फारवर्ड प्रेस के जुलाई 2015 अंक में ‘ओबीसी आरक्षण विभाजन : केंद्र नहीं, राज्यों का काम’ शीर्षक से अशोक यादव की आवरणकथा पढ़ी। उनका कहना है कि सत्ता केंद्रों में गैर-आनुपातिक प्रतिनिधित्व की समस्या का निराकरण, केंद्रीय ओबीसी सूची का विभाजन कर नहीं किया जा सकता। यह कार्य राज्य स्तर पर किया जाना चाहिए। यदि केंद्र की सूची में विभाजन किया जाता है और राज्यों में नहीं किया जाता तो इससे हालात जस के तस बने रहेंगें। उनके विचारों से मैं सहमत नहीं हूं। दसअसल, ओबीसी सूची का विभाजन राज्यों के साथ-साथ केंद्र सरकार की सूची में भी होना जरूरी है।
ऐसा माना जाता है कि पूरे देश की आबादी में आधे से ज्यादा (52 प्रतिशत) ओबीसी हैं। आरक्षण के संदर्भ में ओबीसी का विभाजन, केंद्र के साथ-साथ राज्यों में भी किया जाना आज की परिस्थिति में वांछनीय ही नहीं अत्यावश्यक है। बाबासाहेब आंबेडकर ने आरक्षण की जो नीति बनाई थी तथा सामाजिक न्याय संबंधी संविधान में जो भी प्रावधान हैं, उन्हें देखा जाए तो आज ओबीसी के विभाजन की जरूरत और अधिक महसूस होती है।
संविधान की उद्देशिका, सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक न्याय व स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की गारंटी देती है। अनुच्छेद 14 कहता है, ‘राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा’ इसका अर्थ यह है कि जो ‘असमान’ हैं, उनके साथ सामान व्यवहार नहीं किया जा सकता। सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े समुदायों को अगड़ों के समकक्ष लाने के लिए विशेष प्रयासों की आवश्यकता है। संविधान के अनुच्छेद 16(4) व 15(4), राज्य को सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े समुदायों की बेहतरी के लिए नौकरियों व शिक्षण संस्थानों में आरक्षण जैसे विशेष प्रावधान करने का अधिकार देते हैं।
सन 1955 में भारत सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत काका कालेलकर आयोग गठित किया था और इस आयोग ने ऐसी जातियों को ओबीसी में शामिल किया था, जिनके सदस्य ओबीसी से भी बदतर जीवन जी रहे थे। इन्हें विमुक्त और घूमंतू की श्रेणी में रखा गया था। भारत सरकार ने इस आयोग की रिपोर्ट को खारिज कर दिया। इससे भी पहले, देश में जो कथित अपराधी जातियां थी, उनके लिए अंग्रेजों ने 1871 ईसवी में ‘क्रिमिनल ट्राइबल एक्ट’ नामक काला कानून बनाया था। आजादी के बाद, सन 1949 में इस कानून के अध्ययन के लिए आयंगर समिति बनाई गयी। इस समिति की रिपोर्ट आने के बाद, 1952 में इस कानून को रद्द करने हेतु संसद में बिल पेश हुआ। इस बिल पर बहस के दौरान अपने भाषण में बिहार के एक सांसद श्रीपाल सिंह ने कहा था कि केवल इस कानून को रद्द करने से काम नहीं चलेगा। इन समुदायों को जब तक अनुसूचित जाति-जनजाति की तरह आरक्षण व शिक्षा सुविधाएं प्रदान नहीं कीं जातीं और उनके लिए बजट में विशेष प्रावधान नहीं किये जाते, तब तक देश इन समुदायों के साथ न्याय नहीं कर सकेगा।
कई राज्यों ने संविधान के लागू होने से पहले और उसके तुरंत बाद, पिछड़े वर्गों के लिए नियुक्तियों व शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण का प्रावधान किया। महाराष्ट्र सरकार ने 1961 में ओबीसी कोटा को विभाजित कर विमुक्त जातियों के लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था की। चूँकि इन वर्गों को केन्द्र सरकार की सेवाओं और केन्द्रीय शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण नहीं दिया जा रहा था, इसलिए भारत सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत, मंडल आयोग की नियुक्ति की। आयोग ने सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की। साथ ही, आर्थिक सहायता, संस्थागत परिवर्तनों व शैक्षणिक अहर्ता में छूट जैसी अन्य सिफारिशें भी कीं। अपनी रपट में, मंडल आयोग ने उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 15(4) व 16(4) के तहत आरक्षण की उच्चतम सीमा के निर्धारण व ओबीसी के वर्गीकरण संबंधी निर्णयों को ध्यान में रखा। आयोग के एक सदस्य एलआर नाईक ने रपट के खंड सात में सिफारिशों से अपनी असहमति जाहिर करते हुए एक नोट लिखा। नाईक ने यह मत व्यक्त किया कि ओबीसी की राज्य-वार सूची को दो भागों में बांटा जाना चाहिए – एक मध्यम पिछड़ी जातियां और दूसरा अति पिछड़ी जातियां। परन्तु बहुसंख्यक सदस्यों ने नाईक के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।
अपने नोट में नाईक ने यह भी कहा था कि ओबीसी में जो अगड़ी जातियां हैं, वे पिछड़ी जातियों को आगे नहीं आने देंगीं और भविष्य में अधिक पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियां संगठित होकर अपने नेतृत्व का खुद निर्माण करेंगीं।
अगर ओबीसी सूची का विभाजन राज्यों के साथ-साथ केन्द्रीय स्तठर पर भी नहीं होता है तो ओबीसी में जो अत्यंत पिछड़ा वर्ग है, जैसे विमुक्त, घुमंतू और अति पिछड़ी जातियां, वे इस 27 प्रतिशत आरक्षण का लाभ नहीं उठा पायेंगीं। महाराष्ट्र में टाटा इंस्ट्टियूट ऑफ़ सोशल साइंसेज और योजना आयोग के सुझाव और सिफारिश के आधार पर, 1961 में इन तबकों को ओबीसी कोटा को विभाजित कर आरक्षण दिया गया और इसका काफी लाभ विमुक्त व घुमंतू जैसी अत्यंत पिछड़ी जातियों ने उठाया और आज भी उठा रहीं हैं।
मंडल आयोग की सिफारिश के अनुरूप 27 प्रतिशत आरक्षण देने के सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने इंदिरा साहनी विरुद्ध भारत सरकार प्रकरण में अपने निर्णय ने कहा था कि ‘अनुच्छेद 16(4) के तहत, पिछडी जातियों को पिछड़ी और अधिक पिछड़ी जातियों में वर्गीकृत करने में कोई संवैधानिक बाधा नहीं है। यह वर्गीकरण, सामाजिक पिछड़ेपन के परिमाण के आधार पर किया जाना चाहिए। अगर इस तरह का वर्गीकरण किया जाता है तो यह आवश्यक होगा कि विभिन्न पिछड़ी जातियों के बीच लाभों का न्यायसंगत बंटवारा किया जाए ताकि ऐसा न हो कि केवल एक या दो जातियां पूरे कोटे पर कब्ज़ा कर लें और अन्य पिछड़ी जातियों के लिए कुछ न बचे’।
निर्णय के पैराग्राफ 802 में न्यायालय ने कहा कि राज्य द्वारा पिछड़ी जातियों को पिछड़ी व अधिक पिछड़ी में वर्गीकृत करने में कोई विधिक या संवैधानिक बाधा नहीं है। न्यायालय ने कहा कि वह यह नहीं कह रहा है कि ऐसा किया जाना चाहिए वरन केवल यह कि यदि ऐसा किया जाता है तो वह वैध होगा। अपने निर्णय में न्यायालय ने दो पेशेवर समूहों का उदहारण देते हुए कहा कि यदि सुनारों और वाडी (पारंपरिक पत्थर तोडऩे वाले) को एक श्रेणी में रख दिया गया तो सुनार सभी आरक्षित पदों पर कब्ज़ा कर लेगें और वाडियों के लिए कुछ भी नहीं बचेगा। इसलिए राज्य को ओबीसी का वर्गीकरण करने पर विचार करना होगा ताकि अधिक पिछड़े वर्गों को उनकी उचित हिस्सेदारी मिल सके।
नयी दिल्ली में 25 अप्रैल, 2005 को आयोजित सामाजिक न्याय व अधिकारिता मंत्रालय की राष्ट्रीय संगोष्ठी में केन्द्रीय ओबीसी सूची को पिछड़ी व अति-पिछड़ी जातियों में विभाजित करने की वकालत करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया गया। प्रस्ताव में कहा गया था कि यदि ओबीसी सूची का वर्गीकरण नहीं किया गया तो यह सम्भावना बनी रहेगी कि पिछड़ी जातियों में से तुलनात्मक रूप से कम पिछड़ी जातियां, आरक्षण व अन्य सुविधाओं का अधिक लाभ उठा लें और अधिक या अति पिछड़ी जातियां नुकसान में रहें। वर्गीकरण से पिछड़ी जातियों में परस्पर असमानता को समाप्त करने में मदद मिलेगी. जब भी राज्य/केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारें अपनी सूचियों का वर्गीकरण करेंगीं, सम्बंधित राज्यों की केंद्रीय सूची में भी उसके अनुरूप परिवर्तन किये जा सकते है।
इसके पूर्व, 2006 में विमुक्त घुमंतू समाज के उत्थान के उपाय सुझाने के लिए बालकृष्ण रेणके आयोग गठित किया गया। इस आयोग ने 2008 में अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौंप दी और विमुक्त घुमंतू समाज के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण देने की सिफारिश की। लेकिन भारत सरकार के पास इस समाज की जनसंख्या का आंकडा नहीं होने से यह सिफारिश पूरी तरह लागू नहीं की जा सकी। इस परिप्रेक्ष्य में भारत सरकार का जाति जनगणना करवाने का निर्णय स्वागतयोग्य है।
सन 2015 में दादासाहेब इदाते कमीशन गठित किया गया। इस आयोग से कहा गया है कि वह पूरे देश के विमुक्त समुदायों की सूची तैयार करे और उनके उत्थान के उपाय सुझाये। इस आयोग ने काम करना शुरू कर दिया है परन्तु इसकी रिपोर्ट आने में दो साल लगेंगे। हम चाहते हैं कि आयोग अपनी अंतरिम रिपोर्ट दे। हमने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के समक्ष यह मांग उठाई है कि 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण का सही ढंग से विभाजन हो और अत्यंत पिछड़ों को वे सभी सुविधाएँ दी जाएं जो अनुसूचित जाति/जनजाति को दी जा रही हैं।
यही बात हम गत 20 सालों से कहते आ रहे हैं और पूरे देश में बहुत बड़ा आंदोलन भी चल रहा है। फारवर्ड प्रेस के नवंबर, 2011 अंक में इस संबंध में प्रकाशित मेरा एक लेख भी चर्चित हुआ था, जिसका शीर्षक था ‘विमुक्ति घुमंतू समाज को चाहिए अलग कोटा’। मंडल आयोग की रपट 1993 में लागू हुई। उसके बाद से यह पाया गया है कि संघ लोकसेवा आयोग के द्वारा भारतीय प्रशासनिक सेवा, पुलिस सेवा और वन सेवा में ओबीसी कोटे से जो भर्तियाँ हुईं, उनसे कुछ राज्यों की गिनी-चुनी उच्च ओबीसी जातियां ही लाभान्वित हुईं।
अशोक यादव की स्थापना के विपरीत मैं कहना चाहूंगा कि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का ओबीसी की केंद्रीय सूची के विभाजन का प्रस्ताव बहुत ही सराहनीय है और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप है। डा. बाबासाहेब आंबेडकर ने और छत्रपति शाहुजी महाराज ने आरक्षण के बारे में जो नीति बनाई थी और सोच रखी थी, वहीं सोच राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग ने इस प्रस्ताव के माध्यम से रखी है, ऐसा मैं मानता हूं। इस विषय पर उच्चे ओबीसी के जो नेता हैं, उन्हें राजनीति नहीं करनी चाहिए और ओबीसी में जो दबे-कुचले हैं, उन्हें भी आगे बढऩे का अवसर देना चाहिए। कर्पूरी ठाकुर फार्मूला को केवल बिहार ही नहीं पूरे देश में लागू करवाने का प्रयास सभी को पूरे मनोयोग से करना चाहिए।
आंबेडकर ने कहा था कि अगर एक टोकरी में चने डालकर एक सशक्त और एक कमजोर घोड़े को खिलाया जाए तो सशक्त घोड़ा पूरा चना खा जाएगा और कमजोर घोड़े को कुछ नहीं मिलेगा। यही आज ओबीसी कोटा के मामले में हो रहा है।
जब मैं सांसद था, तब 2008 में मैने एक विधेयक संसद में पेश किया था। उसका आशय यही था कि ओबीसी आरक्षण का विभाजन केंद्र और राज्यों में भी होना चाहिए और यह काम केंद्र सरकार का है। अगर यह होता है तो सामाजिक न्याय की दिशा में इस दशक का सबसे बड़ा कदम होगा।
फारवर्ड प्रेस के सितंबर, 2015 अंक में प्रकाशित