नरेन्द्र मोदी सरकार ने दावा किया कि भारतीय फौजों ने म्यांमार (बर्मा) में घुसकर नागा उग्रवादियों को मार गिराया। इस खबर को देश के हर टीवी-रेडियो चैनल और अखबारों ने प्रचारित किया। लेकिन म्यांमार की सरकार ने इन मीडिया रिपोर्टों का खंडन करते हुए कहा कि भारतीय फौजों ने नागा उग्रवादियों के शिविरों पर उसकी सीमा में घुसकर हमला नहीं किया है बल्कि भारत ने अपनी जमीन पर ही फौजी कार्यवाही की है। म्यांमार ने जोर देकर यह भी कहा कि वह किसी पड़ोसी मुल्क के सैन्यबलों का अपनी सीमा में अनाधिकृत प्रवेश सहन नहीं करेगा। लेकिन म्यांमार का खंडन चैनलों और समाचारपत्रों से लगभग गायब नजर आया।
प्रश्न यह है कि क्या न्यूज़ चैनल देखने वालों, रेडियो सुनने वालों और अखबार पढ़ने वालों को किसी घटना का असली सच पता चल पाता है? हर शहर और गांव में युवा (दो-चार) लोगों का समूह बनाकर सर्वेक्षण किया जा सकता है, जिसमें किसी भी घटना के बारे में पाठकों, श्रोताओं व दर्शकों से यह जाना जाए कि उन्हें उस घटना एवं प्रकरण के बारे में क्या जानकारी है। जो पाठक एक अखबार पढ़ता है, वह उसी अखबार में छपी बातों को सच मान लेता है। कोई व्यक्ति जितने अखबार पढ़ेगा, उसे उतने ही “सच” पता चलेंगें। यही बात चैनलों के बारे में भी सही है। यानी हर अखबार व चैनल के अपने-अपने सच होते हैं और आखिर में यह भी पता चल सकता है कि इन सभी ‘सचों’ में से एक भी असली सच नहीं है। बहुत कम पाठकों व दर्शकों को यह जानकारी होगी कि नागा उग्रवदियों के जिस गुट ने मुइपुर में डोगरा रेजिंमेट के जवानों पर हमला कर उनकी जान ले ली थी, उस गुट के साथ सरकार की दोस्ती रही है। जनता में असंतोष व गुस्से के कारण किसी भी इलाके में जब भी कोई उग्रवादी संगठन खड़ा होता है, उसे कमजोर करने के लिए सरकार उसके एक गुट से दोस्ती कर लेती है। नागालैंड में यह गुट एनएससीएन (खपलांग) के नाम से जाना जाता है।
दिल्ली से प्रकाशित मासिक पत्रिका “समकालीन तीसरी दुनिया” में अभिषेक श्रीवास्तव लिखते हैं कि एनएससीएन (आइएम) के महासचिव टी. मुइवा ने एक इंटरव्यू में उन्हें बताया था कि जब भारतीय सेना ने नौंवी नागा इंडियन रिजर्व बटालियन बनाई थी तो उसमें तीन सौ नागाओं को बैगर किसी इंटरव्यू या परीक्षा के सीधे भर्ती कर लिया गया था – और वे सभी लोग खपलांग गुट के कार्यकर्ता थे। यही बटालियन बाद में छत्तीसगढ़ भेजी गई थी। सच का यह पहलू चैनलों व समाचारपत्रों से सिरे से गायब था। अमेरिका द्वारा पाकिस्तान में अंजाम दी गयी एक सैन्य कार्यवाही में ओसामा बिन लादेन को मार गिराये जाने की घटना का हवाला देते हुए श्रीवास्तव लिखते हैं कि अमेरिका ने दावा किया था कि उसने पाकिस्तान की सरकार को बिना सूचना दिए वहां प्रवेशकर लादेन को मारा। लेकिन अमेरिका के एक पत्रकार सीमोर हर्श ने 10 मई 2015 को “लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स” में लिखा कि पाकिस्तान के एबटाबाद में लादेन रह रहा है, यह जानकारी पाकिस्तान ने ही अमेरिका को दी थी।
पाकिस्तान का गुर्राना केवल मीडिया के लिए था। अमेरिका ने ही लादेन और तालिबान को खड़ा किया था और फिर अलकायदा को खत्म करने के नाम पर, अमरीका ने अफगानिस्तान को रौंद डाला। पाकिस्तान में घुसकर अमेरिकी नेवी सील्स द्वारा लादेन को मारने की घटना के वक्त पूरी दुनिया के समाचारपत्रों व चैनलों की खबरों को याद करें। क्या वे उस वक्त सच कह रहे थे – पूरा सच? उस समय आम मान्यता यही थी कि पाकिस्तान, आतंकियों को पनाह देता है और उसने लादेन को छुपा रखा था।
एक और उदाहरण देखें और विचार करें कि आखिर सच कहां छुपा रहता है? तवलीन सिंह एक पत्रकार है, जो बिना लागलपेट के कुछ भी लिख देने के लिए मशहूर हैं। वे अपने कहे को ही सच मानती हैं। उन्होंने जुलाई के पहले हफ्ते में अपने एक कॉलम में लिखा “इसमें कोई शक नहीं कि मीडिया की भूमिका ‘ललितगेट’ में अच्छी नहीं रही। जानेमाने टीवी पत्रकारों ने पत्रकारिता का यह बुनियादी उसूल भुला दिया कि बिना जांच के कोई समाचार नहीं देना चाहिए”। उन्होंने लिखा कि कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने जब कहा कि धौलपुर का महल सरकार की संपति है वसुंधरा राजे की नहीं, तब यह खबर तकरीबन हर चैनल पर बिना जांचे-परखे दिखा दी गयी. उनके अनुसार, बाद में पता चला कि जयराम ने गलत दस्तावेज पेश किए थे। वे अपने कॉलम में अपना यह सच स्थापित करने भी भरपूर कोशिश करती हैं कि मीडिया की काग्रेंस से सांठगांठ हैं। उनके हर कॉलम के ‘सच’ के अलग- अलग चेहरे होते हैं।
जयराम रमेश ने प्रेस कांफ्रेस में दस्तावेज पेश किये थे कि धौलपुर महल सरकारी संपति है। इसे देश के समाचार माध्यमों ने प्रमुखता दी। ललित मोदी के साथ राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंघराराजे का रिश्ता है और मोदी को भारत सरकार ने भगौड़ा घोषित किया है। ललित मोदी की वसुंधरा राजे और सुषमा स्वराज द्वारा मदद करने के आरोपों की कड़ी में ही धौलपुर महल का भी प्रकरण सामने आया।
मीडिया, समाचार के व्यवसाय में है। शक्तिशाली व बड़े लोग जो बोलते हैं, वह सब समाचार होता है। एक व्यक्ति पहले अपना सच बोलता है फिर दूसरा उसके उलट अपना सच। पाठक व दर्शक इस खेल को देखते हैं और यह तय करते हैं कि उन्हें किसके पक्ष में खड़ा होना है। इस तरह, पाठक व दर्शक असली सच के पक्ष में खड़ा होने से महरूम रहते हैं। गांव-शहरों के युवाओं को मीडिया पर शोध के जरिये पाठको व दर्शकों की आंखे खोलने के पहल करनी चाहिए। देश-दुनिया की किसी भी घटना के बारे में आम पाठक व दर्शक अपनी राय बना सकता है और अपनी राय पर कायम रहने की जिद कर आपस में लड़भिड़ भी सकता है लेकिन उसे यह पता होना चाहिए कि असली सच कहीं और छुपा है और उनकी राय को कोई भुना रहा है।
फारवर्ड प्रेस के अगस्त, 2015 अंक में प्रकाशित