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सावित्रीबाई फुले : स्त्री संघर्ष की मशाल

पुणे जैसे ब्राह्मणवादी मान्यताओं में जकड़े तत्कालीन शहर में सावित्रीबाई फुले ने न खुद अपनी शिक्षा तमाम संघर्षों के बाद पूरी की बल्कि लड़कियों की शिक्षा के लिए पहल भी की। इस पहल से जगी शिक्षा की अलख और उसके प्रभाव का सुजाता पारमिता का विश्लेषण :

सावित्रीबाई फुले परिनिर्वाण दिवस (10 मार्च) विशेष

सावित्रीबाई फुले (3 जनवरी 1831-10 मार्च 1897) के संघर्षो पर आज भारतीय स्त्री संगठनों में चर्चा की जा रही है। लगभग डेढ सौ साल पहले सावित्रीबाई फुले ने पितृसत्ता और स्त्री विरोधी मान्यताओं को ध्वस्त कर स्त्री मुक्ति की जो परिभाषा रची वह सदियों तक सम्मानित की जाती रहेगी। तमाम भारतीय दलित महिला आंदोलन के साथ-साथ डा॰ आंबेडकर के लिए भी सावित्री बाई का संघर्ष उनका मार्गदर्शक रहा है।

गूगल ने 3 जनवरी, 2017 को सावित्रीबाई की जयंती पर अपना डूडल उन्हें समर्पित किया

अपने खेत में आम के पेड तले जब जोतिबा ने उसी पेड की एक टहनी से दो कलम बनाकर सावित्रीबाई और अपनी चचेरी बुआ सगुणा बाई को देकर उसी जमीन पर पहला अक्षर लिखने को कहा तब शायद उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि वे भारत में स्त्री शिक्षा की नींव रख रहे हैं। जब सावित्रीबाई ने उसी आम की टहनी से बनी कलम से जमीन पर पहला अक्षर लिखा तब वे कहाँ जान पायी होंगी कि वे एक अक्षर नहीं बल्कि नया इतिहास लिख रही हैं।

सावित्रीबाई ने स्वयं अपनी शिक्षा भी तमाम संघर्षो के बाद पूरी की। उस समय पुणे जैसे ब्राह्मणवादी मान्यताओं में जकड़े शहर में एक पिछड़े वर्ग की स्त्री का शिक्षा हासिल करना लगभग असंभव ही था। 1840 में पुणे की छबीलदास हवेली में स्थित ब्रिटिश महिला मिसेज मिशेल द्वारा विशेष रूप से लड़कियों के लिए खोले गये नार्मल स्कूल में उन दोनों ने पढाई शुरू की। सावित्रीबाई को पढने का बहुत शौक था। उन्होंने उसी दौरान प्रसिद्द गुलामीप्रथा के खिलाफ काम करने वाले ब्रिटिश थामस क्लार्कसन की जीवनी को पढ़ा, जिसका उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। इसी किताब से उन्हें अमेरिका में बसे अफ्रीकी गुलामों के जीवन और संघर्षो की जानकारी मिली, जो भारत में दलितों और स्त्रियों के गुलाम जीवन को समझने में सहायक साबित हुई। यह जानते सावित्रीबाई को देर नहीं लगी कि शिक्षा ही गुलामी की जंजीरे तोड़ सकती है। टामर्स क्लार्कसन भी दुनिया भर में अपनी बात प्रभावी रूप से इसी लिए पहुंचा पाये क्योंकि वे शिक्षित थे।

दूदर्शन पर सावित्रीबाई फुले पर आधारित धारावाहिक

फुले दंपत्ति ने एक जनवरी 1848 में पुणे की भिड़ेवाड़ी में लड़कियों के लिए भारत में पहला स्कूल खोला। इसी स्कूल से सावित्री बाई और सगुणाबाई ने अध्यापन का काम शुरू कर भारत की पहली महिला अध्यापिका होने का गौरव हासिल किया। फुले दंपत्ति यह अच्छी तरह से जानते थे कि शिक्षा ही विकास के रास्ते खोल न्याय का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। शिक्षित स्त्री पुरूष ही संघर्ष को दिशा दे सकते हैं। स्त्री के साथ ही दलितों के लिए भी शिक्षा जरूरी है इसी को ध्यान में रखकर 15 मई 1848 को उन्होंने पुणे की एक दलित बस्ती में स्कूल खोला, जहां दलित लड़के लड़कियां पढने लगे। इस स्कूल में पढाने के लिए जब कोई अध्यापक नहीं मिला तब सावित्री बाई और सगुणा बाई ने वहां भी पढाना शुरू किया।

स्त्री और दलितों की शिक्षा के प्रति फूले दम्पत्ति की प्रतिबद्धता किसी जूनून से कम नहीं थी। लगातार पैसे की कमी के बावजूद भी वे समर्पित भाव से इस काम में लगे रहें। पुणे की भिडेवाड़ी में 1 जनवरी 1848 में भारत का लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोलने के बाद मात्र 4 साल के भीतर ही 15 मार्च 1852 तक उन्होंने पूणे शहर और उसके आस पास 18 स्कूल खोले जहां सभी विद्यार्थियों को निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी। सावित्रीबाई द्वारा पढ़ाए गए न जाने कितने ही छात्रों के जीवन में उससे भारी परिवर्तन आया। उनकी इन्हीं स्कूल में पढ़ने वाली दो छात्रों का जिक्र यहां जरूरी है। मुक्ताबाई, जिनका निबंध ‘मांग महारों के दुःख के विषय में और ताराबाई शिंदे, जिनके स्त्री पुरूष तुलना आज आधुनिक भारतीय स्त्रीवादी विमर्श का महत्वपूर्ण हिस्सा है। जिस वक्त मुक्ताबाई ने इस निबन्ध को लिखा था उनकी उम्र मात्र 14 साल की थी। इस निबन्ध को पढ़कर जाना जा सकता है कि उनकी सोच सामाजिक विसमता जैसे कठिन विषय पर कितनी संवेदनशील और गहरी थी।

सावित्रीबाई को समर्पित डाक टिकट

फुले दम्पत्ति द्वारा चलाए जाने वाले सभी स्कूलों में विद्यार्थियों के समग्र विकास को ध्यान में रखकर जो पाठ्यक्रम निर्धारित किया गया उसमें व्याकरण, गणित, भूगोल, एशिया यूरोप व भारत के नक्शों की जानकारी, मराठों का इतिहास नीतिबोध और बालबोध जैसी पुस्तकें शामिल थीं। जिसकी प्रशंसा उस वक्त ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा भी की गयी। पुणे विश्वविद्यालय के मेजर कैन्डी ने इस विषय पर अपने वृतांत में लिखा इन स्कूलों में पढ़ रहे विद्यार्थियों विशेषकर लड़कियों की लगन और कुशाग्र बुद्धि देखकर मुझे बहुत संतोष हुआ। इन स्कूलों में शिक्षा का स्तर काफी ऊंचा है। शिक्षा के क्षेत्र में सावित्रीबाई के अभूतपूर्व योगदान के लिए 1892 में राज्य शिक्षा विभाग द्वारा ज्योतिबा के साथ ही उन्हें भी सम्मानित किया गया।

सावित्री बाई और जोतिबा ने शूद्रों-अतिशूद्रों के अलावा अल्पसंख्यक वर्ग के स्त्री पुरूषों की शिक्षा को भी जरूरी माना और फातिमा शेख जो उनके ही स्कूल की छात्रा थी, उसे अपने एक स्कूल में  अध्यापिका बनाकर देश की पहली मुसलमान अध्यापिका होने का गौरव प्रदान किया। फातिमा शेख फुले दंपत्ति के आंदोलन की एक महत्वपूर्ण स्त्री नेतृत्व के रूप में जानी जाती है। परिवर्तन और सामाजिक न्याय  में धर्मनिरपेक्ष सोच का भी शामिल होना जरूरी है यह लड़ाई तभी सफल होगी जब सभी जाति और धर्म की स्त्री शिक्षित होगी। जब तक जिंदा रही सावित्री बाई इसी विचार के साथ मजबूती से जुड़ी रही और इसके लिए बराबर स्त्री विरोधी ताकतों से लड़ती रही।

सावित्रीबाई भारत की पहली स्त्री शिक्षिका ही नहीं बल्कि उन्हें पहले नारी मुक्ति आंदोलन के नेतृत्व का भी गौरव हासिल है। 1892 में उन्होंने महिला सेवा मंडल के रूप में पुणे की विधवा स्त्रियों के आर्थिक विकास के लिए देश का पहला महिला संगठन बनाया। इस संगठन में हर 15 दिनों में सावित्रीबाई स्वयं सभी गरीब दलित और विधवा स्त्रियों से चर्चा करतीं, उनकी समस्या सुनती और उसे दूर करने का उपाय भी सुझाती। छोटे-छोटे ऐसे कई उद्योग जिसका प्रबंधन उन अशिक्षित महिलाओं द्वारा हो सके उसकी जानकारी उन्हें देतीं। सावित्री बाई यह अच्छी तरह से जानती थीं कि सामाज से निष्कासित इन स्त्रियों का जीवन सुरक्षित नहीं है। उनका सम्मान से जीवित रहना बड़ी चुनौती है इसके लिए उनका आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना ही एकमात्र उपाय है जिसके लिए उन्होंने कई धार्मिक मान्यताओं को तोड़ा और स्त्रियों को अपने बुनियादी अधिकारों के लिए जागरूक किया। स्त्री की सदियों पुरानी शारीरिक और मानसिक रूप से गुलाम छवि को ध्वस्त कर उसे स्वतंत्र इंसान के रूप में जीने के लिए प्रेरित किया। स्त्री केवल श्रम और देंह ही नहीं बल्कि स्वतंत्र विचार रखने वाली पुरूष के सामान इंसान है। यह सोचने पर समाज को विवश कर ज्योतिबा के परिवर्तनवादी आंदोलन में पूरा सहयोग दिया।

भित्ति चित्र में दलितों के साथ सावित्रीबाई

जोतिबा के समय में पुणे शहर की पहचान विधवा स्त्रियों की यौन हिंसा के केन्द्र के रूप में थी। जहां अक्सर गर्भवती विधवा स्त्रियां आत्महत्या करने पर मजबूर हो जातीं। फुले दम्पत्ति ने 28 जनवरी 1853 में अपने पड़ोसी मित्र और आंदोलन के साथी उस्मान शेख के घर में बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की। जिसकी पूरी जिम्मेदारी सावित्रीबाई ने सम्भाली वहां सभी बेसहारा गर्भवती स्त्रियों को बगैर किसी सवाल के शामिल कर उनकी देखभाल की जाती उनकी प्रसूति कर बच्चों की परवरिश की जाती जिसके लिए वहीं पालना घर भी बनाया गया। यह समस्या कितनी विकराल थी इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मात्र 4 सालों के अंदर ही 100 से अधिक विधवा स्त्रियों ने इस गृह में बच्चों को जन्म दिया। जिसमें अधिकांश स्त्रियां ब्राहमण थीं। 1873 में ऐसी ही एक ब्राह्मण विधवा स्त्री काशीबाई की प्रसूति स्वयं सावित्रीबाई ने की और उसके बेटे को गोद ले लिया। उसका नाम यशवंत रख उसकी परवरिश पूरी जिम्मेदारी के साथ पूरी की। उनका यही बेटा बाद में चलकर डॉक्टर बना और फुले दम्पत्ति के आंदोलन को आगे बढ़ाने में उसका महत्वपूर्ण योगदान रहा। 1874 का वर्ष जोतिबा के लिए महत्वपूर्ण था जब उन्होंने सत्यशोधक समाज की स्थापना कर एक नए वैकल्पिक सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा को साकार करने का निर्णय लिया। इस नए समाज में शूद्र अतिशूद्र और स्त्रियों के साथ ही कई समता और परिवर्तनवादी सोच के व्यक्ति शामिल हुए। सावित्री बाई की इस समाज की रूपरेखा और दर्शन की रचना में बराबर की हिस्सेदारी थी। 1890 में जयोतिबा की मृत्यु के बाद 1893 सत्यशोधक समाज की बागडोर सावित्रीबाई को सौंपी गयी। उन्हें सर्व सम्मति से अध्यक्ष चुना गया। सावित्रीबाई ने 4 सालों तक सत्यशोधक समाज का प्रबंधन कुशलता से किया। 1896 में महाराष्ट्र में पड़े सूखे के दौरान सत्यशोधक समाज के कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर वे रात-दिन लोगों की मदद करती रहीं। अगले ही वर्ष 1897 में पूणे शहर में प्लेग की महामारी फैल गयी। जब अधिकांश लोग शहर छोड़कर भाग गये सावित्रीबाई और उनके पुत्र वहीं रहकर बिमार लोगों की सेवा करते रहे। प्लेग से संक्रमित एक व्यक्ति को कोई मद्द न मिलने पर स्वयं सावित्री बाई अकेले ही उसे अपने कंधों पर उठाकर यशवंत के अस्पताल ले गयीं उसी दौरान वे स्वयं भी संक्रमण की चपेट में आ गयीं और इसी कारण उनकी मृत्यु हो गयी। सावित्रीबाई अपने जीवन के अंतिम दिन 10 मार्च 1897 तक इंसानियत के लिए संघर्ष करती रहीं।

आजादी के 68 सालों बाद और शिक्षा के अधिकार को सभी भारतीयों के बुनियादी हक के रूप में स्वीकारे जाने के बावजूद भी दलित, आदिवासी, पिछड़ी और अल्पसंख्यक वर्गो की महिलाओं की शिक्षा में भारी कमी है। आज लगभग 68 प्रतिशत दलित महिला अशिक्षित है, जो हर क्षेत्र में पिछड़ी है। दलित आदिवासी पिछडी और अल्पसंख्यक महिला की पंचायत से संसद तक में भागीदारी की जरूरत है, जो बड़े संघर्ष के बगैर संभव नहीं। महिला आरक्षण बिल पर विवाद आज भी जारी है। हाल ही भाजपा शासित राजस्थान और हरियाणा सरकार ने एक प्रस्ताव पारित कर मैट्रिक पास स्त्री  पुरूषों को ही चुनाव लड़ने की इजाजत दी है। अशिक्षित इस प्रक्रिया में चुनाव लड़ने से वंचित हो गये हैं। जिसमें न केवल राजस्थान और हरियाणा सरकार बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने भी जमीनी सच्चाई को अनदेखा कर देश के करोड़ों नागरिक वर्ग के साथ अन्याय किया है।

देश भर में तेजी से उभरते उग्र हिन्दुत्ववादी विचारधारा का दायरा आज निस्संदेह बढा है, लेकिन फुले आंबेडकरवादी चिंतन भी भारतीय प्रगतिशील दलित और महिला आंदोलन में सभी जगह प्रमुखता से मौजूद है, उसका नेतृत्व कर रहा है. इस पर गंभीर चर्चा हो रही है और उसका विस्तार मुख्य धारा के संघर्ष और विमर्श में शामिल हो रहा है। सावित्रीबाई का संघर्ष, उनका स्त्री वादी चिंतन स्त्री  संघर्षों के लिए अब और आने वाले समय की सबसे बड़ी जरूरत है।


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लेखक के बारे में

सुजाता पारमिता

सुजाता पारमिता (20 मार्च, 1955 – 6 जून, 2021) चर्चित दलित और स्त्रीवादी चिंतक व भारतीय फिल्म संस्थान, पुणे से स्नातक रहीं। वे अंबेडकरवादी आलोचना के लिए जानी जाती हैं

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