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राजस्थान : मंदिर प्रवेश करने पर टीकाराम जूली का अपमान क्यों?

जाति, हमारी सोच से ज्यादा शोषक बन चुकी है‌। इसलिए, इस पर बुनियादी रूप से दोबारा पुनर्विचार किया जाना चाहिए कि आखिर दलित आंदोलनों का नवीन स्वरूप क्या होगा? क्या यह शिक्षा विस्तार और आर्थिक विकास पर जाकर समाप्त हो जाएगा या फिर इन दोनों विषयों को जाति-मुक्त समाज तक पहुंचने का माध्यम बनाएगा? बता रहे हैं प्रमोद इंदलिया

मंदिर प्रवेश करने पर दलितों के साथ मारपीट, स्कूलों में भेदभाव और पानी ना छूने देना जैसी घटनाएं नई नहीं हैं। जाति की जकड़न में फंसा हुआ समाज इनका आदी हो चुका है। अक्सर समझा जाता है कि दलितों के साथ इस भेदभाव की वजह जाति ना होकर उनका आर्थिक और राजनीतिक पिछड़ापन है। उच्च-जातीय बुद्धिजीवियों के तर्क इसी विचार के आसपास उपजते हैं और विकसित होते हैं। मगर, राजस्थान में विधानसभा नेता-प्रतिपक्ष टीकाराम जूली के साथ घटित घटना कुछ और ही कहानी बयां करती है‌, जो यह बताने के लिए काफी है कि जाति का जहर और उसका प्रभाव समाज को किस कदर विषाक्त कर रहा है।

टीकाराम जूली पूर्ववर्ती गहलोत सरकार में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री थे। तीसरी बार विधानसभा पहुंचे हैं। इनकी छवि सरल, सहज और अध्ययनशील राजनेता की मानी जाती है। बीते 6 अप्रैल को वे अपने विधानसभा क्षेत्र में नवनिर्मित राम-मंदिर के प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम में मुख्य अतिथि थे। उन्होंने कार्यक्रम में भाग लिया और पूजा-अर्चना की।

मगर इस कार्यक्रम के बाद भाजपा के कद्दावर नेता ज्ञानदेव आहूजा मंदिर पहुंचे। उन्होंने ना केवल गंगाजल छिड़का, बल्कि वीडियो भी बनवाया। वीडियो में उन्होंने साफ कहा कि “कुछ अपवित्र लोग मंदिर में आ गए थे। मैंने भगवान श्रीराम के चरणों में गंगाजल छिड़का है।” वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया।

दलितों के विरोध के बाद भाजपा की प्रदेश इकाई ने आहूजा को ‘कारण बताओ’ नोटिस जारी करते हुए प्राथमिक सदस्यता से निलंबित कर दिया। हालांकि न तो किसी कैबिनेट मंत्री और न ही स्वयं मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा ने इस पर खेद जताया और न इस घटनाक्रम की निंदा की। जबकि, हाल ही में भजनलाल शर्मा ने सोशल मीडिया पर लगातार सक्रिय होकर सरकार की निंदा करने वाले पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर तंज कसा था। सोशल मीडिया पर आलोचना तक की खबर रखने वाले सदन के नेता का नेता-प्रतिपक्ष के साथ घटी ऐसी घटना पर प्रतिक्रिया नहीं आना न केवल चौंकाता है, बल्कि बहुत सारे भ्रमों को तोड़ता है।

टीकाराम जूली, नेता विपक्ष, राजस्थान विधानसभा

पहला तो यही कि आर्थिक और राजनीतिक प्रगति आपको जाति के जंजाल से मुक्ति नहीं दिला सकती। जाति आपकी पहचान के रूप में आपके साथ हमेशा रहती है, चाहे आप किसी पद पर हों। यह जातियों की प्रगति पर बनाए गए सारे मॉडलों पर भी सवाल करती है कि क्या आखिर ‘जाति’ के सवाल को बिना छुए महज आर्थिक प्रगति और राजनीतिक प्रतिनिधित्व से ‘जाति’ की समस्या से निपटा जा सकता है या फिर ‘जाति’ के विनाश के बाद ही इस प्रगति की भूमि तैयार हो सकती है?

यह घटनाक्रम डॉ. आंबेडकर द्वारा संविधान सभा में दिए गए ऐतिहासिक भाषण की याद दिलाता हैं, जिसमें उन्होंने राजनीतिक और सामाजिक जीवन के बीच रेखा खींचता हुए, सामाजिक जीवन के भेदभाव को जल्द से जल्द पाटने की आवश्यकता पर बल दिया था। उनका मानना था कि राजनीतिक रूप से समानता और सामाजिक धरातल पर गहरी असमानता, एक अलग तरह का विरोधाभास उत्पन्न करेगी। यह विरोधाभास समाज के लिए घातक भी हो सकता है।

टीकाराम जूली के साथ हुई उपरोक्त घटना में यह विरोधाभास स्पष्ट दिखाई पड़ता है। राजनीतिक रूप से शक्तिशाली होने के बाद भी उन्हें चुनाव में नकारे जा चुके व्यक्ति से अपमान सहना पड़ा। जबकि टीकाराम जूली उस कार्यक्रम के लिए मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित थे‌।

दूसरा भ्रम कि शासनतंत्र ‘जाति’ जैसे विषयों पर कितना संवेदनशील है‌। अक्सर माना जाता हैं कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि और सरकार चलाने वाली ब्यूरोक्रेसी ऐसे विषयों पर लगातार प्रयासरत रहती है। अभी हाल ही में संपन्न हुए राजस्थान विधानसभा के सत्र में टीकाराम जूली ने राजस्थान में छुआछूत की समस्या के निपटारे के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा को अभियान चलाने की चुनौती दी थी। इस चुनौती पर सकारात्मक प्रतिक्रिया की बजाय बहुत ही सहजता के साथ नजरअंदाज कर दिया गया।‌

यह प्रकरण, राजनीतिक और सामाजिक जीवन में जाति की सच्चाई के साथ-साथ उन सभी लोगों के समक्ष नई चिंता को प्रस्तुत करता है, जो लगातार दलितों-पिछड़ों के सवालों को लेकर मुखर रहते हैं। जब राजनीतिक रूप से सफल एवं आर्थिक रूप से सक्षम व्यक्ति के साथ इस तरह की घटना हो सकती हैं तो जन-सामान्य दलितों की धरातलीय स्थिति क्या है?

मंदिर और सार्वजनिक स्थानों पर जाने का सवाल ‘मानवाधिकारों’ का है। मानवाधिकार की लड़ाई ही दलित-आंदोलनों के मूल में है। डॉ. आंबेडकर अपने भाषणों में बार-बार कहते रहे कि सार्वजनिक स्थानों का उपयोग हमारी आवश्यकता से कहीं ज्यादा हमारे मानवाधिकारों का प्रयोग है‌। यह हमारा कानूनी अधिकार है। भारतीय संविधान ने उन मानवाधिकारों को ‘मूल अधिकारों’ में तब्दील कर दिया। इसके बाद भी इस सामाजिक व्यवस्था में इस तरह की घटनाएं दिखाती हैं कि हमने जाति को अब तक जिन आधारों पर आंकने की कोशिश की हैं वे उसके आकलन के असली आधार नहीं हैं। जाति, हमारी सोच से ज्यादा शोषक बन चुकी है‌। इसलिए, इस पर बुनियादी रूप से दोबारा पुनर्विचार किया जाना चाहिए कि आखिर दलित-आंदोलनों का नवीन स्वरूप क्या होगा? क्या यह शिक्षा विस्तार और आर्थिक विकास पर जाकर समाप्त हो जाएगा या फिर इन दोनों विषयों को जाति-मुक्त समाज तक पहुंचने का माध्यम बनाएगा?

अगर इस दीर्घकालीन बौद्धिक बहस से हटकर देखें तो कांग्रेस पार्टी को इस पर मुखरता से अपना पक्ष रखना चाहिए। टीकाराम जूली समेत कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी ने गुजरात के अहमदाबाद में आयोजित कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में इस घटना को अपने भाषण में रखा। दोनों ने सोशल मीडिया पर अलग-अलग वीडियो भी जारी किए। सोशल मीडिया, ध्यान-आकर्षण का एक अच्छा माध्यम है, मगर स्थिति-परिवर्तन के लिए इससे आगे बढ़कर पहल किया जाना आवश्यक है‌। ‘जातिगत जनगणना’, ‘सामाजिक न्याय’ और ‘संविधान बचाओ’ को अपनी रणनीति का मूल बनाए रखने वाले राहुल गांधी से यह अपेक्षा की ही जा सकती है कि वे इस व्यक्तिगत अपमान के पीछे छिपी सामाजिक संकीर्णता को ना केवल समझें, बल्कि इस पर गहरी धरातलीय प्रतिक्रिया दें। उन्हें न केवल जातिगत जनगणना की मांग तेज कर देनी चाहिए, बल्कि कांग्रेस के संरचनात्मक पदों पर दलितों की कमी को पूरा करना चाहिए।

राजस्थान के संदर्भ में बात की जाए तो टीकाराम जूली राजस्थान विधानसभा में पहले दलित नेता-प्रतिपक्ष है। उन्होंने राजनीतिक जीवन पंचायती राज के चुनावों से शुरू किया है। वे युवा भी हैं। राजस्थान को अब तक एक ही दलित मुख्यमंत्री मिला है।‌ वे थे जगन्नाथ पहाड़िया, जिनकी कुर्सी कांग्रेस आलाकमान ने 1981 में महज महादेवी वर्मा की कविता पर की गई टिप्पणी के कारण छीन ली थी। उसके बाद अब तक राजस्थान ने दलित मुख्यमंत्री नहीं देखा‌ है‌। कांग्रेस से इसकी उम्मीद की जानी चाहिए या नहीं – यह दूर का सवाल है, लेकिन टीकाराम जूली का कद बढ़ाया जाना चाहिए। यह न केवल राजस्थान, बल्कि हिंदी-भाषी क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण संदेश देगा।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

प्रमोद इंदलिया

लेखक अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में एम.ए. (डेवलपमेंट) के छात्र हैं

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