समाजवादी पार्टी नेता और राज्य सभा सांसद रामजी लाल सुमन इन दिनों चर्चा में हैं। मध्यकालीन राजपूत राजा राणा सांगा के बारे में उनके बयान के बाद उठा विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा। जातीय अस्मिता के नाम पर राजनीति करने वाले और कथित ग़ैर-राजनीतिक संगठन करणी सेना के सदस्य उनसे लगातार माफी की मांग कर रहे हैं। इधर रामजी लाल सुमन इस बात पर अडिग हैं कि उन्होंने कुछ भी अपमानजनक नहीं बोला है। ऐसा लग रहा है गोया उत्तर प्रदेश की सारी राजनीति रामजी लाल सुमन के इर्द-गिर्द ही सिमट कर रह गई है।
हाथरस के एक दलित परिवार में जन्मे रामजी लाल सुमन अब तक़रीबन 75 साल के हो चले हैं। वह पिछले पचास साल से राजनीति में सक्रिय हैं और इस दौरान उन्होंने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। आपातकाल का विरोध करने के लिए वे जेल गए। वर्ष 1977 में महज़ 26 साल की उम्र में फिरोज़ाबाद सीट से लोकसभा सदस्य चुने गए। वर्ष 1989 में दोबारा सांसद चुने गए। फिर 1991 में केंद्र की तत्कालीन चंद्रशेखर सरकार में मंत्री बने। वर्ष 1993 में समाजवादी पार्टी का गठन हुआ तो मुलायम सिंह यादव के साथ आ गए। वर्ष 1999 और वर्ष 2004 में समाजवादी पार्टी के टिकट पर फिरोज़ाबाद से सांसद चुने गए। फिलहाल वे समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव हैं और राज्य सभा सांसद हैं।
सियासत में अपने बलबूते रामजी लाल सुमन ने वह सबकुछ हासिल किया है जो बहुत सारे लोगों के लिए सपना है। वे प्रखर वक्ता माने जाते हैं और उनकी राजनीति को समझने वाले जानते हैं कि आसानी से किसी के दबाव में नहीं आते।
रामजी लाल सुमन का ताल्लुक़ जाटव बिरादरी से है। आबादी के हिसाब से यह उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी दलित जाति है। राज्य में दलितों की संख्या 19 फीसदी के आसपास है। इनमें जाटवों की हिस्सेदारी तक़रीबन आधी है। यही बात मौजूदा राजनीति में रामजी लाल सुमन को बेहद अहम बना देती है। शायद यही वजह है कि समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव अपने नेता के पीछे मज़बूती से खड़े हैं। सत्तापक्ष ने जाने-अनजाने ही उन्हें वह मौक़ा मुहैया करा दिया है जो 2027 में सत्ता में वापसी की चाबी भी साबित हो सकता है।

रामजी लाल सुमन का विवादों से रिश्ता नया नहीं है। मौजूदा विवाद 21 मार्च को शुरू हुआ जब राज्य सभा में अपने भाषण के दौरान उन्होंने राणा सांगा का ज़िक्र छेड़ दिया। अपने भाषण में रामजी लाल सुमन ने कहा कि इब्राहीम लोदी पर हमला करने के लिए बाबर को राणा सांगा ने आमंत्रित किया था। उन्होंने हिंदू दक्षिणपंथी समूहों के संदर्भ में कहा कि अक्सर भारतीय मुसलमानों को बाबर की औलाद कहा जाता है। इसी तरह क्या दूसरे समुदायों को राणा सांगा जैसे ग़द्दार के वंशजों के रूप में देखा जा सकता है?
उनके इस बयान पर सदन में हो-हल्ला शुरू हो गया था। भाजपा ने रामजी लाल सुमन के बयान को हिंदू वोटरों, ख़ासकर राजपूतों को अपने पक्ष में लामबंद करने के लिहाज़ से सुनहरे मौक़े के तौर पर लिया।
इसके बाद सोशल मीडिया पर भाजपा समर्थित ‘एक्स’ हैंडल्स से इस मुद्दे को ख़ूब उछाला गया। रामजी लाल सुमन पर कई जगह मुक़दमे दर्ज कराए गए। मुज़फ्फरनगर समेत कई जगहों पर राजपूतों की सभाएं हुईं, जिनमें रामजी लाल सुमन को सबक़ सिखाने की धमकियां दी गईं। आगरा में उनके घर के बाहर प्रदर्शन हुआ और तोड़फोड़ की गई। इसके बाद बीते 27 अप्रैल को उनके क़ाफिले पर हमला किया गया। इस बीच करणी सेना नाम के एक जातीय संगठन की विवाद में एंट्री हुई।
ज़ाहिर है इस मुद्दे पर राजनीति हो रही है और राजनीति की जड़ें पिछले लोकसभा चुनाव में छिपी हैं। दरअसल लोकसभा चुनाव के दौरान कुछ भाजपा नेताओ ने विवादित बयान दिए जिसके बाद राजपूत वोटरों ने नाराज़गी का इज़हार किया था। पश्चिम यूपी, ख़ासकर कैराना, सहारनपुर, और मुज़फ्फरनगर सीट पर इस नाराज़गी का असर देखने को मिला। हालांकि भाजपा ने राजपूतों की नाराज़गी के मसले पर डैमेज कंट्रोल कर लिया लेकिन तबतक हवा उसके ख़िलाफ बन चुकी थी। 2027 में उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव होने हैं। इसके मद्देनज़र भाजपा को रामजी लाल सुमन के बयान में संभावनाएं नज़र आईं। इस मुद्दे को हवा दी गई। राजपूत अस्मिता को उभारा गया। और कुल मिलाकर रामजी लाल के बहाने माहौल समाजवादी पार्टी के ख़िलाफ बना दिया गया।
इस मसले पर बहुजन समाज पार्टी नेता मायावती भाजपा के साथ खड़ी नज़र आईं। उन्होंने समाजवादी पार्टी पर ग़ैर-ज़रूरी बयानबाज़ी करने का आरोप लगाया। साथ ही उनकी पार्टी के नेताओं ने कहा कि रामजी लाल सुमन पर हमला उनकी जाति की वजह से नहीं हो रहा है। ज़ाहिर है बसपा नेता जानते हैं कि मामला जाति का बना तो भाजपा से ज़्यादा नुक़सान उन्हें उठाना पड़ेगा। चंद्रशेखर आज़ाद पहले से ही पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाटव वोटरों में सेंध लगा चुके हैं। अब अगर रामजी लाल सुमन विवाद लंबा खिंचता है तो बसपा का कोर वोटर और ज़्यादा विचलित होगा। शुरू में अखिलेश यादव को भी अहसास नहीं था कि उनके हाथ कितना बड़ा मौक़ा लग गया है। लेकिन बसपा नेताओं की बेचैनी ने मानो उन्हें नींद से जगा दिया।
उन्होंने न सिर्फ रामजी लाल सुमन के साथ खड़े होने का फैसला किया बल्कि समाजवादी पार्टी अब इस मुद्दे को अपने नेता की जातीय पहचान से जोड़ रही है।
ज़ाहिर है कि अगर भाजपा राजपूतों को उद्वेलित करके वोट बैंक साधने की कोशिश कर सकती है तो समाजवादी पार्टी दलित वोटरों को लुभाने के लिए अपने नेता के साथ खड़ी क्यों नहीं हो सकती। अखिलेश यादव ने बिना मौक़ा खोए इसे अपनी पीडीए यानी पिछड़ा, दलित और अक़लियत राजनीति का हिस्सा बना लिया। हालांकि यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि इस मुद्दे पर समाजवादी पार्टी दलितों को बीच गहरी पैठ बना लेगी। लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि रामजी लाल सुमन एकाएक दलित राजनीति का बड़ा चेहरा बनकर उभर हैं।
इसकी कई वजहें हैं। एक तो भाजपा के शासनकाल में दलित ग़ैर-बराबरी, उत्पीड़न, और किनारे लगा दिए जाने की शिकायतें लगातार करते रहे हैं। दूसरे, बसपा सांगठनिक तौर पर इतनी कमज़ोर हो गई है कि दलितों ने इसके सत्ता में वापस लौटने की उम्मीदें छोड़ दी हैं। कांग्रेस और आज़ाद समाज पार्टी अभी उतनी ताक़त नहीं रखते कि बिना गठबंधन दलितों को सत्ता के पास ले जाएं। ऐसे में दलितों में एक वर्ग समाजवादी पार्टी के साथ जुड़ने को लालायित है। रामजी लाल सुमन विवाद उनको यह यक़ीन दिलाता है कि दलित मुद्दों पर अखिलेश उतने ही मुखर हैं जितना यादव या अन्य पिछड़ों के सवाल पर।
राजपूत वोटरों को साधने के चक्कर में शायद भाजपा भी चूक कर गई है। करणी सेना जैसे संगठन रामजी लाल सुमन को जितना निशाना बनाएंगे, उतना ही दलित वर्ग में नाराज़गी फैलेगी। हालांकि भाजपा पूरी तरह इस कोशिश में लगी है कि यह मुद्दा दलित बनाम राजपूत न बने, लेकिन उत्तर प्रदेश का सामाजिक माहौल ऐसा है कि न चाहते हुए भी जातिय ध्रुवीकरण हो रहा है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि बाबर और राणा सांगा के नाम पर रामजी लाल सुमन ने जाने-अनजाने ही 2027 के विधान सभा चुनाव का एजेंडा तय कर दिया है। चुनाव अगड़ा बनाम पिछड़ा की पुरानी थीम पर लौट रहा है। दलित इस समय पासंग का बट्टा है। भाजपा या समाजवादी पार्टी में से जिसकी तरफ 20 फीसदी से अधिक दलित चले जाएंगे, वही बहुमत से सरकार बना जाएगा।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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