“तेलंगाना सामाजिक, जातिगत, आर्थिक, शैक्षणिक, रोजगार एवं राजनीतिक सर्वेक्षण”, जिसे आम भाषा में “जातिगत जनगणना” कहा जाता है, कांग्रेस नेता राहुल गांधी की व्यक्तिगत पहल पर किया गया। रेवंत रेड्डी की नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने उच्च जातियों के विरोध के बावजूद यह सर्वेक्षण करवाया। राहुल गांधी तेलंगाना की इस जातिगत जनगणना को पूरे देश के लिए मॉडल बता रहे हैं।
यह तेलंगाना में वैज्ञानिक तौर-तरीकों से की गई पहली जातिगत जनगणना है। इसके पहले अलग-अलग जातियों की आबादी की गिनती 1931 में हुई थी। वह गिनती निज़ाम की सरकार द्वारा करवाई गई थी और उस समय परिस्थितियां काफी भिन्न और कठिन थीं। कई गांवों और टोलों तक पहुंच पाना ही संभव नहीं था। वर्तमान तेलंगाना राज्य के अलावा, आज के महाराष्ट्र और कर्नाटक के कई हिस्से भी निज़ाम के राज्य का हिस्सा थें। गिनती करने वाले अधिकांश उर्दूभाषी थे, जबकि लोग क्षेत्रीय भाषाएं जानते थे। गणना के लिए जिस पद्धति एवं प्रश्नावली का इस्तेमाल किया गया था, वह भी आधुनिक नहीं थी। हालांकि अंग्रेजों ने उस समय उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ पद्धति का इस्तेमाल किया था।
वैज्ञानिक सर्वेक्षण
इसमें कोई संदेह नहीं कि तेलंगाना सरकार ने ताज़ा सर्वेक्षण के लिए आधुनिक कार्यपद्धति का इस्तेमाल किया है। उसने तेलुगु, उर्दू और अंग्रेजी जानने वाले कर्मचारियों को इस काम में लगाया। कहने की जरूरत नहीं कि अब सारे गांवों और टोलों तक पहुंचना संभव हो गया है।
इससे पूर्व तेलंगाना राष्ट्र समिति (जो अब भारत राष्ट्र समिति, बीआरएस, कहलाती है) ने 2014 में यह दावा किया था कि उसने ऐसा ही एक सर्वेक्षण केवल एक दिन में पूरा कर लिया था। यह दावा 2 जून, 2014 को सरकार बनने के कुछ ही दिनों बाद किया गया था। इतनी जल्दी कोई वैज्ञानिक सर्वेक्षण या जनगणना नहीं की सकती।
तेलंगाना की कांग्रेस सरकार ने जाति जनगणना के आंकड़े 4 फरवरी को विधानसभा के पटल पर रखे। विभिन्न जातियों के आबादी में प्रतिशत के आंकड़े जारी होते ही कांग्रेस और भाजपा के बीच सियासी जंग शुरू हो गई। जाहिर है कि इस जंग में भाजपा मुसलमानों के खिलाफ खड़ी थी।
बीआरएस ने एक ‘कुटुंब सर्वेक्षण’ भी करवाया था, जिसके आंकड़े कभी जारी ही नहीं किए गए।
मुस्लिम ओबीसी
भाजपा का तर्क है कि कांग्रेस सरकार ने जान-बूझकर मुस्लिम ओबीसी के प्रतिशत को बढ़ा-चढ़ा कर बताया है और हिंदू ओबीसी की आबादी कम बतलाई है। उसने चेतावनी दी है कि जब भी वह सत्ता में आएगी तब वह मुसलमानों से ओबीसी का दर्जा वापस ले लेगी, क्योंकि यह श्रेणी केवल हिंदू जातियों के लिए है और साथ ही मुसलमान ओबीसी को दिए जा रहे चार प्रतिशत आरक्षण कोटे को हिंदू ओबीसी के लिए निर्धारित कोटे में जोड़ देगी।
ताजा सर्वेक्षण वैज्ञानिक ढंग से तैयार प्रश्नावली के आधार पर 50 दिनों की अवधि में किया गया। तेलंगाना सरकार ने उत्तरदाताओं से पूछने के लिए 56 प्रश्न तैयार किए थे। प्रश्नावली के परिशिष्ट में चार श्रेणियों में विभाजित जातियों की सूची थी। ये श्रेणियां थीं– ओबीसी, एससी, एसटी व ओसी (सामान्य जातियां)।
मुसलमानों की ‘ओबीसी-ई’ सूची में 60 मुस्लिम ओबीसी जातियों के नाम थे। गणनाकर्मी पहले उत्तरदाताओं से यह पूछते थे कि वे किस श्रेणी में आते हैं और उसके बाद उस श्रेणी में शामिल जातियों के नामों में से उनकी जाति पूछी जाती थी।
निम्न जातियों के मुसलमान
इस सर्वेक्षण के अनुसार 10.08 प्रतिशत मुसलमान ओबीसी श्रेणी में हैं। केवल 2.48 प्रतिशत मुसलमानों ने यह कहा कि वे सामान्य श्रेणी में आते हैं।
मुस्लिम ओबीसी जातियों की सूची सन् 2006 के आसपास वाई.एस. राजशेखर रेड्डी की सरकार ने तैयार की थी। अब यही सूची आंध्र प्रदेश में भी उपयोग में लाई जाती है, जहां भाजपा सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा है। अगर आंध्र प्रदेश सरकार भविष्य में कोई जाति जनगणना करती है तो क्या वह राज्य के सभी मुसलमानों को सामान्य जाति का बताएगी?

यह आश्चर्यजनक है कि जिन मुस्लिम जातियों को ओबीसी में शामिल किया गया है, उनमें से अधिकांश वे हैं जो या तो भीख मांगते हैं या सड़क पर सामान बेचते हैं या खेल-तमाशे दिखाकर अपना पेट पालते हैं। सूची ‘अच्चूकट्टालावंधु’ से शुरू होती है और ‘तुराका कशा’ पर जाकर खत्म होती है। इसमें भिखारी, सब्जी बेचने वाले, साइकिल मरम्मत करने वाले, सड़क पर खेल-तमाशा दिखाने वाली आदि शामिल हैं।
इनमें से अधिकतर निम्न जातियों के लोग वे लोग हैं, जिन्होंने आसफ़जाही राजवंश के करीब 300 साल लंबे राज के दौरान हिंदू धर्म छोड़कर इस्लाम अपनाया था।
भाजपा एवं मुसलमान
भाजपा का ओबीसी मुसलमानों का विरोध अनुचित है। पिछड़ी जातियों के मुसलमान मध्य-पूर्व से भारत नहीं आए हैं। अछूत प्रथा और जातिगत दमन से बचने के लिए कई दलित समुदायों जैसे खटीक, कसाई, जूते चप्पल बनाने वाले, हड्डियों और चमड़े का व्यवसाय करने वाले आदि के सदस्य धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बन गए थे। कई शूद्र शिल्पकारों ने भी इस्लाम अंगीकार किया था।
भाजपा इन गरीब मुसलमानों के अतीत के बारे में नहीं सोचना चाहती। वह यह नहीं सोचना चाहती कि आखिर उन्होंने नया धर्म क्यों अपनाया था। जो 2.48 प्रतिशत मुसलमान उच्च जातियों के हैं, उनमें पठान, शेख, मुगल और सैयद शामिल हैं। यह हो सकता है कि उनमें से कुछ के पूर्वज सैकड़ों साल पहले बाहर से भारत आए हों।
वे लोग इस देश में उसी तरह आए थे, जिस तरह आधुनिक युग में ब्राह्मण, बनिए, कायस्थ, खत्री और क्षत्रिय अमरीका में बसे और आज भी बस रहे हैं। इनमें से कई ने अमरीका और यूरोप में बसने के बाद ईसाई धर्म अपना लिया है। क्या केवल इस कारण से अमरीका की सरकार को उन्हें वे लाभ नहीं देने चाहिए जो कमजोर वर्ग के लोगों के लिए निर्धारित हैं? राज्य की कल्याण नीतियां मानवीय मूल्यों पर आधारित होनी चाहिए, धर्म पर नहीं।
कुछ प्रश्न
तेलंगाना के आंकड़े बताते हैं कि गैर-मुस्लिम ओबीसी (जिनमें बौद्ध, सिक्ख और अन्य भी शामिल हैं) कुल आबादी का 46.25 प्रतिशत हैं। इससे यह भी पता चलता है कि गैर-मुस्लिम अन्य जातियां – जो आरक्षण की पात्र नहीं हैं – का कुल आबादी में 13.31 प्रतिशत का हिस्सा है।
अन्य जातियों का जो प्रतिशत सामने आया है, उससे यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ है कि वह बीआरएस सरकार के सर्वेक्षण की तुलना में अधिक क्यों है? उस सर्वेक्षण में यह सामने आया था कि अन्य जातियों का प्रतिशत करीब 7 है। मगर जो बात लोग नहीं समझ रहे हैं, वह यह है कि 2014 से 2025 के बीच बड़ी संख्या में उच्च जातियों के लोग तेलंगाना में आकर बस गए हैं। आईटी एवं रियल एस्टेट के क्षेत्रों में बहुत बड़ी संख्या में उत्तर भारतीय उच्च जातियों के लोग हैदराबाद में काम कर रहे हैं।
ऊंची जातियों की आमद
ऊंची जातियों की सूची में 18 जातियां शामिल हैं, जिनमें मारवाड़ी, जैन, बनिया, शेट्टी, अय्यर/आयंगर व ब्राह्मण मुख्य हैं।
सन् 2014 में आंध्र प्रदेश के बंटवारे के बाद हैदराबाद में आईटी एवं अन्य क्षेत्रों में काम करने वाले कर्मी इन्हीं जातियों के हैं। इसके अलावा कई सेवानिवृत्त कर्मी भी देश के अन्य क्षेत्रों को छोड़कर यहां बस गए हैं। वह इसलिए, क्योंकि हैदराबाद का मौसम अच्छा है और इस शहर का चरित्र कास्मोपालिटन (वैश्विक) है।
हैदराबाद के पश्चिमी हिस्से में स्थित हाईटेक सिटी, मैनहटन की तरह मालूम होती है। वहां बड़ी संख्या में अन्य भारतीय राज्यों से आए उच्च जातियों के धनी प्रवासी रहते हैं।
एससी और एसटी
एससी व एसटी के आबादी के प्रतिशत के बारे में कोई विवाद नहीं है। वे कुल आबादी का क्रमशः 17.43 प्रतिशत और 10.45 प्रतिशत हैं। उसी दिन विधानसभा में सरकार ने यह घोषणा की कि वह अनुसूचित जातियों (एससी) को तीन समूहों ए, बी एवं सी में विभाजित कर रही है। इन समूहों को मडिगा, माला व अन्य कहा जाएगा और इन्हें क्रमश 9, 5 एवं 1 प्रतिशत आरक्षण उपलब्ध होगा।
भाजपा लंबे समय से मडिगाओं को गोलबंद करने का प्रयास कर रही है ताकि वे सुप्रीम कोर्ट के एससी/एससी उपवर्गीकरण से संबंधित निर्णय के अनुरूप आरक्षण के लिए संघर्ष कर सकें। मगर भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व जाति जनगणना नहीं होने देना चाहता और ना ही वह उपवर्गीकरण से संबंधित उच्चतम न्यायालय के निर्णय को लागू होने देना चाहता है। उसका एकमात्र उद्देश्य तेलंगाना की कांग्रेस सरकार को अस्थिर करना है।
भाजपा का मुस्लिम विरोध
भाजपा ओबीसी को गोलबंद कर तेलंगाना में सत्ता में आने की जुगत में है। वर्ष 2023 में उसने एक ओबीसी चेहरे को मुख्यमंत्री पद का अपना उम्मीदवार भी घोषित किया था। यह रेवंत रेड्डी एवं के. चंद्रशेखर राव को कमजोर करने की रणनीति का हिस्सा था।
मगर इसके बावजूद भी वह तेलंगाना में जातिगणना करवाने के खिलाफ थी, जबकि यह ओबीसी की बहुत पुरानी मांग रही है।
वर्ष 2023 के विधानसभा और वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा लगातार यह कहती रही कि मुसलमानों को ओबीसी का दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए और उनके लिए निर्धारित चार प्रतिशत आरक्षण गैर-मुस्लिम ओबीसी को दे दिया जाना चाहिए। जाहिर है कि यह मांग हिंदू ओबीसी को भाती है और इसके कारण वे मुसलमानों के खिलाफ हो सकते हैं।
तेलंगाना में अपने चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह लगातार मुस्लिम विरोधी बातें करते रहे। जब जातिगत जनगणना से यह सामने आया कि राज्य में 10.08 प्रतिशत मुस्लिम ओबीसी हैं तो राज्य भाजपा अध्यक्ष किशन रेड्डी और एक केंद्रीय मंत्री बंदी संजय कुमार सहित कई पार्टी नेताओं ने कहा कि यह आंकड़ा गैर-मुस्लिम ओबीसी के खिलाफ षड्यंत्र है।
कांग्रेस सरकार के सर्वेक्षण पर संदेह
भाजपा यह दुष्प्रचार कर रही है कि कांग्रेस सरकार ने ये आंकड़े इसलिए प्रस्तुत किए हैं ताकि हिंदू ओबीसी के लिए आरक्षित नौकरियां और सीटें मुसलमानों को दी जा सकें।
भाजपा के अनुसार कांग्रेस जिन मुसलमानों को ओबीसी बता रही है, दरअसल उन्हें सामान्य वर्ग में होना चाहिए। यह निश्चित तौर पर एक अत्यंत खतरनाक सांप्रदायिक तर्क है।
इस सभी मसलों से निपटने का एक ही तरीका है कि भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार आने वाले समय में होने वाली जनगणना में जातिगत जनगणना को भी शामिल करे। अगर वह किसी भी मुसलमान जाति को ओबीसी में नहीं रखती है तब ऐसा करना पसमांदा मुसलमानों को लेकर भाजपा के द्वारा की जा रही सियासत के खिलाफ होगा। और ऐसा करना देश भर की निम्न जातियों के मुसलमानों के साथ अन्याय होगा।
(यह आलेख पूर्व में अंग्रेजी वेब पत्रिका ‘दी फेडरल’ द्वारा प्रकाशित है। यहां इसे हम लेखक की सहमति से प्रकाशित कर रहे हैं। मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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