- प्रमोद रंजन
बिलाड़ा (राजस्थान), 13 जनवरी : यात्राओं का मज़ा तब दुगुना हो जाता है, जब आपके मनपसंद संगी-साथी भी साथ हों। कुछ ऐसा ही हो रहा है, हम हवा से बातें कर रहे हैं। आखिर दो दिशा के “अनिल” मेरे साथ हैं। दक्षिण भारत के अंग्रेजी पत्रकार अनिल वर्गीज और उत्तर भारत के युवा समाजशास्त्री अनिल कुमार। मेरा उड़नखटोला- होंडा सीआरवी- इतनी लंबी यात्रा के हिसाब से कुछ पुराना जरूर हो गया है, लेकिन यह अब भी खासा आरामदायक है। इस यात्रा में हमारा साथ दे रहा ड्राइवर रविंद्र रविदास पेशेवर तौर पर थोड़ा कम अनुभवी है, लेकिन उसकी विनम्रता और सीखने की ललक इस कमी को पूरा किये दे रही है। इस यात्रा में हम देश के पश्चिमी और मध्यवर्ती इलाके से चलते हुए कन्याकुमारी तक पहुंचेंगे और फिर वहां से पश्चिमी क्षेत्रों से गुजरते हुए वापस दिल्ली आ जायेंगे। हिमालयी राज्य व पूर्वोत्तर को हम इस यात्रा की योजना में शामिल नहीं कर सके हैं।
5 जनवरी को दिल्ली से चलने के बाद अब तक पिछले 9 दिनों में हम रोहतक, हिसार, गोगा मेड़ी, कालीबंगा, जैसलमेर, सम गांव, थार रेगिस्तान में रनौत, तनोट और वहां स्थित पाकिस्तान बॉर्डर देख आये हैं। एक रात हमने भारत-पाक सीमा के निकट थार के सुदूर रेगिस्तान में पशुचारकों के साथ गुजारी। उस पूरी रात हमारी गाड़ी रेत में फंसी रही। उस रात निर्जन-सुनसान गंतव्य तक उछलते-फांदते ट्रैक्टर का सफर इतना रोमांचक था कि हम शायद ही कभी उसे भूल पाएं। थार से निकलने के बाद हम पिछले दो दिन से जोधपुर के निकट बिलाड़ा नामक छोटे से कस्बे में रुके हुए हैं। यहाँ राजा बलि और आई माता का मंदिर है। लेकिन यहाँ रुकने का हमारा मकसद इन मंदिरों को देखने से अधिक- गंदे हुए कपड़ों को धोना और अब तक की यात्रा को दर्ज कर डालना है। फॉरवर्ड प्रेस के पाठकों के लिये अनिल वर्गीज़ यहाँ बैठ कर यात्रा का अब तक का रोजनामचा लिख रहे हैं, जबकि अनिल कुमार उन बहुजन परम्पराओं को दर्ज कर रहे हैं, जो अबतक की यात्रा में सामने आये हैं।
फॉरवर्ड प्रेस डॉट इन के पाठकों के लिए जल्दी ही ये संस्मरण हिंदी और अंग्रेजी में उपलब्ध होंगे। पूर्णत: द्विभाषी वेब पोर्टल के होने के कारण अनुवाद में थोड़ा समय लग ही जाता है। यात्रा के दौरान लिखना एक बेहद कठिन प्रक्रिया है। लेकिन अगर हमने इन्हें बाद के लिए स्थगित कर दिया तो शायद इतनी सारी चीजों को समेटने में न स्मृति साथ दे पायेगी, न ही दिल्ली का आपाधापी भरा जीवन इतना समय ही देगा कि हम अपने नोट्स के आधार पर इन्हें लिख पायें।
इन यात्रा संस्मरणों में लेखक के निजीपन का स्पर्श भी पाठकों तक पहुंचे इसलिए हर संस्मरण उसे ड्राफ्ट करने वाले लेखक के नाम से छपेगा। लेकिन साथ ही इनमें सभी सहयात्रियों के साझा विचार और सुझाव भी शामिल रहेंगे। यानी, आप इनमें विचारों, तथ्यों और दृष्टिकोण के स्तर पर एफपी टीम के साझेपन और संस्मरणों के लिए जरुरी लेखक की निजता- दोनों का आनंद ले सकेंगे। ये सभी संस्मरण “एफपी की भारत यात्रा” बाईलाइन को क्लिक कर आप एक साथ भी पढ़ सकेंगे।
बहरहाल, जब तक दोनो अनिल अपने-अपने संस्मरण पूरा करें और वे आप तक पहुंचें तब तक मैं आपको यात्रा का एक संस्मरण सुनाता हूँ।
डॉ स्वामी : एक नाथपंथी आंबेडकरवादी साधु
हम कभी भी पूरी तरह मौलिक नहीं हो सकते। पूर्वग्रह हमारे अवचेतन का ऐसा हिस्सा है, जिससे मुक्त होना लगभग नामुमकिन ही है। दिल्ली से चलने से पहले हम सबने तय किया था कि लेखन की दृष्टि से हमारा फोकस बहुजन संस्कृति, परंपराओं और लोगों की समस्याओं पर रहेगा, लेकिन हम अपने पूर्वग्रहों से अधिकाधिक मुक्त रहने की कोशिश करेंगे और चीजों को अधिकतम पहलुओं से देखने-समझने का प्रयास करेंगे। हम यही कर भी रहे हैं।
लेकिन इस बीच हमें दो ऐसे लोग भी मिले, जो अपने विचार और व्यवहार में इतने मौलिक थे कि हम अवाक रह गए। इनमें से एक थे हिसार (हरियाणा) में मिले स्वामी डॉक्टर रामेश्वरानंद और दूसरे थे कालीबंगा (राजस्थान) के पास के चरण सिंह। इनसे मिलकर हमने महसूस किया कि पूर्वग्रह किसी को उसके मूल रूप में पहचानने में कितना बाधक हो सकते हैं।
6 जनवरी की सुबह डॉ स्वामी से मुलाकात एक संयोग ही थी। हम हिसार में रात्रि विश्राम के लिए स्थानीय राजनेता मित्र वेदपाल तंवर के फार्म हॉउस पर रुके थे। सुबह नाश्ते के बाद जब हम वहां से राजस्थान के लिए कूच करने वाले थे तो उन्होंने आग्रह किया कि एक पहुंचे हुए साधु बाबा आने वाले हैं, उनसे मिलकर जाऊं। मैंने उन्हें धन्यवाद देते हुए कहा कि यह पूण्य आप कमाएं और हम पापियों को अपनी राह जाने दें। इस हंसी-मज़ाक के साथ गाड़ी स्टार्ट ही की थी कि बाबा अपने अमले के साथ पहुँच गए। दुबली-पतली काया, सुदर्शन चेहरा, लंबी काली-सफ़ेद दाढ़ी, गेरुआ वस्त्र। मुझे रुकना पड़ा। यह वेश-भूषा इतनी बदनाम हो चुकी है कि मैंने उन्हें बहुत ही अनिच्छापूर्वक ही नमस्कार किया।
लेकिन जब बातचीत शुरू हुई तो उनका जो स्वरुप सामने आया वह मेरी कल्पना के एकदम विपरीत था। उन्होंने दिल्ली के प्रसिद्ध एम्स से चिकित्सा शास्त्र की डिग्री ली थी, लेकिन उनकी विद्रोही चेतना को इस सुरक्षित पेशे में रहना मंजूर नहीं था। पिता सेना में नौकरी करते थे। खाता-पीता परिवार था। वे सधुक्कड़ी की ओर कैसे आए इस पर तो ज्यादा बात नहीं हुई, लेकिन उनकी बातों से यह तो मालूम चला ही कि उन्होंने साहू जी महाराज, फुले और आम्बेडकर को गहनता से पढ़ा है। वे इन तीनों के अनन्य प्रसंशक हैं और सामाजिक समानता को ही असली धर्म मानते हैं।
वे नाथपंथी हैं। पुष्कर में उनका आश्रम है, गोगा मेड़ी, राजस्थान के वे संरक्षक हैं साथ ही कई अन्य नाथपंथी आश्रमों के संचालन में उनकी प्रभावशाली भूमिका है। अपने प्रधानमंत्री मोदी से वे उस समय से परिचित हैं, जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री नहीं बने थे। उन्होंने एक रोचक बात यह बतायी कि मोदी उस समय भी आंबेडकर की बात करते थे। डॉ. स्वामी को लगता है इन दिनों देश की राजनितिक हालात ठीक नहीं है, आपसी घृणा और विद्वेष बढ़ रहा है।
हमने उनके कुछ दलित-पिछड़े शिष्यों के बीच धर्म, आध्यात्म, आरक्षण आदि अनेक विषयों पर खूब बातचीत की। वे महिषासुर प्रकरण की लगभग हर घटना से परिचित थे। उन्होंने बताया कि वे स्वयं भी आदिवासी परम्पराओं के संरक्षण के लिए लंबे समय से अपने तईं काम करते रहे हैं।
नाथपंथ, कबीरपंथ और अर्जक संघ की मौजूदा हालात को समझना हमारी इस यात्रा की योजना में शामिल है, इसलिए उनके आमंत्रण पर हमने आगे की यात्रा पर निकलने से पूर्व गोगा जी मेड़ी (राजस्थान में नाथपंथ का एक प्रमुख मंदिर, जिनका मूल वास्तव में ‘मंदिर’ से बहुत अलग रहा है) के अतिथि गृह में वह रात गुजारी। हालाँकि डॉ. स्वामी उस रात वहां न रुक कर किसी काम से कहीं अन्यत्र चले गए थे। यह डॉ. स्वामी के विचारों का ही असर था कि जब वे जा रहे थे तो हम उनके प्रति सम्मान से भरे थे।
मेड़ी में यह देखना दुखद था कि नाथपंथ पिछ्ले कुछ वर्षों से अपने सिद्धांतों, प्रतीकों को तेजी से छोड़ता जा रहा है। लेकिन मेड़ी के भंडारा प्रांगण में अन्य राजनेताओं के साथ फुले और आम्बेडकर की तस्वीरें देखना सुखद था। हम जिस कमरे में रुके थे, उसकी न सिर्फ साज-सज्जा सुरुचिपूर्ण थी, बल्कि आश्चर्यजनक यह था कि उस कमरे में न किसी देवी-देवता का चित्र था, न ही मंदिर के महंथ/संरक्षक का। किसी अन्य मंदिर में ऐसा मिलना कठिन है।
दन्त कथाओं के अनुसार गोगा जी के पिता चूरू जिला के ददेरवा नामक जगह के चौहान (राजपूतों की एक उपजाति) वंश के राजा थे और गोगा जी एक परमवीर राजकुमार। अपनी वीरता के कारण उन्हें “जाहरवीर” भी कहा जाता है। उनसे संबंधित कथाएं राजकुमारी सीरियल (उसी क्षेत्र की एक सजातीय राजकुमारी) से उनके प्रेम और विवाह तथा गौरक्षा के लिए किये गए उनके चमत्कारिक वीरतापूर्ण कारनामों से भरी पड़ी हैं। चौहान वंश नाथपंथी था, इसलिए इन कथाओं में गोरखनाथ, गुरु जालंधर, मछेन्द्रनाथ आदि का जिक्र बार-बार आया है। गोगा मेड़ी के पास उनसे सम्बंधित गीतों की सीडी, लॉकेट के साथ-साथ उनसे संबंधित धार्मिक किस्म की किताबें भी बिकती हैं, जिनमें “गोगा पुराण” भी शामिल है। इनमें से अधिकांश पुस्तक-पुस्तिकाओं के लेखक ब्राह्मण समुदाय से आने वाले स्थानीय लोग हैं। गोगा जी से सम्बंधित कथाओं के ब्राह्मणीकरण की एक बड़ी वजह यह भी है। दूसरी ओर, मेड़ी में आने वाले ज्यादातर भक्त या तो दलित थे या फिर पिछड़ी जाति के। यहाँ के कई महंथ पहले भी दलित-पिछड़ी जातियों के रह चुके हैं। अभी के महंथ बालयोगी रुपनाथ आदिवासी (मीणा) पृष्ठभूमि के हैं।
मेड़ी में आने वाले ज्यादातर भक्त पुत्र रत्न की कामना के साथ आते हैं। गोगा जी का आशीर्वाद सर्पदंश में भी जान बचाने वाला माना जाता है। गोगा जी के शिष्य मोर पंख से सर्पदंश का इलाज करते हैं। वस्तुतः कुछ महीने पूर्व बुंदेलखंड और झारखण्ड की अपनी यात्रा में भी मैंने महसूस किया था कि बहुजन परंपराओं में सर्प दंश का भय, मोर द्वारा सांप से बचाव और पशुओं की सुरक्षा के प्रति चिंता- यह तीन चीजें, अलग-अलग रूपों में आती हैं।
हमारी योजना गोगा जी मेड़ी से कालीबंगा जाने की थी, जिसे 4500 साल पहले आदिवासियों ने बसाया था। लेकिन सुबह गोगा जी परिसर में घना कोहरा था। गाड़ी चलाना तो दूर रहा, वहां आ रहे भक्तों को 3 मीटर दूर से भी देखना कठिन था।
10 जनवरी की सुबह घने कोहरे के बीच हमने गोगा जी मेड़ी परिसर में खूब फोटोग्राफी की। सैकड़ों भक्त पति-पत्नी वहां अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ वहां पहुँच रहे थे। उनमें से कुछ की मान्यता थी कि उन्हें गोगा जी के आशीर्वाद से पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है, तो कुछ अन्य पुत्र रत्न की मन्नत मांगने पहुंचे थे। सांप दिखा कर, ढोल बजा कर और खुद को चाबुक मारने का खेल दिखा कर पैसा मांगने वालों की भी बड़ी संख्या वहां सुबह-सुबह मौजूद थी। सबके-सब दलित और निम्न ओबीसी जातियों के थे। खर्च करने वाले भक्त भी और उनकी भक्ति के बूते पेट पालने वाले भी।
मेड़ी में एक खास बात यह भी दिखी धूणी (मुख्य परिसर का मुख्य भाग) में लगी अधिकांश मूर्तियां चार हाथों वाले भगवान की न होकर मानवाकार थीं। मछेन्द्रनाथ, गोरखनाथ, गोगा जी के अतिरिक्त कुछ और नाथ गुरुओं के साथ-साथ वहां मेड़ी दिवंगत साधुओं की भी मूर्तियां थीं। एक जगह जरूर गोरखनाथ और गोगा जी के साथ-साथ हनुमान जी को भी विराजमान करवा दिया गया था। हाँ, धूणी के बाहरी परिसर की दीवारें चार हाथ वाली देवियों और शंकर की तस्वीरों से पटी थीं। जैसा कि मैंने पहले बताया भण्डारा परिसर (खाना खाने की जगह) में जवाहरलाल नेहरू, अब्दुल कलाम आज़ाद, वल्लभ भाई पटेल आदि नेताओं के साथ-साथ जोतिबा फुले, भीमराव आंबेडकर, भगत सिंह और रवीन्द्रनाथ टैगोर की भी मूर्तियां थीं।
हमने महसूस किया कि जो कुछ भी प्रगतिशील प्रतीक गोगा मेड़ी में हैं, वे निश्चित रूप से डॉ स्वामी के फुले- आंबेडकरवादी विचारों के कारण है। जैसा कि उन्होंने कहा भी था कि वे इस अन्धविश्वास पैदा करने वाली धार्मिक व्यवस्था के भीतर रह कर इसे बदलने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन यह सवाल भी तो मुँह बाये खड़ा था कि क्या कोई भी व्यक्ति काजल की इस कोठरी में उजाला फ़ैलाने सफल हो सकता है? या फिर वे फुले-टैगोर, नेहरू, आंबेडकर, भगत सिंह से भी पुत्र रत्न की कामना करने वालों की एक फ़ौज ही खड़ा करने का रास्ता खोल रहे हैं?
जारी..( अनिल वर्गीज़ द्वारा लिखी जा रही अगली क़िस्त में कालीबंगा के रहस्यमयी सरदार चरण सिंह की कहानी)
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