अप्रैल के प्रथम पखवाड़े में बोधगया जाकर महाबोधि मंदिर मुक्ति आंदोलन को देखा और महसूस किया। बोधगया आज विश्व के मानचित्र पर प्रमुखता से आ गया है। वैसे देखा जाए तो बहुत पहले से ही बोध गया का महत्वपूर्ण इतिहास रहा है। जिससे देश ही नहीं बल्कि विदेश में भी भिक्खु और भिक्खुनियों के साथ करोड़ों की संख्या में उपासक परिचित रहे हैं। पिछले एक-दो माह से ही मेरा बोधगया जाने का विचार था। मेरा मन उद्वेलित भी था। वहां आंदोलन की शुरुआत हो गई थी। इसलिए कि दो-ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध की याद में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए सम्राट अशोक ने महाबोधि विहार को व्यवस्थित रूप से बनवाया था। उसी बौद्ध धर्म संस्कृति और अस्मिता के साथ पुरोहितों ने खिलवाड़ शुरू कर दिया था।
ब्राह्मणवादियो की इस घुसपैठ के कारण अनागरिक धर्मपाल (17 सितंबर, 1864 – 29 अप्रैल, 1933) को बोधगया आकर संघर्ष करना पड़ा था। उन्होने 1891 में महाबोधि सोसाइटी की स्थापना की थी। बाद के दौर में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। अनागरिक धर्मपाल ने ब्राह्मणवादियों के अवैध कब्जे से महाबोधि विहार को स्वतंत्र कराने के लिए न सिर्फ संघर्ष किया, बल्कि बोधगया के महंत के खिलाफ अदालत में भंते के रूप में दावा दायर भी किया, जिसमें वे जीते भी। लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य की उदासीनता के करण जीत कर भी वे हार गए। ऐसा हमें नागपुर के प्रतिबद्ध बौद्ध अनुयायी डॉ. विलास खरात ने बतलाया।
गत 6 अप्रैल को सुबह देरी से ट्रेन गया रेलवे स्टेशन पर पहुंची। मैंने कर्मानंद आर्य जो, दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय, गया में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं, को अपने आने की सूचना पहले ही दे दी थी। उनके एक साथी रेलवे स्टेशन पर मुझे लेने के लिए आए और वह सीधे कर्मानंद आर्य के घर पर ले गए। वहां नाश्ता आदि के उपरांत हमें बोधगया जाना था, जिसके लिए मैं दिल्ली से आया था। मैंने यह बात कर्मानंद जी को बताई। उन्होंने कहा कि आज रविवार है। मैं आपको मोटरसाइकिल पर लेकर चलूंगा। जल्दी ही वह तैयार हो गए। मैं भी अपने कपड़ों को बदला और लिखने के लिए दो कलम और डायरी भी ले ली। गया से बोधगया की दूरी लगभग 16 किलोमीटर है। ऐसा मुझे उन्होंने बताया। तैयार होकर हम लोग बोधगया की तरफ चले। रास्ते में ट्रैफिक था। लेकिन सावधानी से मोटरसाइकिल चलते हुए लगभग आधा घंटे में हम लोग बोधगया स्थित दोमुहाने वाली जगह पर पहुंच गए। कर्मानंद जी ने बताया कि यही नजदीक में कुछ महिला-पुरुष बौद्ध धर्मावलंबी महाबोधि मंदिर मुक्ति आंदोलन कर रहे हैं। हमने देखा कि एक बड़ा पंडाल लगा हुआ था। अनेक उपासक और उपासिकाएं बैठी थीं। उनमें ऑल इंडिया बुद्धिस्ट फोरम से राजेश बौद्ध आए हुए थे, जिन्हें कर्मानंद जी ने मेरे बोधगया आगमन की सूचना पहले ही दे दी थी। राजेश बौद्ध जी से मुलाकात हुई। उन्होंने भंते आकाश लामा जी और भंते प्रज्ञा शील से परिचय कराया।
संक्षेप में राजेश बौद्ध का परिचय कराना जरूरी है, क्योंकि महाबोधि विहार मुक्ति आंदोलन का संयोजन वे ही कर रहे हैं। वे ऑल इंडिया बुद्धिस्ट फोरम के साथ राष्ट्रीय बौद्ध महासभा से भी जुड़े हैं और बीते 12 फरवरी से बोधगया में कार्यभार संभाले हुए हैं। उन्होंने स्वयं बताया कि इसी शताब्दी की शुरुआत में जब मैं (लेखक) डॉ. आंबेडकर प्रतिष्ठान, भारत सरकार का मुख्य संपादक था वे मुझसे मिलने दिल्ली के जनपथ स्थित ऑफिस आए थे।

आकाश लामा जी हिमालय बुद्धिस्ट फोरम से जुड़े हैं। वे लंबे समय से महाबोधि मंदिर मुक्ति आंदोलन से जुड़कर कार्य कर रहे है। उन्होंने बताया कि बहुत सारे साथी पहली बार हिमालय बुद्धिस्ट महाबोधि विहार मुक्ति आंदोलन से जुड़े हैं। आकाश लामा को उम्मीद है कि हमें जल्दी सफलता मिलेगी और ब्राह्मणवादियों का जो कब्जा महाबोधि विहार पर है, वह दूर होगा।
बोधगया में ही दूसरे भंते प्रज्ञा शील मुझे पहले से ही जानते थे। पटना से स्वामी शशिकांत जी ने मेरे बोधगया आने की सूचना उन्हें दे दी थी। भंते जी ने बताया कि बिहार सरकार और प्रशासन धीरे-धीरे हमारे आंदोलन को समझ रहा है। हमारे साथियों को भी चाहिए कि वह पूरे देश में दबाव बनाएं और महाबोधि विहार मुक्ति आंदोलन को सफल बनाने में सहयोग करें। उन्होंने यह भी बताया कि मीडिया हमारी खबरों को नहीं छापती हैं। इसलिए आप जैसे लेखक और पत्रकारों को हमारे द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन को सफल बनाने में मदद करनी चाहिए। यहां स्थानीय प्रशासन हमें जिस तरह परेशान कर रहा है, उसे पत्र-पत्रिकाओं में छापा जाना चाहिए। इससे बोधगया के बाहर भगवान बुद्ध और बाबा साहब के जो अनुयायी हैं, एकजुट होकर इस आंदोलन में शामिल हों, क्योंकि अब हमें बोधगया को पंडों और पुरोहितवाद से मुक्त कराना ही है। भंते जी ने बताया कि यह दुख की बात है कि बिहार सरकार द्वारा गठित अल्पसंख्यक आयोग में कोई भी बौद्ध सदस्य नहीं है। लेकिन अच्छी बात यह है कि आंदोलन को सफल बनाने के लिए पूरे भारत से लोग आ रहे हैं। सभी के दबाव से बिहार सरकार झुकेगी और महाबोधि मंदिर प्रबंधन अधिनियम, 1949 निरस्त होगा।
बुद्ध शरण हंस सेवानिवृत्त आईएएस हैं। लेखक और पत्रकार के साथ सामाजिक कार्यकर्ता भी। बहुत पहले उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। वे बीते 30 मार्च को बोध गया गए थे और दो दिन धरने पर बैठे। उन्होंने कहा कि यह दुखद आश्चर्य की बात है कि अगस्त, 1947 में देश अज़ाद हुआ और 1949 में बौद्धों के खिलाफ महाबोधि एक्ट बन गया। मैं कहना चाहता हूं कि यह बौद्धों के खिलाफ सवर्णों की साजिश थी।
बहरहाल, महाबोधि विहार मुक्ति आंदोलन का एक यह भी दुखद पहलू है कि जिस बिहार की धरती पर ब्राह्मणवादियों का आजादी के सात-आठ दशक बाद भी अभी तक कब्जा बना हुआ है, उसी बिहार में भगवान बुद्ध और बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के अधिकांश अनुयायी इस आंदोलन से अभी भी दूर हैं। इस बारे में पटना में रह रहे स्वामी शशिकांत का कहना था कि वह निराशावादी नहीं हैं। बिहार के मुख्यमंत्री से हमें बहुत उम्मीद है और अवश्य ही कुछ होगा।
इस बारे में बोधगया में रह रहे अन्य भिक्खुओं से भी बात हुई। उनमें नीतीश कुमार के बारे में खुलकर बोलने वाले कम ही थे। अधिकतर यही कहते रहे कि समय आने पर महाबोधि विहार ब्राह्मणवाद की गिरफ्त से मुक्त अवश्य होगा। इस आंदोलन का एक अजीबोगरीब पक्ष यह भी है कि दलित-बहुजन नेताओं द्वारा बोधगया महाविहार आंदोलन के बारे में कभी-कभी वक्तव्य तो सुने जाते रहे हैं और उनके बयान अखबारों में भी प्रकाशित हो जाते हैं, लेकिन उनमें से कितने राजनेता महाबोधि विहार मुक्ति आंदोलन में भाग लेने बोधगया पहुंचे हैं, यह बड़ा सवाल है। हमारा समाज उनसे यह आशा रखता है कि महाबोधि विहार की मुक्ति में वे अधिक से अधिक समय देकर उसे पंडितों से मुक्त कराएं। इस बारे में दिल्ली सरकार के पूर्व समाज कल्याण मंत्री राजेंद्र पाल गौतम से बात की गई। वे पहली बार मार्च, 2025 में बोधगया गए थे। इसके बाद 4-5 अप्रैल को महाबोधि विहार मुक्ति आंदोलन में शामिल हुए। जैसा उन्होंने बताया कि हमारे इस आंदोलन से केंद्र सरकार के साथ बिहार सरकार को भी कोई लेना-देना नहीं है। इसका सबसे बड़ा कारण मुख्य बौद्ध मंदिर में हजारों करोड़ रुपए देश और विदेश के श्रद्धालुओं की तरफ से आता है। बौद्धों के हक में अगर फैसला हो गया तो वह सारा धन पंडे-पुरोहितों के हाथ से निकल जाएगा।
वैसे गया के पड़ोसी जिले जहानाबाद के मखदुमपुर विधानसभा क्षेत्र के राष्ट्रीय जनता दल के विधायक सतीश दास दो-तीन बार धरने में शामिल हो चुके हैं। लेकिन देखा जाए तो विशेष रूप से मायावती और चंद्रशेखर आजाद भी बोधगया नहीं पहुंचे हैं। हालांकि चंद्रशेखर आजाद ने संसद में इस विषय पर सवाल उठाया है। सवाल है कि समाज के प्रतिनिधि के रूप में दलित अपनी भूमिका क्यों नहीं निभा रहे? क्यों वे भगवान बुद्ध से विमुख होते जा रहे हैं? आखिर उनकी मंशा क्या है? यह तो पता होना चाहिए।
पाठकों को हम यह भी याद दिलाना चाहते हैं कि 1992 में भंते सुरई ससाई जी ने कई बार बोधगया जाकर महाबोधि विहार मुक्ति आंदोलन राष्ट्रीय स्तर पर शुरू किया था। तब भारत सरकार के अल्पसंख्यक आयोग में उन्हें बौद्ध सदस्य बना दिया गया और स्थिति जस की तस बनी रही।
इसी दौरान प्रेरणा स्थल नोएडा से ज्ञानस्थली बोधगया तक के यात्री रहे भंते विनय आचार्य (संयोजक, महाबोधि विहार मुक्ति आंदोलन) के बारे में सभी लोग जानते हैं। उन्होंने नारा दिया कि साथ मिलकर लड़ेंगे, साथ मिलकर जीतेंगे। विरासत बचेगी तो हम बचेंगे। आखिर हमारे वे साथी जो आज भी अपने घर, अपनी बस्ती और अपने शहर में है और शहर के बाहर जाना नहीं चाहते, उनकी क्या मंशा है? वह महाबोधि महाविहार आंदोलन में शामिल क्यों नहीं होते? सिर्फ फेसबुक पर दो शब्द लिख देने और अपने शहर में किसी कार्यक्रम की फोटो शेयर कर देने से उद्देश्य की पूर्ति हो जाएगी?
नहीं, उन्हें अपने घरों से बाहर आकर इस आंदोलन में शामिल होना पड़ेगा और सरकार और प्रशासन को बताना पड़ेगा कि वह महाबोधि विहार को ब्राह्मणों से मुक्त करे। इससे पहले कि यह आंदोलन कोई और रूप धारण कर ले।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)