आपको नहीं लगता कि जैसे गुजरात में आप सब लगभग 15 सालों से संघर्ष कर रही हैं, फिर भी नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी की सरकार लगातार बनी हुई है, अर्थात बहुमत वर्तमान सत्ता के साथ लगातार खडा दिखा। ठीक ऐसा ही अभी केंद्र में भी दिख रहा है कि तमाम लड़ाईयां लोग लड़ रहे हैं, लेकिन वे लड़ाईयां हार जाई जा रही हैं। जैसे हैदराबाद में अप्पाराव बने हुए हैं, एफटीआईआई में गजेन्द्र चौहान बने हुए हैं, यह है क्या आखिर?
अभी वे लोग केंद्र में भी शासन कर रहे हैं। उनके पास बहुमत की एक सरकार है। लेकिन अगर जीत-हार की बात करें, तो आपको दिल्ली और बिहार के चुनाव भी देखने होंगे। इस सरकार को आये हुए ढाई साल हुए हैं, मगर इस ढाई साल में कितना नुकसान हुआ है, यह आपको तौलना (आकलन करना) पड़ेगा। जहां पर उनका शासन है, उनकी सत्ता है, वे गलत इस्तेमाल कर रहे हैं। इतने तीखे विरोध के बावजूद वे विरोध को प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं तो यह हमारी हार नहीं है, बल्कि उनकी तरफ से लोकशाही को ठुकराने का प्रयास है, इसको ऐसे सोचना चाहिए। अगर अप्पाराव बर्ख़ास्त हो चुके थे तो उनको वापस जाकर लाया गया। पता नहीं वहां एक अजीब तरह की राजनीति चल रही है-आज भी राधिका और राजू वेमुला (रोहित वेमुला के मां, भाई से सवाल किया जा रहा है कि वे दलित हैं कि नहीं। जिलाधिकारी, राष्ट्रीय अनूसूचित जाति आयोग को हलफ़नामा देता है कि वे लोग दलित हैं। फिर 10 दिन भी नहीं होता कि जिलाधिकारी दोबारा जांच करता है कि ये दलित हैं कि नहीं। यह केंद्र सरकार का हावी होना और अनैतिक दवाब है।
जब व्यवस्था जिद्दी हो जाय तो लोकतंत्र में ऐसी कौन सा कारवाई होगी कि जनता की आवाज सुनी जा सकेगी, जनता के अनुरूप व्यवस्था से काम करवाया जा सकेगा। अंततः आप 15 सालों से लड़ाई लड़ रही हैं और परिणाम नकारात्मक आता जा रहा है?
आप नकारात्मक परिणाम नहीं कह सकते हैं। 137 लोगों को हमलोगों ने उम्रकैद की सजा दिलवाई है। आप ये कैसे मान सकते हैं कि यह असफलता है! हमारे देश में संसदीय लोकतंत्र एक अलग रास्ते पर जाता है और संवैधानिक लोकतंत्र अलग। हमारे संसदीय लोकतंत्र में ऐसे प्रावधान होते कि जो लोग इस तरह के कामों को अंजाम देते हैं, वे 10 सालों तक चुनाव नही लड़ सकते हैं तो ये लोग आज संसदीय लोकतंत्र में नहीं होते। हमारी जम्हूरियत और लोकशाही में एक व्यापक बदलाव की जरूरत है, पहली बार दंगो को लेकर 137 लोगों को उम्रकैद की सजा हुई है, तो आप ये कैसे कह सकते हैं कि ये असफल लड़ाई है। हमें ये याद दिलाना पड़ेगा कि नरोदा पाटिया का फैसला अगर 2012 में आया है तो उसे साजिश मानी गयी थी, माया कोडनानी और बाबू बजरंगी को सजा भी हुई थी और आज भी जाकिया जाफ़री का मुक़दमा हाईकोर्ट में पेंडिंग है। जजमेंट अच्छे भी आते हैं और बुरे भी आते हैं। अगर दलित, पिछड़ों के मामले देखें तो बहुत सारे जजमेंट इनके ख़िलाफ गया है तो क्या इसका मतलब ये है कि बाबा साहेब आंबेडकर द्वारा बनाया गया संविधान गलत है। क्या आप ऐसा कहेंगे? सवाल है कि हमारे समाज में वे लोग आज भी सत्ता के उच्च पदों पर आसीन हैं (positions of power) जो जातिवादी और सांप्रदायिक मनोवृत्ति के लोग हैं। सबसे पहले हमें यहां बदलने की जरूरत है।
संसदीय राजनीति अगर जनपक्षी नहीं होगी, तो उसका नुकसान होगा। जैसे गुलबर्गा सोसायटी वाले जजमेंट के साथ हम देख रहे हैं कि गुजरात में पिछले 15 सालों से न्यायपालिका का चेहरा बदला है, तो न्यायपालिका में जो लोग बैठे हैं वो तय करेंगे न्याय को तो न्याय का स्वरूप बदल जायेगा। मनुस्मृति की वैचारिकता वाले अगर न्यायपालिका में बैठे हैं, तो ये वैसे ही न्याय के साथ आयेंगे। मूलतः ये खतरा है सिर्फ संवैधानिक लड़ाई लड़ने का..
यह सवाल जो संसदीय राजनीति में है, आप उनसे जरूर पूछियेगा कि संवैधानिक मूल्यों का सवाल आप कब चुनाव में लायेंगे। जब ये सवाल लाये जायेंगे, जब ये सवाल पत्रकार सही ढ़ंग से करेंगे तब जाकर ये हमारे लोकतंत्र को और मजबूती प्रदान करेंगे।
दलित-मुस्लिम एकता की बात कर रही हैं आप, पर सवाल है कि यह एकता किसके बरक्स होगी, क्योंकि शेष बच जाता है ओबीसी समाज और ब्राह्मण समाज
एकजूट होना, संवैधानिक उसूलों पर तो सब के लिए जरूरी है, बहुजन, महिला, ब्राह्मण, ठाकुर, दलित और मुसलमान। दलित और मुसलमान के बारे में मैंने एक खास जिक्र उत्तरप्रदेश चुनाव को लेकर इसलिए किया है कि अक्सर कौमी/सांप्रदायिक हिंसा के पीछे यह बात आती है। दलित का इस्तेमाल मुसलमानों के खिलाफ। अगर मुज़फ्फरनगर देखें तो वहां मुसलमान लड़के द्वारा दलित नौजवान महिला की छेड़खानी का मामला बनाया गया था। अगर सामाजिक स्तर पर एकजूट होकर हम यह कह सकते कि हम सामाजिक मुद्दों पर साथ में खड़े रहेंगे, नाइंसाफी के खिलाफ, छूत-अछूत की राजनीति के खिलाफ़; संविधानिक उसूलों को सामने रखते हुए, तो हो सकता है, संभव है कि हिंसा भड़काने का काम जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बार-बार करता है, वह असफल रहे। हाल में हमने खबर पढी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक राकेश सिन्हा उत्तरप्रदेश के बारे में इस प्रचार में जोर लगाने वाले हैं कि दलित-मुसलमान कभी दोस्त नहीं बन सकते क्यों?
आपको क्या ऐसा नहीं महसूस होता कि संघ के प्रभाव को चुनौती देने के लिए सबसे कारगर मुद्दे जाति के सवालों से बनते हैं और ब्राह्मणवादी संस्कृति पर स्थाई प्रहार ही संघ के वर्णाश्रमवादी हिन्दू राष्ट्रवाद का समाधान है?
अगर हम यह सांस्कृतिक और ऐतिहासिक जंग/संघर्ष नहीं छेड़ेंगे तो संघ को हराना मुश्किल है। कहानी शुरू होती है एकलव्य से और आज तक सिलसिला जारी है। मैं जब इतिहास पढ़ती हूं या शिक्षकों के साथ बैठती हूं तो सावित्रीबाई फुले के योगदान– लड़कियों के लिए खोली गई पहली पाठशाला-भीड़ेवाडा पुणे में, इस ख्याल के साथ किहर जाति और धर्म की लड़कियां एक साथ एक कक्षा में पढ़ेंगी, महत्वपूर्ण दिखती हैं। क्या तीस्ता सीतलवाड़ को यह एहसास नहीं होने चाहिए कि स्त्री के शिक्षण को लेकर ब्राह्मणवाद क्या सोचता है? जब सावित्रीबाई फूले– जो हमारे महाराष्ट्र में क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फूले मानी जाती है, और जिनका जन्मदिन 3 जनवरी को हम शिक्षक दिवस मानते हैं, तथा जोतिबा फूले का बहिष्कार हुआ तो साथ देने वाले पुणे शहर के उस्मान शेख थे, जिनकी बहन फातिमा शेख सावित्रीबाई फूले के स्कूल में उनके साथ पहली शिक्षिका बनी। यह है हमारा इतिहास।
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in