25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में भाषण देते हुए डॉ. अंबेडकर ने राजनीतिक और सामाजिक लोकतंत्र पर विशेष जोर दिया था। उसका सार है –
‘हमें सिर्फ राजनीतिक लोकतंत्र की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए। राजनीतिक लोकतंत्र को सफल बनाने के लिए हमें सामाजिक लोकतंत्र पर भी ध्यान देना होगा। सामाजिक लोकतंत्र का अर्थ है एक ऐसा जीवन पद्धति से है जो स्वतंत्रता, समानता और बिरादरी भाव के सिद्धांत पर आधारित हो। इसे अलग–अलग न देखकर एक त्रिआयामी परिणामों के रूप में देखा जाना चाहिए। समानता और बिरादरी भाव के बिना स्वतंत्रता कुछ लोगों को अन्य पर अधिपत्य लाएगा। बिरादरी भाव के बिना समानता और स्वतंत्रता दोनों अपना नैसर्गिक अर्थ खो देते हैं। भारतीय समाज में दो चीजों का नितांत अभाव है समानता और बिरादरी भाव। 26 जनवरी 1950 को हम जीवन के विरोधाभास में जा रहें हैं। हमारे पास राजनीतिक समानता तो होगी लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में हमारे पास असमानता होगी। वास्तविक जीवन में सामाजिक और आर्थिक संरचना के कारण हम “एक व्यक्ति – एक मूल्य” को नकार रहें होंगे। हम कब तक इस विरोधाभास के साथ रहेंगे? ज्यादा देर तक सामाजिक और आर्थिक असमानता राजनीतिक लोकतंत्र को जोखिम में डाल देगा, जिसे हमने बहुत मेहनत से बनाया है। समानता की तरह भारत में बिरादरी भाव का भी नितांत अभाव है। जबकि बिरादरी भाव का अर्थ वास्तव में ऐसा हो जैसे पूरा भारत एक ही बिरादरी है और मानो पूरा भारत एक ही व्यक्ति हो। यही विचार हमें सामाजिक जीवन में एकता और समन्वय दे सकता है।’
अंबेडकर का मानना था कि सामाजिक और आर्थिक समानता के बाद ही वास्तविक राजनीतिक समानता आ सकती है।
वास्तविक जीवन में सामाजिक और आर्थिक दोनों ही प्रकार की समानता एक काल्पनिक आदर्श है। लेकिन यह हर समाज का लक्ष्य है और होना भी चाहिए। लेकिन एक स्वभाविक प्रश्न उठता है कि यह काल्पनिक होते हुए भी किसी समाज के लिए आदर्श कैसे है/ हो सकता है? इसका कारण है कि हम नैतिक और व्यवहारिक रूप से असमानता का पक्ष नहीं ले सकते हैं। अगर हम मान लें कि समाज में कभी भी समानता नहीं आएगी तो कुछ बेहतर, नया और प्रतिष्ठा प्राप्त करने का भी मनोबल गिरेगा। प्रतिष्ठा, सामाजिक और आर्थिक समानता कभी नहीं आएगी लेकिन समाज का मनोबल बनाए रखने के लिए जरूरी है कि समाज इस दिशा में लोगों को प्रेरित करें। भारत का शोषित, वंचित पिछड़ा समाज इन्हीं काल्पनिक आदर्शों को लेकर आज इतनी समानता और तरक्की पाई है। वह आशान्वित है। समाज में मूल्य सीमित हैं, और इसी का बँटवारा होना है। भारतीय समाज में हिंसा इसी संघर्ष की परिणति है। समस्या को सिर्फ जाति के रूप में नहीं देखा जा सकता है।
इसीलिए, सहारनपुर, उत्तर प्रदेश में अप्रैल – मई, 2017 में हुए जातीय हिंसा को मैं सीधे–सीधे न हिंसा के रूप में देखता हूँ और न ही जातीय हिंसा के रूप में। हाल ही में हुए जातीय हिंसा के मूल और लक्ष्य में न तो जाति थी और न ही हिंसा। इसलिए मैंने इसे “जातीय हिंसा” कहा है। लेकिन मूल और लक्ष्य दोनों में “जाति” और “हिंसा” प्राथमिक न होते हुए भी भारतीय परिदृश्य में जाति और हिंसा दोनों ही शामिल है।
इस हिंसक घटना के बारे में हम यह भी नहीं कह सकते कि इसमें किसी जातीय हिंसक स्वभाव का पता चलता है। हिंसा दोनों ही तरफ से की गई है। जाटव/ चमार और राजपूत दोनों ने ही एक-दूसरे के खिलाफ हिंसा का प्रयोग किया है। इस हिंसा के मूल में क्या है? हिंसा के मूल में जाति कह देना सुरक्षित, मान्य और स्वीकार्य विश्लेषण तो है, लेकिन हमें समुचित विश्लेषण करने के लिए जाति से परे दूसरे मानकों पर भी ध्यान देना होगा।
सहारनपुर में अप्रैल–मई में हुई जातीय हिंसा को क्रम वार तथ्यों को देखें तो इसमें हमें पहचान और प्रभुसत्ता का संकट जाति और हिंसा से ज्यादा महत्वपूर्ण दिखता है। पहचान अपने आप में सामाजिक और सांस्कृतिक है। आज के भारत में जाति भी सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान का पर्याय हो गया है। इसलिए ठीक इसी परिस्थिति में यह हिंसा तब भी होता जब जाति नामक व्यवस्था, संस्कृति या संस्था नहीं होती। भारत के जाति में यह सब समाहित है लेकिन जाति शब्द के प्रयोग से दूसरे चर/ मानक स्पष्ट नहीं होते हैं। जबतक कि जाति को दूसरे सामाजिक-सांस्कृतिक मानकों द्वारा इसकी सामाजिक स्थिति स्पष्ट नहीं कर दी जाती।
इस तरह से घटित हुईं सहारनपुर जिले के शब्बीरपुर और डॉ. आंबेडकर ग्राम, घडकौली में घटनाएँ
शब्बीरपुर में हिंसा
शब्बीरपुर की घटना राजपूतों की शान में न होकर, राजपूतों की शान को चुनौती के कारण हुई। इस हिंसा का बीज पहले ही अंकुरित हो गया था। उल्लेखनीय है कि इस गांव के प्रधान का पद अनारक्षित है। सवर्ण समाज अनारक्षित का अर्थ अपने लिए आरक्षित मानता है। लेकिन इस पद पर अनुसूचित जाति का व्यक्ति चुनाव विजयी हुआ। राजपूतों को यही नागवार गुजरा।
शब्बीरपुर के लोगों ने ब्राह्मण धर्म से परे जाकर रविदास मंदिर बना लिया है। वे अपना सार्वजनिक सामाजिक कार्य भी उसी परिसर में करते हैं। इसी परिसर में अनुसूचित जाति समुदाय के लोग अंबेडकर की बड़ी मूर्ति लगाना चाहते थे। अंबेडकर की मूर्ति सार्वजनिक स्थान पर न लगाकर मंदिर परिसर में लगनी थी। मूर्ति जहाँ लगनी थी वह सड़क पर दोनों तरफ से आने वालों को दिखती है। राजपूतों को इस बात से आपत्ति थी कि उन्हें आते-जाते डॉ. अंबेडकर की मूर्ति दिखाई पड़ेगी। इसलिए राजपूतों ने प्रशासन के सांठ-गाँठ से मूर्ति लगाने से रोक दिया। जिलाधिकारी ने 18।05।2017 को बातचीत में बताया कि मूर्ति लगाने के लिए अनुमति लेनी होती है, जो अभी तक नहीं लिया गया है।
शिमलाना, सहारनपुर में 5 मई 2017 को ‘महाराणा प्रताप डिग्री कॉलेज’ में महाराणा प्रताप जयंती समारोह का आयोजन किया गया था। शिमलाना से शब्बीरपुर की दूरी लगभग पाँच किलोमीटर है। महाराणा प्रताप जयंती समारोह में जाने के लिए कुछ राजपूत शब्बीरपुर गांव में भी जमा हुए थे। अनुसूचित जाति के लोगों ने बिना अनुमति के आयोजित इस जुलूस पर प्रशासन से अपना एतराज़ जताया और स्थानीय पुलिस को इसकी सूचना दी। तनाव की आशंका की वजह से पुलिस पहले से ही शब्बीरपुर में तैनात थी। अनुसूचित जाति समुदाय के लोगों के अनुसार जुलूस की शक्ल में जाते समय राजपूत जाति के लोग “हर-हर महादेव : जय श्रीराम जय महाराणा”, “महाराणा प्रताप की जय : अंबेडकर मुर्दाबाद” के नारे लगा रहें थे। इसी समय दोनों तरफ से पथराव हुआ और बीच एक राजपूत लडके की मौत हो गई। शिमलाना में चल रहे महाराणा प्रताप समारोह तक इसकी सूचना मिली। वहां क्रांतिकारी फूलन देवी का हत्यारा शेर सिंह राणा विशेष अतिथि के रूप में उपस्थित था। उसने अपील किया कि वहां हमारे बच्चे की जान चली है और तुम लोग यहाँ मीटिंग कर रहे हो? इसके बाद शिमलाना से भी बड़ी संख्या में राजपूत शब्बीरपुर गांव में आये जिन्होंने आगजनी की घटना का अंजाम दिया। स्थानीय लोगो के मुताबिक इस हमला को अंजाम देते समय राजपूत समाज के लोग हथियार से लैस थे। इसी में कई लोग घायल हो गए और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। राजपूतों के इस आतंकी तांडव के समय स्थानीय पुलिस भी मौजूद थी। हालांकि इस हमले में अनुसूचित जाति के किसी भी व्यक्ति की जान नहीं गई।
यह भी उल्लेखनीय है कि इसी प्रकार की बड़ी आगजनी की घटनायें देश के कई राज्यों मसलन तमिलनाडु, बिहार, हरियाणा आदि में भी दबंग जातियों ने अंजाम दिया, जिसमें उन्होंने तोड़-फोड़ और आगजनी कर दलितों का आर्थिक नुकसान तो किया लेकिन किसी की जान नहीं ली। हालांकि बिहार में ऐसी घटनायें भी घटित हुईं, जिनमें आर्थिक नुकसान के लिये दलितों-पिछड़े परिवारों के मुखिया को मौत के घाट उतारा। वैसे यह भी कहा जा सकता है कि सामंती दलितों के आज़ीविका को इसलिए निशाना बनाते हैं ताकि वे कभी भी आर्थिक रुप से सशक्त न हो सकें।
घडकौली के “द ग्रेट चमार”
घडकौली ग्राम के निवासियों ने पिछले साल अपने गाँव का नाम बदलकर ‘डॉ. भीमराव अंबेडकर ग्राम’, घडकौली कर दिया। इसपर राजपूतों ने आपत्ति जताई। राजपूतों ने इसपर भी आपत्ति जताई कि चमार जाति के लोग खुद को “द ग्रेट” यानि “महान” कैसे कह सकते हैं? घडकौली के लोगो ने बताया कि राजपूतों ने उनका बोर्ड उखाड़ लिया था। बात तब पुलिस तक गई थी, लेकिन उन्होंने इसे दुबारा लगा लिया। यहाँ तक कि उनके युवा कार्यकर्ता चौबीस घंटे उसकी सुरक्षा करते हैं। बाद में राजपूतों ने पुलिस से शिकायत की कि यह बोर्ड सरकारी जमीन / सड़क पर लगी है। जबकि पुलिस ने भी पाया कि यह बोर्ड निजी ज़मीन में लगा है। ग्रामीणों के अनुसार इसी विवाद में राजपूतों ने पुलिस की उपस्थिति में चमार जाति के लोगों की पिटाई भी की। “डॉ. भीमराव अंबेडकर ग्राम”, घडकौली के लोगों ने खुद को “द ग्रेट चमार” कहने के पीछे का कारण बताया कि सवर्ण समाज ने हमें चमार जाति का होने पर अपमानित किया। हम अपनी जाति और पेशे के कारण अपमानित क्यों महसूस करें? हमें अपनी जाति और पेशे पर गर्व है।
बात यही खत्म नहीं होती। अनुसूचित जाति के लोगों का मानना है कि उनका अपमान उनके हिन्दू होने से है। हिंसा और भीम आर्मी पर पुलिस कार्रवाई के विरोध में उन्होंने हिन्दू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाने का ऐलान किया। इसी सिलसिले में 18 मई 2017 को सहारनपुर जिले के ग्राम रूपड़ी, कपूरपुर और ईघरी के लगभग 180 अनुसूचित जाति परिवार ने मानकमऊ स्थित बड़ी नहर पर पहुंचे और देवी-देवताओं की मूर्तियों एवं कैलेंडरों का विसर्जन कर दिया। वहीं जंतर-मंतर पर भीम आर्मी के प्रदर्शन के दौरान भी बड़ी संख्या में लोगों ने हाथों में बंधे कलावा कटवा लिए और कड़े उतार दिये।
भीम सेना के आह्वान और प्रभाव के कारण गाँव के अधिकतर लोग अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजते हैं क्योंकि उनके अनुसार सरकारी स्कूलों में अच्छी पढ़ाई नहीं होती। कुछ लोगों ने बच्चों को निशुल्क पढ़ना भी शुरू किया है।
अंबेडकरवाद के इसी सामजिक व सांस्कृतिक प्रभाव के कारण कई जगह पारंपरिक श्रेष्ठता को चुनौती मिली है। 16 मई 2015 को शिरडी, महाराष्ट्र में सागर सेजवाल को सिर्फ इसलिए मार दिया गया क्योंकि उसके मोबाइल से अंबेडकर का रिंगटोन बज उठा था, जो कुछ लोगों को अच्छा नहीं लगा। अक्तूबर 2012 में जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी, में मार-पीट, अक्तूबर 2014 के फॉरवर्ड प्रेस के प्रति को जब्त करना और फरवरी 2016 में संसद में स्मृति ईरानी द्वारा संसद में हंगामे के पीछे प्रमुख कारण था महिषासुर के माध्यम से नए प्रतीक का उदय और इससे उपजी सांस्कृतिक-धार्मिक चुनौती। सहारनपुर में राजपूतों का तांडव इसी प्रकार के सामाजिक-सांस्कृतिक चुनौतियों का परिणाम है।
इस घटना को कैसे देखें?
सहारनपुर के विभिन्न इलाकों में राजपूतों द्वारा अनुसूचित जातियों के लोगों पर जहाँ भी हमला किया गया है, उसमें एक चीज की समानता है। राजपूतों के समक्ष पहचान का संकट। उन्होंने अपनी पहचान प्रभावशाली और ताकतवर होने के रूप में बनाई है।
आज शक्ति के श्रोत और प्रकार दोनों बदल गए हैं। पहले वो जमींदार थे। जमीन शक्ति का प्रतीक भी था और श्रोत भी। लेकिन अब भारतीय ग्रामीण इलाकों की भी तस्वीर बदल रही है। अब शोषित-वंचित-पिछड़ी जातियों के पास सरकारी नौकरियों और विभिन्न निर्वाचनों में आरक्षण के कारण उनके पास प्रशासनिक और आर्थिक ताकत है। राजनीति के लोकतांत्रिक होने के बाद उनके पास और भी राजनीतिक शक्ति आई हैं। इसके साथ-साथ संरक्षण के विशेष कानून होने के कारण विशेष रूप से अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को लाभ हुआ है। ऐसे में प्रभुसत्ता कायम रखने के पुराने हथियार बेकार हो गए।
नौकरी में पहले कायस्थ और अब ब्राह्मण उनसे आगे निकल गए हैं। सांस्कृतिक स्तर पर ब्राह्मण पहले ही शीर्ष पर था। लेकिन राजपूतों की दबंगई सामाजिक-धार्मिक कार्यक्रमों में स्वीकार्य थी। वहीं अब सांस्कृतिक स्तर पर अंबेडकरवाद, फुलेवाद आदि हावी हो रहा है।
राजपूत समाज अपनी लड़कियों और महिलाओं के शोषण के लिए भी जाना जाता है। लेकिन आज के समाज में जागरूकता और कानून के शासन के कारण उनका पुरुषार्थ भी जाता रहा है।
राजपूतों को यह पसंद है कि उन्हें बलशाली और बाहुबली कहा जाए। उनसे डरा जाए। लेकिन उन्हें नीच न दिखाया जाए। यही कारण है कि लगभग 1990 के दशक तक हिंदी फ़िल्में राजपूतों को खलनायक, खूंखार और शोषक दिखाया जाता रहा, लेकिन उन्होंने कभी कोई आपत्ति नहीं की। लेकिन फिल्म “डोर”, “वाटर”, “जोधा-अकबर”, और अब “रानी पद्मावती” आदि पर उन्हें आपत्ति है। उन्हें मीरा बाई के घर से भागने पर भी आपत्ति थी।
आधुनिक इतिहास में फूलन देवी द्वारा बलात्कारी राजपूतों की हत्या से राजपूत समाज अभी तक नहीं उबर पाया है। शेर सिंह राणा द्वारा फूलन देवी की हत्या इसी की परिणति थी। शेर सिंह राणा इसी कारण न सिर्फ राजपूत हृदय सम्राट बना बल्कि जेल से पैरोल पर छूटने के बाद राजपूतों का कोई भी बड़ा कार्यक्रम उसकी उपस्थिति के बिना नहीं होता। सहारनपुर में राजपूतों द्वारा अनुसूचित जातियों के लोगों पर हुए सभी आतंकी हमलों में कहीं न कहीं उसकी उपस्थिति दिखती है।
राजपूतो के इस मनोवैज्ञानिक अस्थिरता को फिल्म “गुलाल” (2009) में निर्देशक अनुराग कश्यप ने बखूबी दिखाया है। फिल्म देखने से लगता है कि उसमें सहारनपुर दिख रहा है, जनरल वी. के. सिंह दिख रहा है, शेर सिंह राणा दिख रहा है, उसमें पूरे देश के राजपूतों का मनोदशा दिख रही है। फिल्म निर्देशक अनुराग कश्यप अब एक नए राजपूत “फूलन देवी के हत्यारे शेर सिंह राणा” पर भी फिल्म बनाने जा रहे हैं (जैसा कि राणा ने स्वयं इन पंक्ति के लेखक से कहा)
सांस्कृतिक चुनौती और हिंसक घटना के बाद समाज को सन्देश
शब्बीरपुर के बहाने पूरे देश में यह सन्देश गया है कि अब अनुसूचित जाति के लोग पूरे सामाजिक सम्मान, समानता, गरिमा और गौरव के साथ जीना चाहते हैं। सरकारी नौकरियों से लेकर विभिन्न निर्वाचन में आरक्षण, राज्य और केंद्र के ठेके में आरक्षण, पेट्रोल पंप और गैस के डीलरशिप में आरक्षण, आर्थिक उदारीकरण, परिवहन, मीडिया आदि सबने मिलकर इनके सम्मान और समानता की चाहत को भौतिक आधार प्रदान किया है। कार्ल मार्क्स के अनुसार यही भौतिक आधार उनका वर्ग निश्चित करता है। उत्तर प्रदेश सहित पूरे देश में यही उनके वर्गीय स्थिति को बदल रहा है। यही सांस्कृतिक बदलाव का कारण है। भौतिक और सांस्कृतिक दोनों बदलावों ने पारंपरिक शीर्षता को चुनौती दी है।
इसलिए यह हिंसा पूरी तरह केवल जातीय नहीं है। राजपूतों ने भी हिंसा जातीय भिन्नता के कारण नहीं की है। जातीय हिंसा कबीलाई हिंसा है जहां हिंसा का आधार सिर्फ एक ही होता है कि वह दूसरे कबीले से है, वह दूसरे जाति से है। इस मामले में भारत सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ा है। इस सामाजिक सांस्कृतिक लड़ाई के दौर में भी देश लोकतांत्रिक मूल्यों की ओर आगे बढ़ा है। यह सहारनपुर के घटना में भी परिलक्षित होता है। इसका विश्लेषण अगले लेख में करने की कोशिश करूँगा।
इस लेख के शुरुआत में अंबेडकर के कथन को यह समझने के लिए उद्धरित किया गया था कि भारत में स्वतंत्रता, समानता और बिरादरी भाव का नितांत अभाव है। अंबेडकर का कहना है कि एक बेहतर समाज के लिए हमें तीनों को अलग-अलग करके नहीं बल्कि एक साथ त्रिआयामी परिणामों के रूप में देखना चाहिए। इन्हीं अभावों के कारण भारत अभी तक राष्ट्र के रूप में नहीं उभर सका।
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