इस साल 13 जनवरी से 26 फ़रवरी के दौरान प्रयागराज में आयोजित महाकुंभ में जनसमुद्र उमड़ पड़ा। इस दौरान राहुल गांधी ने आंबेडकर के जन्मस्थल मध्य प्रदेश के महू में जय संविधान रैली में भाग लिया और अपने संसदीय क्षेत्र उत्तर प्रदेश के रायबरेली, जो प्रयागराज से बहुत दूर नहीं है, की यात्रा की।
मगर वे महाकुंभ के मेले में नहीं गए। गंगा में डुबकी न लगाकार आखिरकार राहुल गांधी ने ज़माने को खुल कर यह बताने की हिम्मत जुटा ही ली कि वे किस पाले में हैं। साफ़ है कि वे देवों (या आर्यों) के पाले में नहीं हैं, जिन्होंने असुरों को समुद्र-मंथन में निकला अमृत नहीं पीने दिया जबकि समुद्र को मथने में असुरों ने सबसे ज्यादा पसीना बहाया था और कई मुसीबतों का सामना किया था। विष्णु पुराण के अनुसार समुद्र को मथने के लिए देवगण वासुकी नाग की पूंछ की ओर खड़े हुए और दैत्य-दानवगण उसके मुंह की ओर। उसकी फूंफकार के साथ निकलने वाले आग की लपटों ने दैत्यों को झुलसा दिया और वे पस्त हो गए। दूसरी ओर, उसके सांस लेने से बहने वाली हवा ने देवों को ताजादम कर दिया। देवों और दैत्यों ने समुद्र-मंथन के लिए मंदार पर्वत को मथनी और वासुकी नाग को रस्सी की तरह इस्तेमाल किया। देवों में से एक, इंद्र के पुत्र जयंत ने कौए का रूप धर अमृत का घट दानवों से छीन लिया और उसे लेकर 12 दिनों तक उड़ता रहा। इस दौरान वह प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में उतरा और इन्हीं चार स्थानों पर कुम्भ आयोजित होता है। आज के दलित, आदिवासी और ओबीसी या बहुसंख्यक गैर-आर्य हैं और दैत्यों के वंशज हैं।
राहुल गांधी को काफी ठोकरें खाने के बाद पूरी बात समझ में आई है। उन्हें यह अहसास हो गया है कि वे दो नावों पर सवारी नहीं कर सकते। वे यह नहीं कर सकते कि वे जनेऊ धारण कर एक मंदिर से दूसरे मंदिर की यात्रा भी करते रहें और उसके साथ ही आदिवासियों के जल-जंगल-ज़मीन के संघर्ष में भागीदारी भी करें, दलितों के घर रात भी बिताएं, और अपनी पार्टी की सरकार को (2006 में) उच्च शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी के लिए आरक्षण भी लागू करने दें। ऊंची जातियां इतनी मूर्ख भी नहीं हैं कि वे मात्र जनेऊ पहन कर मंदिर जाने से वे उन्हें अपना मान लेंगीं।
जनेऊधारी और उनके चेले-चपाटी हमेशा से अमृत के घट को अपने लिए आरक्षित रखते आए हैं। राहुल गांधी भले ही आंशिक रूप से ब्राह्मण हों, मगर वे इन लोगों के साथी नहीं रहे।

राहुल गांधी की पार्टी के कुछ शीर्ष नेताओं जैसे कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार और मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने महाकुंभ मेले में जाकर गंगा में डुबकी लगाई। कदाचित उन्हें अब भी ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है। या यह भी हो सकता है उनकी पार्टी के नेताओं को ऐसा लगता हो कि सामाजिक न्याय को पार्टी की नीतियों और कार्यक्रमों की धुरी बनाना उचित नहीं है और इसलिए वे राहुल गांधी और पार्टी के मुखिया मल्लिकार्जुन खरगे के पापों को धोने प्रयागराज गए हों। ज्ञातव्य है कि महू के कार्यक्रम में खरगे ने कहा था कि गंगा में डुबकी लगाने से गरीबी ख़त्म नहीं होगी।
पिछले कुछ समय से राहुल गांधी सामाजिक न्याय से जुड़े मसलों पर काफी मुखर रहे हैं। वे जाति जनगणना की मांग जोरदार ढंग से उठाते आए हैं। जाति जनगणना से समाज के सभी तबकों को राज्य की संस्थाओं और देश के संसाधनों में उनका वाजिब हक मिल सकेगा। उन्होंने रेलवे के कुलियों, गिग वर्करों, गाड़ियां सुधारने वाले मिस्त्रियों, सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कर रहे नौजवानों, कॉलेज के विद्यार्थियों आदि के साथ समय बिताया है, केवल यह समझने के लिए कि आखिर क्या कारण है कि भारत की आबादी का एक छोटा-सा तबका बिना मेहनत किये अमृत का पान कर रहा है और शेष बहुसंख्यक भारतीयों को दो जून की रोटी जुटाने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है। उनके पास न कोई सुरक्षित नौकरी है और न आमदनी का कोई स्थाई जरिया।
राहुल गांधी को अब यह समझ आ गया है कि किस तरह बड़े औद्योगिक घरानों के विस्कोस और पॉलिएस्टर पर एकाधिकार ने भारत के कपड़ा उद्योग को बर्बाद कर दिया है। अगर ये औद्योगिक घराने इस कच्चे माल को निर्यात करने को प्राथमिकता न देते तो कपड़ा उद्योग करोड़ों भारतीयों को रोज़गार देता और सरकार को कर के रूप में करोड़ों रुपये मिलते। राहुल ने देखा है कि किस तरह सरकारी संस्थाएं पारंपरिक शिल्पकारों के ज्ञान और कौशल को दरकिनार कर, शिल्पकारों की एक नई पीढ़ी को प्रशिक्षण दे रही हैं, जिससे न केवल पारंपरिक कारीगर आमदनी से महरूम हो रहे हैं, बल्कि पुराने कौशल मरते जा रहे हैं। देवों की जेबें भर रही हैं और असुर कंगाल हो रहे हैं। राहुल गांधी को पता है कि आधुनिक देव कितने ताकतवर हैं। कोई असुर भले ही मुख्यमंत्री बन जाए मगर देवों की दया पर ही जिंदा रहता है क्योंकि नौकरशाही, न्यायपालिका, पुलिस, जांच एजेंसियों, उद्योग-धंधों और व्यापर में देवों की ही तूती बोलती है।
दलित, आदिवासी और ओबीसी अब भी अमृत नहीं चख सके हैं। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा के अध्यक्ष जीतन राम मांझी ने गंगा में डुबकी लगाई। और साथ ही करोड़ों ओबीसी और दलितों ने भी। बसों और ट्रेनों में लटक कर और भगदड़ का खतरा उठाते हुए वे प्रयागराज पहुंचे। उन्हें शायद उम्मीद थी कि इससे उनके नसीब बदलेंगे।
इस महाकुंभ में भी असुरों को अमृत नहीं मिल पाया, सिवाय उन चंद नाविकों के, जिनके बारे में बताया जा रहा है कि 45 दिन के इस मेले में श्रद्धालुओं को ढोकर उन्होंने लाखों-करोड़ों कमाए हैं। मगर क्या अब समय नहीं आ गया है कि वे इतिहास और धर्म में अपनी जगह की तलाश करें? वर्णाश्रम धर्म के अनुसार तो उन्हें बिना मेवा की आशा के सेवा ही करते जाना है। स्पष्ट रूप से यह उन पर थोपा गया है। बहरहाल, ऐसा नहीं लगता कि ये वर्ग करोड़ों की संख्या में कुंभ के आयोजनों में जाना बंद करेंगे। यह इस तथ्य के बावजूद कि इस आयोजन के पीछे जो पौराणिक कथा बताई जाती है, उसके अनुसार उनके पूर्वजों, इस देश के मूलनिवासियों, को उनकी मेहनत के फल से महरूम किया गया था।
(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल)
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