संघर्ष प्रिय, जुनूनी और हर पल समाज के लिए सोचने वाले बी.एन. मंडल को बिहार का समाज लगभग भूल चुका है। वे महज मधेपुरा के यादवों के बीच सालाना यादों की खानापूर्ती तक सीमित हो गये हैं। उन्हें न तो बिहार का सवर्ण समाज याद करता है और ना ही ओबीसी व दलित। उनकी स्थिति वैसी ही हो गई है जैसी अपनी जाति तक सीमित हो चुके स्वामी सहजानंद सरस्वती सच्चिदानंद सिन्हा और भिखारी ठाकुर की है। इन्हें अब केवल इनकी जातियां क्रमश: भूमिहार, कायस्थ व हज्जाम ही याद करतीं हैं। इससे बड़ी बिडंबना क्या होगी कि जिन समाज सुधारकों ने धार्मिक, जातीय, लेंगिक और आर्थिक गैरबराबरी के विरूद्ध आजीवन काम किया, उनके योगदान की चर्चा उनकी जाति विशेष तक ही सीमित हो जाए, मानो वे उनकी जाति की मौरूसी संपत्ति हों। कम से कम उत्तर भारत में यह प्रवृति स्पष्ट तौर पर नजर आती है राजनैतिक दलों में ऐसी शख्सियतों की जयंतियों में उन्हीं की जाति वाले समूह ज्यादा मुखर नजर आते हैं। यह एक ऐसी प्रवृत्ति है,जो हिंदी पट्टी के मानसिक दिवालियेपन की ओर इंगित करती है। यह बतलाती है कि नवजागरण की हम चाहे जितनी शाब्दिक जुगाली कर लें, लेकिन सच यह है कि महाराष्ट्र की तरह अपने प्रेरणास्रोतों को उचित सम्मान देने की तहजीब हमने अभी तक नहीं सीखी है। वरना इन सुधारकों को याद करने का ठेका उनकी जाति विशेष को देने की परंपरा यहाँ न होती।
सामंती पृष्ठभूमि से समाजवादी आदर्शों तक
बिहार के मधेपुरा जिले के रानीपट्टी गांव में एक वैष्णव जमींदार परिवार में, 1904 में, बी.एन. मंडल का जन्म हुआ। इनके दो बड़े भाईयों की असमय मृत्यु का खौफ पिता जयनारायण मंडल और मां दाना देवी के दिलो-दिमाग से जाता न था। उनके प्रति कितना ममत्व इस दम्पति में रहा होगा, इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। यह अजीब संयोग है कि बी.एन मंडल के जन्म और मृत्यु, दोनों ही के समय भारतीय लोकतंत्र स्याह दौर से गुजऱ रहा था। जन्म के समय आजादी के लिए देश के विभिन्न हिस्सों से आवाजें उठ रहीं थीं परन्तु कांग्रेस में नरमदल का बोलबाला था। 1975 में, जब उनका अवसान हुआ, तब इंदिरा गाँधी ने देश पर आपातकाल थोप दिया था। बी.एन. मंडल ने अपने संपूर्ण जीवन में साम्राज्यवाद, विदेशी आवारा पूंजीवाद, जमींदारी, धार्मिक अन्धविश्वास और हर तरह की गैर-बराबरी से लोहा लिया। मधेपुरा के गांवों से बिहार विधानसभा, संसद और न्यायपालिका तक में।
भागलपुर के टी.एन.जे कालेज से उनकी आई.ए. और बी.ए की शिक्षा हुई। तत्तपश्चात् विधि की पढ़ाई के बाद उन्होंने 12 साल तक मधेपुरा में वकालत की। लेकिन वे बड़ी चीज़ों के लिए बने थे। सन 1937 के बाद उन्होंने त्रिवेणी संघ की सदस्यता ग्रहण की, लेकिन जल्द ही वे रामास्वामी नायकर, जो पेरियार के नाम से लोकप्रिय हैं, के नेतृत्व वाली ‘जस्टिस पार्टी’ के सदस्य बन गए। जब देश में 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन परवान चढ़ा तो वे पूरे मन से उसमें शरीक हुए, जिसके कारण उन्हें जेल की सलाखों के पीछे जाना पड़ा। वे जल्द ही कांग्रेस से निकले और उसके धुर विरोधी वामपंथी धड़े सोशलिस्ट पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए। अपने गहरे समाजसेवी स्वभाव और अनुशासनप्रिय बौद्धिकता के कारण जल्द ही उन्होंने समाजवादी पार्टी में अपनी अलग पहचान बना ली। 1954 में वे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के सचिव निर्वाचित हुए। 1957 में इस दल के बिहार से निर्वाचित वे एक मात्र विधायक थे। 1959 में वे समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए।
बिना पैसे के लड़ा चुनाव
आभिजात्य परिवार में परवरिश के बावजूद बी.एन मंडल ने सादा जीवन, उच्च विचार की गजब मिसााल पेश की। यह उनकी कितनी बड़ी संपदा थी, यह बात लोहिया जी के इस कथन में निहित है, ”मैं समाजवाद को गढ़ता हूं, भूपेंद्र बाबू उसे जीते हैं।
सन 1962 के चुनाव में लोहिया जी ने चुनाव प्रचार हेतु बी.एन मंडल को 6 हजार रुपये दिए। उन्होंने यह धन विनायक प्रसाद यादव को सांैप दिया, जिससे सहरसा में पार्टी कार्यालय के लिए जमीन खरीदी गई। चुनाव में वे बिना कुछ खर्च किये विजयी हुए। दिग्गज कांग्रेसी ललित नारायण मिश्रा हारे। लेकिन मिश्रा को यह जनादेश मंजूर न था। उन्होंने चुनाव याचिका दायर की, झूठे सबूत गढ़े और भारी प्रलोभन देकर झूठे गवाह तैयार कर छल, बल, कल की बदौलत अन्तोगत्वा वे चुनाव रद्द करवाने में कामयाब हो गए। उपचुनाव में कांग्रेस के द्विज नेतृत्व ने लहटन चैधरी को खड़ा किया ताकि पिछड़ों की एकता का लाभ उनकी झोली में जाए। उनकी यह रणनीति कामयाब रही। उस समयए बिहार में धनबल का ऐसा खेल सिर्फ कांग्रेस ही खेल सकती थी। उसके पास गाडिय़ों और पैसों की इफरात थी और समाजवादी पार्टी को बैलगाड़ी और बहुजन समाज के चंदे का आसरा था। बी.एन. मंडल ने विधायक और सांसद रहते हुए भी बैलगाड़ी और बहुजन जनता को ही चुना।
भूपेंद्र नारायण मंडल का जीवन और कार्य | |
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जन्म | 1 फरवरी, 1904 को मधेपुरा जिले के रानीपट्टी गांव में |
शिक्षा | एम.ए, एल.एल.बी |
1942 | भारत छोडो आन्दोलन में हिस्सेदारी के कारण जेल यात्रा |
1957 | समाजवादी पार्टी की टिकट पर मधेपुरा विधानसभा क्षेत्र से विधायक निर्वाचित। |
1959 | समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अघ्यक्ष निर्वाचित। |
1962 | सहरसा लोकसभा क्षेत्र से ललित नारायण मिश्र को हराया। |
1966 | राज्यसभा सदस्य निर्वाचित। |
1972 | पुनः राज्यसभा सदस्य निर्वाचित। |
1975 | 29 मई को मधेपुरा के टेंगराहा गांव में दिल का दौरा पडऩे से निधन। |
उन्होंने बिहार में समाजवादी पार्टी का आधार खड़ा किया। उस दौर में बौद्धिक तार्किकता और अनुशासित सादगीपूर्ण सरल व निश्छल जीवन नेताओं के प्रमुख गुण माने जाते थे। कहा जाता है कि सत्ता भ्रष्ट करती है और निरंकुश सत्ता निरंकुश भ्रष्ट। लेकिन सत्ता ने न तो मंडल को भ्रष्ट किया और ना ही उन्हें अहंकारी बनाया। 1957 में उन्हें संविद सरकार में मुख्यमंत्री बनने का प्रस्ताव आया परंतु उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया और पार्टी के विस्तार के कार्य में लगे रहे। यह त्याग समाज के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता को दिखाता है। उनकी राजनीति के केंद्र में हमेशा समाज रहा, व्यक्ति के लिए वहां कोई जगह नहीं थी। सन 1962 में वे राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए और पुन: 1972 में भी। एक सच्चे जनप्रतिनिधि के रूप में उन्होंने सदन में अपने क्षेत्र की स्थानीय समस्याओं से लेकर अपने समय के लगभग हर तरह के मुद्दों मसलन भूमिसंघर्ष खेतिहर श्रमिक, मूल्यवृद्धि आदि को जबरदस्त ढंग से उठाया। उनमें गैर-बराबरी के खिलाफ सत्याग्रही तरीके से प्रतिरोध का जज्बा बचपन से ही था। तब मधेपुरा में जातीय विषमता की जड़ें इतनी गहरी थीं कि पिछड़ी जातियों का मंदिर-प्रवेश निषिद्ध था। उनके परिवार के महिषी के उग्रतरा मंदिर में प्रवेश पर इसी आधार पर ब्राह्मणों ने रोक लगा दी थी। बी.एन. मंडल ने इसके खिलाफ वहां सत्याग्रह किया। उनके द्वारा किये गये विभिन्न आंदोलनों में ध्यान देने वाली बात यह है कि हर जगह उन्होंने शांतिपूर्ण गांधीवादी सत्याग्रह किया लेकिन जाति के सवाल पर वे गांधी से सहमत नहीं थे। दलित-पिछड़ों को एक वर्ग में समाहित करने का उन्होंने सपना देखा था।
जाति -भाषा और कीमते
बी.एन मंडल का स्पष्ट अभिमत था कि जब तक इस देश पर मुट्ठी भर लोग शासन करते रहेंगे, तब तक देश की तकदीर नहीं बदलेगी। सच्चा लोकतंत्र तभी स्थापित होगा जब शासन में पिछडे, दलित और स्त्री समुदाय की भागीदारी सुनिश्चित होगी। उन्होंने शासन में इन समुदायों के अलावा पिछड़े मुसलमानों और ईसाईयों के लिए 60 प्रतिशत हिस्सेदारी की मांग की। भाषा को लेकर उनकी सोच यह थी कि अंग्रेजों ने अपने हितों के लिए अंग्रेजी को बढावा दिया। स्वतंत्र भारत में उसकी जगह देश की स्थानीय भाषाओं, जिन्हें यहां के लोग समझ सकते हैं, में राज काज होना चाहिए। उनकी मान्यता थी कि किसानों को उनके उत्पाद का उचित मूल्य मिलना चाहिये और कारखानों के उत्पाद की कीमत, कच्चे माल के मूल्य के डेढ़ गुना से अधिक नहीं होना चाहिये।
आज बिहार में समाजवाद गुजरे जमाने की थाती के सिवा कुछ नहीं रह गया है। ऐसे में बी.एन. मंडल का स्मरण उनके सरोकारों को उनकी समग्रता में जीना होगा।
मालवीय जी ने आएसएस को जगह दी : बी.एन. मंडल
भूपेंद्र नारायण मंडल द्वारा 20 अगस्त 1969 को राज्यसभा में दिये भाषण का अंश :
आज से दो बरस पहले एक बार जब यू.जी.सी. की रिपोर्ट पर बहस हो रही थी, उस समय भी मैंने इस बात का जिक्र किया था कि बनारस यूनिवर्सिटी के अहाते में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक दफ्तर है, जो कि वहां के माहौल को खराब करता है। इसलिए उसे वहां नहीं रहना चाहिए। उस समय मुझे झुठलाने की जनसंघ के सदस्य ने कोशिश की थी, लेकिन दो बरस के अनुभव ने देश को बता दिया है और यह बात साबित हो गई है कि जो वहां पर उपद्रव हुआ है, उस उपद्रव की जड़ में आर.एस.एस. का ऑफिस है।
उत्तर भारत में स्वतंत्रता से पहले तीन विश्वविद्यालय थे- कलकत्ता विश्वविद्यालय, बनारस विश्वविद्यालय और अलीगढ़ विश्वविद्यालय। तीनों विश्वविद्यालयों में स्वतंत्रता के बाद गड़बड़ी पैदा हुई है। उसका जो इलाज होना चाहिए, उसकी कोशिश हो रही है। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में गड़बड़ी हुई, उसके इलाज की कोशिश की जा रही है, कुछ किया भी गया है। इसी तरह से बनारस यूनिवर्सिटी का हाल है। कलकत्ता यूनिवर्सिटी के बारे में क्या हुआ, हमें पता नहीं है। जो बनारस में हुआ और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में हुआ, जहां तक हमने अनुभव किया है, उसकी जड़ में सांप्रदायिकता का वातावरण है।
बनारस यूनिवर्सिटी की स्थापना में सबसे बड़ा हाथ मदन मोहन मालवीय जी का है। मदन मोहन मालवीय जी देशभक्त थे, इसमें कोई संदेह नहीं, लेकिन साथ ही साथ महामना मालवीय जी उस जमाने के आदमी थे, जिस जमाने में धर्म की छाप लोगों के दिमाग पर रहा करती थी। स्वतंत्रता के पहले धर्मनिरपेक्षता का नारा उतना स्पष्ट नहीं हो पाया था, जितना कि देश के स्वतंत्र होने के बाद हुआ। इसलिए बनारस, जो संस्कृत और हिंदू धर्म का केंद्र माना जाता था,वहां हिंदू संस्कृति का प्रभावशाली वातावरण रहना स्वाभाविक था। यही कारण था कि शुरू में आर.एस.एस. को, जो इतनी खुराफात करने वाला नहीं मालूम पड़ता था, मालवीय जी ने उसको जगह दे दी होगी। ऐसी कल्पना की जा सकती है। लेकिन बाद में आर.एस.एस. के जरिए देश में जो शैतानी की गई है वह भी सामने आई है। महात्मा गाँधी की हत्या की बात को देश जानता ही है। इधर जितने दंगे हुए हैं, उनमें कितना हाथ आर.एस.एस. का रहा, यह हम सब जानते हैं।
जो संस्था इस तरह का विषवमन करती है, जिसको सांप्रदायिकता कहते हैं,उसका यूनिवर्सिटी कैम्पस में रहना न विश्वविद्यालय के लिए और न देश की स्वच्छ राजनीति के लिए अच्छा है। इसलिए आज इस बात की जरूरत है कि सरकार या यूनिवर्सिटी के जो अधिकारी हों, उन लोगों को इस दिमाग से काम करना चाहिए कि वहां सांप्रदायिक वातावरण कायम न हो पाए। अगर कोई ऐसा वातावरण कायम हुआ है तो उसे वहां से दूर होना चाहिए। वहां से आर.एस.एस. का ऑफिस हट जाना चाहिए, इसका कार्यान्वयन निश्चित तरीके से होना चाहिए। सबूत होने या न होने की कोई बात नहीं है।
हो सकता है कि कोई मामला हो, जिसमें अधिकारियों को यह बात सच्ची मालूम पड़े कि सांप्रदायिकता की वजह से यह बात हो रही है और इसका कोई सबूत न मिले। फिर भी अधिकारियों को यह अधिकार है कि चूंकि देश का संविधान धर्मनिरपेक्षता को अपना आधार मानता है, इसलिए सारी बातों को छोड़कर उसको कायम करने के लिएए जिसको दंड देने की जरूरत है, जिसको भगाने की जरूरत है, उन्हें वह सब करने की पूरी छूट हो। लेकिन हमारे मंत्री जी, इस बात की कोशिश करते हैं कि बिना किसी कड़वाहट के सांप्रदायिकता का जहर वहां से निकले। इसके लिए उन्होंने जो कोशिश की है उसकी मैं सराहना करता हूं।
यह बात ठीक है कि जो कानून का प्रस्ताव उन्होंने बनाया है, वह ऐसा नहीं है कि जिससे सभी लोगों को संतोष हो, क्योंकि उसमें मनोनयन को बहुत बड़ा स्थान दिया गया है। लेकिन जैसा उन्होंने आश्वासन दिया है कि कोई वृहत कानून आने वाला है और उसके जरिए ये त्रुटियाँ निकालीं जाएंगी, इसलिए मैं मंत्री जी से फिर अनुरोध करूंगा कि वह इस बात का ख्याल रखें की वहां जो सांप्रदायिकता का जहर है वह न पनप पाए।
(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2015 अंक में प्रकाशित )
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