प्रिय दादू,
मेरे पिछले पत्र के आपके उत्तर को पढ़कर मुझे बहुत शांति मिली परंतु मेरे समक्ष एक चुनौती भी उपस्थित हो गई। मैं चाहती हूं कि मेरे मन में सभी के प्रति-चाहे फिर वे अजनबी ही क्यों न हों-संवेदना हो। मैं नहीं चाहती कि दूसरों की आवश्यकताओं के प्रति मैं उदासीन या तटस्थ रहूं। परंतु व्यावहारिक दृष्टि से ऐसा करना कैसे संभव है, जब मेरे आसपास के लोगों की आवश्यकताएं मेरे संसाधनों से सैंकड़ों गुना बड़ी हैं।
सप्रेम,
शांति
प्रिय शांति,
तुम्हारा प्रश्न बहुत चुभने वाला है। मैं इसका उत्तर दो तरीकों से दे सकता हूं।
पहली बात तो यह है कि हम उतना ही कर सकते हैं, जितनी हमारी क्षमता है। ईश्वर भी यह देख-समझ सकता है। वह यह नहीं चाहता कि हम अपनी क्षमता से ज्यादा करें। समस्या यह नहीं है कि हमारे संसाधन, दूसरों की मदद करने की हमारी क्षमता को सीमित करते हैं। समस्या यह है कि हम उतना भी नहीं करते, जितना हम कर सकते हैं। कल ही मैंने देखा कि सड़क पर एक युवती फूट-फूट कर रो रही है। मैं उस दृश्य को अब तक भुला नहीं पाया हूं। मैं घर पहुंचने की जल्दी में था क्योंकि मुझे टैक्सी पकड़कर हवाईअड्डे जाना था। मेरी उड़ान का वक्त हो गया था। अगर उस युवती के स्थान पर कोई युवक होता तो क्या मैं कुछ करता, यह कहना मुश्किल है। और मैं निश्चित ही नहीं जानता कि मेरे जैसा उम्रदराज़ व्यक्ति यदि रूककर उस युवती से बात करता तो वह युवती या आसपास के लोग इसे किस रूप में लेते। इसलिए मैं वहां रूका नहीं। मैं केवल यह प्रार्थना कर सकता था कि कोई उसे दिलासा दिलाए और उसकी जरूरी मदद करे। कई मौकों पर हम ईश्वर से प्रार्थना करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकते। परंतु मैं हमेशा स्काउट्स के उस कार्यक्रम को याद रखता हूं, जिसमें हर स्काउट से अपेक्षा की जाती थी कि वह हर दिन कम से कम एक अच्छा काम करेगा। हर दिन एक अच्छा काम करना असंभव नहीं है। उससे हममें दूसरों के प्रति सेवाभाव उपजता है और हम कम स्वार्थी बनते हैं।
अब दूसरा प्रश्न। अगर मैं रोज एक अच्छा काम करूं, तब भी मैं इस दुनिया के करोड़ों इंसानों की आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकता। इसलिए, मैं समय निकालकर इस विषय पर विचार करने की कोशिश करता हूं कि हमारी दुनिया ऐसी क्यों है, जैसी वह है। महात्मा गांधी ने कहा था कि ईश्वर ने सबकी आवश्यकताओं को पूरा करने का इंतजाम किया है परंतु हम मानवों ने ऐसी व्यवस्था बना ली है जो हमें हमारे व्यक्तिगत स्वार्थ पूरा करने की ओर प्रवृत्त करती है। यही कारण है कि दुनिया में ढेर सारे लोगों की आवश्यकताएं पूरी नहीं हो पा रही हैं।
किसी आंदोलन का हिस्सा बनो
काफी अध्ययन के बाद मैंने यह तय किया कि मैं विश्वस्तर पर चल रहे ‘‘रिलेशनल थिकिंग मूवमेंट’’ का समर्थन करूंगा। मेरा कई आंदोलनों से साबका पड़ा है और मुझे ऐसा लगता है कि वर्तमान स्थिति का उनमें से किसी का विश्लेषण उतना पैना नहीं हैं, जितना कि इस आंदोलन का। इस आंदोलन की एक समग्र कार्ययोजना है और मुझे लगता है कि इसमें दुनिया को बेहतर बनाने की क्षमता है। मुझे यह भी अच्छा लगा कि इस आंदोलन में शामिल होने का कोई निर्धारित शुल्क नहीं है। इसमें शामिल होने के लिए हमें केवल अपने दो घंटे की आय देनी होती है, चाहे वह कितनी ही ज्यादा या कम हो। और जो लोग यह भी देने में सक्षम नहीं हैं या बेरोजगार हैं, वे आंदोलन की ‘मेलिंग लिस्ट’ में शामिल होकर उसकी गतिविधियों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। कोई भी व्यक्ति अपने समय, ऊर्जा, विचारों और कौशल से इस आंदोलन की मदद कर सकता है।
राष्ट्रीय स्तर पर मैं फारवर्ड प्रेस पत्रिका का समर्थन करता हूं क्योंकि मुझे ऐसा लगता है कि यह उन चंद मंचों में से एक है, जो लोगों को संगठित कर हमारे देश में सकारात्मक परिवर्तन लाने का प्रयास कर रही है। यद्यपि पत्रिका का एक निश्चित सदस्यता शुल्क है तथापि वह पत्रिका के प्रकाशन पर होने वाले खर्च से बहुत कम है। इसलिए हम सब को इस पत्रिका का प्रचार करने का प्रयास करना चाहिए, विशेषकर उन लोगों के बीच जो उसे विज्ञापन या अन्य आर्थिक सहयोग दे सकें।
पत्रिका की मदद करने का एक दूसरा अच्छा तरीका है ‘‘फारवर्ड रीडर्स क्लब’’ की स्थापना या उनकी गतिविधियों में भाग लेना। इस तरह के क्लब नियमित रूप से बैठकें आयोजित कर पत्रिका में प्रकाशित लेखों पर चर्चा कर सकते हैं। संबंधित व्यक्ति या क्लब यह भी तय कर सकते हैं कि क्या वे किसी लेख के आधार पर कोई व्यावहारिक कदम उठाना चाहते हैं।
हम में से हर एक अपने जीवन में क्या करता है या क्या नहीं, उसके लिए वह केवल ईश्वर के प्रति उत्तरदायी है और हमारा मूल्यांकन केवल दुनियावी मानकों से नहीं होता बल्कि वह इस पर भी निर्भर करता है कि हम ईश्वर द्वारा दिखलाए गए रास्ते पर चल रहे हैं या नहीं।
अंत में, जो कुछ मैं कर सकता हूं वह करते हुए भी मुझे ईसा मसीह के इन अटपटे-से शब्दों को याद रखना चाहिए, ‘‘जब तुम वह सब कर चुके हो जो तुम कर सकते हो, तो स्वयं को एक निष्फल सेवक रूप में देखो’’। ये शब्द हमें विनम्रता का संदेश देते हैं। हम जो करते हैं या नहीं करते, वही हमारे चरित्र को गढ़ता है। इन शब्दों से स्पष्ट है कि ईश्वर के लिए हम क्या हासिल करते हैं या नहीं, उससे अधिक महत्वपूर्ण हमारा चरित्र है।
सप्रेम,
दादू
फारवर्ड प्रेस के अप्रैल, 2015 अंक में प्रकाशित