जब कुछ समाचारपत्रों में बाबू जगजीवन राम पर लोकसभा टीवी द्वारा छह डॉक्यूमेंट्री (वृत्तचित्र) बनाने की खबर छपी, जिसमें यह भी कहा गया कि लोकसभा टीवी द्वारा जून 2009 के बाद बनाई गई तेइस में से छह डॉक्यूमेंट्री जगजीवन राम पर बनाई गई हैं, तब मैंने एक लेख लिखा।
खबर का लहजा इस अर्थ में शिकायती था कि बाबू जगजीवन राम की पुत्री मीरा कुमार के (जून 2009 में) लोकसभा की अध्यक्ष बनने के बाद लोकसभा टीवी ने बाबू जी पर छह फिल्में बनाई। जगजीवन राम पर फिल्मों की संख्या की सूचना लेने के लिए आरटीआई का इस्तेमाल किया गया। इस खबर का विश्लेषण कई नजरियों से किया जा सकता है। क्या जगजीवन राम के जीवन पर छह फिल्में बनाने के फैसले को लोकसभा अध्यक्ष के पूर्वाग्रह के रूप में देखा जा सकता है? महज आंकड़ों के नजरिए से देखें तो 23 में छह फिल्में पूर्वाग्रह ही दर्शाती हैं। लेकिन लोकसभा टीवी से बाहर जगजीवन राम पर कितनी फिल्में बनी हैं! उत्तर है, ना के बराबर। इसे किस तरह के पूर्वाग्रह के रूप में देखा जा सकता है?
मीरा कुमार जब सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री थीं तब उन्होंने डॉ आम्बेडकर फाउंडेशन की तरह बाबू जगजीवन राम फाउंडेशन की स्थापना करवाई थी। क्या वह भी पूर्वाग्रह था? डॉ आम्बेडकर को भारतीय राजनीतिक प्रतिष्ठानों में जो जगह मिली है उसकी तुलना में जगजीवन राम को लगभग नकारा गया है।
मीरा कुमार को राजनीति विरासत में मिली है और यह कहा जा सकता है कि संसदीय राजनीति में वे बाबू जगजीवन राम का प्रतिनिधित्व करती हैं। इस तरह, लोकसभा टीवी द्वारा बनाई गई छह फिल्मों के आधार पर उन्हें जगजीवन राम के प्रति पक्षपात करने का दोषी कहा जा सकता है लेकिन भारतीय राजनीतिक प्रतिष्ठानों में परिवार के प्रति पक्षपातपूर्ण प्रवृत्ति एक सामान्य-सी बात है। इस बहाने ये सवाल खड़ा होना लाजिमी है कि अब तक बाबू जगजीवन राम के राजनीतिक दर्शन और जीवन को आखिर विभिन्न स्तरों पर क्यों उपेक्षित रखा गया, जबकि वे तो मौजूदा सत्ताधारी दलों के दलित प्रतिनिधित्व की जरूरतों को पूरी करते हैं ?
जनता पार्टी ने 1977 के चुनाव के पहले अगले प्रधानमंत्री के रूप में जगजीवन राम को प्रचारित किया था परन्तु बहुमत मिलने पर उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनाया गया। बाबू जगजीवन राम ने यह आरोप लगाया था कि उनके दलित होने के कारण उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनाया गया। दिल्ली में राजघाट, विजय घाट से लेकर कई तरह के घाटों के बीच ‘समता स्थल’ की दुर्दशा तो आंखों के सामने है।
दरअसल, लोकसभा टीवी से इस तरह की सूचनाएं लेने वाले खुद पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं। इन लोगों ने सामाजिक भेदभाव को उजागर करने वाली कितनी सूचनाओं की जरूरत महसूस की है ? लोकसभा टीवी में ही बहुत सारी ऐसी सूचनाएं हैं जो खबरों के रूप में जगह नहीं हासिल कर पाती हैं। मसलन, लोकसभा टीवी में दलित-आदिवासियों और पिछड़ों का प्रतिनिधित्व लगभग नहीं के बराबर है। निर्णायक पदों पर तो उनका एक भी प्रतिनिधि नहीं है। इस पर लोकसभा अध्यक्ष ने भी अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की है जबकि उन्हें बाकायदा इसकी सूचना दी गई है और वह भी आरटीआई के जरिए ही प्राप्त की गई थी। लेकिन समाज के बड़े दायरे को प्रभावित करने वाली ऐसी सूचनाएं मीडिया में नहीं आ पातीं। जबकि लोकसभा टीवी में निर्णायक पदों का समाजशास्त्र कैसे उसके द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली पूरी सामग्री को प्रभावित कर रहा है, इससे जुड़ी सूचनाएं भी सामने आई हैं।
मीडिया स्टडीज गु्रप ने आरटीआई के जरिए लोकसभा टीवी से उसके कार्यक्रमों में भाग लेने वालों के नाम मांगे। जो सूचना मिली उस पर आश्यर्च ही व्यक्त किया जा सकता है। कुछ खास तरह के पत्रकार, नौकरशाह और राजनेता लोकसभा टीवी के विभिन्न कार्यक्रमों में बुलाए जाते हैं और उन्हें इसके एवज में एक निश्चित रकम दी जाती है। क्या यह सांठ-गांठ नहीं है?
जब एक दलित नेता पर छह फिल्में बनती हैं तो उसे पूर्वाग्रह बताया जाता है। लेकिन जब लोकसभा अध्यक्ष दूसरे पूर्वाग्रहों के मामले में मौन रखती हैं तो उसे मातहतों को स्वायत्तता देना कहा जाता है। मीरा कुमार के अध्यक्ष बनने के बाद से ही नहीं, लोकसभा टीवी की स्थापना के बाद से अब तक के काल का एक मूल्यांकन कराया जाए तो उसके संचालन में पूर्वाग्रहों की भरमार नजर आएगी। कुछ खास लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए कई कार्यक्रमों को बंद किया गया और कुछ कार्यक्रम शुरू किए गए। वहां की गई भर्तियों में योग्यता का आधार अघोषित रहा है। सवाल संस्थानों को बचाने के उद्देश्य से उठाए जाते हैं या अपने पूर्वाग्रहों को छिपाने के लिए, यह महत्वपूर्ण होता है।
जगजीवन राम उत्तर भारत में दलितों के कद्दावर नेता थे। वे उस जमीन पर राजनीतिक रूप से सक्रिय थे जिस पर सामाजिक आंदोलन की उस तरह की पृष्ठभूमि नहीं थी, जैसी कि डॉ आम्बेडकर को मिली। उत्तर भारत में सामाजिक न्याय के आंदोलन पर कई तरह के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परतें जमी हुई थीं।
किसी व्यक्ति पर फिल्में बनाने के लिए समर्थक ग्रुपों की सक्रियता और संस्थानों का सहयोग महत्वपूर्ण होता है। बाबू जगजीवन राम ऐसी पार्टी के नेता रहे हैं जहां वैचारिक रूप से उनके समर्थकों की गुंजाइश नहीं दिखती है। इसीलिए ऐसे नेताओं के व्यक्तिगत हितैषी या पारिवारिक सदस्य ही सक्रिय होकर उनकी याद को बनाए रखने की कोशिश करते हैं। इतिहास में बाबू जगजीवन राम को जीवित रखने के लिए उन पर बनी फिल्मों का प्रदर्शन दूसरे नेताओं पर बनी फिल्मों की तरह लोकसभा टीवी के बाहर दूसरे मंचों पर भी क्यों नहीं किया जाना चाहिए ?
उपरोक्त सामग्री को कई समाचारपत्रों में भेजा गया। उनमें से एक में पृष्ठ प्रभारी ने उसे छापने का फैसला किया और यह सूचना भी मुझे दी। लेकिन वह नहीं छपा। उस सामग्री पर संपादक की निगाह पड़ गई और उसे पन्ने से उतरवा दिया गया। इसके बाद यह सामग्री कई समाचार पत्रों में काम करने वाले समाजवादी, प्रगतिशील, जातिवाद विरोधी और इस तरह के विशेषणों का तमगा लटकाने वाले मित्रों को भेजा गया। लेकिन आखिरकार यह सामग्री नहीं छपी और उस लंबी सूची में शामिल हो गई जिस सूची में दलितों के खिलाफ पूर्वाग्रहों के कारण मीडिया में जगह नहीं मिलने वाली सामग्री के कई शीर्षक दर्ज हैं।
(फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2014 अंक में प्रकाशित )
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