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‘कुंभ खत्म हो गया है तो लग रहा है हमारे दुख कट गए हैं’

डेढ़ महीने तक चला कुंभ बीते 26 फरवरी, 2025 को संपन्न हो गया। इस दौरान असंगठित क्षेत्र के मजदूरों, जिनमें दिहाड़ी मजदूर से लेकर डिलीवरी सर्विस देनेवाले मजदूर भी शामिल हैं, को किस तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ा, इसके बारे में बता रहे हैं सुशील मानव

असमय बढ़े तापमान से सूखती गेहूं की फ़सल की सिंचाई के लिए शिवरात्रि से दो दिन पहले फूलपुर के फजिलापुर गांव निवासी जोखूलाल पाल पानी मांगने पहुंचे तो पंपिंग सेट के मालिक़ ने कहा कि आपके यहां पिछली सिंचाई का पैसा भी बकाया है। आगे वह कुछ और बोलते इससे पहले ही जोखू गिड़गिड़ा पड़े– “देख तो रहे हैं भैय्या, कुंभ के चलते काम-काज दो महीने से ठप्प है। यह खत्म हो जाए, शहर जाने लगूं, तो पैसा हाथ आते ही दोनों सिंचाई का पैसा चुकता कर दूंगा।” दरअसल जोखूलाल पाल दिहाड़ी मज़दूर हैं। खेती-बारी के अलावा वे इलाहाबाद (प्रयागराज) शहर के लेबर चौक पर काम की तलाश में जाने वाले दिहाड़ी मज़दूरों में से हैं। शहर में रामबाग़, अपट्रान, फाफामऊ आदि कई लेबर चौक हैं। कुंभ शुरू होने के कुछ दिन पहले से ही शहर के अंदर दिन के हर समय जाम का आलम रहा। वहीं कुंभ आरंभ होने के बाद बसें और गाड़ियां शहर से बीस किलोमीटर पहले ही रोक दी गईं, जिससे आवागमन का साधन भी बंद हो गया। इसके चलते भी काम के लिए लेबर चौक जाने वाले दिहाड़ी मज़दूरों का शहर जाना बंद हो गया।

“कुंभ मेले में तो हज़ारों लोगों को काम दिया गया है। आप कुंभ नहीं गए काम करने?” पूछने पर जोखुलाल बताते हैं कि “गया था, पर कुछ मिला नहीं। दूसरे वहां ठेकेदार सब बाहर के थे वो अपने मज़दूर भी साथ लेकर आए थे। अगर हम उनके साथ काम करते भी तो वो काम करवाकर चले जाते, पहले कई बार ऐसा हुआ है। सफ़ाईकर्मियों के साथ तो यह हर साल होता है। फिर किससे मांगने जाते अपना मेहनताना?”

अपट्रान-तेलियरगंज के बीच में पड़ने वाली रेलवे पुलिया पर लेबर चौक लगता है। यहां सुबह-सुबह काम के लिए खड़े मज़दूरों की तस्वीर लेने की कोशिश जब एक पत्रकार ने की तब मजदूरों ने उसे घेर लिया। इससे पहले मेले के दौरान इस चौराहे पर सन्नाटा रहता था। यहां हर कोई अपनी बात अपनी पीड़ा पहले सुनाने को आतुर था। लेबर चौक पर खड़े मल्लू सहसों गांव के रहने वाले हैं। वे पुताई-पेंटिंग का काम करते हैं। कोरसर निवासी सुरेश कोई भी काम कर लेते हैं। वे कहते हैं कि मज़दूर तो हर काम के लिए चाहिए होता है, जो भी काम मिला, कर लिया। महेश मलाका से काम के लिए शहर आए हैं। वे बताते हैं कि “दो महीने बहुत संकट से गुज़रे हैं। किरानेवाला उधारी देना बंद कर दिया है। बीमार मां की दवाई के लिए पैसे नहीं हैं, कहीं से मांगकर काम चलाया किसी तरह। अब कुंभ खत्म हो गया है तो लग रहा है कि हमारे दुख कट गए हैं।”

राजेश शिवकुटी क्षेत्र के रहने वाले हैं। वे शहर में बैट्री से चलनेवाली रिक्शा चलाते हैं। उनका कहना है कि “कुंभ के दौरान जाम के चलते दो महीने से ठीक से कमाई नहीं हुई। रिक्शा की ईएमआई की किश्त भरने के लिए भी लोगों से पैसे उधार लेने पड़े। किसी तरह ये कुंभ खत्म हो जाए। जाम से निजात मिले तो जीवन वापस पटरी पर आए।” ऑटो चालक राजीव सिविल लाइंस से तेलियरगंज रूट पर गाड़ी चलाते हैं। ज़्यादा किराया लेने के सवाल पर वे कहते हैं कि “अमूमन लोगों को लगता है कि मेला है, लोग ज़्यादा आ रहे हैं। ऑटो वाले ख़ूब कमा रहे हैं, लूट रहे हैं। लेकिन सच यह है कि जहां पहले सामान्य दिनों में हम चार चक्कर लगा लेते थे, मेले में दो चक्कर लगाना भी मुश्किल हो गया था। जगह-जगह जाम में घंटों फंसे रहने पर समय भी बर्बाद होता था और डीजल भी। कई दिन तो जाम की पीड़ा याद करके ही गाड़ी रोड पर नहीं निकाली। यह कुंभ ग़रीबों के लिए फलदायी नहीं, कष्टदायी ही रहा।”

अपट्रॉन चौक पर मौजूद मजदूर

फ्लिपकार्ट के ई-कार्ट एक्सप्रेस के लिए डिलिवरी मैन का काम करने वाले सौरभ पार्सल लेकर बांटने निकले हैं। वे ग्रामीण इलाक़ों में पार्सल डिलीवरी का काम करते हैं। हमने उनसे पूछा कि “आज बहुत दिनों बाद दिखे आप?” वे बोले– “भैय्या पार्सल ही नहीं आ रहा था तो क्या दिखते। आज 15-20 पार्सल मिला है तो बांटने निकले हैं। आपने ख़ुद भी देखा होगा कि फ्लिपकार्ट, अमेजन आदि कंपनियां ग्रॉसरी और दूसरे सामान का ऑर्डर महीनों से बुक ही नहीं कर रही थीं। वे अधिकांश सामान ‘नॉट डिलिवरेबल इन दिस पिनकोड’ या फिर ‘आउट ऑफ स्टॉक फॉर दिस पिनकोड’ दिखा रही थीं। इसी से इस काम को करने वाले सारे लोग परेशान हैं। प्रति पैकेट 10-12 रुपए ही तो मिलता है। किसी तरह रोटी-रोजी चल रही थी, लेकिन कुंभ शुरू होने के बाद सब घर बैठ गए। जब पार्सल ही नहीं आ रहा था तो क्या करते, कहां निकलते?”

हमने उनसे भी यह सवाल दोहराया कि “कुंभ काहे (क्यों) नहीं गए? सुना है कि बाइकवाले प्रति सवारी 500-1000 रुपए कमा रहे थे।” इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा– “नहीं भैय्या, हम नहीं गए। भीड़-भाड़ में हमसे गाड़ी नहीं चलाई जाती है। गंवई लड़कों के वश की बात नहीं है। मेले में बाइक से सवारी ढोने वाले अधिकांश लड़के शहर के ही हैं। उन्हें भीड़-भाड़ में गाड़ी चलाने का अऩुभव है।” कमाई के सवाल पर वे कहते हैं कि “भैय्या, जो नहीं कुछ कमा रहे हैं, उनसे कोई नहीं पूछ रहा कि क्यों नहीं कमा रहे। जो कमा रहे हैं, उनसे कह रहे हैं कि अवैध कमा रहे हो। हवाईजहाज वाले 10 गुना ज़्यादा किराया वसूल रहे हैं, रेलवे वाले तत्काल के नाम पर कई गुना वसूलते हैं। ओला-उबर वाले पीक टाइम में ज़रूरत के टाइम में ज़्यादा वसूली करते हैं। होटल वाले, लॉज वाले सब तो रेट बढ़ाकर कमा रहे हैं, लेकिन उनसे तो कोई नहीं पूछता। सरकार ने सड़कें बंद करके, उऩ्हें जाम करके हमारी रोटी-रोज़ी छीन ली। हममें से कुछ डिलिवरी वालों ने अपनी रोटी कमाने के लिए कुंभ में सवारियां ढोना शुरू किया तो पुलिस और मीडिया ने उन्हें ‘बाइकर्स गैंग’ कहकर क्रिमिनलाइज करना शुरू कर दिया।”

गौरतलब है कि मेला प्रशासन ने क़रीब 300 बाइक को सीज़ करने और कई बाइकर्स पर कार्रवाई करने का दावा किया है। इस ख़बर को प्रमुखता से तमाम अख़बारों ने छापा था कि बाइकर्स गैंग लोगों से मेला तक पहुंचाने के नाम पर वसूली कर रहा है। डीसीपी सिटी प्रयागराज ने भी अपने सोशल मीडिया एकाउंट पर इस आशय की सूचना साझा की थी।

इतना ही नहीं, कुंभ के चलते निर्माण कार्य भी बहुत बुरी तरह प्रभावित हुआ। राजमिस्त्री का काम करने वाले राम अभिलाष भारतीया बताते हैं कि “कुंभ के चलते इस सीजन में काम नहीं चला। बालू (सिलिका) की सप्लाई पूरी तरह से बाधित रही। सीमेंट और सरिया का भी यही हाल रहा। इस कारण से निर्माण कार्य बिल्कुल ही बंद रहा। इससे जुड़े मज़दूर मिस्त्री सबके यहां फ़ाक़ाकशी रही, क्योंकि इस समय खेती-बारी का भी काम नहीं था। अब जब कुंभ बीत गया है तो लग रहा है कि जैसे जान में जान आ गई है।”

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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