दलित-बहुजनों के वैचारिक जगत में उन्हें डॉ. ए.के. बिस्वास के रूप में जाना जाता था। उनका पूरा नाम डॉ. अतुल कृष्ण बिस्वास था। वर्ष 1992 में जब बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर का नाम बाबा साहब भीमराव आंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर किया गया तब उसके पहले कुलपति डॉ. बिस्वास बनाए गए। उनका परिनिर्वाण बीते 28 फरवरी, 2025 को कोलकाता में हो गया। वह 79 वर्ष के थे और कुछ समय से बीमार चल रहे थे। डॉ. बिस्वास बिहार कैडर के आईएएस अधिकारी थे और वहां के गृह सचिव भी रहे।
मैं डॉ. विश्वास को आंबेडकरवादी बौद्धिकता से जोड़ कर देखता हूं। आज के दौर में ऐसे बहुत कम लोग हैं जो उस मार्ग पर चल रहे हैं, जो डॉ. आंबेडकर ने बनाया। सत्य, फिर चाहे वह कितना भी कटु क्यों न हो, तथ्यों के साथ प्रकट करने के लिए बहुत मेहनत की आवश्यकता होती है क्योंकि आपको तथ्य जुटाने पड़ते हैं, शोध करना पड़ता है।
बौद्धिक जगत में डॉ. विश्वास को बंगाल से आने वाली सबसे विश्वसनीय आवाज माना गया, क्योंकि उन्होंने जो कुछ लिखा या कहा, उसके पीछे उनका गहन शोध और अध्ययन था। अध्ययन की प्रवृति इतनी अधिक रही कि उन्होंने परास्नातक और पीएचडी प्रशासनिक सेवा में आने के बाद किया। अमूमन प्रशासनिक सेवा में आने के बाद लोग अपने अध्ययन को विराम दे देते हैं।
डॉ. बिश्वास ने कभी भी अपने जीवन की कठिनाइयों को सार्वजनिक नहीं किया। उन्होंने अपने अलावा हर मुद्दे पर बात की और दलित-बहुजन वैचारिकी को आगे बढ़ाया। गहन अध्ययन व शोधों पर आधारित उनके मौलिक आलेखों ने बंगाल में दलितों की स्थिति विशेषकर नामशूद्र समुदाय के संघर्ष को देश के पटल पर रखा। 1947 में भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय बंगाल के दो-फाड़ होने के कारण नामशूद्र समुदाय को सर्वाधिक मुसीबतों का सामना करना पड़ा था। डॉ. बिस्वास का जन्म 6 फरवरी, 1946 को अविभाजित भारत के बंगाल प्रांत के जेस्सोर जिले के बरईचारा नामक गांव में हुआ। जो विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा बना (अब बांग्लादेश)। हम सब जानते हैं कि जेस्सोर और खुलना से ही डॉ. आंबेडकर संविधान सभा के सदस्य बने थे और 1947 में इस संसदीय सीट के अलग हो जाने से उनकी सदस्यता चली गई थी। फिर वह बंबई से चुनाव जीतकर संविधान सभा में पहुंचे थे।
यह समझने की जरूरत है कि 1947 में भारत विभाजन की त्रासदी के सबसे अधिक प्रभावित लोग बंगाल और पंजाब में थे और इनमें भी दलितों की संख्या बहुत अधिक थी। पंजाब में वाल्मीकि, चूहड़ा और चमार व बंगाल में नामशूद्र समुदाय के लोग सबसे अधिक प्रभावित थे। इस विभाजन के चलते दुनिया का सबसे बड़ा पलायन हुआ। लोगों को अपना घर-रोजगार सब छोड़ना पड़ा। सुरक्षित रहने की चाह में लोग दर-दर की ठाकरें खाते रहे। यह सिलसिला केवल एक वर्ष तक सीमित नहीं रहा, अपितु दशकों तक चला। अतुल कृष्ण का बचपन भी ऐसे ही हालातों में बीता।

अतुल कृष्ण के माता-पिता कृषक थे। वर्ष 1962 में डॉ. बिस्वास ने हाई स्कूल की पढ़ाई मगुरा नामक कस्बे के स्कूल में पूरी की जो उस समय पाकिस्तान में था। इस बीच उनके माता-पिता का देहांत हो चुका था। हालांकि यह कब हुआ, इस विषय में मैंने बहुत जानकारी जुटाने की कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिली।
खैर 16 वर्ष की आयु में डॉ. बिस्वास पूर्वी पाकिस्तान को छोड़ कर भारतीय सीमा में आ गए। पूर्वी पाकिस्तान में विभाजन के बाद के हालात बहुत विकट थे और इसी के चलते पाकिस्तान के प्रथम कानून और श्रम मंत्री जोगेंद्र नाथ मंडल को भी भारत लौट आना पड़ा था। मंडल इसी जेस्सोर जिले के रहने वाले थे।
पूर्वी पाकिस्तान से भारतीय सीमा में आने के लिए डॉ. बिस्वास को लगभग 70 किलोमीटर की पैदल यात्रा करनी पड़ी। वे अपनी बड़ी बहन के घर आ गए जो भारतीय सीमा के बोनगांव नामक स्थान पर था और आज पश्चिम बंगाल के चौबीस परगना जिले का हिस्सा है। इसके बाद उनकी पढ़ाई ठाकुरनगर में हुई, जहां से उन्होंने स्नातक किया और फिर एक स्थानीय स्कूल में पढ़ाने लगे। फिर उनका चयन बंगाल प्रदेश की राज्य सेवाओ में हुआ और लगातार मेहनत करने के बाद 1973 में उनका चयन भारतीय प्रशासनिक अधिकारी (आईएएस) के रूप में हो गया और उन्हें बिहार कैडर मिला। वह बिहार के अनेक जिलों में जिलाधिकारी रहे। तदुपरांत विभिन्न विभागों में सचिव बनाए गए। इसी क्रम में उनकी कार्यक्षमता को देखते हुए 1992 में तत्कालीन लालू प्रसाद की हुकूमत ने उन्हें बाबा साहब आंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय (नाम परिवर्तन के बाद) का पहला कुलपति नियुक्त किया।
बिहार के प्रति उनके मन में बहुत लगाव था, क्योंकि प्रशासनिक अधिकारी के रूप में उनका पूरा जीवन बिहार में ही गुजरा। 2007 में वह प्रशासनिक सेवा से सेवानिवृत्त हुए और फिर लेखन के कार्य में जुट गए। उनके शोधपरक आलेख देश की प्रमुख शोध पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे।
लेकिन अपने जीवन के अंतिम काल में उन्होंने बंगाल में दलितों की स्थिति पर ही अपने आपको केंद्रित कर लिया था। इस क्रम में वे ब्रिटिश राज के विभिन्न सरकारी दस्तावेजों का अध्ययन करके उनका तथ्यपरक विश्लेषण कर रहे थे।
वह सर्वश्रेष्ठ विश्लेषकों में से एक थे। बाबा साहब आंबेडकर से प्रेरणा लेकर वह भी अपनी बातों को बिना तर्कों और साक्ष्यों के नहीं रखते थे। यह दुखद ही था कि हिंदी भाषी समाज में अपना जीवन गुजार देने के बाद भी उनके विचार अधिक लोगों तक नहीं पहुंच पाए क्योंकि वे या तो अंग्रेजी में लिख रहे थे या थोड़ा बहुत बांग्ला में।
डॉ. बिस्वास सोशल मीडिया पर भी सक्रिय नहीं थे। वह विस्तारपूर्वक लिखने के आदी थे और आज के फास्टफूड जर्नलिज्म के दौर में अपने को अनफ़िट पाते थे। इसलिए उनके आलेख शोध पत्रिकाओं में ही छपते थे। आज उनके आलेखों को संकलित कर हिंदी में प्रकाशित किए जाने की आवश्यकता है। हालांकि बिहार के संदर्भ में उनकी एक पुस्तक का अनुवाद पटना के आंबेडकरवादी मित्र डॉ. मुसाफिर बैठा ने किया है, लेकिन दुखद यह कि आज तक प्रकाशकों के अभाव में छप नहीं पाई।
डॉ. बिस्वास स्वभाव से बहुत ही विनम्र थे और इतने ऊंचे पदों पर रहने के बावजूद बहुत आत्मीयता से मिलते थे। मैं तो 1990 के दशक से उन्हें पढ़ रहा था लेकिन उनके साथ व्यक्तिगत संबंध 2016 से हुए जब मैंने उन्हें एक साक्षात्कार हेतु अनुरोध किया। असल में 1995 के बाद से ही मैं डॉ. आंबेडकर को जानने वाले लोगों के संपर्क में आया तो उनके अनुभवों का दस्तावेजीकरण भी करने लगा। बंगाल के दलित आंदोलन के विषय में बहुत कम जानकारी थी और क्योंकि मैंने बंगाल में सिर पर मानव मल ढोने की कुप्रथा से संबंधित सवाल को उस समय उठाया जब वहां सीपीएम की सरकार थी। मेरी उत्सुकता बंगाल में दलितों की स्थिति को लेकर और अधिक थी और मुझे लगा कि डॉ. बिस्वास से अच्छा कोई नहीं बता सकता। उनसे मुलाकात के बाद एक ऐसी मित्रता हुई कि वह कहीं भी होते तो फोन करते और लंबी बातें करते। उनके अंदर एक टीस थी। वह ब्राह्मणवादी ताकतों के षड्यंत्रों का पर्दाफाश करना चाहते थे और उसके लिए मूल दस्तावेजों का सहारा लेते थे।
1973 में आईएएस की नौकरी ज्वाइन करने पर उन्हें बिहार के अनेक जिलों में जाने का अवसर मिला। अपने स्वभाव के कारण नेताओ के बहुत प्रिय नहीं थे। उनकी पढ़ने में इतनी दिलचस्पी थी कि आईएएस बनने के बाद भी वह पढ़ते रहे। इस दौरान ही उन्होंने अर्थशास्त्र में एम.ए. किया और फिर मुजफ्फरपुर का आयुक्त रहते हुए उन्होंने पीएचडी की। पीएचडी की उनकी थीसिस का शीर्षक था– ‘इनलैंड एंड ओवरसीज इमिग्रेशन ऑफ वर्किंग क्लासेज फ्रॉम बिहार इन द नाइंटीथ सेंचुरी’।
डॉ. बिस्वास ने कई महत्वपूर्ण हस्तक्षेप भी किये। मसलन, पिछले वर्ष उन्होंने बोधगया स्थित महाबोधि मंदिर पर गैर-बौद्धों के कब्जे के सवाल पर एक बेहद महत्वपूर्ण लेख ‘मेन स्ट्रीम’ पत्रिका में लिखा था। अपने इस आलेख में उन्होंने अपने अनुभवों को भी लिखा। यथा– 5 जून, 2005 को बिहार में राष्ट्रपति शासन के दौरान राष्ट्रपति के सचिव श्री पी.एम. नायर ने राज्य सरकार को बोधगया के संबंध में एक पत्र लिखा। चूंकि उस समय डाॅ. बिस्वास बिहार के गृह सचिव थे, इसलिए वह पत्र उनके पास आया, जिसके मुताबिक तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम बोधगया महाबोधि मंदिर के विषय में पूरी जानकारी चाहते थे। पी.एम. नायर के पत्र में जो मुख्य बातें थीं, उनमें बुद्धिस्ट लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता, अपने धार्मिक संस्थानों को स्वयं प्रबंधन करने के अधिकार, पूजा करने के अधिकार के अलावा भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों के तीसरे भाग में उल्लेखित अल्पसंख्यकों को उनके अधिकारों से वंचित किये जाने का सवाल भी शामिल था।
डॉ. बिस्वास ने इस संदर्भ में सरकारी दस्तावेजों को खंगाल कर जो देखा वह उन्होंने अपने लेख में लिखा। आज जो लोग बोधगया महाबोधि विहार के प्रश्न पर आंदोलित हैं, उन्हें डॉ. बिस्वास का यह लेख जरूर देखना चाहिए।
डॉ. बिस्वास खुलकर अपनी बात कहते भी थे। मसलन डॉ. आंबेडकर संविधान सभा में बंगाल के जेस्सोर से चुने जाने के मामले में डॉ. बिस्वास ने मुझे बताया कि “उस समय डॉ. आंबेडकर भारत के गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद के सदस्य थे। जब स्वतंत्रता निकट आ रही थी, तो स्वतंत्र भारत के लिए संविधान बनाने या संविधान लिखने की आवश्यकता थी। पूरे देश में चुनाव आयोजित किये गए, ताकि सदस्य नए राष्ट्र के लिए संविधान का मसौदा तैयार कर सकें। कांग्रेस पार्टी आंबेडकर के खिलाफ थी और उन्होंने निर्णय लिया कि संविधान सभा में उनके प्रवेश को रोका जाना चाहिए। सरदार वल्लभभाई पटेल ने अपने एक वक्तव्य में कहा था कि हमने संविधान सभा के दरवाजे और खिड़कियों को बंद कर दिया है, और हम देखेंगे कि वह इस सदन में कैसे प्रवेश करते हैं। डॉ. आंबेडकर अपने गृह प्रांत, बॉम्बे प्रेसीडेंसी से निर्वाचित नहीं हो सके, इसलिए वह बंगाल राज्य विधानसभा के एंग्लो-इंडियन सदस्यों की मदद से बंगाल से निर्वाचित होने के बारे में सोच रहे थे। चुनाव से कुछ महीने पहले, जब वे कलकत्ता आए और उनका समर्थन प्राप्त करने का प्रयास किया तो उन्हें बताया गया कि एंग्लो-इंडियन सदस्यों ने सबसे पहले तो चुनाव में भाग न लेने का निर्णय लिया है, तथा दूसरी बात यह कि वे चुनाव में किसी को भी वोट नहीं देंगे। अतः डॉ, आंबेडकर बहुत निराश हुए और दिल्ली वापस चले गए। इस समय जोगेंद्रनाथ मंडल ने उन्हें बंगाल आकर चुनाव लड़ने का निमंत्रण दिया। वह डॉ. आंबेडकर द्वारा स्थापित भारतीय अनुसूचित जाति संघ के एमएलसी थे। चुनाव से ठीक 21 दिन पहले डॉ. आंबेडकर कलकत्ता आए और वहां उन्होंने अनुसूचित जाति समाज के समर्थकों और स्वयंसेवकों के साथ बैठक की और फिर वे चुनाव लड़ने के लिए राजी हो गए। नियत दिन पर चुनाव हुए और सात विधान पार्षदों ने डॉ. आंबेडकर के पक्ष में मतदान किया। वास्तव में, किसी भी व्यक्ति को संविधान सभा का सदस्य चुने जाने के लिए 5 सदस्यों के मतों की आवश्यकता होती थी। पहले चरण के परिणाम घोषित किए गए और पाया गया कि डॉ. आंबेडकर को बंगाल से सबसे अधिक वोट मिले थे। संयोगवश, सुभाष चंद्र बोस के बड़े भाई शरत चंद्र बोस को 6 वोट मिले, जो डॉ. आंबेडकर को मिले वोटों से एक कम था। इस प्रकार, दलित आंदोलन के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ गया और आंबेडकर द्वारा जीवन भर किया गया संघर्ष तार्किक निष्कर्ष के करीब पहुंच गया। इससे उन्हें संविधान सभा में पहुंचने और इस देश के ‘अछूत’ लोगों के हित के लिए लड़ने का अवसर मिला।”
इस संदर्भ में डॉ. बिस्वास ने अंग्रेजी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘मेन स्ट्रीम’ में एक विस्तृत लेख भी लिखा था। फारवर्ड प्रेस द्वारा उनका यह लेख हिंदी में “‘बंगाली छोटालोक’ ने भारत की नियति को आकार दिया” शीर्षक से प्रकाशित किया गया।
उन्होंने 40 से अधिक शोधपत्र लिखे और अंग्रेजी और बांग्ला में 10 से अधिक पुस्तकें भी लिखीं। मसलन, उनकी पुस्तक ‘नामशुद्रास ऑफ बंगाल : प्रोफाइल ऑफ ए परसीक्यूटेड कम्युनिटी’ ब्लूमून पब्लिकेशन द्वारा 2000 में प्रकाशित हुई है। इसके अलावा उनकी अन्य प्रमुख पुस्तकों में ‘सोशल एंड कल्चरल विज़न ऑफ इंडिया: फैक्ट्स अगैन्स्ट फिक्शनस, अन्डर्स्टैन्डिंग बिहार’ (1998), ‘सेपोय म्यूटनी एंड इंडियन पर्फिडी’ (1999), ‘सती : सागा ऑफ ए गोरी सिस्टम’ (1999), ‘ए स्टडी ऑफ फ्यूडलिज़्म इन ईस्टर्न इंडिया विद स्पेशल रेफ्रन्स टू बिहार’ शामिल हैं।
डॉ. बिस्वास का निधन उस समय हुआ है जब आंबेडकरवादी समाज को उनकी बौद्धिकता की बहुत बड़ी आवश्यकता थी। वह ऐसे विषयों पर शोध कर रहे थे जो अधिकतर लोगों की सोच से भी गायब हैं। आशा है कि उनके विस्तृत विश्लेषणात्मक लेखों का संग्रह भी अवश्य निकलेगा और हिंदी प्रकाशक भी उनके आलेखों को हिंदी में छापेंगे।
दुखद बात यह भी है कि उनके निधन की जानकारी राष्ट्रीय स्तर पर बहुत समय बाद में लोगों को मिली। केवल पटना के मित्रों ने अगले दिन ही श्रद्धांजलि सभा आयोजित की। उनके परिवार के सदस्यों ने 9 मार्च, 2025 को कोलकाता में कार्यक्रम आयोजित किया। लेकिन देश के बाकी हिस्सों में उनके चाहने वालों और उनके पाठकों को यह जानकारी बाद में मिली। यह इस बात का संकेत भी है कि कभी-कभी हमारे वैचारिक कार्यों से परिवार के सदस्य कितनी दूर होते हैं और दुनिया भर को बदल देने वाले हम सभी लोग अंदर से कितने अकेले हैं। मैंने बहुत से मित्रों विशेषकर आंबेडकरवादियों के साथ ऐसी स्थिति देखी है, जहां उनको परिवार के लोग बिल्कुल देखना पसंद नहीं करते और बहुत से मित्रों को तो परिवार के सदस्य जानते भी नहीं हैं और नतीजा यह होता है कि उनकी मृत्यु के बाद उनके सभी मित्र लोगों से संबंध लगभग समाप्त हो जाता है। हमारी सामाजिकता का दायरा हमारी जातीय पहचानों से आगे भी होना जरूरी है, जो लाख दावों के बावजूद नहीं हो पाया है। डॉ. बिस्वास ने कभी भी अपने जीवन संघर्षों को साझा नहीं किया। शायद केंद्रीय सेवाओं के बड़े पदों पर होने के बाद शायद ऐसा होता हो। लेकिन आज जरूरी है कि हम सभी वैचारिक लोगों का समाजीकरण होना चाहिए तभी राजनीतिक संघर्ष जीत पाएंगे।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)