स्वंतत्र भारत में ‘चाचा’ नेहरू का जन्मदिवस 14 नवंबर, बाल दिवस के रूप में मनाया जाता रहा है। पिछले साल हेडमास्टर की तरह व्यवहार करने वाले हमारे नए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के स्कूली बच्चों का ‘चाचा’ बनने की कोशिश की। इस साल, बिहार में मुंह की खाने के बाद वे लंदन चले गए जहां वे महारानी व प्रधानमंत्री डेविड कैमरन से मिले और संसद को संबोधित किया। जहां एक ओर उन्होंने वेम्बले स्टेडियम में उपस्थित ऊँची जातियों/वर्गों के अप्रवासी भारतीयों को मंत्रमुग्ध करने का भरपूर प्रयास किया, वहीं उनके अतीत और उनके वर्तमान के कार्यकलापों, जिनमें दलितों और आदिवासियों से संबंधित उनकी नीतियां और विचार शामिल हैं, के प्रति सामान्य से अधिक विरोध का सामना उन्हें करना पड़ा।
भारत के दलितों को लुभाने के लिए मोदी ने कुछ समय निकालकर उस घर का उद्घाटन किया, जिसमें आंबेडकर, लंदन स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स में अपनी डाक्टरेट की पढ़ाई के दौरान रहते थे।
नए आंबेडकर स्मारक में 20 मिनट बिताने के बाद, मोदी हमेशा की तरह, व्यापार-व्यवसाय की दुनिया में व्यस्त हो गए। उन्होंने टाटा मोटर्स की जगुआर लैंडरोवर फैक्ट्री में काफी समय बिताया। विडंबना यह है कि मोदी का अर्थशास्त्र, जिसमें औद्योगीकरण और उत्पादन पर ज़ोर दिया जा रहा है, आंबेडकर की सोच के अधिक नज़दीक है, बजाए मोदी के गांधीवादी और आंबेडकरवादी होने के नाटक के। इसे समझने के लिए गांधी और आंबेडकर की आधुनिक टैक्नोलॉजी के बारे में एकदम अलग-अलग दृष्टिकोणों की अभय कुमार की गहन विवेचना पढिए।
आंबेडकर के भारतीय अर्थशास्त्र के इस व अन्य पहलुओं पर सुस्पष्ट विचार थे। यह आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि वे सबसे पहले एक अर्थशास्त्री थे व अर्थशास्त्र के सैद्धांतिक व व्यवहारिक पहलुओं से अच्छी तरह से वाकिफ थे। आगे चलकर अन्य क्षेत्रों में उन्होंने जो उपलब्धियां हासिल कीं उनसे अर्थशास्त्री के तौर उनकी भूमिका गुम हो गई। इसलिए, आंबेडकर पर केंद्रित इस विशेषांक की आवरणकथा में हम इस महान विभूति के व्यक्तित्व के इस छुपे पहलू पर फोकस कर रहे। राजेश कुमार ‘गौहर’, न्याय व समानता के मूल्यों पर आधारित, आधुनिक भारतीय अर्थशास्त्र को शक्ल देने में आंबेडकर का योगदान और उनकी गहरी समझ से हमें परिचित करवा रहे हैं। चूंकि आंबेडकर स्वयं बहुत सामान्य पृष्ठभूमि से थे और दलितबहुजन समुदायों से लगातार संपर्क में रहे इसलिए वे भूमिहीन व छोटे किसानों, औद्योगिक श्रमिकों और निर्धन वर्ग के दर्द को महसूस कर सकते थे, जबकि गांधी को केवल इन तबकों से सहानुभूति थी।
आंबेडकर की तार्किक (बनाम गांधी की भावनात्मक व नेहरू की आदर्शवादी) आर्थिक सोच के कारण, उन्होंने कृषि सुधार की बात की ताकि भारत के त़ेजी से औद्योगीकरण के लिए पंजी और कच्चा माल उपलब्ध हो सके। इसके अतिरिक्त, इस विशेषांक में आंबेडकर पर हम और भी बहुत कुछ प्रस्तुत कर रहे हैं।
अगर यह हमारा पारंपरिक आंबेडकर विशेषांक नहीं होता, तो इसका मुख्य फोकस बिहार के हालिया विधानसभा चुनाव पर होता। परंतु जैसा कि हमने वायदा किया था, हम एफपी के पाठकों के लिए दो विशेष लेख प्रकाशित कर रहे हैं। बिहार के बेटे और सीएसडीएस के निर्देशक संजय कुमार का चुनाव-पश्चात विश्लेषण और प्रेम कुमार मणि की अनूठी व भेदक विवेचना।
अन्यत्र प्रकाशित पटना के आर्थिक मामलों केजानकार शैबाल गुप्ता का संपादकीय लेख कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे उठाता है। उनकी सलाह है कि नई बिहार सरकार को उसको मिले जनादेश को और प्रभावी बनाने के लिए, पराजित ईबीसी और महादलितों को साथ ले, सामाजिक न्याय युक्त विकास के पथ पर चलना चाहिए और फिर इसे बिहारी उप-राष्ट्रवाद से जोडऩा चाहिए। वे कहते हैं कि दक्षिणी राज्यों में बहुजन सरकारों ने इस नीति को सफलतापूर्वक लागू किया है और क्षेत्रीय विकास परियोजनाओं में सवर्ण श्रेष्ठी वर्ग को भी सांझीदार बना लिया है।
गुप्ता की यह बात एकदम यथार्थपूर्ण है कि ”असली बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था केवल भूसुधारों की नींव पर खड़ी हो सकती है।’’ यहां तक तो मैं उनसे सहमत हूं। परंतु वे अपने लेख के अंत में यह आशा व्यक्त करते हैं कि ”नीतीश, नेहरूवादी मूल्यों के अनुरूप कार्य करेंगे’’। इस महत्वपूर्ण परिवर्तन का मॉडल नेहरू? नहीं, डॉ. गुप्ता, वे डॉ. आंबेडकर हैं, जिन्हें बिहार के बहुजन त्रिवेणी संघ को अपना आदर्श अर्थशास्त्री मानना चाहिए।
अगले माह तक…, सत्य में आपका
फारवर्ड प्रेस के दिसंबर, 2015 अंक में प्रकाशित