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पहलगाम हमला : उग्र राष्ट्रवाद का अल्पसंख्यक-विरोधी और जातिवादी चेहरा फिर उजागर

सामाजिक न्याय के विमर्श से हिंदुत्व के उग्र राष्ट्रवाद को परेशानी इस कारण है कि यह विमर्श हिंदू एकता के खोखले दावों के सामने जाति-आधारित हिंदू समाज के गहरे भेदभाव और शोषण की ज़मीनी हक़ीक़त को उजागर करता है। पढ़ें, अभय कुमार का यह विश्लेषण

जहां एक ओर पहलगाम हमले में 26 निर्दोष पर्यटकों की मौत से पूरा देश शोकग्रस्त है, वहीं दूसरी ओर, ऐसी कठिन परिस्थितियों में भी सांप्रदायिक ताकतें आतंकवाद को एक धर्म विशेष से जोड़कर अल्पसंख्यकों को निशाना बना रही हैं और उन्हें बहुसंख्यक समाज की नजरों में ‘खलनायक’ के रूप में प्रस्तुत कर रही हैं। उग्र राष्ट्रवाद की आड़ में ये सांप्रदायिक शक्तियां न सिर्फ़ अल्पसंख्यकों के खिलाफ ज़हर फैला रही हैं, बल्कि जातिगत भेदभाव, शोषण और असमानता के खिलाफ चल रहे आंदोलनों को भी बदनाम करने का हर संभव प्रयास कर रही हैं। ऐसे माहौल में सामाजिक न्याय के पक्षकारों को उग्र राष्ट्रवाद के खतरों को गंभीरता से समझना बेहद आवश्यक है, क्योंकि यह विचारधारा न केवल अल्पसंख्यक विरोधी है, बल्कि ‘देशप्रेम’ के नारों के शोर में सामाजिक सुधार और समानता की मुहिम को भी कमजोर और कलंकित करती है।

हिंदुत्व समर्थकों के नफ़रत भरे पोस्ट सोशल मीडिया पर हर तरफ़ सुलग रहे हैं। एक नौजवान पर्यटक की लाश के पास शोक मना रही एक महिला – जो संभवतः उसकी पत्नी है – की तस्वीर के साथ एक कैप्शन खूब शेयर किया जा रहा है– ‘धर्म पूछा, जाति नहीं’। किसी दूसरे हिंदुत्व समर्थक ने लिखा– ‘कश्मीर में धर्म पूछ कर हत्या’। एक अन्य पोस्ट कुछ यूं था– ‘वो हिंदुओं से सिर्फ़ नफ़रत करते हैं’। मुख्यधारा की मीडिया ने भी सांप्रदायिक आग में घी डालने का काम किया और एक हिंदी चैनल ने लिखा– ‘पहले आतंकियों ने कलमा पढ़ने के लिए कहा’। मीडिया ने बहुसंख्यक समाज को खूब डराया कि ‘आतंकवादियों ने कुछ पुरुषों के पैंट उतरवाए’ और ‘पुरुषों के प्राइवेट पार्ट चेक करने के बाद गोली मारी’। टीवी डिबेट के दौरान चिल्लाने और नाटकीय तरीक़े से हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने वाले एक मशहूर न्यूज़-एंकर ने तो कश्मीर में हुए चुनाव को ही हिंसा के लिए ज़िम्मेदार ठहरा दिया। मगर वह कहने का साहस नहीं दिखा सके कि कश्मीर की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार के पास है और उसमें राज्य सरकार का बहुत ज़्यादा रोल नहीं है।

देश के अलग-अलग हिस्सों से खबरें आ रही हैं कि कई स्थानों पर पाकिस्तान-विरोधी रैलियों के बहाने अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है और उनके धार्मिक स्थलों के पास आपत्तिजनक नारे लगाए जा रहे हैं। जबकि देश की राजधानी दिल्ली में कश्मीरी छात्र, कारीगर और मजदूर असुरक्षित महसूस कर रहे हैं और उन्हें यह भय सता रहा है कि कहीं पहलगाम हमले के लिए उन्हें ही ज़िम्मेदार न ठहराया जाए। ऐसे में बाकी इलाकों का हाल स्वतः ही समझा जा सकता है।

वह वाजिब सवाल, जिसे मीडिया नहीं उठा रहा है, यह है कि जब राजनेता समस्या का समाधान गंभीरता से खोजने के बजाय चुनावी रैलियों में पहलगाम त्रासदी पर भाषण देकर राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हैं, तो क्या यह व्यवहार दर्शाता है कि हम एक मज़बूत लोकतंत्र हैं? उसी तरह, जब विपक्ष के नेताओं के पुराने भाषणों को तोड़-मरोड़ कर सर्कुलेट किया जाता है ताकि वे चरमपंथियों का समर्थन करते प्रतीत हों, तो क्या इससे यह सिद्ध होता है कि हम एक स्वस्थ लोकतंत्र हैं? इन प्रश्नों में सांप्रदायिक ताक़तों की कोई दिलचस्पी नहीं है, क्योंकि उनका एजेंडा कुछ और ही है।

सांप्रदायिक शक्तियां ऐसा भयावह वातावरण तैयार कर रही हैं, जिसमें समस्याओं के समाधान का एकमात्र उपाय ‘बल प्रयोग’ और ‘युद्ध’ को प्रस्तुत किया जा रहा है। जो लोग राजनीतिक समस्याओं का समाधान संवाद और कूटनीतिक माध्यमों से खोजने के पक्षधर हैं तथा यह मानते हैं कि हिंसा का प्रतिकार हिंसा से नहीं किया जा सकता, उन्हें इन सांप्रदायिक ताकतों द्वारा निशाना बनाया जा रहा है। शांति की बात करना एक अपराध घोषित कर दिया गया है।

पहलगाम आतंकी हमले के विरोध में श्रीनगर में प्रदर्शन करते स्थानीय लोग

आज राष्ट्रीय एकता के समक्ष हिंदुत्व ताक़तों की सांप्रदायिकता एक गंभीर संकट के रूप में खड़ी है। यह संकट तब और विकराल रूप धारण कर लेता है जब देश किसी बड़ी चुनौती का सामना कर रहा हो और कुछ तत्व अपनी नापाक गतिविधियों से समाज को विषाक्त करने का प्रयास करते हैं।

जान-बूझकर आतंकवाद को एक ख़ास धर्म से जोड़ा जा रहा है, जो न तो तार्किक है और न ही न्यायसंगत। बहुत सारे विद्वानों का मत है कि आतंकवाद को ख़त्म करने का एक बेहतर तरीक़ा यह भी है कि शोषण का चक्र समाप्त हो और राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक असमानताओं को दूर किया जाए। लेकिन भारत में सांप्रदायिक शक्तियां हर घटना को धर्म के चश्मे से देख रही हैं और हर त्रासदी के लिए पूरे अल्पसंख्यक समुदाय को ज़िम्मेदार ठहराने का षड्यंत्र रच रही हैं।

पहलगाम हमले में स्थानीय आदिल हुसैन शाह ने पर्यटकों की जान बचाते हुए अपनी जान दे दी, लेकिन उनकी क़ुर्बानी को साजिशन भुला दिया गया। कश्मीरियों ने पर्यटकों की कितनी मदद की और इंसानियत का सबूत दिया, इस पर भी चादर डालने की पूरी कोशिश की गई। उग्र राष्ट्रवाद का यह विमर्श इशारा करता है कि एक गहरी साजिश के तहत पहलगाम हमले की आड़ में सांप्रदायिक ज़हर फैलाकर नफ़रत की राजनीति को खाद-पानी दिया जा रहा है और सामाजिक न्याय की आवाज़ों को भी दबाने का प्रयास किया जा रहा है।

ऐसी अफवाहें फैलाने और अल्पसंख्यकों को ‘दुश्मन’ के रूप में चित्रित करने के पीछे सांप्रदायिकतावादियों का उद्देश्य यह संदेश देना था कि हिंदू समाज अपनी सुरक्षा के लिए एकजुट हो जाए और जातिगत असमानता पर चुप रहे, ताकि ऊंची जातियों का वर्चस्व कायम रह सके। जिस तरह देश की सुरक्षा अहम है, उसी तरह देश के भीतर रह रहे लोगों के बीच बराबरी भी आवश्यक है। मगर समानता के प्रश्न से सांप्रदायिक शक्तियां लगातार कतराती रहती हैं।

दिल्ली में प्रदर्शन करते विश्व हिंदू परिषद के सदस्य

यह कोई नई बात नहीं है। राष्ट्रीय आंदोलन से लेकर आज तक, सांप्रदायिक और ब्राह्मणवादी ताक़तों ने हमेशा कोशिश की है कि राष्ट्रवाद के नाम पर वंचितों को उनका हक़ लेने से रोका जाए। जब वंचित अपने अधिकारों के लिए लड़ते हैं तो उन पर यह आरोप लगाया जाता है कि वे देश को लेकर चिंतित नहीं हैं और ‘देशहित’ की जगह अपने ‘निजी स्वार्थ’ को तरजीह दे रहे हैं। ऐसे आरोप दलित-बहुजन नायकों जैसे फुले, पेरियार, आंबेडकर और लोहिया पर अलग-अलग समय में, अलग-अलग तरीक़ों से लगाए गए। मगर बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर इस पूरे खेल को भलीभांति समझते थे। उन्होंने आज़ादी के वक़्त लिखी गई अपनी पुस्तक ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ में साफ़-साफ़ कहा था कि ‘अल्पसंख्यक द्वारा सत्ता में हिस्सेदारी के किसी भी दावे को सांप्रदायिकता कहा जाता है, जबकि बहुसंख्यकों द्वारा पूरी सत्ता पर एकाधिकार करने को राष्ट्रवाद कहा जाता है।’

‘राज्य और अल्पसंख्यक’ पुस्तक से चार साल पहले, डॉ. आंबेडकर ने 18 जनवरी, 1943 को गोखले मेमोरियल हॉल, पूना में दिवंगत न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानाडे के 101वें जन्मदिन पर एक व्याख्यान दिया था। ‘रानाडे, गांधी और जिन्ना’ के नाम से मशहूर इस व्याख्यान में आंबेडकर ने उग्र राष्ट्रवाद के नाम पर चल रही सियासत की ओर इशारा किया और कहा कि भारत जैसे जाति-आधारित समाज में एक समाज सुधारक होना और जाति के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ना, एक राजनीतिक देशभक्त होने से भी कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि ब्राह्मणवादी व्यवस्था जातीय गैर-बराबरी के ख़िलाफ़ बोलने वाले को ‘घृणा’ की निगाह से देखती है।

आज के संदर्भ में बाबासाहेब की यह बात और भी अधिक प्रासंगिक लगती है, क्योंकि हिंदुत्व के उभार के दौर में जाति से जुड़े प्रश्नों को हिंदू राष्ट्र के लिए ख़तरा समझा जाता है। यही एक बड़ा कारण है कि पहलगाम जैसे मामलों को भी न केवल अल्पसंख्यक-विरोधी विमर्श में बदला जा रहा है, बल्कि ब्राह्मणवादी ताक़तें यह भी चाहती हैं कि सांप्रदायिकता के शोर में समता के लिए चल रही लड़ाई को बदनाम कर दिया जाए, ताकि ऊंची जातियों का वर्चस्व बना रहे। इसलिए, यह समय की पुकार है कि दलित, आदिवासी, पिछड़ी जातियां और अल्पसंख्यक समुदायों के बीच पहले से कहीं अधिक मज़बूत ‘सॉलिडेरिटी’ स्थापित हो।

सांप्रदायिक विमर्श को बढ़ाने में हिंदुत्व के विचारक वी.डी. सावरकर की बड़ी भूमिका रही है। 1920 के आरंभिक दशक में लिखी गई उनकी पुस्तक ‘हिंदुत्व’ न केवल अल्पसंख्यक विरोधी है, बल्कि सामाजिक न्याय के भी ख़िलाफ़ है। इस पुस्तक में सावरकर ने बिना किसी झिझक के कहा कि “एक साझा शत्रु का दबाव ही एकमात्र ऐसी चीज है जो लोगों को राष्ट्र में और राष्ट्रों को राज्यों में बदल सकती है।”

सावरकर का राष्ट्रवाद का सिद्धांत संविधान-विरोधी भी है, क्योंकि उनका मानना था कि किसी भी सामाजिक समूह के बीच तब तक एकता नहीं बन सकती जब तक कि उनके सामने कोई ‘दुश्मन’ न हो। यहां तक कि यदि कोई दुश्मन या बाहरी खतरा नज़र न भी आए, तो भी सावरकर-समर्थक उसे कृत्रिम रूप से गढ़ते हैं और उसका प्रचार करते हैं, जो संविधान में निहित बंधुत्व के सिद्धांत के सरासर ख़िलाफ़ है। यही वजह है कि हिंदुत्व समर्थक अल्पसंख्यक समाज को बात-बात पर निशाना बनाते हैं और प्रयास करते हैं कि जाति आधारित हिंदू समाज के शोषण के खिलाफ उठने वाली आवाजें धार्मिक उन्माद के शोर में दब जाएं। अल्पसंख्यकों को ‘ग़ैर’ के रूप में चित्रित करना उनकी रणनीतिक मजबूरी भी है, ताकि हिंदू समाज एकजुट रहकर उन्हें वोट देता रहे।

वहीं, सामाजिक न्याय के विमर्श से हिंदुत्व के उग्र राष्ट्रवाद को परेशानी इस कारण है कि यह विमर्श हिंदू एकता के खोखले दावों के सामने जाति-आधारित हिंदू समाज के गहरे भेदभाव और शोषण की ज़मीनी हक़ीक़त को उजागर करता है।

हिंदुत्व की राजनीति हमारे संविधान के खिलाफ इस वजह से भी है कि संविधान धर्म पर आधारित राजनीति का समर्थन नहीं करता, बल्कि यह धर्मनिरपेक्षता (सिक्यूलरिज़्म) के सिद्धांत पर आधारित है। हमारे देश की नागरिकता की अवधारणा धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और समानता के सिद्धांतों पर आधारित है, जबकि सांप्रदायिक ताकतें नागरिकता को धर्म के चश्मे से देखती हैं। वे भारत के अल्पसंख्यकों को संदेह की दृष्टि से देखते हैं और उनकी देशभक्ति पर सवाल उठाते हैं, जबकि विदेशों में बसे हिंदुओं की देशभक्ति पर बिना किसी प्रश्न के विश्वास करते हैं।

सांप्रदायिक मानसिकता इतिहास को भी धर्म-विशेष के संदर्भ में देखती है। वे आर्य, वैदिक और हिंदू संस्कृतियों को ‘भारतीय’ मानते हैं, जबकि इस्लाम और ईसाई धर्म, जिनका भारत में हजारों वर्षों का इतिहास है, को ‘विदेशी’ धर्म के रूप में प्रस्तुत करते हैं। सांप्रदायिकों के लिए अल्पसंख्यकों की वफादारी तब तक संदिग्ध बनी रहती है जब तक वे बहुसंख्यकवादी संस्कृति में रंग नहीं जाते। उनके लिए अल्पसंख्यकों का इतिहास, संस्कृति, पहनावा, भोजन और जीवनशैली तक राष्ट्रीय संस्कृति के लिए ‘खतरा’ प्रतीत होती है।

भारत के उन इलाकों में, जहां अल्पसंख्यकों की जनसंख्या राष्ट्रीय औसत से अधिक है, वहां सुरक्षा के कड़े इंतज़ाम हैं, लेकिन बुनियादी सुविधाओं की घोर कमी है। सांप्रदायिक सोच यह मानती है कि बहुसंख्यक समाज के हितों की रक्षा अल्पसंख्यकों को बदनाम कर और उन पर निरंतर दबाव डालकर की जा सकती है, मगर वे यह भूल जाते हैं कि न्याय, समानता और भाईचारा ही किसी भी राष्ट्र के आधार स्तंभ होते हैं।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

अभय कुमार

जेएनयू, नई दिल्ली से पीएचडी अभय कुमार संप्रति सम-सामयिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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