-जिम्मेदाराना बर्ताव के मामले में लोग एक-दूसरे का अनुसरण करने लग जाएं, भले ही वे एक जिम्मेवार माहौल का हिस्सा होना चाहते हों। भारत में बहुत से स्कूल इसी किस्म के फंदे में फंसे जान पड़ते हैं। इस सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि फंदे से निकलने का साझा प्रयास लाभदायक हो सकता है। खुद को बनाए-टिकाए रखने वाली एक स्थिति ऐसी भी हो सकती है, जहां विभिन्न लोगों के जिम्मेवारी भरे बर्ताव एक-दूसरे से सहारा और बढ़ावा पाते हों। सामाजिक मान-मूल्यों पर केंद्रित शोध-साहित्य में ऐसी स्थिति के कई उदाहरण मिलते हैं।

यह बात अक्सर भुला दी जाती है कि चुनावी लोकतंत्र का पूरा ढांचा साझी जिम्मेवारी के उस साधारण से कृत्य पर टिका हुआ है, जिसे ‘मतदान’ कहते हैं। हर मतदाता जानता है कि उसके वोट डालने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला तो भी बहुत से लोग वोट डालते हैं और कई बार ऐसा वे कठिन स्थितियों (जैसे, लंबी दूरी पैदल तय करना या कतार में भारी ठंढ या गर्मी में घंटों लगे रहना) में करते हैं। मतदान करने के पीछे कई मकसद हो सकते हैं, लेकिन बड़ी संभावना है कि कई लोग इसे केवल एक जिम्मेदार नागरिक का कार्य मानते हैं।

सदियों से एक स्वस्थ सामाजिक जीवन के लिए जिम्मेवारी की भावना की अहमियत पर कई प्रसिद्ध चिंतकों ने सोच-विचार किया है, जिसमें कई अग्रणी अर्थशास्त्री भी शामिल हैं। एडम स्मिथ ने ‘थियरी ऑफ मोरल सेंटिमेंट्स’ में जोर देकर कहा है कि हम जो कुछ करते हैं, वह सिर्फ हमारे लक्ष्य से ही नहीं, बल्कि ‘आचार-व्यवहार के उन सामान्य नियमों’ से भी प्रभावित होता है, जो आत्मावलोकन की इस भावना से पैदा होती है कि हमारे कर्मों के बारे में लोग क्या सोचेंगे। नव-शास्त्रीय अर्थशास्त्र के जनक कहे जाने वाले अल्फ्रेड मार्शल ने अपने गौरवग्रंथ ‘प्रिंसिपल्स ऑफ इकोनॉमिक्स’ की शुरुआत “निस्वार्थ सेवा” की विस्तृत चर्चा से की है और यहां तक लिखा है कि “अर्थशास्त्री का परम लक्ष्य यह खोजना है कि कैसे इस छिपी हुई सामाजिक संपदा को विकसित किया जाए।” डॉ. बी.आर. आंबेडकर मानते थे कि स्वतंत्रता और समानता के बीच में “भाईचारे के बगैर सहज संबंध नहीं हो सकता” और भाईचारा जिम्मेवारी के भाव का ही सुगढ़ रूप है, जो “किसी व्यक्ति को यह देखने में मदद देता है कि दूसरे की भलाई में ही उसकी भलाई है।” स्वहित से प्रेरित अर्थ-प्रधान मानव (होमो इकोनॉमिक्स) की धारणा पर मोहित मुख्यधारा के अर्थशास्त्र में इस किस्म के विचार आज भले एक किनारे कर दिए गए हों, लेकिन उनकी प्रासंगिकता खत्म नहीं हुई है। आरंभिक कालखंड के अर्थशास्त्री जो बात जानते थे, उन्हें हम भी जान सकते हैं।

यह आलेख पूर्व में अंग्रेजी दैनिक ‘टेलीग्राफ’ द्वारा अंग्रेजी में प्रकाशित है। यहां इसका हिंदी अनुवाद लेखकद्वय की सहमति से प्रकाशित है।

(अनुवादक : चंदन श्रीवास्तव, संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

ज्यां द्रेज एवं अमर्त्य सेन

ज्यां द्रेज बेल्जियम मूल के भारतीय नागरिक हैं और सम्मानित विकास अर्थशास्त्री हैं। वे रांची विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के अतिथि प्राध्यापक हैं और दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में आनरेरी प्रोफेसर हैं। वे लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और इलाहबाद विश्वविद्यालय में शिक्षण कार्य कर चुके हैं। भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की स्थिति के दस्तावेजीकरण में उनकी महती भूमिका रही है। वे (महात्मा गांधी) राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के प्रमुख निर्माताओं में से एक हैं। उन्हाेंने नोबेल पुरस्कार विजेता अर्मत्य सेन के साथ कई पुस्तकों का सहलेखन किया है जिनमें ‘हंगर एंड पब्लिक एक्शन’ व ‘एन अनसरटेन ग्लोरी : इंडिया एंड इट्स कोन्ट्राडिक्शंस’ शामिल हैं। वर्ष 1998 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अमर्त्य सेन (जन्म : 3 नवंबर, 1933) प्राख्यात अर्थशास्त्री हैं। वे जादवपुर विश्वविद्यालय, दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय व हार्वर्ड विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहे हैं। इसके अलावा स्टैनफोर्ड, कॉर्नेल, बर्कले व एमआईटी विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफेसर रहे हैं। उनकी प्रकाशित कृतियों में ‘द आइडिया ऑफ जस्टिस’, ‘डेवलपमेंट ऐज फ्रीडम’, ‘दी आर्गूमेंटेटिव इंडियन’ और ‘आइडेंटिटी एंड वायलेंस : दी इल्यूजन ऑफ डेस्टिनी’ आदि शामिल हैं

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