नागपुर की राजनीति में बड़ी हलचल है
इस बार नीतिन गडकरी नागपुर से भाजपा के उम्मीदवार हैं। आज से तीन दशक पहले तक, स्कूटर से चलने वाले इस अरबपति ‘अजातशत्रु ब्राहमण’ के पहली बार सीधे चुनाव में उतरने से कई कयास और अफवाहें फिजा में हैं।
किस्से-कहानियों में राजा-महाराजाओं के सदाव्रत (सभी के लिए मुफ्त भोजन की व्यवस्था) खोलने की बातें तो सुनी थीं लेकिन यदि आप इस संतरा नगरी में महाल में स्थित ‘गडकरी वाडे’ के बारे मे उनके किसी नागपुरी विरोधी से पूछेंगे तो वह बताएगा कि वहां सदाव्रत के लिए बाजाब्ता एक काउंटर खुला हुआ है, पिछले कई महीनों से। हालांकि एनडीए गठबंधन में शामिल आरपीआई (अ) के महाराष्ट्र अध्यक्ष भूपेश थूलकर इसे अफवाह बताते हैं, लेकिन गडकरी की ‘आर्थिक उदारता’ के किस्सों से वे भी इनकार नहीं करते।
गडकरी की जीत पक्की बताई जा रही है। चूंकि गडकरी राजनीति के उन धुरंधरों में से हैं, जिनके हर पार्टी में मित्र हैं, इसलिए अंदरखाने की सेटिंग के चर्चे भी बहुत है। मसलन, वे नागपुर और वर्धा की सीटों में तालमेल बिठा रहे हैं। वर्धा से वे अपने मित्र दत्ता मेघे के पुत्र के लिए सेफ पैसेज तैयार कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि वर्धा में शिवसेना के मजबूत उमीदवार की जगह आरपीआई का कमजोर उम्मीदवार खड़ा हो ताकि मेघे के पुत्र की राह आसान हो सके। बदले में, वे नागपुर से सात बार सांसद रहे अति पिछड़े वर्ग के नेता विलास मुत्तेवार का टिकट कटवाकर दत्ता मेघे के रिश्तेदार और राज्य की सरकार के युवा मंत्री राजेंद्र मुलक के चुनाव लडऩे की व्यवस्था भी कर रहे थे।
कुछ अनिश्चितता के बाद, कांग्रेस ने मुत्तेवार पर ही भरोसा करने का निर्णय किया। वर्धा वाले समीकरण मे थोड़ा पेंच फंस गया था। राहुल गांधी ने वर्धा के लिए उम्मीदवार तय करने के लिए कार्यकर्ताओं के बीच आंतरिक चुनाव का आदेश दिया था जो 9 मार्च को हुआ। गडकरी को यह जानकर राहत मिली होगी कि वर्धा के सांसद दत्ता मेघे के पुत्र सागर मेघे इस आतंरिक चुनाव में जीत गए।
अगर इस बार नागपुर में ब्राह्मण ताजपोशी होती है तो यह राममंदिर की हवा के दौरान बनवारीलाल पुरोहित की ताजपोशी के बाद ऐसा दूसरा मौका होगा। मुत्तेवार कोमटी जाति से आते हैं, उत्तर भारत की बेलदार जाति के समकक्ष है यह जाति, जिसका वोट नागपुर लोकसभा में नगण्य है। मुत्तेवार पारम्परिक कांग्रेसी मत, दलित मत और बहुजन मतों से जीतते रहे हैं। लेकिन दलित मतों का इस बार बंटवारा होने वाला है, आरपीआई के कारण एनडीए, बीएसपी और कांग्रेस के बीच। समता सैनिक दल के विमल सूर्य चिमणकर कहते है, ‘हम जैसे प्रतिबद्ध आम्बेडकरवादी दलित, गडकरी को हराने के लिए वोट करेंगे। हमें खतरा आरएसएस और ब्राह्मणवाद से है, गडकरी दोनों के प्रतीक हैं।’ वे आगे कहते हैं कि ‘नागपुर स्थित संघ मुख्यालय का भी गडकरी दुलरुआ हैं, वह भी एड़ी-चोटी एक कर देगा, लेकिन मुत्तेवार की ताकत कम नहीं है, देर सिर्फ उम्मीदवारी की घोषणा की है, जिसके पीछे गडकरी फैक्टर से इनकार नहीं किया जा सकता है।’
नागपुर के राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार इधर आम आदमी पार्टी ने सीपीआई से ‘आप’ में आए जमीनी नेता जम्मू आनंद (अति पिछड़ा) की जगह अंजलि दमानिया को टिकट देकर प्रतीक का जो खेल खेला है, वह भी गडकरी के हित में ही जाने वाला है। दमानिया नागपुर के लिए गैर-मराठी बाहरी व्यक्तित्व हैं। हालांकि नागपुर और उसके आस-पास प्रफुल्ल पटेल, विजय दर्डा जैसे गैर-मराठी कद्दावर नेता भी हैं।
महाराष्ट्र में राजपूतों से प्रभावित मराठे अपने को शूद्र मानने से इनकार करते रहे हैं, लेकिन राज्य की राजनीति में बहुजन वर्चस्व का प्रतिनिधित्व भी वही करते हैं। छोटे मराठे या कुनबी उनके राजनीतिक अनुगामी हैं, जो बड़े मराठों को दशकों से सत्ता के शीर्ष पर बैठाते रहे हैं। यदि मराठे अपने प्रेरणास्रोत शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक संबंधी कटु अनुभवों को याद करें तो उन्हें इतिहास में अपनी स्थिति का भान होगा। मराठी ब्राहमणों ने उन्हें शूद्र मानते हुए राज्याभिषेक से इनकार कर दिया था। फिर बनारस के ब्राहमणों ने उन्हें पैर के अंगूठे से तिलक लगाया (ऐसा कहा जाता है)। उनकी वर्तमान आर्थिक हैसियत को छोड़ दिया जाए तो वे बहुजन रथ के माकूल सारथी हैं। कुल मिलाकर, राज्य की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक सत्ता आज भी ब्राहमण-मराठों में बंटी है, जो संयुक्त रूप से ब्राहणवादी सत्ता का स्वरूप है। नागपुर में मराठे-कुनबी आदि कांग्रेसी सांसद दत्ता मेघे और अन्य स्थानीय नेताओं के राजनीतिक पहलों को देखते हुए वे ब्राहमण पालकी ढोने के लिए तैयार दिखते हैं। रामदास आठवले के जरिए दलितों का एक वर्ग तो लाल कालीन बिछा ही चुका है।
(रिपोर्ट का शीर्षक हिंदी कवि नागार्जुन की एक कविता के शीर्षक से प्रेरित है)
(फारवर्ड प्रेस के अप्रैल 2014 अंक में प्रकाशित)
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