दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज, नई दिल्ली में हिंदी विभाग में कार्यरत प्रो. नामदेव को हाल ही में दलित लेखक संघ का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। उनकी प्रकाशित कृतियों में ‘भारतीय मुसलमान : हिंदी उपन्यासों के आईने में’, ‘दलित चेतना और स्त्री विमर्श’, ‘जोतिबा फुले : सामाजिक क्रांति के अग्रदूत’ व ‘आलोचना की तीसरी परंपरा और डॉ. जयप्रकाश कर्दम’ आदि शामिल हैं। पढ़ें, दलित साहित्य की मौजूदा दशा, दिशा और दलित लेखक संघ की कार्ययोजनाओं के संबंध में फारवर्ड प्रेस द्वारा ईमेल के जरिए किया गया यह साक्षात्कार।
दलित साहित्य की मौजूदा चुनौतियां क्या हैं, और उन चुनौतियों से दलित लेखक संघ के पास कौन-कौन सी कार्ययोजनाएं हैं?
बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर सामाजिक विषमताओं की उपज थे। उन्होंने एक दलित या अछूत होने के कारण जाति उत्पीड़न के दंश को भोगा था, जिसके कारण उनका समस्त चिंतन जाति मुक्त समाज की स्थापना में खप गया। लेकिन दलित हित और दलित अस्मिता का सवाल उनका बुनियादी चिंतन रहा। उनका समतामूलक समाज दर्शन भारतीय लोकतंत्र का एक सशक्त विकल्प है, जिसको देर-सबेर समाज और व्यवस्था को मानना ही पड़ेगा। इस तरह आंबेडकरवादी विचारधारा भारत जैसे जड़ समाज के लिए अत्यंत आवश्यक है, जो सदैव आकर्षित करती है। बाबा साहेब ने नारा दिया था– ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो’। यह दलितों के लिए सर्वाधिक प्रेरक विचार है। अगर दलित ईमानदारी से इसको अपने जीवन में शामिल कर लें तो उनकी सम्मानित प्रगति सुनिश्चित है।
दलित साहित्य की स्थिति संघर्षशील है और यही उसकी चुनौती भी है। हालांकि अब वह एक स्थापित स्वतंत्र साहित्य शैली है, जिसका अपना सौंदर्यबोध है, इतिहास बोध है। स्वानुभूति पर आधारित यह दलित साहित्य तथाकथित शास्त्रीय साहित्यिक मापदंडों का निषेध करता है। आज दलित साहित्य और उसका विमर्श समाज में सबसे ज्यादा चर्चा के केंद्र में रहनेवाला और बिकनेवाला साहित्य बन चुका है। अभी तो कुछ ही दलित साहित्यकार सामने आए हैं। अनेकानेक रचनाकारों और उनकी रचनाओं को अभी सामने आना है। तब दलित साहित्य की तस्वीर और भी बुलंद होगी। दूसरा यह कि दलित साहित्य जाति-व्यवस्था के विरोध में जन्मा है। इसलिए जब तक जात-पात की जड़ें जिंदा रहेगीं तब तक दलित साहित्य की अस्मिता बनी रहेगी। और यह बात भविष्य में भी प्रासंगिक बनी रहेगी। कहा जा सकता है कि दलित साहित्य की दशा और दिशा दोनों ही मजबूत हैं, क्योंकि दलित साहित्य न सिर्फ वर्तमान बल्कि भविष्य का परिवर्तनशील साहित्य भी है। बावजूद इसके दलित समाज की आंतरिक समस्याओं और ग़ैर-दलित समाज की उपेक्षाओं से दो-चार होना अभी भी एक बड़ी चुनौती है।
वास्तव में दलित शब्द दलित एकता का प्रतीक है, जिसको खंडित होने से बचाना है। दलित लेखक संघ इस दिशा में सराहनीय प्रयास कर रहा है। हम जल्द ही इस दिशा में ठोस कार्य योजनाएं लेकर उपस्थित होंगे। फ़िलहाल हम दलित साहित्य की राष्ट्रीय स्तर पर मौजूदगी को हमेशा रेखांकित करने का प्रयास भी कर रहे हैं।
एक सवाल दलित लेखक संघ के नाम पर गुटबंदी से जुड़ा है। क्या अब संघ लेखकों, साहित्यकारों के बीच एकता के लिए कोई पहल करेगा?
यहां मैं एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि आज के दौर में गुटबंदी हर तंत्र में समाहित हो चुकी है। शायद यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया के सवाल से भी जुड़ा हो सकता है। लेकिन यह दलित लेखक संघ संपूर्ण हिंदी पट्टी का पहला लेखक समूह है, जिसने अपने अथक प्रयासों से दलित साहित्य को मुख्यधारा के साहित्य के समकक्ष ला खड़ा किया है। हां, लेकिन यह भी सच है कि कई साथी अपने मनोरथ के वशीभूत होकर अलग समूह बनाकर कार्य कर रहे हैं। विभिन्न जटिल मुद्दों पर उनसे संवाद करके साझे संघर्ष की शुरुआत करने का प्रयास भी किया जा सकता है।

अब भी यह माना जाता है कि दलित लेखक संघ केवल दिल्ली व इसके आसपास के दलित लेखकों-साहित्यकारों का संघ है। क्या आपके पास इसके विस्तार की कोई योजना है? गैर हिंदी दलित लेखकों को इसके साथ कैसे जोड़ेंगे?
जी। यह सवाल आंशिक रूप से सच है। वास्तव में दलित साहित्य को चाहने वाले पूरे देश में मौजूद हैं। उन सभी को दलित लेखक संघ से जोड़ना भी हमारा लक्ष्य है। कई गैर-हिंदी दलित लेखक हमारे संपर्क में हैं। हम उनसे बातचीत करेंगे और अपने साथ जोड़ेंगे। वर्तमान दलित लेखक संघ ने स्थानीयता का अतिक्रमण किया है। अब इसमें देश की बड़े भूभाग की आवाज़ शामिल हो गई है, जिसका निरंतर विस्तार हम करते रहेंगे। इस संदर्भ में भी कई ज़मीनी कार्य योजनाएं लेकर सामने आएंगे।
अकादमिक जगत में दलित साहित्य के प्रति नजरिए को आप किस रूप में व्याख्यायित करना चाहेंगे?
यह सर्वविदित है कि दलित शब्द हजारों वर्षों की उत्पीड़न के खिलाफ चलाए गए आंदोलन से निकला है और जो अछूत समाज की अस्मिता, संस्कृति तथा प्रतिष्ठा का सार्वभौमिक प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है। राजनीति, साहित्य, विमर्श, फिल्म इत्यादि प्रमुख सामाजिक तंत्रों में ‘दलित’ शब्द रूढ़ हो चुका है। बीते 60 वर्षों से महाराष्ट्र में और 40 वर्षों से हिंदी क्षेत्रों में दलित साहित्य ने अपनी वैश्विक पहचान बनाई है। देश के लगभग अधिकांश विश्वविद्यालयों में इसका अध्यापन, अध्ययन और शोध जारी है। दलित लेखक, दलित नेता, दलित कलाकार, दलित विमर्श सब सहस्तित्व में शामिल हैं। दुखद पहलू यह है कि आज भी तथाकथित सवर्ण समाज के अधिकांश लोग दलित शब्द और दलित साहित्य को खारिज करने की धारणा पालते हैं जो स्पष्ट तौर पर दलित समाज को नकारना ही है। यह भी सच है कि आज भी अधिकांश नकली सवर्ण वामपंथी जातिवाद को नकारते ही हैं। उनकी एकांगी आयातित वर्गीय अवधारणा में दलितों की पीड़ा लगभग लुप्त ही रही है, जबकि प्रगतिशील दलित चिंतक मार्क्सवाद और आंबेडकरवाद को भारतीय मनुवाद, सामंतवाद, ब्राह्मणवाद की जातिवादी मानसिकता और अन्याय से, मिलकर लड़ने पर जोर देते आ रहे हैं। और यह सब भारतीय अकादमिक जगत में समाया हुआ है। अब वक़्त आ गया है कि अकादमिक जगत में दलित साहित्य को मुख्यधारा के विकल्प के रूप में पेश किया जाए। तथाकथित मनुवादी माइंड सेंटर को स्थापित करने में अकादमियां अहम जगह हैं, क्योंकि विचारधाराओं की लड़ाई यहीं से शुरू होती है। दलित साहित्य समतामूलक समाज की स्थापना का सपना देखता है। यही उसका सत्य है।
सृजन की बात करें तो यह प्रतीत होता है कि हाल के वर्षों में आंबेडकरवादी लेखन सीमित हो रहा है, जबकि यह सर्वविदित है कि आंबेडकरवाद दलित साहित्य का मूल आधार है। यह इस संदर्भ में कि दलित लेखक संघ पर एक खास राजनीतिक दल का ठप्पा लगता रहा है। आप इस संबंध में क्या कहेंगे।
चेतना का निर्माण अचानक नहीं होता है। उसकी अपनी प्रकिया होती है। ऐतिहासिक, सामाजिक सांस्कृतिक परिस्थितियों की पृष्ठभूमि से, जातिवादी वर्चस्व की संस्कृति से संघर्ष करते हुए दलित चेतना विकसित हुई है। मध्यकाल में जब रैदास जाति की व्यथा लिखते हैं, या कबीर दास ऊंची जातियों के वर्चस्व को ललकारते हैं तो वह तत्कालीक प्रतिक्रिया नहीं थी। उसके पीछे भी सैकड़ों वर्षों का इतिहास बोध ही था। प्राचीनकालीन बौद्ध साहित्य, आदिकालीन नाथ व सिद्ध साहित्य में उठ रही शूद्रों की आवाज़ और ब्राह्मणवाद के विरोध ने एक क्रांतिकारी जन-चेतना का निर्माण किया, जिसका एक स्तर कबीरदास, रैदास, गुरु नानक जैसे संतो में आकर दिखाई देता है। दलित चेतना का बौद्धिक परिवेश होने के बाद भी ये संत और गुरु निराकार ईश्वर के सवाल से जुझते रहे। लेकिन इन्हीं से प्रेरणा लेते हुए आधुनिक भारत में दलित चेतना का पूर्ण और स्पष्ट विकास हुआ और इसको स्पष्ट आकार देने में बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर सबसे बड़े आधार स्तंभ बने। चेतना जब चर्चा में आ जाती है तो उसे विमर्श भी कहा जाता है। दलित विमर्श दलित चेतना का ही पर्याय है, जिसमें दलित अस्मिता से लेकर उसके भविष्य की चिंताएं निहित हैं। साहित्य, समाज, राजनीति, अर्थनीति, विकास, संस्कृति इत्यादि सभी जगह दलित हिस्सेदारी और भागीदारी का सवाल ही दलित विमर्श का मूलाधार है। ज़ाहिर-सी बात है कि आंबेडकरवादी दर्शन और विचारधारा दलित साहित्य का मूलाधार है। जहां तक किसी राजनीतिक दल से सहानुभूति का सवाल है, वह परिस्थितियों पर निर्भर करता है। अगर कोई राजनीतिक दल दलित साहित्य का समर्थन करे तो इसमें बुराई क्या है? हां, लेकिन दलित साहित्य को किसी भी राजनीतिक दल का घोषणापत्र बनने से जरूर बचना चाहिए। साहित्य की सत्ता शाश्वत होती है। दलित साहित्य अनेक कठिन पड़ावों के बाद भी निरंतर गतिशील है और चट्टान की तरह आंबेडकरवाद पर अडिग है।
अंतिम सवाल यह कि क्या दलित लेखक संघ के पास अन्य वंचित समुदायों के साहित्य यथा आदिवासी साहित्य और ओबीसी साहित्य को शामिल कर बहुजन साहित्य या फिर एक बड़ी छतरी का निर्माण करने की कोई कार्ययोजना है?
दलितों की अपनी प्रतिष्ठा, सुरक्षा, जीने का अधिकार, हिस्सेदारी और भागीदारी का प्रतीक है दलित अस्मिता। उसके जाति-वर्ण के प्रतिरोध और बाग़ी तेवर को बहुजन कहकर डाइल्यूट नहीं किया जा सकता है। हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं है कि राजनीति के मामले में यह वंचितों की भावनात्मक एकता का प्रतीक है। और जिसका भारतीय राजनीति में प्रयोग हो भी रहा है। लेकिन साहित्य में अस्मिता का सवाल सीधे-सीधे समुदाय से जुड़ा हुआ है, इसलिए दलित साहित्य, आदिवासी साहित्य, स्त्री साहित्य अस्तित्व में आए हैं।
दलित अस्मिता वर्ण और जाति के घेरे से मुक्ति का आह्वान करता है, क्योंकि इस धरती पर सिर्फ दलित जन ही हैं जिनसे अस्पृश्यता का, नीचता का व्यवहार किया जाता है, लेकिन जानवरों से प्रेम किया जाता है। यह स्थिति बहुजन पिछड़ों की बिल्कुल नहीं है। वैसे भी सामाजिक न्याय की अवधारणा को दलित साहित्य ने बहुत शिद्दत से उठाया है और जब आंबेडकरवाद समतामूलक समाज की बात करता है तो उसमें सभी वंचित तबके स्वत: ही शामिल हो जाते हैं। दलित लेखक संघ अपने शुरुआती दिनों से ही वंचित समाज से जुड़ा रहा है और अब वह साहित्य व समाज की दुनिया में प्रतिरोध का विशाल वट वृक्ष बन चुका है। दलित साहित्य का दर्शन और सृजनात्मक आधार व्यापक है। वह देश के प्रत्येक दमित अस्मिता, समूह के साथ सामाजिक न्याय के लिए समर्पित है। अब जिस लेखक संघ की प्रेरणा आंबेडकर हों, वहां नाम बदलने की इस धारणा का कोई आधार नहीं है। दलित लेखक संघ अपने वजूद के साथ दलितों एवं अन्य वंचितों का साझा मंच है।
(संपादन : अनिल)
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