कोई भी धर्म अपनी विशेष पहचान कैसे बनाता है और कोई व्यक्ति या व्यक्ति समूह किसी धर्म विशेष से स्वयं को कैसे जोड़ता है – यह एक महत्वपूर्ण विषय है। यह न सिर्फ धर्म विशेष को परिभाषित करता है, बल्कि उसके समुदाय के चरित्र विशेष को भी उसके दर्शन इतिहास संस्कृति और मान्यताओं के आईने में एक ख़ास पहचान देता है। इस पहचान का एक स्पष्ट अतीत वर्तमान और भविष्य होता है। विश्व भर में फैले धर्मों और धार्मिक समुदायों में यह बात देखी जा सकती हैं।
जहां-जहां धर्म को एक अनिवार्य जोड़ने वाली विचारधारा या जीवन शैली की तरह देखा जाता है वहां-वहां धर्म स्वयं की एक स्पष्ट परिभाषा रखता है और अपने अनुयायियों को भी उतनी ही स्पष्टता से परिभाषित करते हुए आपस में जोड़ता है। क्या यह बात भारतीय धर्म के बारे में और भारत में बसने वाले समुदायों के बारे में सही है? यह मात्र एक प्रश्न ही नहीं है बल्कि स्वयं में कई अन्य प्रश्नों का उत्तर भी है, और हजारों अनसुलझी पहेलियों को सुलझाने वाला सूत्र उपलब्ध करवाता है। इसके सहारे हम न केवल भारतीय उपमहाद्वीप के दार्शनिक, धार्मिक, भाषायिक और ऐतिहासिक क्रमविकास को जान सकते हैं बल्कि यह भी जान सकते हैं कि एक ही धर्म में होने के बावजूद इस हिन्दू कहे जाने वाले समुदाय में इतना भेदभाव और अलगाव क्यों है।
इस सन्दर्भ में डॉ. अंबेडकर के अध्ययन को देखते हैं। वे अपनी महत्वपूर्ण रचना ‘रिडल्स इन हिन्दुइज्म’ में विभिन्न धर्मों और उनके मानने वालों की पहचान पर एक तार्किक सवाल उठाते हैं। किताब की शुरुआत में ही वे यह सवाल पूछते हैं कि कोई पारसी खुद को पारसी क्यों कहता है या कोई इसाई खुद को इसाई कहता है। इस सवाल के लिए उसके पास एक स्पष्ट उत्तर होता है। डॉ. अंबेडकर आगे बढ़कर लिखते हैं कि यही सवाल आप किसी हिन्दू से पूछिए कि वो हिन्दू क्यों है? डॉ. अंबेडकर स्वयं इस प्रश्न से उपजने वाली उलझन के बारे में लिखते हैं कि इस सवाल पर सोचते हुए एक हिन्दू चकरा जाएगा। वह यह नहीं बता सकेगा कि हिन्दू होने का क्या अर्थ होता है और किस चीज में विश्वास रखने पर कोई हिन्दू बनता है (अंबेडकर , 2009)[1]। इस तरह से किताब और विमर्श की शुरुआत करते हुए वे यह स्थापित करना चाहते हैं कि धर्म विशेष से संबद्ध होने के लिए किन्ही विशेष विश्वासों मान्यताओं अभ्यासों और कर्मकांडों की आवश्यकता होती है। इसका यह अर्थ भी हुआ कि एक ही धर्म के मानने वालों में इन आधारों पर साम्य होना चाहिए। एक दूसरे से भिन्न या विपरीत विश्वासों और व्यवहारों वाले लोगों को एक धर्म का अनुयायी नहीं माना जा सकता।
इस दृष्टि से देखें तो स्पष्ट होता है कि सेमेटिक मूल के तीन मुख्य धर्मों यहूदी, इसाइयत और इस्लाम में आंतरिक भेद कितने ही हों, लेकिन उनकी दुनिया भर में फ़ैली आबादी स्वयं को यहूदी इसाई या मुस्लिम साबित करने के लिए बहुत ही ठोस और सर्वमान्य आधारों की तरफ संकेत कर पाती है। ये संकेत उनकी एक किताब, एक पैगम्बर या एक इश्वर को लेकर है। इसी तरह भारत में श्रमण परम्परा से उपजे दो महत्वपूर्ण धर्मों बौद्ध और जैन धर्म में भी यह सुविधा है। जैन तो खैर भारत में ही सिमट गए हैं, लेकिन बौद्धों की विश्व भर में फ़ैली आबादी कुछ बहुत महत्वपूर्ण विश्वासों के आधार पर हमेशा से एकता के सूत्र में बंधी रहती आई है। ये विश्वास असल में बुद्ध, धम्मपद, त्रिशरण मन्त्र और त्रिपिटकों में विश्वास है जो उन सबको एकसूत्र में बांधता है। साथ ही इश्वर और अनश्वर आत्मा के निषेध सहित क्षणवाद और शून्य के दर्शन के प्रति निष्ठा भी उनकी एकता को सिद्ध करता है। ठीक उसी तरह जैसे विश्व भर के मुस्लिमों की बिना शर्त निष्ठा एक अल्लाह एक कुरआन और एक मुहम्मद में है।
अब हम इसी क्रम में भारत के सबसे प्रमुख धर्म हिन्दू धर्म को देखते हैं। यहाँ एक किताब एक पैगंबर और एक भगवान् का सिद्धांत काम नही करता। एक ही हिन्दू परिवार में कोई योगी हो सकता है कोई तांत्रिक हो सकता है और कोई नास्तिक भी हो सकता है। यहाँ तक कि परिवार के भीतर ही दो विपरीत विश्वासों वाले लोग भी हो सकते हैं। एक अर्थ में यह बहुत प्रगतिशील घटना नजर आती है। इससे बहुत सरल सा जो संकेत मिलता है वो ये कि भारतीय हिन्दू परिवार धर्म और पंथ सहित विश्वास और कर्मकांड के प्रति बहुत सेक्युलर या लिबरल हैं। और इसी अर्थ में हिन्दू धर्म के प्रशंसक इसे सबसे अधिक सहिष्णु और समावेशी धर्म बतलाते आये हैं। लेकिन यह इतिहास के हज़ारों साल के विस्तार में निर्मित हुई विराट तस्वीर का एक छोटा सा पहलू भर है। इसके अन्य छुपे हुए पहलू भी हैं जो अब इतिहास के इस मोड़ पर आकर अधिक शोध और स्पष्टता की मांग करते हैं। विशेष रूप से भारत में स्वयं को हिन्दू न मानने वाले लोगों की तरफ से उठ रहे तर्कों और तथ्यों के प्रकाश में अब हमें हिन्दू धर्म के पूरे इतिहास और इसके सम्प्रदायों सहित इसके विराट मिथकशास्त्र पर बहुत तर्कपूर्ण और वैज्ञानिक दृष्टि से पुनर्विचार करना होगा। यह पुनर्विचार इसलिए भी आवश्यक हो रहा है क्योंकि अब एक संस्कृति समझे जाने वाले समुदायों की धार्मिक सामाजिक और कर्मकांड गत मान्यताएं अपने विशिष्ट अर्थों में स्वयं ही अपनी भिन्नता की घोषणा करने लगी हैं। विशेष रूप से अब तक उपेक्षित और तिरस्कृत समाजों की जीवनधारा में बहता आया धर्म और उनकी अपनी संस्कृति के प्रवाह से बहुत कुछ ऐसा उपलब्ध हो रहा है जो एक नये ही नेरेटिव को उभार रहा है। यह भारत के मूल निवासियों और बहुजनों का मूल नेरेटिव है। नए तथ्यों के प्रकाश में प्राचीन मान्यताओं और मिथकों पर पुनर्विचार ने एक नया ही जगत खोल दिया है।
यह पुनर्विचार महात्मा ज्योतिबा फूले ने बहुत वैज्ञानिक ढंग से आरंभ किया और अपनी सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तक गुलामगिरी में उन्होंने हिन्दू मिथकों की और उनके आधार पर प्रचारित की गयी मान्यताओं की बहुत कठोर निंदा की है साथ ही उन्होंने उन मिथक प्रतीकों में छुपे हुए षड्यंत्रों को भी उजागर किया है (ओ’ हैनलों,1985)[2] । डॉ. अंबेडकर ने भी रिडल्स इन हिन्दुइज्म में बहुत स्पष्ट सन्देश दिया है कि भारतीय शास्त्रकारों ने मिथकीय व्याख्याओं के आधार पर इस धर्म और इसके समाजशास्त्र का ढांचा खडा किया है। डॉ. अंबेडकर और महात्मा ज्योतिबा फूले के अध्ययन को आधार बनाकर देखें और उनके बाद के आधुनिक शोधकर्ताओं और लेखकों को देखें तो स्पष्ट होता जाता है कि इसमें से अधिकाँश मिथकीय चरित्र और उनके द्वारा दिए गए सन्देश किन्ही सच्चाइयों को छुपाकर किन्ही गलत तथ्यों को प्रचारित करने के लिए ही गढ़े गए हैं। विशेष रूप से देबी प्रसाद चटोपाध्याय डी.डी.कोसांबी और गेल ओमवेट का अध्ययन बहुत स्पष्टता से बतलाता है कि भारतीय मिथकों ने कैसे आकार लिया है और उनके आकार और उनकी दिशा विशेष की मौलिक प्रेरणाएं कहाँ है।
अभी तक अनुमान और तर्क पर आधारित मान्यताओं को अब जमीनी आंकड़े मिलने लगे हैं। मिथकों के पुनर्पाठ की परम्परा स्थापित हो रही है। महिषासुर पर अपनी खोजपूर्ण किताब में प्रमोद रंजन कई पहलुओं से महिषासुर मिथक की एक अन्य व्याख्या की तरफ इशारा करते हैं (रंजन, 2014) [3]। इस किताब से ऐसे प्रमाण मिलते हैं जो किसी खोई हुई बहुजन संस्कृति की तरफ इशारा करते हैं, और एक खो गए नेरेटिव को उसकी पूर्णता में देखने परखने का आह्वान करते हैं। विशेष रूप से शुभ-अशुभ, सभ्य-असभ्य आर्य-अनार्य की जो बहस ब्राह्मणी समाज ने हजारों साल से चलाई हुई है, उसके खिलाफ एक नया विमर्श इस किताब से उभरता है। आर्यों के मिथकीय आख्यानों की धुंध में भारत की जिन मूल संस्कृतियों और दर्शनों सहित जीवन पद्धतियों तक को दफ़न कर दिया गया है – उनके बारे में कई सारे संकेत प्रमोद रंजन की इस छोटी सी किताब में मिलते हैं, जैसे कि महिषासुर सिर्फ एक मिथकीय चरित्र नहीं हैं बल्कि आज भी ज़िंदा असुर जनजाति के लिए और अन्य मूलनिवासी जातियों के लिए पूज्य देवता और शूरवीर हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं कि यह किताब और इसकी सामग्री एक नए ही दार्शनिक और सांस्कृतिक विमर्श के प्रस्थान बिंदु का निर्माण कर रही है। इस क्रम में ज़िंदा दस्तावेज और उन्हें दोहराने वाले कई ओबीसी, आदिवासी, और दलित समाज और कई हजार व्यक्ति आगे आ रहे हैं. और गौर से देखा जाए तो असल में यही तीन श्रेणियां हैं जो भारत के बहुजन समाज के रूप में ब्राह्मणी मिथक शास्त्रों के निशाने पर हमेशा से रही हैं। सदियों से इन्ही के नायकों देवी देवताओं और इन्ही के जीवन दर्शन सहित इनके प्राकृतिक संसाधनों को चुराया गया है। इसलिए इतनी भूमिका के बाद हम इस देश में सदियों से चलते आये साहित्यिक और दार्शनिक चौर्यकर्म को गहराई से देखने का प्रयास करेंगे। आगे हम देखेंगे कि किस प्रकार इस तथाकथित मुख्य धारा का हिन्दू समाज या ब्राह्मणी धर्म व दर्शन असल में हिन्दू समझे जाने वाले अधिकाँश बहुजनों से चुराकर उन्ही के खिलाफ रचा गया है, और किस प्रकार इतिहास के हर मोड़ पर बहुजन समाज के नायकों और उनके शास्त्रों सहित उनके प्रतीकों और कर्मकांडों को भी चुराकर उनका ब्राह्मणीकरण किया गया है। बहुजनों की भौतिकवादी प्रकृतिपूजक और मातृसत्तात्मक संस्कृति और दर्शन को चुराकर उसे अपना बनाया गया है और उसके खिलाफ षड्यंत्र करके बहुजन नायकों को राक्षस, दैत्य और असभ्य साबित किया गया है। इस विषय को हम चरण दर चरण समझने का प्रयास करते हैं।
भारत में इतिहास की बजाय मिथकीय पुराण क्यों लिखा गया :
किसी भी सभ्य समाज के पास एक लिखित और सुव्यवस्थित इतिहास होता है। यही उसके संगठित वर्तमान और उतने ही संगठित व सुपरिभाषित भविष्य का स्त्रोत भी होता है। यह सुपरिभाषित भविष्य उस समाज या देश की पूरी जनसंख्या को एकसाथ एक लक्ष्य के लिए आंदोलित करता है। विश्व के सभी समाज किसी न किसी अर्थ में तथ्यात्मक रूप से अपना इतिहास लिखते हैं। उस समाज की पहचान और उसका मौलिक दर्शन इस इतिहास में प्रतिबिंबित होता है। अगर वह न होता हो तो इसका एक ही अर्थ है कि यह समाज नहीं है बल्कि ऐसे लोगों की भीड़ है जो समाज के निर्माण की लड़ाई अभी जीत नहीं सके हैं। एक समान जीवन जीने वाले, एक जैसी मान्यताओं और आचार विचार वाले लोगों में एक भावनात्मक और तार्किक संगति होती है जो काल के तीनों खण्डों में उनके एक्य को न सिर्फ संभव बनाती है बल्कि अन्य अनेक तरह के एकीकरणों को संभव करती जाती है।
इस अर्थ में इतिहास बोध असल में संस्कृति बोध से अनिवार्य रूप से जुड़ता है। इसी तर्क में और आगे चलकर देखें तो यह भी पता चलता है कि समय के विस्तार में एकीकरण की एक ही अनिवार्य शर्त है – सामाजिक समता। अर्थात समानता की संभावना और सामान अवसरों की सुनिश्चितता। इस तरह के साम्य पर ही कोई समाज खडा हो सकता है और समय के विस्तार में अपने एक्य को परिभाषित व पोषित कर सकता है। इसीलिये हम यह मानकर चलेंगे कि इतिहास बोध न केवल संस्कृति बोध है बल्कि उससे भी आगे बढ़कर यह किसी संस्कृति या समाज का नैतिकता बोध या स्वयं न्याय बोध भी है। इसीलिये हर संस्कृति ने चाहे वह कितनी भी विकसित रही हो – उसने अपनी विशिष्ट नैतिकता को बहुत स्पष्ट अर्थों में परिभाषित किया है और उसी के आधार पर शुभ अशुभ की परिभाषा की है और उसी के आधार पर इतिहास लिखा है। इसीलिये उनका इतिहास बोध और न्याय बोध बहुत स्पष्ट है। उसमे घालमेल या मिथकीय धुंध नहीं है। लेकिन क्या भारत में ऐसा है? क्या भारत ने इतिहास लिखा है? या क्या भारत के मिथकीय इतिहास में उन्नत नैतिकता बोध और न्याय बोध जैसा कुछ है?
यह देखकर आश्चर्य और दुःख होता है कि इस देश में इतिहास कभी नही लिखा गया है, बल्कि उसकी जगह मिथकों और कल्पनाओं से भरे पुराण लिखे गए हैं। भारत के इतिहास लेखन के संबंध में अक्सर यह कहा जाता है कि भारत के पास अतीत तो है लेकिन इतिहास नहीं है। इसी कारण, चूँकि यहाँ इतिहास नहीं है तो भारत की बहुसंख्य जनसंख्या अपने इस वर्तमान को भी समझ नहीं पाती कि यह किस प्रवाह में यहाँ तक पहुंचा है। और यही कारण है कि इतनी सदियों बाद भी इस विराट और दिशाहीन जनसंख्या में एक साझे भविष्य का स्पष्ट नक्शा या दर्शन भी आकार नहीं ले पा रहा है। यही इसकी ऐतिहासिक रूप से लंबी और शर्मनाक गुलामी का भी कारण है। भारत में हज़ारों धर्म ग्रन्थ और एक बहुत बड़ा दार्शनिक साहित्य है। सैकड़ों ज्ञात राजवंशों और कबीलों सहित अज्ञात परम्पराओं के संकेत व प्रमाण मिलते हैं। साथ ही अन्य देशों के यात्रियों ने यहाँ एक बड़ी ही विस्तृत और प्राचीन सभ्यता की बात कही है। ये सब बातें बतलाती हैं कि इस देश में इतिहास जरुर घटित हुआ है, लेकिन उसका लेखन नहीं हुआ है। अब ये लेखन क्यों नहीं हुआ है इसके पीछे बहुत गहरे कारण रहे हैं जिन्हें बहुत ही चालाकी से छुपाकर रखा गया है। यह नहीं माना जा सकता कि इस देश में लेखन कला या इतिहास बोध ही नहीं जन्म सका था। असल में यहाँ इतिहास बोध को नष्ट करने वाला मिथक बोध बहुत प्रभावी रहा है। ये मिथक क्यों और कैसे जन्मते हैं इसमें गहराई से देखना होगा। इस विषय में आचार्य रजनीश नामक एक विवादास्पद भारतीय धर्मगुरु ने कहा है कि भारतीय कालगणना रेखीय नहीं बल्कि चक्रीय है इसलिए समय भी अनंत है और जीवन सहित समाज मे घटित होने वाली घटनाएँ भी अनंत हैं इसीलिये इनका लेखन व्यर्थ है। उनके अनुसार मिथक असल में इतिहास का नहीं बल्कि समाज मनोवैज्ञानिक अर्थ में महत्वपूर्ण शिक्षाओं और प्रवृत्तियों का संकलन है। उनका यह कहना बहुत सूचक है। भारत का हर परलोक वादी धर्मगुरु इसी भाषा में बात करता है। यह वक्तव्य देते हुए वे बिलकुल परम्परागत धर्मगुरुओं की तरह बात कर रहे हैं और असल में इस एक वक्तव्य से समाज में बदलाव की संभावना का सूत्र बन सकने वाले इतिहास बोध की ह्त्या भी कर रहे हैं। यही काम उनकी श्रेणी के हर धर्मगुरु ने बार बार किया है। इसीलिये रजनीश जैसे इतने बड़े दार्शनिक और रहस्यवादी इस समाज में पैदा होते रहने के बावजूद इस देश के मौलिक विभाजक और भेदभावमूलक चरित्र में कभी बुनियादी बदलाव या क्रान्ति नहीं हुई। बल्कि इसके विपरीत रहस्यवाद और परलोक की प्रशंसा में छुपाकर समाज की जमीनी मांगों को छुपाया गया है। इस प्रकार न सिर्फ इतिहास बोध से वृहत्तर न्यायबोध की ह्त्या होती है बल्कि इसी के सहारे सभी क्रांतियों की संभावना भी नष्ट हो जाती है। सामान्य रहस्यवादी परम्पराओं या हवा हवाई बातें करने वाले धर्मगुरु और धर्म भीरुओं की तरफ से आने वाली ऐसी प्रशंसाओं के प्रभाव में हम अगर मिथक को देखेंगे तो कुछ भी स्पष्ट नहीं होगा। इसीलिये मिथकीय आख्यानों को दिव्य या प्रशंसनीय समझने वाले लोगों ने कभी भी कोई समाज परिवर्तन का आन्दोलन नहीं चलाया न ही इसके पक्ष में कोई विमर्श ही पैदा किया। ब्राह्मणी धर्म से प्रभावित विद्वान् और उनके विमर्श की दिशा को सम्मान देने वाले लोगों की मानकर चलेंगे तो हम मिथक और इतिहास के इस द्वंद्व में से कोई भी सार्थक बात नहीं निकाल सकेंगे।
लेकिन अगर हम आर्य आक्रमण थ्योरी और जन्मना वर्ण व्यवस्था सहित जन्मना जाति व्यवस्था को स्वीकार करते हैं, तभी हम इस रहस्य को सुलझा सकते हैं अन्यथा हम इसे नहीं सुलझा सकते। डॉ. अंबेडकर (1970)[4] की रिसर्च भी जिस तरफ इशारा करती है वह यही बतलाती है कि इस देश की मूल परम्परा और मूल शासकों को धीरे धीरे शिक्षा और व्यापार से वंचित करके समाज के सबसे निचले स्तर पर धकेला गया है। सामान्य सा तर्क है कि अगर इतिहास में एक संस्कृति और एक ही दर्शन का सातत्य है तो फिर इतिहास लिखना न केवल आसान होगा बल्कि जरुरी भी होगा। लेकिन अगर ये इतिहास किसी एक संस्कृति का नहीं बल्कि आप में लड़ रही अनेकों संस्कृतियों का बिखरा इतिहास है तो इस इतिहास का लेखन बहुत सेलेक्टिव ढंग से होगा। अगर इमानदारी से और सैनिक बल से विजय प्राप्त करके पराजित संस्कृति को नष्ट किया गया है तो उस विजय को अपनी गाथाओं में ज़िंदा रखा जाएगा। ये गाथाएँ इमानदार होती हैं और भविष्य को प्रेरित करती हैं। लेकिन अगर प्रतियोगी या मूलनिवासी संस्कृति को छल से और कपटपूर्वक मनोवैज्ञानिक उपायों से नष्ट किया गया है तो उसका इमानदार इतिहास लिखना बहुत मुश्किल होगा। ये इतिहास लेखन असल में विजेताओं ही को दुष्ट और धूर्त साबित करेगा। इसलिए ऐसे विजेताओं ने भारत में कभी इतिहास लिखा ही नहीं और जो मूलनिवासी जनों का इतिहास किसी अर्थ में उपलब्ध था उसे भी मिथकीय आख्यानों की बाढ़ में बहाकर गायब कर दिया।
इस विषय में भारत के बारे में एक बड़ी सच्चाई यह है कि भारत में जिन आततायी लोगों और संस्कृति ने मूलनिवासी संस्कृति को छलपूर्वक नष्ट किया है वह उन्होंने मनोवैज्ञानिक और धार्मिक षड्यंत्रों द्वारा नष्ट किया है (Keer, Malase and Phadake (eds.), 2006)[5] इसी कारण उन्होंने कभी भी व्यवस्थित रूप से अपने छल कर्म का इतिहास नहीं लिखा। उन्होंने हमेशा ही मिथक लिखे हैं, और अपने मिथकों में इस बात के संकेत जरुर छोड़े हैं कि वे कितने अन्यायी, धूर्त और कपटी थे। इनके सभी मिथकों में बहुत स्पष्टता से लिखा गया है कि किस तरह आर्यों ने मूलनिवासी शासकों को जिन्हें इन्होंने राक्षस या असुर नाम दिया था, के साथ छल किया था। मूलनिवासी शूरवीरों के खिलाफ अपनी सुन्दर कन्याओं और स्त्रियों का कपटपूर्वक इस्तेमाल किया है। इस तरह उन्होंने न केवल मूलनिवासियों के प्रति घृणित व कायरतापूर्ण षड्यंत्र रचे हैं बल्कि अपनी स्त्रियों सहित अन्य स्त्रियों की उनकी दृष्टि में क्या उपयोगिता रही है इसे भी बार-बार स्पष्ट किया है। विष्णु द्वारा मोहिनी रूप धारण करके देवों और असुरों की साझी मेहनत से उपजे अमृत को किस तरह असुरों से छीनकर देवों को पिला दिया गया था यह आर्यों के मिथक साहित्य में बहुत सामान्य बात है (Williams, 2003) ।[6] इसी तरह इंद्र हर बार किसी तेजस्वी तपस्वी से भयभीत होकर उसके तप को भंग करने के लिए अप्सराओं को भेजता है। इंद्र पहले अन्य सब तरह के उपाय करके थक जाने पर अप्सराओं या स्त्रियों को इस्तेमाल करता है। इस तरह देखें तो स्त्रियाँ ही इंद्र का या आर्यों का ब्रह्मास्त्र रही हैं। देवताओं के राजा इंद्र द्वारा अहिल्या के छलपूर्वक शीलभंग की भी कथा है, यही प्रत्येक शूरवीर या दार्शनिक के उभार के साथ ही इंद्र का आसन डोलने लगता है और वह षड्यंत्र शुरू कर देता है।
ये घटनाएँ और उल्लेख बताते हैं कि सामान्य नैतिकता और सदाचार के विषय में आर्य और उनके महान देवता हेमशा से अविकसित, अन्यायी, स्त्री विरोधी और बर्बर थे। यह उनके अपने मिथकीय शास्त्रों और ग्रंथों से स्पष्ट होता है। इतने कपट और छल से भरी कायरतापूर्ण परम्परा का इतिहास कैसे लिखा जा सकता है। सामान्य बुद्धि भी यह बतलाती है कि ऐसा इतिहास लिखकर आर्य अपने वंशजों की नजर में महान नहीं बन सकते थे। इसीलिये उन्होंने ऐसा इतिहास न लिखने का निर्णय लिया और इस इतिहास की बजाय मिथक रचे जिनमें न तर्क था न कोई न्यायबोध था न नैतिकता ही थी। इससे यह स्पष्ट होता है कि आततायी आर्य अविकसित और बर्बर थे न केवल इतना, बल्कि यह भी स्पष्ट होता है कि मूलनिवासी असुर अधिक नैतिक थे प्रकृति, जीवन, बहुलता, सृजन और स्त्रियों का बहुत सम्मान करते थे. वे अधिक सभ्य और विकसित थे। आक्रामक और युद्धखोर घुमक्कड़ आर्यों के विपरीत वे खेतिहर समाज थे। उनका दर्शन भी प्रकृति और प्राकृतिक शक्तियों का दर्शन था जो कि बहुत हद तक भौतिकवादी दर्शन था।
मूलनिवासी असुर जनजातीय समाज और लोकायत दर्शन :
मूलनिवासी असुरों और आदिवासियों की समाज रचना बहुत हद तक मातृसत्तात्मक थी और उनके विश्वास प्रकृति पूजकों के विश्वास थे। वे इश्वर जैसी किसी सत्ता की बजाय प्रकृति की शक्ति में भरोसा करते थे और वे स्त्री की उर्वरता और प्रकृति या भूमि की उर्वरता में एक सीधा संबंध देखते थे। इसीलिये उनके अधिकाँश त्यौहार स्त्री केन्द्रित थे और परिवार व्यवस्था में स्त्री को पुरुषों से अधिक अधिकार प्राप्त थे (Chattopadhyaya,1992)[7]। आज भी अधिकाँश जनजातीय समाजों में मातृसत्तात्मक व्यवस्था के अवशेष देखे जा सकते हैं। मध्य प्रदेश के बलाघाट, छिंदवाडा, बेतुल, मालवा निमाड़ सहित अन्य अनेक जिलों में गोंड, कोरकू, भील, बैगा जैसे आदिवासियों में विवाह और परिवार की व्यवस्था में स्त्रियों को अधिक अधिकार प्राप्त हैं। देश के अन्य राज्यों में भी जनजातीय समाजों में वधुमूल्य की प्रथा है जबकि आर्य अर्थात ब्राह्मण धर्म को मानने वाले समाजों में इसके विपरीत दहेज़ की प्रथा है। इन आदिवासी समाजों में तलाक और पुनर्विवाह के बहुत सरल नियम हैं जिनमे स्त्रियों और पुरुषों दोनों को सुविधा प्राप्त है, आर्यों की भांति इनके समाजों में विवाह एक जन्म-जन्म का दुर्निवार बंधन नहीं माना जाता जिसे कि तोड़ा ही नहीं जा सकता हो। लेखक ने स्वयं अपने जमीनी अध्ययन में देखा है कि आज भी जनजातीय समाज में बहुत सारी प्रथाएं और मान्यताएं हैं जो जेंडर की समानता पर खड़ी हैं और महिलाओं को बहुत अलग तरह से अधिकार देती हैं। प्राचीन समाज का मानवशास्त्रीय अध्ययन करने वाले विद्वानों ने भी यही सिद्ध किया है। कई अध्ययनों और प्रेक्षणों में बस्तर के मारिया या बायसन-हार्न मारिया आदिवासियों में घोटुल नामक संस्था के उल्लेख भी पाए जाते हैं। यह व्यवस्था असल में स्त्री पुरुष दोनों को जीवन साथी चुनने के समान अधिकार देती है। घोटुल नामक व्यवस्था कई समाजशास्त्रीय और मानवशास्त्रीय अर्थों में बस्तर के मुरियाओं, गोंडों, बैगाओं और उत्तर पूर्व के नागाओं सहित बिहार के मुंडाओं को आपस में जोडती है (Von Fürer et all, 1982)[8] ।
इसी तरह प्राचीन जनजातीय समाजों में बहुपति व्यवस्था भी पाई जाती थी जिसमे पुनः स्त्री को केन्द्रीय स्थान प्राप्त था। इस प्रकार विस्तार में देखा जाए तो मातृसत्तात्मक परिवार, वधुमूल्य, घोटुल, विवाह, पुनर्विवाह और तलाक में स्त्री अधिकारों का होना और सबसे प्रमुख स्त्री की उर्वरा शक्ति को प्रकृति की उर्वरा शक्ति से जोड़कर देखना एक बहुत प्राचीन भारतीय भौतिकवादी दर्शन की तरफ इशारा करता है। इसे लोकायत दर्शन कहा गया है और इसकी परिभाषा “लोकेषु आयतः” के रूप में की गयी है. अर्थात लोक का दर्शन या इस लोक का दर्शन जिंसमे प्रकृति और उसकी शक्तियों को सर्वोपरि माना जाता है, शंकराचार्य ने भी लोकायत को “प्राकृत जनाः” का दर्शन माना है और इसे हीन दर्शन या भौतिकवादियों का दर्शन बताया है (Chattopadhyaya,1992) । इस दर्शन में कृषि से जुड़े कर्मकांडों में स्त्री की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण मानी गयी थी। इसीलिये प्राचीन जनजातियों में ग्राम देवियों सहित वन देवियों की मान्यता बहुत अधिक पायी जाती हैं। डॉ. अंबेडकर ने भी अपनी रिसर्च में ये सवाल खड़े किये हैं कि भारत में देवियों और मातृदेवियों का उभार एक गहन पहेली है जिसके आधार पर इस देश के धर्म-दर्शन के उद्विकास के बहुत सारे पहलू उजागर किये जा सकते हैं। इस अर्थ में चट्टोपाध्याय और डॉ. अंबेडकर दोनों ही मातृसत्तात्मक परिवार और समाज व्यवस्था सहित ब्राह्मणी धर्म में देवियों की भूमिका के साथ प्राचीन भारतीय भौतिकवादी परम्पराओं को रखकर देखने का आग्रह कर रहे हैं। चट्टोपाध्याय अपनी अकादमिक रिसर्च से वहां पहुँच रहे हैं और डॉ. अंबेडकर अपनी धर्म-दर्शन और धर्म के समाजशास्त्र को आधार बनाकर उस निष्कर्ष तक आ रहे हैं।
अब घोटुल के अस्तित्व पर उसकी कार्यपद्धति पर और उसके साथ चल रही मातृसत्तात्मक समाज व्यवस्था पर गौर कीजिये। आजकल उभर रहे जनजातीय अस्मिता के प्रश्नों से इसका गहरा संबध है। जिसे गहरे में तर्कपूर्ण विश्लेषण से ढूंढा और स्थापित किया जा सकता है। गोंडों सहित बैगा, मारिया, भील, ओराव, हलवा आदि जनजातियों में घोटुल का प्रभाव आज भी देखा जा सकता है। इनकी भूमि, वन, जल, पर्वत सहित धरती और स्त्री की उर्वरा शक्ति को सम्मान देने की परम्पराएं एक जैसी हैं। ये लोग अपनी विशेष जीवन शैली लिए जंगलों में सिमटते रहे हैं या सिमटने को मजबूर हुए हैं और इनके परितः शहरी या नागर समाज में भिन्न किस्म की या पित्रसत्तात्मक संस्कृति ने सत्ता स्थापित की है। इस तरह देखें तो दो ही संभावनाएं हैं पहली यह कि या तो मूलनिवासी जनजातियों ने कभी भी नगर नहीं बसाए और खेती नहीं की है और सदैव ही वनवासी जीवन व्यतीत किया है और दूसरी यह कि उन्होंने नागर सभ्यता भी पैदा की लेकिन किसी कारण से कालान्तर में उनकी सभ्यता जंगलों में सिकुड़ते जाने को विवश हो गयी। इस प्रश्न का उत्तर हम आगे देखेंगे जबकि हम गोंडी पुनेम दर्शन सहित महिषासुर के सन्दर्भ में गहराई से विमर्श शुरू करेंगे।
आगे हम यह भी देखेंगे कि भौतिकवादी, श्रमण, नास्तिक, वेदविरोधी, मूलनिवासी, स्त्रीवादी और अंबेडकरवादी विचारक सब के सब अपने-अपने और अलग-अलग प्रस्थान बिन्दुओं से यात्रा करते हुए भी एक साझे निष्कर्ष तक चले आ रहे हैं। वे सब के सब अनिवार्य रूप से ब्राह्मणवाद को मूल भारतीय भौतिकवादी और मातृसत्तात्मक संस्कृति के खिलाफ खड़ी की गयी ‘प्रतिसंस्कृति’ निरूपित करते हैं। इसका सीधा अर्थ ये है कि वर्तमान में जो दलित, मूलनिवासी या स्त्रीवादी आन्दोलन हैं वे जिस संस्कृति का नक्शा बना रहे हैं या खोज कर रहे हैं वही असल में इस देश की प्राचीन और प्रगतिशील संस्कृति थी जिसके खिलाफ षड्यंत्रपूर्वक ब्राह्मणवादी और भाववादी दर्शन पर आधारित प्रतिसंस्कृति खड़ी की गयी थी।
देव–असुर संग्राम, ब्राह्मण–क्षत्रिय या ब्राह्मण–बौद्ध संघर्ष
इस तर्क में और गहरे जाया जा सकता है। प्राचीन कोयवंशीय गोंडों, असुरों और बौद्धों को एक ही दर्शन के हिस्से के रूप में देखना न केवल तर्कपूर्ण है बल्कि अब आवश्यक भी हुआ जा रहा है। प्राचीन संहिताएँ और मिथक जिन संघर्षों का उल्लेख करते हैं वे बहुत महत्वपूर्ण हैं। न केवल मिथकों का अनुवाद और आशय समझने वाले आधुनिक शोधकर्ताओं ने इस विषय पर विस्तार से लिखा है, बल्कि स्वयं उन मिथकों के अलग अलग संस्करणों में जो विस्तार है, उस विस्तार में भी बहुत सारे सूत्र स्पष्ट होते हैं। भारतीय मिथकों को उनके विस्तार और घटनाओं के विवरण के साथ साथ उनकी मंशा के साथ समझा जाना चाहिए। मिथक असल में वैकल्पिक इतिहास प्रस्तुत करता है जो बहुत ही गूढ़ और चयनात्मक (सेलेक्टिव) होता है इसीलिये उसके प्रतीकों और रूपकों को एक सपाट इतिहास दृष्टि के सहारे नहीं बल्कि दार्शनिक व सामाजिक मान्यताओं में उभर रहे पुरस्कार और वर्जनाओं के मनोविज्ञान के साथ रखकर देखना चाहिए (Goswami, 2014)[9] । ये वर्जनाएं समाज मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक उद्विकास (क्रमविकास या एवोल्यूशन) के उस चयनात्मक (सिलेक्टिव) धाराओं का संकेत देती हैं जो अंत में किसी देश या समाज की मुख्य धारा के दर्शन की महानदी में रूपांतरित हो जाती है। एक क्रमविकासीय अर्थ में अगर हम इन प्रवृत्तियों और इनके समुच्चय को देखें तो ये किसी एक धुंधले प्रस्थान बिंदु से दूसरी सुस्पष्ट दिशा और सुपरिभाषित बिंदु की तरफ जाती हुई नजर आती हैं, और मुख्य धारा के हिन्दू धर्म और संस्कृति के पक्ष में इन्हें जिस प्रकार से ढाला गया है उस तरीके के विश्लेषण से भी बहुत सारी प्रवृत्तियों और मंशाओं पर प्रकाश पड़ता है। उल्लेखनीय बात ये है कि ये छोटे छोटे पुरस्कार या वर्जनाएं और इनसे जुड़े रूपक व् प्रतीक दंतकथाओं और लोक कथाओं के रूप में भारत के बहुत सारे हिस्सों में फैले हुए हैं। इनमे गजब की समानता है और इनके धर्मदर्शन और समाज मनोवैज्ञानिक अनुप्रयोग (इम्प्लीकेशंस) एक जैसे हैं। यह समानता यह सिद्ध करती है कि एक आततायी संस्कृति ने किसी प्राचीन संस्कृति के वाहकों को एक जैसे समाज मनोवैज्ञानिक उपाय से छलपूर्वक नष्ट किया था। इस बात का स्पष्ट उल्लेख न सिर्फ महात्मा ज्योतिबा फुले और डॉ. अंबेडकर के चिन्तन में मिलता है, बल्कि जनजातीय समाज से आने वाले विद्वानों और धार्मिक नेताओं से भी यही सूत्र प्राप्त होता है। इनमें एक नया और महत्वपूर्ण नाम है डॉ. मोतिरावण कंगाली (1949-2015)[10] का जो गोंड समाज की धार्मिक परम्पराओं और भाषाओं के विद्वान थे। डॉ. कंगाली की स्थापनाओं और गोंडी मिथकों सहित लोक कथाओं आदि के अर्थों को हम विस्तार में आगे पढेंगे। भारतीय दार्शनिक या समाजशास्त्रीय अध्ययनों में गोंडी पुनेम (गोंडी धर्म या दर्शन) की तरफ से मिल रहे सबूतों को शायद पहले कभी इस अर्थ में नहीं देखा गया है। इसीलिये हम गोंडी धर्म व दर्शन की मान्यताओं और उनसे मिल रहे सबूतों को अलग से विस्तार से देखेंगे।
भारत के अनेकों राज्यों में एक समान समाज मनोवैज्ञानिक आशय लिए हुए सैकड़ों दन्त कथाएं हैं जिनमें देवों और असुरों के संघर्ष का जिक्र आता है। ये संघर्ष असल में ब्राह्मणों और क्षत्रियों का संघर्ष रहा है (Ambedkar,1970)[11] । ये संघर्ष भारतीय इतिहास के हर निर्णायक मोड़ पर उठ खड़ा होता है और इसके बड़े दायरे में न सिर्फ ब्राह्मण क्षत्रिय और ब्राह्मण शूद्र की पहेली के हल छुपे हुए हैं बल्कि इसी में दलित मूलनिवासी सहित स्त्रीयों की दुर्दशा की पहेली का हल भी छुपा हुआ है। यह हल या यह निष्पत्ति आर्यों को असभ्य युद्धखोर और आक्रमणकारी मानने को विवश करता है। स्वयं ऋग्वेद की अनेकों रिचाओं में स्पष्ट संकेत हैं कि आर्य युद्धखोर और मदिरासेवी लोग थे (Ross, 2008)[12] । इन आर्यों के लिए भारत की जलवायु बहुत सुखद और सहायक सिद्ध हुई और वे यहीं रूककर अपना विस्तार करने लगे। स्वाभाविक रूप से अपने साथ अपने पशु हथियार और परम्पराओं के साथ अपनी मान्यताएं और मिथक भी लाये थे (Keith,1925)[13]। इन परम्पराओं और मिथकों ने स्थानीय परम्पराओं और मिथकों के साथ मिलकर बहुत ही चकरा देने वाला कथानक रचा है, जिसे समझ पाना अब संभव हो पा रहा है। धर्म दर्शन, साहित्य, इतिहास, मिथक और पुरातत्व सहित भाषा विज्ञान से अब जो सूत्र मिल रहे हैं। वे किसी एक साझे संश्लेषण की तरफ इशारा करते हैं। वह संश्लेषण इस अर्थ में है कि अगर भारतीय राज्यों में अलग-अलग फ़ैली दंतकथाओं लोककथाओं और वाचिक परम्पराओं में फैले सूत्रों को ठीक से देखा जाए तो उनमे एक जैसी प्रवृत्तियाँ हैं। समाज मनोवैज्ञानिक अर्थ में रची गयी वर्जनाओं और पुरस्कारों सहित उनके प्रस्थान बिंदु और उनके लक्ष्य एक जैसे हैं.
ये समानता कोयवंशी गोंडों के सर्वाधिक महत्वपूर्ण नायक “संभूशेक” सहित बाद में असुरों और बौद्धों के खिलाफ रचे गए मिथकों में एकदम साफ़ नजर आती है। प्राचीन ऋग्वेद के वर्णन असुरों का उल्लेख करते हैं जिनके खिलाफ सुरों और देवताओं ने लगातार युद्ध किया था। इसी तरह बौद्ध और हिन्दू परम्परा सहित जैन परम्परा में अनेक उल्लेख हैं जो श्रमण और ब्राह्मण परम्पराओं के दार्शनिक संघर्ष का उल्लेख करती हैं। यहाँ यह देखना बहुत ही महत्वपूर्ण है कि ब्राह्मण परम्परा जो कि आर्यों की परम्परा है वह अपने आरंभिक संघर्ष में सर्वप्रथम कोयवंशी गोंडों के खिलाफ और बाद में फिर असुरों के खिलाफ कुछ ख़ास तरह के कुटिलतापूर्ण षड्यंत्र और समाज मनोवैज्ञानिक हथकंडे इस्तेमाल कर रही है। ठीक यही हथकंडे और षड्यंत्र ब्राह्मणवादी धर्म को उंचा दिखाने के लिए और उसे प्रतिष्ठित करने के लिए बाद में बुद्ध, बौद्ध धर्म और कबीर व रविदास के खिलाफ भी इस्तेमाल कर रही है। और चूँकि इतिहास और मिथक को ब्राह्मण परम्परा ने सहेजा और आकार दिया है इसलिए उन्होंने शत्रुओं को उनके उद्विकास (क्रमविकास या एवोल्यूशन) की अवस्था के अनुसार कई श्रेणियों में बाँट दिया है जिन्हें असुर और बौद्ध या अछूत कहा जा सकता है। लेकिन स्वयं को अलग अलग श्रेणियों में न रखकर आर्य ब्राह्मण ही घोषित किया है। लेकिन असल में डॉ. आम्बेडकर के विश्लेषण में ये असुर अछूत और बौद्ध अंत में क्षत्रिय ही साबित होते हैं। और देबीप्रसाद चट्टोपाध्याय और स्वामी अछूतानन्द सहित भदंत बोधानन्द महास्थविर के अध्ययन में ये सब मूलनिवासी साबित होते हैं।
हालाँकि डॉ. अंबेडकर आर्य आक्रमण थ्योरी में भरोसा नहीं रखते लेकिन फिर भी स्थानीय स्तर पर भारत में उंच नीच के निर्माण का जो षड्यंत्र चलाया गया है उसके सम्बन्ध में उनका विश्लेषण हमारे लिए बहुत उपयोगी है। डॉ. अम्बेडकर के बतलाये अनुसार अगर आर्य अन्य देश से न भी आये हों तो भी उनका अपना विश्लेषण ब्राह्मण श्रमण या ब्राह्मण क्षत्रिय संघर्ष को अपनी पूरी नग्नता में उजागर करता है। इसी को अगर प्राचीन भारतीय भौतिकवाद के विश्लेषण के साथ रखा जाए तो ये संघर्ष देव-असुर संग्राम को भी ब्राह्मण-क्षत्रिय संग्राम की तरह निरुपित कर सकता है। यह तर्क और यह तरीका बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसका ठीक इस्तेमाल करते हुए हम देख पाते हैं कि एक आततायी संस्कृति के प्रतिनिधियों ने मूलनिवासी संस्कृति को एक जैसे तरीकों और षड्यंत्रों से कमजोर कर परास्त किया है। यह तरीका क्या था? वह समाज मनोवैज्ञानिक, धार्मिक-दार्शनिक उपाय क्या था? इसका उत्तर असुरों, बौद्धों कबीर और रविदास के खिलाफ रची गयी मिथकीय कथाओं में मिलता है। बुद्ध कबीर और असुरों के खिलाफ रची गयी प्रतिसंस्कृति और मिथकीय प्रचार को हम न्यूनाधिक जानते ही हैं, लेकिन इनके अलावा अब गोंडी दर्शन और संस्कृति की तरफ से भी अब ठीक यही नेरेटिव उभर रहा है जिसका उल्लेख शायद इस तरह के विमर्शों में आज तक नहीं हुआ है।
गोंडी पुनेम दर्शन और ब्राह्मणी धर्म
असुर जो कि लोकायतिक हैं, और जो चार महाभूत वाले इस लोकवादी दर्शन को मानते थे उन्हें उनके दर्शन सहित निन्दित ठहराया गया है। ये दर्शन और ये समाज आत्मा या परमात्मा को नहीं बल्कि प्रकृति को मानता था। आज भी आदिवासी/मूलनिवासी समाज में आत्मा और परमात्मा की परलोकवादी धारणा की बजाय प्रकृति की शक्तियों को अधिक महत्त्व दिया जाता है। असुरों की भाँति एक अन्य बहुत ही महत्वपूर्ण जनजातीय समुदाय है जिन्हें गोंड कहा जाता है। गोंड एक समय में बहुत शक्तिशाली राज्य व्यवस्था के संस्थापक रहे हैं और दलपतशाह जैसे महान गोंडी राजाओं ने बहुत विस्तृत भूभाग पर शासन किया है। आज भी उनके नाम पर मध्यप्रदेश के बालाघाट सहित अन्य अनेक जिलों में उनके व अन्य गोंड राजाओं के किलों, मंदिरों और अन्य भवनों के खंडहर मौजूद हैं। पुरातात्विक खोजें अब यह सिद्ध कर रही हैं कि भारत के प्रत्येक राज्य में प्राचीन मंदिरों और किलों के खंडहरों में गोंडी राज चिन्ह (हाथी पर बैठा शेर) पाया जाता रहा है। इससे आभास होता है कि गोंडी संस्कृति संभवतः पूरे भारत में फली-फूली होगी और बाद में आर्य या ब्राह्मणी षड्यंत्रों से उसी तरह नष्ट की गयी जिस तरह कि बाद में महिषासुर, रावण, बुद्ध, कबीर और उनके संप्रदायों को नष्ट किया गया।
डॉ. कंगाली के अध्ययन से इस मान्यता को न केवल बल मिलता है बल्कि एक अर्थ में उनकी महान खोज इस बात को स्थापित ही कर देती है कि गोंडी पुनेम दर्शन या संस्कृति पहली अखिल भारतीय संस्कृति रही है। उनका अध्ययन स्पष्ट करता है कि किस तरह ब्राह्मणी धर्म ने गोंडी धर्म और संस्कृति को बुद्ध के उदय के बहुत पहले ही आत्मसात करके मूल गोंडी समुदायों को षड्यंत्रपूर्वक समाज व राज्य व्यवस्था में निचले पायदानों पर धकेलकर जंगलों में ही सीमित कर दिया था। यह देखना उपयोगी है कि लोकयातिकों और मूल सांख्य सहित तंत्र के समान ही गोंडी दर्शन भी इश्वर को नही मानता, बल्कि प्रकृति की शक्तियों को मानता है सृष्टि सृजन या सृष्टिकर्ता में वे विश्वास नहीं करते उनके लिए यह प्रकृति ही सब कुछ है जो न कभी पैदा हुई न कभी समाप्त होगी। मध्यप्रदेश के मंडला और बालाघाट जिलों के शिक्षित गोंड आज भी गर्व से कहते हैं कि भगवान् शब्द उनका दिया हुआ है जिसमे भ – भूमि, ग – गगन, व – वायु अ –अग्नि और न – नीर है। गोंड शब्द को भी वे अपनी विशिष्ट शैली में भगवान् शब्द का ही अन्य रूप मानते हैं। यह अर्थ असल में इस लोक के समर्थन में है, इसमें कोई अतिभौतिक या पारलौकिक तत्व शामिल नहीं है और यह अर्थ सृष्टिकर्ता या परमात्मा की सत्ता की बजाय प्रकृति की शक्तियों को महत्व देता है। सृष्टिकर्ता या सर्जक इश्वर को नकारने वाला यही सूत्र श्रमणों अर्थात बौद्धों और जैनों में भी है। असल में गहराई से देखें तो किसी पारलौकिक या अतिभौतिक तत्व के आधार पर ही ब्राह्मणों या आर्यों ने परलोक आत्मा और परमात्मा को आकार दिया है, इसीलिये हम देखते हैं कि बहुत बाद में आगे चलकर प्रथम गोंडी दार्शनिक कुपार लिंगों की ही तरह बुद्ध ने पारलौकिक तत्व की संभावना को ही मिटा डाला।
अगर हम यह कहें कि बुद्ध पारी कुपार लिंगो की ही तरह भौतिकवादी दर्शन पर अपने दर्शन की नीव रख रहे हैं तो यह बात तर्कपूर्ण लगती है। जिस तरह से पारलौकिक और अतिभौतिक को पारी कुपार लिंगो ने अधिक महत्व नही दिया है उसी तरह बुद्ध भी इहलोकवादी दर्शन का प्रस्ताव कर रहे हैं, इसी कारण गौतम बुद्ध पंचमहाभूतों पर अपने विचार के परिणाम में इस निष्कर्ष तक आते हैं कि आकाश तत्व आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म जैसे पाखंडों का आधार बन जाता है इसीलिये वे पञ्च महाभूतों की बजाय चार महाभूतों की प्रस्तावना करते हैं। यह सही है कि हमारे पास लिंगो के दर्शन का विस्तारित रूप और उपलब्ध नहीं है लेकिन उनके द्वारा दिए गए मौलिक सूत्रों और मान्यताओं का बुद्ध की मान्यताओं से साम्य नजर आता है और यह भी प्रतीत होता है कि बुद्ध स्वयं भी कुपार लिंगो के दर्शन के तार्किक प्रवाह में हैं। इसीलिये बुद्ध ने बहुत विचारपूर्वक अपने चार महाभूतों में आकाश तत्व को शामिल ही नहीं किया है। दर्शन के विद्यार्थी जानते हैं कि आकाश तत्व के आधार पर ही आत्मा और परमात्मा सहित पुनर्जन्म और इन सबसे जुड़े कर्मकांड पैदा होते हैं। इसलिए श्रमण परम्परा के बौद्ध धर्म सहित आरंभिक लोकायत और चार्वाक भी आकाश तत्व को अपने विचार में सम्मिलित नही करते हैं। प्राचीन लोकायतिक विचार जिस प्रकार से इह-लोकवादी चिंतन पर खड़ा है उसी तरह गोंडी पूनम विचार भी प्रकृति की शक्तियों को सर्वाधिक महत्वा देते हुए पुनर्जन्म और आत्मा परमात्मा के नकार पर खड़ा है।
भगवान् शब्द पर एक अन्य दृष्टि से विचार करें तो प्राचीन आदिवासियों और गोंडों से हटकर बुद्ध या अन्य श्रमण भगवान शब्द का प्रयोग उस व्यक्ति के लिए करते जो ज्ञान को उपलब्ध हो चुका हो, यह भगवत्ता का अर्थ है भगवान् (सृष्टिकर्ता या गॉड) का अर्थ नहीं है। यह भगवत्ता इसी लोक की है। इस तरह एक बार फिर मूलनिवासी और श्रमण मान्यताएं यह सिद्ध करती हैं कि न केवल दार्शनिक मान्यताओं बल्कि मिथकीय मान्यताओं और अपने विशिष्ट “विश्वोत्पत्ति विज्ञान” के स्तर पर भी उनमे काफी समानताएं हैं। एक अन्य बहुत महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यही विश्वोत्पत्ति विज्ञान तन्त्र और मूल सांख्य में भी पाया जाता है (Chattopadhyaya, 1992)।[14] यह समानता एक कहीं अधिक गंभीर और दूरगामी दार्शनिक एकता को भी सिद्ध करती है। यह न केवल गोंडों असुरों और श्रमणों को एक श्रेणी में ले आती है बल्कि इसी के आधार पर सांख्य और तन्त्र के विश्वोत्पत्ति विज्ञान की आपसी समानता स्वयं सांख्य व तन्त्र को असुरों और श्रमणों के भौतिकवादी दर्शन से जोड़ देती है। पुरुष व प्रकृति के मिलन से विश्व की उत्पत्ति को तन्त्र में नर व मादा तत्व के मिलन के रूप में दिखाया गया है। पारी कुपार लिंगों के गोंडी पुनेम दर्शन में भी प्रकृति (एक अर्थ में संसार चक्र) सल्लां और गांगरा नाम के दो तत्वों के मिलने से बनता है। यहा सल्लां पूना (धन तत्व) है और गांगराऊना (ऋण तत्व) है, इन्ही के संयोग से प्रकृति की उत्पत्ति होती है (Kangali, 2011)[15] पुरुष प्रकृति के मिलन का यही संकेत नर्मदा नदी को दिए गये भिन्न नाम से भी जाहिर होता है। मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले में गोंडों की लोककथाओं के अनुसार नर्मदा नदी असल में “नर-मादा” नदी है। वे आज भी इसी तर्क और इसी प्रतीकवाद का इस्तेमाल करते हैं।
यह सुदूर अतीत में खोई किसी असुर या लोकायतिक परम्परा के चिन्ह हैं। यही परम्परा आगे चलकर श्रमण परम्परा के रूप में बुद्ध के साथ अपने शिखर पर पहुँचती है तो आत्मा और परमात्मा दोनों को नकारकर चार महाभूतों पर आधारित दर्शन का निर्माण करती है। यह उल्लेखनीय है कि बौद्ध दर्शन भी अंत में परमात्मा और आत्मा के निषेध का वेद विरोधी या अनात्मवादी दर्शन है। इसे निरीश्वरवादी और नास्तिक दर्शन माना गया है। इसी तरह सांख्य दर्शन भी आरंभ से ही इश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता और पुरुष व प्रकृति के सिद्धांत पर अपने पूरे दर्शनशास्त्र सहित विश्वोत्पत्ति विज्ञान का भी निर्माण करता है। आगे चलकर भगवत गीता में हम देखते हैं कि कृष्ण स्वयं योग को सांख्य के निकट लाते हैं और यह निरूपित करते हैं कि योग और सांख्य एक ही परिणाम (ज्ञान या मुक्ति) उत्पन्न करते हैं। इसीलिये स्वयं कृष्ण के जमाने से सांख्य और योग में एक युति निर्मित कर दी गयी थी जिसे “सांख्य योग” कहा गया है। यहाँ उल्लेखनीय यह भी है कि डॉ. आंबेडकर की खोज बतलाती है कि भगवत गीता असल में बौद्ध धर्म के खिलाफ प्रतिक्रान्ति को संगठित करने के उद्देश्य से लिखी गयी है। इस उदाहरण से भी यह देखा जा सकता है कि ब्राह्मणवादी परम्परा मूल सांख्य की मान्यताओं को अपने अनुकूल बनाने के प्रयास में कृष्ण और गीता को इस्तेमाल कर रही है। इसी क्रम में यह देखना भी बहुत रोचक है कि गोंडी पुनेम दर्शन में भी योगी और तपस्वियों का उल्लेख आता है जो बौद्धिक प्रकाश के बल से प्रकृति और मानव चेतना के रहस्य खोजते हैं।
गोंडी पुनेम दर्शन और गोंडों की अन्य मान्यताओं पर गहन शोध से निर्मित ग्रन्थ “पारी कुपार लिंगो गोंडी पूनेम दर्शन” ,को थोड़ा विस्तार में जानना जरुरी है। यह दर्शन गोंडी धर्म के प्रथम दार्शनिक और आदिगुरू पारी कुपार लिंगो द्वारा रचा गया है और जिसे डॉ. कंगाली ने पहली बार व्यवस्थित दर्शन के रूप में संकलित किया है। यह आर्य असुर या आर्य मूलनिवासी संघर्ष का एक अन्य और सबसे प्राचीन नेरेटिव प्रस्तुत करता है, ये नेरेटिव असुर आर्य संघर्ष से भी पुराना है। संभवतः यह पहले से ज्ञात अन्य नेरेटिव्स से अधिक विस्तृत है और अन्यों की अपेक्षा अधिक विश्वसनीय प्रमाणों पर आधारित है। यह नेरेटिव कोयवंशी गोंड जनजातीय समाज में फैले मिथकों और लोककथाओं सहित उनकी धार्मिक मान्यताओं में आज भी ज़िंदा हैं। उनकी वाचिक परम्परा में इसे आज भी देखा जा सकता है।
असुर, गोंड और मूलनिवासी धर्म :
जैसा कि हमने देखा कि लोकायत धर्म को मानने वाले असुर असल में इस देश के प्राचीन मूल निवासी थे। उनकी संस्कृति को छलपूर्वक आर्यों ने नष्ट किया और उन्हें समाज मनोवैज्ञानिक तरीकों से कालान्तर में हीन स्थान देकर समाज की निचली पायदानों पर धकेल दिया गया। यह बात डॉ. अंबेडकर की सबसे प्रमुख स्थापनाओं में से एक है। इसी तरह गोंडी संस्कृति और धर्म के विशेषज्ञ डॉ. मोतीरावण कंगाली (1949-2015) ने भी अपनी जमीनी शोध से यह स्थापित किया है कि मूलनिवासी संस्कृति की अधिकाँश ऊँची उपलब्धियां आर्यों या ब्राह्मण धर्म के द्वारा स्वयं में समाहित कर ली गयी हैं और अब उन्हें पहचानना ही कठिन हो गया है। उनकी खोज गोंडी धर्म और गोंडी लोक कहावतों और गीतों की वाचिक परम्परा पर आधारित है और इस वाचिक परम्परा में बिखरे हजारों सूत्रों को एकसाथ रखने पर वे भी स्वामी अछूतानंद, भदंत बोधानंद या अंबेडकर व ज्योतिबा फूले सहित देबीप्रसाद चट्टोपाध्याय की ही तरह समान निष्कर्षों पर आ रहे हैं। उनका निष्कर्ष ये है कि आज के गोंड सहित अन्य अनेक जनजातीय समाज जो कि घोटुल नाम की संस्था से आपस में जुड़े रहे हैं वे सब के सब किसी अन्य लुप्त हो चुकी महान संस्कृति के वारिस हैं जिनकी संस्कृति को छलपूर्वक नष्ट किया गया है और चुराया गया है। चुराए गए इन प्रतीकों और चरित्रों की लिस्ट लंबी है। उदाहरण के लिए हिन्दुओ की बम्लेश्वरी देवी के बारे में उनका दावा है कि असल में यह गोंडों की “बम्लाई दाई” हैं जिसे कि आर्य ब्राह्मण पंडितों ने बमलेश्वरी देवी बना दिया है, इसी तरह गोंडी समुदाय के आदिपुरुष “संभूशेक” बाद में हिन्दुओं के “महादेव” बन जाते हैं, इसी तरह गोंडी जनों का पवित्र भूभाग “पेंकमेढ़ी” बाद में “पचमढ़ी” बना दिया जाता है, और इसी तरह बीसियों नाम और प्रतीक व व्यवहार हैं जो थोड़े बदलाव के साथ सीधे सीधे ब्राह्मणी धर्म के अनुयायियों ने चुरा लिए हैं (Kangali, 2011)[16]।
गोंडी समुदाय के साथ अपने लंबे सहभागी अध्ययनों के आधार पर उन्होंने जो निष्पत्ति निकाली उस पर भी प्रश्न चिन्ह उठाये जा सकते हैं, लेकिन उनके पक्ष में दो ऐसे तथ्य हैं जो उनके दावे को बहुत मजबूत करते है। पहला यह कि वे स्वयं गोंड समाज से आते हैं और गोंडी भाषा, धर्म दर्शन व संस्कृति के संबंध में उनका ज्ञान एक इनसाइडर का ज्ञान है, जो पत्यक्ष अनुभव पर आधारित है। दूसरा तथ्य ये है कि वे प्राचीन हरप्पन सभ्यता की सैन्धव लिपि को गोंडी व्याकरण के आधार पर सफलता से पढ़ सकने वाले पहले विद्वान हैं। भाषाशास्त्रीय आधारों पर वे स्थापित करते हैं कि सैन्धव सभ्यता के सामाजिक धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्य आज के गोंडों के मूल्यों से गहराई से एकरूप रहे हैं (Kangali, 2002)[17]। भाषा की समानता के आधार पर भी उनकी शोध के आधार पर यह मान्यता स्थापित होती है कि गोंडों की आज की भाषा असल में द्रविड पूर्व भाषा थी इसीलिये गोंडी भाषा को द्रविड़ परिवार की सभी भाषाओं की जननी माना जा सकता है। उनके इस दावे में बहुत सच्चाई मालूम होती है। क्योंकि आज भी अधिकाँश द्रविड़ भाषाओं में और गोंडी भाषा में समानता पायी जाती है।
प्रोफ़ेसर दासगुप्ता (1925)[18] का अध्ययन भी यह बतलाता है कि असुर लोगों में शव को दफनाने की प्रथा रही है जिसके उल्लेख छान्दोग्य उपनिषद में भी मिलते हैं। आज भी यह प्रथा कई आदिवासी समुदायों में है। गोंड जनजाति में इसे आज भी माना जाता है। उपनिषदों के अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष भी निकलता है कि प्राचीन जनजातीय समाज या असुर समाज और उनका असुर मत असल में बुद्ध से भी प्राचीन रहा है। इस प्रकार असुर मत या लोकायत के अर्थ का भौतिकवाद हालाँकि एक विकसित भौतिकवाद नहीं था लेकिन यह जिस भी रूप में रहा था यह बुद्ध से पूर्व का प्रतीत होता है (Chattopadhyay, 1992)[19]। इस बिंदु पर आकर यह समझा जा सकता है कि अक्सर ही गोंडों के प्राचीन मंदिरों और किलों में गोंडी राजचिन्हों के साथ साथ श्रमण व तांत्रिक परम्परा की मूर्तियाँ क्यों पायी जाती हैं। यहाँ उल्लेख करना जरुरी है कि मध्यप्रदेश के बालाघाट में लांजी नामक स्थान पर नेताम वंश के गोंड शासकों के प्राचीन दुर्ग की खुदाई में जो मूर्तियाँ प्राप्त हुयी हैं उनमे बुद्ध महावीर गणपति और संभोगरत युगल की मूर्ती भी पायी गयी है। गणपति के बारे में स्वयं चट्टोपाध्याय का अध्ययन बतलाता है कि यह किसी अन्य प्राचीन मूलनिवासी समुदाय का टोटम या नायक या देवता था जिसे ब्राह्मण धर्म में बाद में शामिल कर लिया गया। इसलिए यहाँ गणपति का होना असल में लोकायतिक या असुर परम्परा के ही किसी नायक का संकेत देता है।
यहाँ हम अन्य मूर्तियों और पुरातात्विक महत्त्व की वस्तुओं के बीच साम्य को कुछ अन्य विस्तार में देखने का प्रयास करेंगे। ये प्रमाण नये नहीं हैं लेकिन इस प्रकार के विमर्शों में संभवतः पहली बार एक दार्शनिक व ऐतिहासिक संगति में रखकर देखे जा रहे हैं। लेखक ने अपने बालाघाट भ्रमण से जो तस्वीरें इकट्ठी की हैं वे कोणार्क की अन्य मूर्तियों से काफी हद तक समानता रखती हैं। इन्हें इस प्रकार क्रम से देखा जा सकता है:
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन असुर फिर बाद के श्रमण जिनमे बुद्ध प्रमुख हैं और इनके बाद के कबीर जैसे संतों के खिलाफ एक जैसी युक्तियाँ अपनाई गयी हैं। आगे गोंडी पूनेम दर्शन पर विस्तार से चर्चा करते हुए हम देखेंगे कि इसी तरह संभूशेक (गोंडों के आदि पुरुष का नाम) के खिलाफ भी इसी तरह के षड्यंत्र रचे गए हैं। इन सबके मौलिक महात्म्य को तर्क या दर्शन द्वारा नहीं बल्कि कूटनीतिक षड्यंत्र करके और समाज मनोवैज्ञानिक छल कपट के द्वारा नष्ट किया गया है। इसी के साथ अगर हम गोंडी पुनेम दर्शन सहित डॉ. कंगाली की अन्य स्थापनाओं पर गौर करें तो हम पाते हैं कि ब्राह्मणी धर्म के महादेव व पार्वती सहित सती और काली भी असल में गोंडों के मिथकीय चरित्र हैं जिन्हें बाद में उनके दर्शन और उन दर्शनों से जुड़े प्रतीक व कर्मकांडों सहित आर्य ब्राह्मणों ने चुरा लिया है। इसीलिये यह मानना चाहिए कि प्राचीन असुर, आज के गोंड, बौद्ध, रविदासी और कबीरपंथी एक ही श्रेणी में हैं और उनके सनातन शत्रु देव या सुर या आर्य या ब्राह्मण एक ही हैं।
इस प्रकार असुर और श्रमण परम्परा में एक समानता उभरती है और यह स्पष्ट होता है कि लोकायतिक या प्राचीन असुर मत बुद्ध से भी पूर्व का मत है जिसे आगे चलकर श्रमण परम्परा विशेषकर बौद्ध दार्शनिक शिखर पर पहुंचाते हैं। इसीलिये बौद्धों का दर्शन अपनी मूल परम्परा से साम्य रखते हुए बाद में भी परलोक का और परमात्मा का निषेध करता है और चार महाभूतों पर आधारित दर्शन, धर्म और नैतिकता की बात करता है। इसीलिये उसमे आकाश तत्व को मानकर हिन्दुओं या ब्राह्मण धर्म की तरह का परलोकवाद विकसित नहीं होता। इसी क्रम में असुर और श्रमणों के खिलाफ ब्राह्मण धर्म द्वारा इस्तेमाल की गयी एक जैसी युक्तियों को जानना भी बहुत जरुरी है। असुर जो कि प्राचीन लोकायतिक हैं, उनके संबंध में जो मिथक हैं वे कुछ महत्वपूर्ण इशारे करते हैं। प्राचीन भारतीय धार्मिक साहित्य में बृहस्पति सुरों या देवों के गुरु माने गए हैं। इनके बारे में उल्लेख है कि इन्होने असुरों के बीच लोकायत दर्शन का प्रचार करके उन्हें भ्रष्ट किया और वे अधर्म और अनैतिकता का पालन करने से असुर हुए नष्ट हुए। ऐसे ही यही उल्लेख बाद में बुद्ध के बारे में है। बुद्ध को भी इसी तरह से वेद विरोधी और नास्तिकवादी भौतिकवादी दर्शन का प्रचार करके लोगों को गुमराह करने वाले विष्णु अवतार के रूप में चित्रित किया गया है (Omvedt, 2003)[20]। ठीक इसी तरह की किंवदंतिया कबीर के बारे में भी हैं जिनका उल्लेख डाक्टर धर्मवीर (2013)[21] ने भी अपनी महत्वपूर्ण किताब “कबीर: खसम ख़ुशी क्यों होई” में किया है। उनकी यह किताब कबीर को ब्राह्मणवादी पाखण्ड के चंगुल से निकालने में सर्वाधिक सहयोगी हुई है। इस किंवदंती के बारे में वे अपनी किताब में बताते हैं, यह किंवदंती बनारस के आसपास के इलाकों में सुनी जाती है। इसके अनुसार कबीर एक बार अपना भौतिक शरीर छोड़कर सूक्ष्म शरीर से तीर्थ दर्शन करने गए, इस बीच कोई भूत आकर उनके शरीर में घुस गया और उनके द्वारा वेद विरुद्ध और ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध साहित्य रचकर चला गया। बाद में जब कबीर लौटे तो उन्हें देखकर भाग गया। इसलिए ब्राह्मणवादी तर्क कहता है कि कबीर की शिक्षाओं को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए।
गोंडी पुनेम दर्शन में महादेव, पार्वती और महिषासुर के संकेत :
आज प्रचलित ब्राह्मणी धर्म में सर्वाधिक महत्वपूर्ण माने जाने वाले महादेव या शिव जिनका एक नाम शंभू भी है और उनकी संगिनी पार्वती सहित गौरी और सती से मिलते जुलते उल्लेख गोंडी संस्कृति की प्राचीन कथाओं में पाए जाते हैं। कोई यह तर्क दे सकता है कि ये प्रतीक और चरित्र गोंडों ने हिन्दू या ब्राह्मणी धर्म से लिये हैं। लेकिन इस आरोप का परीक्षण करें तो यह आरोप अपनी मौत खुद ही मर जाता है। ज्ञात इतिहास में कोयवंशी गोंड या आदिवासी समुदाय एक वनवासी समुदाय रहा है उनका स्थान आर्यों की वर्ण व्यवस्था में कहीं भी नहीं है, वे वर्णाश्रम धर्म की किसी भी व्यवस्था में किसी भी सामाजिक राजनीतिक स्थिति या भूमिका में नहीं रहे हैं। उन्हें किसी भी तरह न तो ब्राह्मणी धर्म की पवित्र भाषा संस्कृत सिखाई जा सकती थी ना ही वे ब्राह्मणी मंदिरों में प्रवेश करके दीक्षित हो सकते थे। बल्कि इसके विपरीत उनसे आर्यों के युद्ध और संघर्ष के अनेक उल्लेख मिलते हैं। इसीलिये उनके सम्बन्ध में यदि यह माना जाए कि वे आर्यों के साथ सामाजिक या धार्मिक प्रक्रियाओं के माध्यम से शिक्षित हुए और फिर उन्होंने ब्राह्मणी प्रतीकों के आधार पर दक्षिण में सुदूर मदुरै, कोणार्क से लेकर मध्य के अजन्ता-एलोरा, गढ़-चिचोली, अमरकंटक सहित सुदूर पश्चिम के कांधार और हड़प्पा मोहन जोदारो तक अपने प्रतीक व भाषा सहित मिथक भी रच लिए तो यह कल्पना, सुझाव या आरोप हास्यास्पद ही सिद्ध होगा।
इसके विपरीत असुरों और बौद्धों सहित कबीर के खिलाफ रची गयी साजिशों के क्रम में ही रखकर गोंडी धर्म और संभूशेक के खिलाफ रची गयी साजिश के रूप में आर्यों के धर्म के प्राथमिक स्वरुप के उभार को भी रखकर देखा जाए तो इस तरह से देखना अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है। इस तरह देखना ही अधिक उपयोगी है। इससे भारतीय ब्राह्मणी धर्म दर्शन और मिथकीय साहित्य में उभरने वाली बहुत सारी पहेलियों और विरोधाभासों के उत्तर अपने आप मिल जाते हैं। यह तर्क दिया जा सकता है कि गोंडों की संस्कृति के खिलाफ आर्य प्रतिसंस्कृति का यह उभार असल में आर्यों का पहला सफल प्रयोग था। यह लेख यह दावा करना चाहता है कि असुरों से भी पहले आर्यों का सामना कोयवंशी गोंडों और संभुशेक द्वारा निर्मित संस्कृति से हुआ था। कालान्तर में आर्यों ने इस संस्कृति को सिलेक्टिव ढंग से आत्मसात करके उसी के आधार पर अपने विशवास और कर्मकांड रचे। यह घटना समय के सुदीर्घ विस्तार में हुई होगी और इसके बाद यहाँ स्थापित हो जाने के बाद उन्होंने देव और असुर जैसे दो स्पष्ट श्रेणियों का निर्माण करके उसके आधार पर मिथक और मिथकीय इतिहास रचा। इस तरह के दावे करने का एक बहुत बड़ा कारण है वह ये है कि गोंडों की वाचिक परम्परा में संभुशेक का उल्लेख है जो बाद में हिन्दुओं के महादेव बन जाते हैं इसी तरह वैदिक और पौराणिक साहित्य में भी प्रमाण हैं कि शिव या महादेव कोई अचानक से प्रगट हो गए देवता नहीं हैं कहीं कहीं तो गणेश और शिव एक ही सामान प्रतीत होते हैं। इस प्रकार हिन्दू परम्परा में महादेव और गणेश दोनों की उत्पत्ति और अस्तित्व बहुत जटिल है। आर्य गोंड संग्राम को देवासुर संग्राम से प्राचीन मानने का दूसरा कारण है कि आर्यों का देव असुर संग्राम असल में ब्राह्मण आर्यों द्वारा गोंडी संस्कृति और गोंडी देवताओं को विशेषकर संभुशेक आत्मसात कर महादेव बना देने के बहुत बाद में आकार ले रहा है। इसीलिये देव असुर संग्राम के ब्राह्मणवादी संस्करण में अक्सर ही महादेव या शंभू का जिक्र आता है जो देवताओं को बचाने के लिए स्वयं युद्ध में उतारते हैं या ब्रह्मा या विष्णु या अन्य किसी देवी देवता के जरिये आर्यों या देवों की मदद करते हैं।
डॉ. कंगाली ने गोंडी वाचिक परम्परा से जो विवरण दिए हैं उन्हें तर्कपूर्ण ढंग से विश्लेष्ण करने पर एक अन्य पहेली सुलझती है। वो है हिन्दुओं के महादेव का वीभत्स रूप इसे समझना कठिन है कि कोई समाज अपने देवता को वीभत्स और घृणित क्यों मानेगा और क्यों उसे भयानक चित्रित करेगा? गौर से देखें तो ये महादेव या शंभू अपने बाह्य आचरण व धार्मिक दार्शनिक मान्यताओं में भी आर्यों और इंद्र सहित बाद में उभरने वाले विष्णु जैसे उनके अन्य देवताओं के समान नहीं है, लेकिन फिर भी उन्हें बहुत शक्तिशाली और बहुत घृणित दोनों ही एकसाथ माना गया है। बाद में ऐसी ही मान्यता महिषासुर के साथ भी उभरती है जिसमे वे महाप्रतापी लेकिन घृणित राक्षस की तरह चित्रित किये गए हैं। आर्यों के सबसे महत्वपूर्ण देव इंद्र या विष्णु जो सुसज्जित सुसंस्कृत सफाई से और श्रृंगार आदि में रहने वाले देव हैं, जबकि महादेव जटाजूटधारी हैं श्मशान वासी हैं और भूत प्रेतों सहित अन्य घृणित जीवों के देवता है। कालान्तर में न केवल वे देव बन जाते हैं बल्कि इंद्र से भी अधिक पराक्रमी बनकर ब्राह्मणी त्रिमूर्ति के अविभाज्य अंग बन जाते हैं। यह बिलुकल वही पहेली है जो बाद में गणपति और महिषासुर के साथ बनी हुई है।
महादेव और महिषासुर की मान्यताओं और स्वीकार्यताओं के भेद से एक अन्य बात सिद्ध होती है जो स्वयं में एक अन्य सच्चाई की तरफ संकेत करती है। संभूशेक को महादेव बना डालने के बावजूद उनका व्यक्तित्व और प्रभाव इतना विराट है कि वे लोकमानस से बाहर नहीं निकल सके। इसीलिये उन्हें उनकी महिमा के साथ चुराने और उनके संबंध में नशाखोर, उन्मुक्त कामी और भयानक होने के आरोपणों के बावजूद वे लोकमानस में पूज्य बने रहे हैं। संभवतः इसीलिये वे ब्राह्मणी धर्म द्वारा कल्पित की गयी त्रिमूर्ति के भी अनिवार्य अंग भी बन जाते हैं। इसी तरह गणेश या गणपति भी चुराए गए हैं और उनके संबंध में अत्यंत प्राचीन विवरणों और क्रमशः कम प्राचीन विवरणों में विरोधी स्वर पाए जाते हैं। संभूशेक और गणेश दोनों चुरा लिए जाने के बावजूद लोकमानस में पूजनीय देवताओं की तरह ज़िंदा रहे लेकिन महिषासुर काफी हद तक भुला ही दिए गए, यह एक अन्य पहेली है जिसका उत्तर थोड़े तर्कपूर्ण विश्लेषण से खोजा जा सकता है।
यहाँ यह देखना जरूरी है कि संभूशेक और गणपति कोई एक व्यक्ति नहीं हैं। गोंडी पूनेम दर्शन में अट्ठासी संभुशेकों का उल्लेख है। इसी तरह ऋग्वेदिक व पौराणिक उल्लेखों में बहुत सारे गणेश या गणपति पाए जाते हैं। ये दोनों चरित्र असल में व्यक्ति नहीं बल्कि पदवियां हैं। इसलिए समय की धारा में इनका और इनकी महिमा का एक सातत्य रहा है जो लोकमानस में ऐतिहासिक रूप से स्थापित हो गया और इसी कारण ब्राह्मणी परम्परा अपनी सारी चालबाजियों के साथ भी उन्हें उखाड़ नहीं सकी। इसके विपरीत महिषासुर चूँकि एक व्यक्ति या एक चरित्र हैं वे इतिहास या संस्कृति के विस्तार में फैले हुए पद का नाम नहीं हैं, इसीलिये संभवतः वे उनके सारे पराक्रम और सफलताओं के बावजूद भुला दिए गए। इसी से एक अन्य गहरा संकेत मिलता है वो ये कि संभूशेक और गणपति का महादेव और विघ्नहर्ता के रूप में बचे रहना असल में व्यक्तियों का नहीं बल्कि संस्थाओं का बचे रहना है। महिषासुर चूँकि व्यक्ति हैं इसलिए वे लगभग पूरी तरह मिटा दिये गये। लेकिन इसी क्रम में अगर हम असुर “परम्परा” या समाज को देखें तो वह बची रही। आज भी बहुत कम संख्या में ही सही लेकिन असुर परिवार मौजूद हैं।
एक अन्य कारण भी हो सकता है जो समझाता है कि क्यों महिषासुर महादेव की तरह नायक की तरह आत्मसात नहीं किये गए बल्कि एक राक्षस और खलनायक की तरह दिखाए गए हैं। इसका कारण यह भी है कि संभुशेक को मोहित करने के लिए जिन पार्वती को भेजा गया था वे स्वयं ही सम्मोहित होकर उनकी पत्नी व शिष्या बन गयीं थीं। इस तरह आर्यों की चाल उल्टी पड़ गयी और बाद में जिस तरह से आर्यों द्वारा पार्वती की छलपूर्वक ह्त्या की गयी उसके कारण संभुशेक और पार्वती दोनों ही तात्कालिक लोकमानस में सहानुभूति और श्रद्धा के पात्र बन गए होंगे। लेकिन महिषासुर के खिलाफ जिन दुर्गा देवी को भेजा गया था वे अपने कार्य में सफल हुईं और उन्होंने महिषासुर की सफलता से ह्त्या कर दी। अगर हम संभुशेक और महिषासुर को अलग अलग मानें तो दोनों के साथ घट रही इन घटनाओं में समानता भी है और एक अंतर भी है। यही अंतर इनकी एतिहासिक मान्यताओं को आकार दे रहा है।
लेकिन एक अन्य कारण भी हो सकता है जिसे कि नकारना कठिन होगा वह ये कि संभुशेक और पार्वती का मिथक महिषासुर की तुलना में बहुत प्राचीन लगता है। अतः गोंडों के संभुशेक और पार्वती आर्यों के शंभू-पार्वती बना लिए गए होंगे और इस प्रकार कोयवंशी गोंडों को परास्त करने के बाद उनका सामना आगे चलकर असुरों से हुआ होगा। बाद में असुरों के खिलाफ भी इसी तरह की रणनीति अपनाई गयी होगी जो सफल रही। यहाँ अगर हम दो जनजातियों के अलग अलग नेरेटिव्स की भिन्नता पर गौर करें तो यह भिन्नता भी अपने आप में बहुत कुछ व्यक्त करती है। अर्थात कोयवंशी गोंडों का नेरेटिव अलग ढंग से इस घटना को रिकार्ड कर रहा है और असुरों का नेरेटिव अलग ढंग से। इस तरह इन दो जनजातियों की आपसी भिन्नता और शक्ति संरचना के सापेक्ष इनके मिथकों ने आकार लिया होगा और पीढी दर पीढी स्वयं को बचाया होगा। मिथक के इस संरक्षण और संचरण के तरीकों की भिन्नता भी महिषासुर और शिव की मिथकीय पहचान का एक कारण हो सकती है। खैर जो भी हो इन दोनों को अलग मानने पर भी इनकी महिमा के अंतर को समझा जा सकता है और इन दोनों को एक ही माना जाए तो भी इन्ही तर्कों से उनकी महिमा के अंतर को समझाया जा सकता है। हो सकता है जो नेरेटिव असुरों से आ रहा है वह बाद में कमजोर और असंगठित हो चुके खेतिहर या वनवासी समाज का नेरेटिव हो जो गोंडों के शक्ति संस्थान के बिखर जाने के बाद उपजा हो। यह संभावना हो सकती है। अगर इस संभावना पर विशवास करें तो यह समझाती है कि चूँकि गोंड उन्नत दार्शनिक समझ वाले समुदाय थे उन्होंने दार्शनिक व धार्मिक बिन्दुओं के आधार पर अपने नायक की जय पराजय और उसके जीवन को संजो कर रखा। इसके विपरीत असुर संभवतः गोंडी पराजय के बाद उपजा कोई समुदाय है जो सिर्फ युद्ध की जय पराजय के अर्थ में अपने नायक को याद रख सका है। इस तर्क के साथ भी महिषासुर और संभुशेक या महादेव को एक ही माना जा सकता है, और दो अलग अलग व्यक्ति भी माना जा सकता है। अगर ये एक थे तो भी अलग अलग जनजातियों की अपनी विशिष्ट प्रवृत्तियों ने इन्हें भिन्न रूप से याद किया है। अगर ये अलग थे तब तो अलग अलग कहानियां स्वय भी इन्हें अलग कर ही रही हैं। लेकिन इस अलगाव की दशा में भी इनके साथ जुडी घटना की प्रकृति बिलकुल एक ही ठहरती है। वह है – शूरवीर मूलनिवासियों के खिलाफ आर्यों द्वारा स्त्रीयों का इस्तेमाल करना।
इसी दिशा में आगे बढ़ें और महिषासुर को व्यक्ति या संस्था मानने के प्रश्न पर विचार करें तो हमारी यह मान्यता भी खंडित हो सकती है कि महिषासुर एक व्यक्ति हैं। प्रमोद रंजन (2014) का जमीनी अध्ययन बतलाता है कि महिषासुर अपने मूलनाम (असल में ब्राह्मणों द्वारा दिए गए नाम) से नहीं बल्कि अन्य नामों जैसे मैकासुर, भैंसासुर, म्हसोबा, मनुज देवा, जैसे अनेक स्थानीय नामों से जाने जाते हैं। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि महिषासुर का मूल नाम कुछ भी रहा हो लेकिन आर्यों ने उन्हें यह नाम देकर उनकी प्रतिनिधि परम्परा को नष्ट करने के बाद उनकी पहचान मिटा दी और उनके अपने सम्प्रदाय के लोकमानस से उनके प्रमाण समय की प्रक्रिया में नष्ट हो गए। इस तरह देखें तो महिषासुर भी एक संस्था की तरह उभरते हैं जो महिषासुर नाम से नहीं बल्कि अन्य अनेक नामों से पूरे भारत में विद्यमान हैं।
इस बिंदु पर आकर एक उलझन खड़ी होती है। अब जो समस्या गणपति या शिव के साथ है वही समस्या महिषासुर के साथ नजर आने लगती है। इन तीनों में एक गहरी समानता है और एक छोटा सा अंतर भी है। समानता ये है कि इन तीनों को आरंभिक आर्य धर्म साहित्य में महाशक्तिशाली वीभत्स और हेय बताया गया है बाद में इन्हें पूज्य बना दिया गया है। इसी तरह संभुशेक जो स्वयं डॉ. कंगाली के अध्ययन में हड़प्पा की सील में अंकित भैंस के सींगों का मुकुट या महिषासुर मुकुट पहनने वाले आदि नायक हैं वे बहुत कुछ महिषासुर जैसे प्रतीत होते हैं। डॉ. कंगाली स्वयं ही सिद्ध करते हैं कि संभुशेक ही महादेव या शिव हैं। इस समानता को आगे बढाते हुए यह लेख यह दावा करना चाहता है कि अंतिम संभुशेक और महादेव और महिषासुर भी एक ही हैं। इसीलिये न केवल इन तीनों का चित्रण आर्य साहित्य में एक जैसा है बल्कि इनकी महिमा को नष्ट करने का और इनकी ह्त्या करने का षड्यंत्र भी एक जैसा रचा गया है। इस तरह दोहरी समानताएं हैं जो इस दावे का समर्थन करती हैं कि ये तीनों चरित्र एक ही हैं। यह समानता यह भी बतलाती है कि वर्तमान ब्राह्मणी या हिन्दू धर्म जिस शंकर या शिव को पूज रहा है वह असल में संभुशेक का ही विकृत रूप है।
इसी तरह लोकायत नामक ग्रन्थ में जो विवेचन देबीप्रसाद चट्टोपाध्याय करते हैं वह दिखलाता है कि गणपति पहले विघ्नकर्ता थे बाद में उन्हें आर्यों ने अपने देवताओं में शामिल कर लिया और विघ्नहर्ता बना दिया। ऋग्वेदिक सूत्रों में ऐसी प्रार्थनाए पायी जाती हैं जिनमे कहा गया है कि हमें गणपतियों से बचाओ। (Chattopadhyay 1992)[22]। बाद में गणपति को प्रथम वन्दनीय बनाकर शंभू या शिव या असल में महादेव और पार्वती के परिवार में दिखाया जाता है। इसका अर्थ ये हुआ कि डॉ. कंगाली जिस संभूशेक के महादेव बन जाने का उल्लेख कर रहे हैं वह असल में आर्यों द्वारा गणपति को षड्यंत्रपूर्वक आत्मसात कर लेने के बहुत पहले की घटना है। गणपति को शिव या महादेव के परिवार में शामिल करने का अर्थ ही ये है कि शिव या महादेव पहले ही ब्राह्मणी धर्म में शामिल हो चुके हैं। बाद में गणपति को जिस तरह से शामिल किया जा रहा है वह देखना भी महत्वपूर्ण है। वे सम्मानजनक ढंग से शिव या पार्वती के परिवार में शामिल नहीं हो रहे हैं। उन्हें भी घृणित तरीके से शामिल किया जा रहा है। गणेश के जन्म के बारे में जो पौराणिक उल्लेख हैं वे भी बहुत सूचक है। वे प्राकृतिक रूप से पैदा नहीं हो रहे हैं बल्कि वे भी एक घृणित और निन्दित तरीके से अस्तित्व में आ रहे हैं। इसे समझाने के लिए स्कन्द पुराण में जो उल्लेख है वो गणपति या गणेश को पार्वती के मैल से निर्मित बताता है। कुछ अन्य पुराण उन्हें पार्वती की विष्ठा या मल से निर्मित बताता है। यह फिर से वही बात है जो महादेव यानी संभुशेक को निन्दित व घृणित बनाने के लिए की गयी थी। संभुशेक के महादेव बन जाने की बात आगे हम विस्तार से करेंगे। यहाँ अभी के लिए यह महत्वपूर्ण है कि गणपति और गणेश भाषा के व्याकरण के अनुसार एक ही ठहरते हैं। पति और ईश दोनों का अर्थ मालिक या स्वामी ठहरता है। इस तरह कुछ मूल शब्दों और उनसे जुड़े चरित्रों सहित मिथकीय विस्तार में देखने से यह भी स्पष्ट होता है कि गण, शंभू, पार्वती, महादेव, त्रिशूल, त्रिमूर्ति, नर्मदा, पंचमढ़ी इत्यादि अनेकों अनेक शब्द और उनसे जुडी दार्शनिक या धार्मिक मान्यताएं असल में गोंडी धर्म भाषा और संस्कृति से सीधे सीधे चुराए गए हैं।
गणपति या गणेश के इस विकृतीकरण और आत्मसातीकरण को एक अन्य सन्दर्भ में देखना महत्वपूर्ण है। डॉ. चट्टोपाध्याय ने उल्लेख किया है कि आर्यों को अनेकों गणपतियों ने पूर्व में भारी टक्कर दी थी जिनका टोटेम हाथी था। इस इस लेख के मुख्य विषय के सन्दर्भ में देखें तो ऐसा प्रतीत होता है कि बाद में इस टोटेम को मानने वाली विशाल जनसंख्या को ब्राहमनी धर्म ने बहुत चालाकी से अपने पक्ष में मोड़ लिया। इस टोटेम के आत्मसातीकरण और बहुत बाद में देवीकरण के द्वारा उन्होंने उस जनसंख्या को समाज मनोवैज्ञानिक ढंग से अपने पक्ष में लेकर उनके अंदर के इतिहासबोध सहित क्रान्ति बोध को धीरे धीरे नष्ट कर दिया। एक चरणबद्ध प्रक्रिया की कल्पना करें तो यह भी प्रतीत होता है कि सर्वप्रथम महिष या भैंस के मुकुट वाले संभुशेक को शिव या महादेव बनाया गया है और उनके बाद में अनेकों गणपतियों के प्रतिनिधि हाथी के मस्तक वाले गणेश को बाद में आत्मसात किया गया है। इस तरह समय के सुदीर्घ विस्तार में देव असुर संग्राम के बहुत पहले ही कोयवंशी गोंडों का आर्यों से संग्राम हो चुका है और उनके देवताओं को ब्राह्मणी धर्म द्वारा चुराया जा चुका है।
अब हम यह जानेगे कि संभुशेक किस तरह और किन समानताओं के आधार पर ब्राह्मणों के महादेव बना लिए गए और इस ऐतिहासिक अपहरण या आत्मसातीकरण (एसिमिलेषन) को कैसे पकड़ा जा सकता है। इसका सूत्र हमें डॉ. कंगाली से मिलता है जब वे अपने गोंडी पुनेम दर्शन में गोंडों की मिथकीय मान्यताओं के बारे में लिखते हैं। ये मिथक आज भी गोंडी गीतों में ज़िंदा हैं। उनके अनुसार “संभू शेक” गोंडी पूनेम दर्शन में सबसे अधिक महिमाशाली शब्द है असल में यह एक पदवी है। यह एक मिथकीय पदवी है जिसका अर्थ है “पञ्चखंड धरती का राजा” (Kangali 2011)[23] । यही संभू शेक शब्द “संभू मा-दाव” के रूप में भी जाना जाता है। “संभू मा-दाव” का अर्थ है “संभू हमारा पिता”। डॉ. कंगाली के अनुसार यही संभू मा-दाव बाद में ब्राह्मणों का “शंभू महादेव” बन जाता है। ऐसे अट्ठासी संभू शेक हुए हैं जिनके अलग अलग नाम हैं। ये सभी अपनी पत्नियों के साथ बतलाये गए हैं और इनके कुछ नाम इस प्रकार हैं: संभू-मूला,संभू-गोंदा,संभू-मूरा,संभू-सैया,संभु-गवरा इत्यादि। यहाँ अंतिम तीन नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। जो इस प्रकार हैं – संभू-सती, संभू-गीरजा और संभू-पार्बती। ये शब्द ब्राह्मणी धर्म के शंभू-सती और शंभू-पार्वती से मिलते जुलते हैं। इसी तरह एक अन्य शब्द है कलि कंकाली। ये कलि कंकाली एक अर्थ में गोंडी जनों की आदि माता (दाई) मानी गयी हैं। उनकी मान्यता है कि कोय वंशीय गोंड सगा समुदाय (गोंड जन या मूल गोंडी में ‘गंडजन’) असल में कली कंकाली नामक माता या दाई की कोय (कोख) से उत्पन्न हुए हैं इसीलिये वे कोयवंशी गोंड कहलाते हैं। इन कली कंकाली के माता पिता का यादमाल पुरी कोट आज भी चांदागढ़ के रूप में देखा जा सकता है। अमूरकोट (अमरकंटक) से समदूर के पानी में बहकर फरावेन सईलान्गरा के बच्चे, जो आदि रावेण पेरियोल और सुकमा पेरी कहलाते हैं, इन्होंने जिस सिंगार दीप पर आगे चलकर अपना वेल विस्तार किया वह सिंगार दीप का भाग आज भी सिदी सिंगरोली के नाम से जाना जाता है। इसी नाम से आधुनिक मध्य प्रदेश में दो जिलों के नाम जुड़ते हैं जिन्हें सीधी और सिंगरौली कहा जाता है। पारी कुपार लिंगो असल में संभू-गवरा के कार्यकाल में पैदा हुए थे और उन्होंने जिस गढ़ से अपना पुनेम दर्शन का प्रचार आरम्भ किया था वह लिंगो गढ़ आज भी अमरकूट या अमरकंटक के पास देखा जा सकता है। इन्ही पारी कुपार लिंगो ने संभू-गवरा के “गोएन्दडी” या डमरू की आवाज से “गोयेदाडी” वाणी की रचना की और उसी से गोंडी पूनेम दर्शन का प्रचार किया और “मुंदमुन्शूल सर्री” अर्थात “त्रैगुण्य मार्ग या त्रिशूल मार्ग” की स्थापना की (Kangali, 2011)[24]। भाषा की समानता के आधार पर इन्ही संभू-गवरा को “शंभू गौरा” का आदि रूप माना जा सकता है, और शिव या महादेव के डमरू को संभु-गवरा का “गोएन्दडी” माना जा सकता है।
संभूशेक श्रृंखला में संभू-पार्बती अंतिम जोड़ी थी और इन्ही के दौर में एशिया माइनर के विदेशी आर्यों ने हमला करना शुरू किया था। अब आगे जो विवरण डॉ. कंगाली देते हैं वो अंतिम संभूशेक को महिषासुर, बुद्ध, और कबीर की श्रेणी में लाकर खडा कर देता है। उनके अनुसार अंतिम संभूशेक ने आर्य आक्रमणों का करारा उत्तर दिया और आर्य उन्हें सीधी टक्कर में सैनिक उपायों से परास्त करने में बार-बार असफल हुए। अंत में उन्होंने कूटनीति का इस्तेमाल किया।
संभूशेक को कूटनीति से अपने वश में करने हेतु आर्यों ने दक्ष कन्या पार्वती को इस्तेमाल किया। उसे अनेक प्रकार के नशीले द्रव्यों का आदि बनाया गया। भोले संभू आर्यों की कूटनीति को समझ नहीं पाए। संभू शेक पार्वती के मोहजाल में फंसकर सुप्त अवस्था में पहुँच गए
– (Kangali 2011:14)[25].
आगे चलकर इसी कारण संभू और कुपार लिंगो की व्यवस्था नष्ट हो गयी और आर्य विजयी हुए। फिर ब्राह्मणी प्रचार तन्त्र ने अपना अगला दांव चलते हुए जिस तरह के पौराणिक व धार्मिक आख्यान रचे उनमे संभुशेक को नशेडी, कामुक, घृणित, भयावह और श्मशान वासी तक बताया गया है। यह उन्हें जनमानस में राक्षस या खलनायक सिद्ध करने का प्रयास माना जा सकता है। अंतिम संभूशेक को परास्त करने के लिए जिस कन्या पार्वती को भेजा गया उसका नाम संभू-पार्वती के मूल गोंडी नाम से मिलता जुलता है। इस समानता को देखकर कोई यह कह सकता है कि संभू-पार्वती शब्द युग्म का पार्वती शब्द असल में दक्ष कन्या का नाम है। डॉ. कंगाली अन्य स्थान पर यह स्पष्ट करते हैं कि यह पार्वती जो कि संभुशेक को मोहित करके परास्त करने के लिए भेजी गयीं थीं वे स्वयं संभुशेक से मोहित होकर उनकी शिष्य और पत्नी बन जाती हैं। इसीलिये हिन्दुओं के चित्रण में भी शिव जटाजूटधारी और काले हैं और पार्वती गौर वर्ण एवं सुन्दर देवी हैं। इसी लेख में आगे इस विषय को कुछ और विस्तार में दिखाया गया है।
बंगाल, झारखंड और अन्य स्थानों पर असुर जनजातीय समाजों में जो वाचिक परम्परा है उसके अनुसार ठीक यही षड्यंत्र महिषासुर के साथ खेला गया है। अंतर इतना है कि महिषासुर के साथ पार्वती की भूमिका में दुर्गा को रखा गया है। इस प्रकार इतिहास के अलग अलग मोड़ों पर संभूशेक और महिषासुर के खिलाफ एक ही षड्यंत्र रचा जा रहा है और उनके खिलाफ जिन कन्याओं को भेजा गया है उन्हें भी मिथकीय भाषा में किसी एक ही सत्ता के अलग-अलग समयों में पैदा हुए अवतार की तरह चित्रित किया गया है। इस बिंदु पर आकर एक अन्य बात का संकेत प्राप्त होता है। संभवतः प्राचीन संभूशेक (महादेव) और महिषासुर भी एक ही हो सकते हैं, इस तरह सोचने के लिए एक अन्य प्रमाण मौजूद है जो बहुत ही महत्वपूर्ण है। हड़प्पा की खुदाई में एक मुद्रा प्राप्त हुई है जिसमे एक देवता दिखाया गया है। यह देवता भैसों के सींग का मुकुट पहने बैठा है। यह एक गहरा संकेत है जो यह बतलाता है कि हड़प्पा की संस्कृति में भैसों के सींग वाला या भैसों के मुकुट वाला कोई दिव्य पुरुष राजा या शूरवीर उस संस्कृति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण या केन्द्रीय चरित्र के रूप में माना जाता होगा। इस पुरुष या देवता या शूरवीर का चित्रण महिषासुर से बहुत समानता दिखलाता है।
इसी के साथ एक अन्य बहुत महत्वपूर्ण सूत्र यह है कि गोंडों का अपना धर्मचिन्ह इस तरह बना है कि उसमे शिवलिंग की तरह एक पिंडी मध्य में है और उसके दोनों ओर भैंस के सींग की तरह दो आकृतियाँ उभरी हुई हैं। इस आकार की समानता शिवलिंग से बनती है। अब अगर ध्यान से देखें तो हड़प्पा की सील और गोंडी धर्मचिन्ह और शिवलिंग के आधुनिक रूप में बहुत समानता है। ये समानता यह भी बतलाती है कि गोंडी धर्मचिन्ह असल में हड़प्पा के देवता और शिवलिंग के बीच की कड़ी है जिसमे महिषासुर के सींगों के प्रतीक अभी भी जड़े हुए हैं और बाद में शिवलिंग के आधुनिक रूप में इन्हें हटा दिया गया है।
इन प्रमाणों के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि संभवतः हड़प्पा में भी संभूशेक या महिषासुर का कोई पूर्ववर्ती रूप या स्वयं संभूशेक या महिषासुर ही वह केन्द्रीय चरित्र हैं अथवा महिषासुर की भाँती अन्य पूर्ववर्ती प्रतापी असुर या गोंड राजा एक राजमुकुट की तरह भैंस के सींगों का इस्तेमाल करते रहे होंगे। नीचे दिए चित्रों में एक समानता और उदविकासीय अनुक्रम देखा जा सकता है। प्रथम चित्र हड़प्पा के देव पुरुष का है जो भैसों के सींग का मुकुट पहने है। दूसरा चित्र गोंडी आदिपुरुष पारि कुपार लिंगो का है और तीसरा चित्र गोंडवाना के वर्तमान पवित्र चिन्ह का है। अगला चित्र वर्तमान में पूज्य शिवलिंग का है। यहाँ स्पष्ट होता है कि पारि कुपार लिंगों का चिन्ह और उनका नाम खुद भी कालान्तर में शिव की पिंडी और लिंग बन जाता है।
इसी के साथ हरप्पन सीलों में जो अन्य चिन्ह हैं उनकी गोंडों के धार्मिक चिन्हों से बहुत समानता नजर आती है उदाहरण के लिए गोंडों के सात प्रमुख गोत्र हैं जिन्हें देवों की संख्या के अनुसार बांटा गया है। इन्हें एक से लेकर सात देव वाले गोंड कहा जाता है। ये सात देव हड़प्पा की सील में आदिपुरुष संभुशेक के और अन्य टोटेम चिन्हों के साथ हड़प्पा की सील पर स्पष्ट रूप से अंकित हैं। लेखक की बलाघाट खोजयात्रा में भी यही सात देव लांजी नामक स्थान पर गोंडों के नेताम राजवंश के खँडहर हो चुके दुर्ग में भी पायी गयी। नीचे के चित्रों में दोनों में गहरी समानता सहज ही देखी जा सकती है
गोंडों में एक विशेष त्यौहार मनाया जाता है जिसे “संभुशेक नाका” या “शिवजागरण” कहा जाता है[26], यह शिव के जागरण के उपलक्ष्य में माघ पूर्णिमा के तेरह दिन बाद मनाया जाता है। गोंडी मान्यता के अनुसार संभुशेक ने पंचखंड धरती के लोगों को सारा जहर खुद पीकर बचाया था और इस दिन होश में आकर उन्होंने महान चेतना प्राप्त की थी। इस अर्थ में यह त्यौहार “संभु जागरण त्यौहार” भी कहलाता है। इसके पीछे विस्तार से जो कहानी दी गयी है उसके अनुसार संभुशेक एक सिद्ध योगी और महाशूरवीर योद्धा थे जिनकी अनुमति से कोई भी उनके प्रदेश में दाखिल नहीं हो सकता था। उन्हें हारने के लिए आर्यों ने दक्ष पुत्री पार्वती को भेजा लेकिन वह पार्वती स्वयं ही संभुशेक की शिष्या बन गयी। इसी समय कोयवंशी गोंडों और आर्यों में भयानक युद्ध चल रहा था जिसमे आर्यों को कड़ी टक्कर मिल रही थी। युद्ध के किसी मोड़ पर आर्यों के प्रतिनिधि इंद्र ब्रह्मा और विष्णु मिलकर गोंडों के प्रतिनिधि संभुशेक के सामने समझौते का प्रस्ताव लेकर जाते है। समझौते के अनुसार एक सामूहिक भोज का आयोजन किया जाना होता है जिसमे दोनों पक्षों के लोग माघ पूर्णिमा के दिन मिलकर भोज करेंगे। यह आर्यों की चाल थी जसके तहत वे संभुशेक और गोंडों को जहर देना चाहते थे। संभुशेक ने अपने योगबल से यह जान लिया और भोज के समय अपने लोगों को भोजन से मना करके सारा भोजन खुद ग्रहण कर गए। इस प्रकार सर्प विष की अधिकता से वे तेरह दिन अचेत रहे। इस बीच उनके सेनाओं ने आर्य सेना को बुरी तरह खदेड़ा और मारा। जिस दिन संभुशेक चैतन्य हुए उसे दिन को उन्होंने त्यौहार की तरह मनाया।ये प्रमाण पुरातत्व और इतिहास के प्रमाण हैं लेकिन इनसे भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण प्रमाण भी हमारे पास हैं जो इस दिशा में निर्मित हो रहे नेरेटिव को लगभग स्थापित ही कर देते हैं। साहित्य, समाजशास्त्र और मानवशास्त्र के विद्यार्थी जानते हैं कि धार्मिक परम्पराओं, कर्मकांड और त्योहारों का या विशेष रूप से किसी समाज की वाचिक परम्परा में मौजूद ज़िंदा आख्यानों का क्या मूल्य होता है। हमारे इस लेख और इस विषय के सन्दर्भ में भी हमारे पास वे ज़िंदा प्रमाण मौजूद हैं जिनके आधार पर संभुशेक और बडादेव या शिव एक ही ठहरते हैं। डॉ. कंगाली द्वारा निर्मित वेबसाईट http://jayseva.com/ पर ये प्रमाण देखे जा सकते हैं। उन्होंने गोंडों के त्योहारों और लोकगीतों का जैसा अनुवाद और आशय स्पष्ट किया है वह बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। अपने विषय से साम्य रखने वाले इनमे से कुछ उदाहरणों पर हम यहाँ गौर करेंगे।
इसी तरह दूसरे त्यौहार का उदाहरण है जो “नाग पूजा” कहलाता है इसे श्रावण (जुलाई माह मध्य से अगस्त मध्य) के दौरान मनाया जाता है। एक अन्य त्यौहार जो “खडेयारा पंदुम या गढ़ पूजा” या मेघनाद पूजा कहलाता है। इस त्यौहार के बारे में गोंडी मान्यता है कि मेघनाद रावण (कोयावंशी गोंडों के रावेन) के प्रतापी पुत्र थे जो दाई कली कंकाली के भक्त थे और निशस्त्र होकर एकांत में उनकी पूजा करते थे। इसी पूजा के दौरान राम और लक्षण नामक आर्य योद्धाओं ने उन्हें छलपूर्वक मारा था। यह कथा ब्राह्मणी हिन्दू साहित्य में भी पायी जाती है जिसपर वे गर्व करते हैं। आज भी गोंड समुदाय के गीतों में पूरी घटना दोहराई जाती है।
इसी तरह “शिमगा पंडूम” मनाया जाता है जिसे होली या “शिवमगौरा” भी कहा जाता है। आज जिस तरह का हिन्दुओं का होली का त्यौहार है यह उससे भिन्न है। इसके संबंध में अनुराधा पाल (2014)[27] ने निम्नलिखित विवरण दिया है। उल्लेखनीय है कि यह विवरण उनकी जिस शोध पर आधारित है वह डॉ. कंगाली के मार्गदर्शन में ही किया गया है।
इसे फाल्गुन पूर्णिमा की शाम को मनाया जाता है … त्यौहार के पंद्रह दिन पहले गाँव के लड़के शंभू गौरा की जय-जयकार करते हुए लकडियाँ आदि एकत्र करते हैं तथा गाँव की पूर्वी सीमा पर ढेर लगाकर घर लौट आते है। पूर्णिमा की शाम को गाँव का भूमका[28] अन्य लोगों के साथ जाकर आरती उतारता है। जमीन में एक गहरा गड्ढा खोदा जाता है, इसमें पीसी हल्दी तथा पिसे चावल और लोहे के कण बिखेरे जाते हैं। तब इस स्तंभ को पीसी हल्दी व पिसे चावल से लेपा जाता है। तब इस स्तंभ को गड्ढे में स्थापित कर इसकी पूजा की जाती है। अन्य सभी लकड़ियों को इस केन्द्रीय स्तम्भ के सहारे लगा दिया जाता है, तथा इसे जलाया जाता है। गेहूं के आते से बनी पार्वती की प्रतिमा को शंभू-गौरा की जय –जयकार के बीच अग्नि में रखा जाता है तथा इसके साथ “शिवम् गौरा” गीत गाया जाता है। इस प्रकार गाते हुए पांच परिक्रमा अग्नि के चारों ओर घड़ी की सुई की विपरीत दिशा में लगाई जाती है। इसी बीच एक व्यक्ति संभु के वस्त्रों में सजकर हाथ में त्रिशूल लिए आता है तथा त्रिशूल से अग्नि पर आक्रमण करता है। फिर जय-जयकार के बीच सभी लोग अग्नि के चारों ओर सात फेरे लेते हैं और सारी रात जागरण करते हैं तथा संभु गौरा की प्रशंसा में गीत गाते है।
पॉल अनुराधा (2014, 63)
इसका संबंध शिव और गौरा के प्रणय से है। इसके साथ जुड़े अन्य विवरण हिन्दू मिथकों में दिए गए मिथकों से भिन्न हैं और असल में उन मिथकों में छूट रही कड़ियों और स्वाभाविक रूप से उमड़ रहे प्रश्नों का उत्तर देते हैं। उदाहरण के लिए ब्राह्मणी हिन्दू मिथक कहता है कि दक्ष प्रजापति ने यज्ञ का आयोजन किया और शिव को नहीं बुलाया इसीलिये रुष्ट होकर पार्वती के आदिरूप सती ने उस यज्ञ मे कूदकर प्राण त्याग दिए। लेकिन अनुराधा पॉल के अनुसार गोंडी मिथक कहता है कि संभुशेक (शिव) को मोहित कर परास्त करने के लिए पार्वती को भेजा गया था जो स्वयं ही संभुशेक से मोहित होकर उनकी शिष्या बन गयीं। इसका बदला लेने के लिए आर्यों ने पार्वती को मारने का निश्चय किया। दक्ष प्रजापति ने एक महायज्ञ का आयोजन किया और सभी आर्य राजाओं को निमंत्रित किया लेकिन शंभू को नहीं निमंत्रित किया इसलिए वे यज्ञ में नहीं गए। इस कारण पार्वती को अकेले जाना पडा और यज्ञ में उनका अपमान किया जाता है और विरोध करने पर उन्हें अग्नि में धकेल दिया जाता है।उनके साथ उनके रक्षकों का जो दल गया था वह हताश होकर “शिवमगौरा ! शिवमगौरा !” चिलाते हुए लौट आया। बाद में कथा कहती है कि कुपित होकर शिव ने दक्ष के महल पर अपनी तीसरी आँख खोलकर हमला किया और उसे जलाकर राख कर दिया। इसीलिये गोंडी लोग इस कहानी में बताये अनुसार गौरा की राख अपने माथे पर मलते हैं। और जिन आर्यों ने उन्हें इतना दुःख दिया उनका विनाश करने की शपथ लेते हैं।
आगे अनुराधा पॉल लिखती हैं कि “शिवमगौरा” शब्द का अर्थ निम्न प्रकार से है
शिव (शंभू) = (ओम)+ गौरा का। शिव + ओम = ले जाओ + गौरा = पार्वती। ‘शिवमगौर’ का अर्थ है ‘शंभू, गौरा को ले जाओ।
पॉल अनुराधा (2014, 64)
इन प्रमाणों के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि संभवतः हड़प्पा में भी संभूशेक या महिषासुर के कोई पूर्ववर्ती रूप या स्वयं संभूशेक या महिषासुर ही वह केन्द्रीय चरित्र हैं अथवा महिषासुर की भाँती अन्य पूर्ववर्ती प्रतापी असुर या गोंड राजा एक राजमुकुट की तरह भैंस के सींगों का इस्तेमाल करते रहे होंगे। साथ ही अन्य गोंडी त्योहारों से मिल रहे वाचिक प्रमाण और मिथकीय विवरण ये भी सिद्ध करते हैं की असुरों के पूर्व ही कोयावंशी गोंडो की एक रावेन शाखा के प्रमुख रावण के नाम से जाने गए हैं जिनके विरुद्ध राम लक्ष्मण नामक आर्य योद्धाओं ने युद्ध किया था। यहाँ पर आकर गोंडी मिथक संभुशेक के साथ न सिर्फ महिषासुर को भी एक तार्किक और ऐतिहासिक संगति में जोड़ रहा है बल्कि इन सबको एक जैसे धर्म दर्शन के आधार पर एक ही दार्शनिक संप्रदाय का सदस्य या अधिपति भी निरूपित कर रहा है। हिन्दू मिथकों में भी जिस प्रकार से रावण का वर्णन है वह शिव अर्थात संभूशेक के महान भक्त बताये गए हैं और उनके चक्रवर्ती पुत्र मेघनाद कली कंकाली का रूप मानी जाने वाली महाकाली के भक्त हैं।
असुर, गोंड, बुद्ध, रविदास और कबीर :
डॉ. कंगाली अपने विराट अध्ययन से जिस निष्कर्ष पर पहुँच रहे हैं वह असुर (लोकायत) दर्शन और गोंडी दर्शन सहित बौद्ध दर्शन में एक समानता स्थापित करता है। स्वयं उनके शब्दों में:
गोंडी पुनेम दर्शन और बुद्ध के विचारों में काफी समानता झलकती है। पारी कुपार लिंगो ने प्राकृतिक शक्ति पर्सापेन (बुढाल पेन, फड़ा पेन, सजोरपेन, सिंगाबोंगा पेन, भिलोटापेन) रूपी सल्लां गान्गरा (ऋण-धन) शक्ति को माना है, तो बुद्ध ने भी प्राकृतिक शक्ति को ही सर्वोच्च शक्ति माना है। भौतिक जगत की निर्मिती स्वयंसिद्ध है किसी इश्वर पर उसका अस्तित्व निर्भर नहीं है ऐसा पारी कुपार लिंगो का मत है, तो ठीक ऐसा ही बुद्ध का भी दर्शन है। पारी कुपार लिंगो ने गोंगोओं (देवी देवताओं) की शक्ति को पूर्वजों के रूप में मान्य किया है, तो बुद्ध ने भी ठीक इसी तरह देवताओं का अस्तित्व मान्य किया है। परन्तु उन्होंने कोई कर्ता शक्ति या इश्वर के रूप में नहीं माना है … पारी कुपार लिंगो का मार्ग त्रिशूल मार्ग है, तो बुद्ध का त्रिशरण मार्ग है। पारी कुपार लिंगो ने अपने सगा शिष्यों को पांच कर्त्तव्य दिए हैं, तो बुद्ध ने पंचशील मार्ग प्रतिपादित किया है। पारी कुपार लिंगो ने प्राकृतिक न्याय तत्व पर आधारित मुन्जोक्क सिद्धांत बताया है तो बुद्ध ने अहिंसा सिद्धांत प्रतिपादित किया है।
(Kangali 2011: 19-20)[29]
डॉ. कंगाली द्वारा ये समरूपण और इस प्रकार की समानता देखने का ये आग्रह दार्शनिक और धार्मिक क्रमविकास को देखने दिखाने वाले गंभीर विमर्शों के लिए बहुत विश्वसनीय न भी हो तो भी इसकी दिशा और मंशा से बहुत कुछ सिद्ध होता है। सबसे पहली और बड़ी बात तो यह कि डॉ. कंगाली के रूप में गोंडी धर्म के ज्ञात इतिहास के सबसे बड़े विद्वान ने बुद्ध के दर्शन और कुपार लिंगो के दर्शन में समानता देखने का प्रयास किया है। यह अचानक ही नहीं हुआ होगा। इसके अपने धार्मिक, कर्मकांडीय, एतिहासिक, समाज मनोवैज्ञानिक और मिथकीय प्रमाण उन्होंने ढूंढें होंगे। इनमे से कुछ सबसे महत्वपूर्ण प्रमाणों को उनके विस्तार में हम पिछले प्रष्टों में देख भी आये हैं।
इन प्रमाणों में और डॉ. कंगाली द्वारा गोंडी पूनेम दर्शन और बुद्ध के दर्शन में समता देखने के इस आग्रह से यह संकेत मिलता है कि न सिर्फ ये दोनों दर्शन एकसमान मूल से जुड़े हैं बल्कि यह भी संकेत मिलता है कि संभवतः बौद्ध दर्शन गोंडी पूनेम दर्शन के स्वाभाविक क्रमविकास में आने वाला विकसित दर्शन है। इस प्रकार जो प्रेरणा कुपार लिंगो में जन्म लेती है वही गौतम बुद्ध के साथ अपने शिखर पर पहुँच रही है। इस मान्यता के पक्ष में एक अन्य कारण यह भी दिया जा सकता है कि संभवतः गोंडी पूनेम दर्शन के रूप में प्रकृति को सर्वोच्च मानने वाला भौतिकवाद ही कालान्तर में लोकायत या असुर दर्शन बना और उसने उसी की श्रेष्ठताओं को समेटते हुए श्रमणों ने अपने दर्शन को आगे बढाया। श्रमणों की परम्परा में यही दर्शन बुद्ध के साथ अपनी सर्वोच्च ज्ञात उंचाई पर पहुँच जाता है। उल्लेखनीय है कि इस पूरी यात्रा में गोंडी पुनेम दर्शन, असुर दर्शन, लोकायत, मूल सांख्य और तन्त्र सहित बौद्ध दर्शन अनिवार्य रूप से निरीश्वरवादी बने रहते हैं और प्रकृति सहित समाज व्यवस्था में सल्लां -गान्गरा, ऊन-पून, पुरुष-प्रकृति या स्त्री-पुरुष के बीच समानता को स्थापित करते हैं। ऐसा करते हुए वे इन्ही दो धन व ऋण तत्वों के मिलन को जगत का मूल आधार बतलाते हैं।
अब इतने विमर्श और विश्लेषण के बाद असुरों (मूलनिवासियों/आदिवासियों),कोयवंशीय गोंडों, बौद्धों कबीरपंथियों और रैदासियों में एक दार्शनिक एकता स्थापित हो जाती है। इस बात को न सिर्फ भारतीय दर्शन, रहस्यवाद या मिथक के जरिये बल्कि समाज क्रान्ति की जमीनी लड़ाइयों के मद्देनजर भी समझा जा सकता है। जिन लोगों ने आधुनिक समय में ऐसे सामाजिक आंदोलनों को समझने का प्रयास किया है वे भी बहुत स्पष्टता से बतलाते हैं कि कबीर असल में बुद्ध की ही क्रान्ति परम्परा में हैं। मध्य प्रदेश के मालवा निमाड़ क्षेत्र में कबीरपंथ का गहराई से अध्ययन करने वाली प्रोफेसर लिंडा हेस ने स्पष्ट किया है कि कबीर की वेद विरुद्ध क्रान्ति असल में बुद्ध की क्रान्ति से अनिवार्य रूप से जुडती है (Hess, 2002)[30]। इसी तरह गेल ओमवेट भी बतलाती हैं कि अन्य स्कालर्स ने जो काम किया है, जैसे कि एलियानोर जीलियेट और ए. एच. सालुंखे, उनकी रिसर्च आगे चलकर चोखामेला और तुकाराम को भी विद्रोही बौद्ध क्रान्ति के अधिक नजदीक बतलाती है। हालाँकि इन शोधकर्ताओं के बारे में ये कहा जा सकता है कि ये डॉ. अंबेडकर के प्रभाव में बौद्ध धर्म के प्रति एक तरह का पक्षपात रखते होंगे इसीलिये इन विद्वानों ने इस तरह के तर्क दिए हैं। लेकिन हम देखते हैं कि डॉ. अंबेडकर के बौद्ध धर्म अपनाने के पूर्व से ही इस तरह की प्रवृत्तियाँ अछूत और मूलनिवासी समाज में रही हैं। डॉ. अंबेडकर के बौद्ध धर्म में प्रवेश कोइ इकहरी घटना नहीं है बल्कि यह अन्य अनेकों समान विचार के लोगों की गहन शोध का सम्मिलित प्रतिफल है।
इस अर्थ में स्वामी अछूतानन्द का उल्लेख करना महत्वपूर्ण होगा, हालाँकि स्वामी अछूतानंद बुद्ध की बजाय रविदास के अधिक पक्षधर थे। उन्होंने रविदास को केंद्र में रखकर रविदास के नाम से जुलूस और समारोह आरंभ किये और “आदि हिन्दू महासभा” की स्थापना की असल में यह संस्था उनके आन्दोलन का एक राजनीतिक घटक (विंग) थी (Gooptu 2001)[31]। स्वामी अछूतानंद के उत्तराधिकारी आचार्य ईश्वरदत्त मेधार्थी (1900-1971) हुए। उन्होंने भी इसी विचार को और अधिक गहरे से बुना और अपनी एक लघु पुस्तिका “भारत के आदिवासी पूर्वजन और संत धर्म” में आदि हिन्दू की अवधारणा को अधिक मजबूती से पेश किया। आचार्य मेधार्थी की प्रस्तावना यह थी कि संत धर्म इस देश का मूल धर्म था जो कि समता सहयोग और बंधुत्व पर आधारित था प्राचीन काल में जिसे सनातन धर्म कहा जाता है वह असल में संत धर्म था। इस तर्क से चलते हुए वे आगे बौद्ध धर्म के साथ संत धर्म की एकता सिद्ध करने का प्रयास करते हैं और इस क्रम में वे ये भी कहते हैं कि बुद्ध ने असल में सब संतों को बुद्धों के रूप में निरूपित किया और पहचाना है इसलिए बुद्ध असल में प्राचीन संत धर्म की ही परम्परा में हैं। यह जानकार आश्चर्य होता है कि डॉ. अंबेडकर के पूर्व आचार्य मेधार्थी और प्रोफ़ेसर पी. लक्ष्मी. नरसू (1911) बौद्ध धर्म तक पहुँच चुके थे। प्रोफेसर नरसू की पुस्तक “बौद्ध धर्म का सार” (The Essence of Buddhism) की भूमिका लिखते हुए स्वयं डॉ. अंबेडकर ने कहा है कि यह बौद्ध धर्म पर अब तक की सबसे अच्छी पुस्तक है। प्रोफेसर नरसू[32] “आदि हिन्दू” या “संत धर्म” जैसी किसी धारा का उल्लेख नहीं करते हैं और खालिस बुद्ध की शिक्षाओं और बौद्ध दर्शन के आधार पर बौद्ध धर्म को मानव मात्र के लाभ के लिए एक अच्छा धर्म निरूपित करते हैं। लेकिन आचार्य मेधार्थी जो स्वयं पिछड़ी जाती से थे, उनका प्रयास अंत में यह बतलाता है कि बुद्ध ने जीवन भर जो भी सिखाया वो असल में संत धर्म की ही शिक्षाएं थी। इसीलिये मेधार्थी का आग्रह और सुझाव था कि संत धर्म के अनुयायियों को बुद्ध की शिक्षाओं पर विशेष ध्यान देना चाहिए (Medharthi,1939)[33]। मेधार्थी आगे चलकर डॉ. अंबेडकर के पाली भाषा के शिक्षक भी बने। आचार्य मेधार्थी ने एक स्कूल भी चलाया था जिसके भ्रमण के लिए स्वयं डॉ. अंबेडकर 1940 में गए थे (Bellwinkel-Schempp, 2004)[34]।
इस प्रकार अंबेडकर के पूर्व भी अछूत और मूलनिवासी चिंतकों में बौद्ध धर्म के प्रति एक स्वागत का भाव निर्मित हो चुका था इसीलिये डॉ. अंबेडकर द्वारा 14 अक्टूबर 1956 को बौद्ध धर्म के स्वीकार का इतना व्यापक असर हुआ कि कानपुर के दलितों ने इस पहल को हाथोंहाथ ले लिया। न केवल कईयों ने बौद्ध धर्म को अपनाया और भविष्य में आजीवन बुद्ध के सन्देश के लिए समर्पित हो गए, बल्कि उन्होंने हिन्दू धर्म के देवी देवताओं को भी 22 मंदिरों से निकाल बाहर किया और उन्हें बुद्ध के मंदिरों में रूपांतरित कर दिया (Linch, 1969)[35]। संत धर्म को बौद्ध धर्म से समान दिखलाकर एक बड़ा संकेत दिया गया है। असल में बुद्ध की समतावादी और वर्ण व्यवस्था विरोधी देशना और रविदास की देशना में समानता ही इस प्रयास की प्रेरणा रही होगी ऐसा माना जा सकता है। इसीलिये कई दलित चिन्तक रविदास को बौद्ध धर्म से प्रेरित संत बतलाते हैं (Zelliot Mokashi-Punekar 2005)[36]।
स्वामी अछूतानंद आचार्य मेधार्थी और भदंत बोधानंद महास्थविर अनेक प्रयास अनेकों दिशाओं में जाते हैं लेकिन फिर भी उनकी चिंतन धारा और मूलनिवासियों के बारे में उनकी मान्यताएं हमारे विषय के लिए बहुत प्रासंगिक है। स्वामी अछूतानंद ने आर्य श्रेष्ठता के दावे को खारिज किया और बतलाया कि आर्य कोई उन्नत या विकसित संस्कृति नही थे बल्कि यहाँ के मूलनिवासी उने अधिक उन्नत थे (Omvedt, 1994)[37] यह एक मान्यता हमारे लिए वह सब कह डालती है जो अन्य मूलनिवासी या असुर आन्दोलन सिद्ध करना चाहते हैं। इसी तरह की स्थापना और प्रस्तावना डॉ. अंबेडकर के पूर्व भदंत बोधानंद महास्थविर (1874-1952) के द्वारा भी दी गई है। उन्होंने भी इसी अर्थ में मूलनिवासी या स्थानीय सभ्यता के आर्य सभ्यता से अधिक उन्नत होने का दावा किया (Sathi,1999)[38]। ‘अछूत कौन थे’ के लेखन के बहुत पहले ही भदंत बोधानंद महास्थविर का कहना था कि मूलनिवासी भारत के वास्तविक निवासी थे और वास्तव में आजकल के अछूत और पिछड़े वर्ग के लोग यही हैं (Kshirsagar, 1982)[39]। अनेक लोग जो यह मानते हैं कि डॉ. अंबेडकर अचानक ही ‘शूद्र कौन थे’ के उत्तर पर पहुँच गए, उन्हें अन्य विद्वानों के काम को भी देखना परखना चाहिए। स्वामी अछूतानन्द और भदंत बोधानंद सहित चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु उनमे से महत्वपूर्ण हैं। भदंत बोधानंद की एक महत्वपूर्ण रचना “मूल भारतवासी और आर्य” कभी प्रकाशित नहीं हो सकी लेकिन इसमें जो सिद्धांत और दिशा दी गयी थी उसने हजारों लोगों को प्रभावित किया। उनकी इस स्थापना और इसी दिशा के विमर्श ने “मूलनिवासी” शब्द को इतना महत्वपूर्ण बना दिया इसके बाद में जो प्रभाव हुए वे अपने आप में एक इतिहास है (Kumar, 2006)[40]।
यह जानना अपने आपमें बहुत रोचक है कि अछूत और अन्त्यज जो कि बाद में दलित कहलाये गए हैं, उनमे से सबसे प्रगतिशील और समर्थ समुदाय और उनके चिन्तक भक्ति को बौद्ध धर्म के करीब ला रहे हैं और रविदास को बुद्ध से प्रेरित सिद्ध कर रहे हैं। इस प्रकार रविदास कबीर और अन्य भक्तिकालीन संतों के “निर्गुण” को बुद्ध के शून्य से जोड़ा जा रहा है। इस प्रयास के समाज मनोवैज्ञानिक चिन्तन को गहराई से देखने पर लगता है कि असल में यह समतामूलक और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए एक बड़ा संश्लेषण है, जो अभी भी विकसित हो रहा है। यह न केवल भक्ति आधारित संत परम्परा और ज्ञान आधारित बौद्ध परम्परा में संश्लेषण का प्रयास है बल्कि यह भक्ति के निर्गुण ब्रह्म को ब्राह्मणवादी सृष्टिकर्ता और नियामक बनने से बचाने का उपाय भी लगता है। बुद्ध द्वारा शून्य का स्वीकार और परलोक के निषेध को भक्ति के निर्गुण ब्रह्म के साथ रखकर जो रचना बनती है वह असल में भक्ति रह ही नहीं जाती। इसीलिये रविदास और कबीर को आधार बनाकर बुद्ध के चिन्तन में आश्रय पाने वाली धाराएं अंततः बुद्ध को ही रविदास और कबीर की क्रान्ति का स्त्रोत सिद्ध करती हैं और बुद्ध के ‘इस लोकवादी’ दर्शन को महिमामंडित करती हैं।
एक दार्शनिक या धार्मिक संश्लेषण के स्तर पर यह प्रयास कितना भी वैध या कारगर हो या न भी हो, लेकिन यह प्रयास इतना तो अवश्य बतलाता है कि अछूतों में परलोक वादी ब्राह्मण या आर्य धर्म के प्रति एक तिरस्कार का भाव बहुत प्रबल रूप ले चुका था और उसकी परिणति इस प्रकार के साहित्यिक दार्शनिक प्रयासों में होने लगी थी। ये प्रयास यह भी बतलाते हैं कि शोषण से पीड़ित समाज अंतिम रूप से भाववादी दर्शन के विरुद्ध भौतिकवादी मान्यताओं के पक्ष में लामबंद हो रहे हैं। चार महाभूतों को आधार बनाने वाला बौद्ध दर्शन और लोकायत या असुर दर्शन आधुनिक समय के अछूतों के सबसे प्रतिभाशाली विद्वानों को अपनी तरफ हजारों साल बाद फिर से आकर्षित कर रहा है। इसी क्रम में दलितों और अछूतों की ही तरह अब पिछड़ों और मूलनिवासियों की तरफ से भी अपनी खोई हुई संस्कृति को दुबारा खोजने का प्रयास आरंभ हुआ है जिसे महिषासुर आन्दोलन के आईने में देखा जा सकता है।
महिषासुर आन्दोलन और मिथकीय पुनर्पाठ :
इस विस्तार में जाने के बाद अब हम महिषासुर आन्दोलन और इसके साथ आरम्भ हुए मिथकीय पुनर्पाठ को उसके व्यापक और सही सन्दर्भ में देख सकते हैं। महिषासुर आन्दोलन ऊपर बतलाई गयी विराट दलदल में सतह पर नजर आने वाला एक महत्वपूर्ण सबूत है जिसके सहारे अन्य सभी परम्पराओं के उदविकासीय संघर्ष और षड्यंत्रों को भी देखा जा सकता है। अभी तक जो साक्ष्य और तथ्य महिषासुर के संबंध में हैं वे मूलतः मिथकीय विवरणों और बंगाल, उड़ीसा, झारखंड इत्यादि में फैले मूलनिवासी व असुर समुदाय की लोक कहावतों और किंवदंतियों सहित उनके पूजा विधानों के विश्लेषण पर आधारित हैं। यह एक महत्वपूर्ण बात है। इसका यह अर्थ हुआ कि आज भी छोटा नागपुर के असुरों में या उत्तरप्रदेश के महोबा जिले के महिषासुर मंदिर के आसपास के या छतीसगढ़ और झारखंड के अनेक मूलनिवासी समुदायों में महिषासुर एक सच्चाई हैं। महिषासुर न केवल इनके लिए एक प्रतापी राजा, पूर्वज और मिथकीय चरित्र हैं बल्कि वे एक महाशक्तिशाली शूरवीर भी रहे हैं। कई जनजातीय समाजों में आज भी महिषासुर की पूजा की जाती है। झारखंड के असुर स्वयं को महिषासुर का वंशज मानते हैं और महिषासुर सहित, मेघनाद, रावण और अन्य असुर माने जाने वाले वीरों की पूजा करते हैं।
इसी तरह पश्चिम बंगाल के उत्तरी इलाके में जलपाईगुड़ी ज़िले में स्थित अलीपुरदुआर के पास माझेरडाबरी चाय बागान में रहने वाली एक जनजाति के लोग दुर्गापूजा के दौरान मातम मनाते हैं। इस दौरान वे न तो नए कपड़े पहनते हैं और न ही घरों से बाहर निकलते हैं, ये लोग असुर हैं और महिषासुर को अपना पूर्वज मानते हैं (BBC HINDI, 2015)[41]। इस प्रकार जमीन से जो केस स्टडीज और खबरें आ रही है और जो अध्ययन आ रहे हैं वे आज भी मौजूद असुर समुदाय को उजागर कर रहे हैं। उनकी मिथकीय व धार्मिक मान्यताओं के सूत्र आज भी आसानी से ढूंढें जा सकते हैं। उनकी अपनी मान्यताओं में महिषासुर एक नायक हैं और दुर्गा खलनायिका हैं। उसी खबर के अनुसार माझेरडाबरी के असुर दुर्गा और महिषासुर के संग्राम को बहुत अलग नजरिये से देखते हैं:
“उनमें इस बात का गुस्सा है कि दुर्गा ने ही महिषासुर को मारा था। इसी वजह से पूरा राज्य जब खुशियां मनाने में डूबा होता है तब ये लोग मातम मनाते रहते हैं। इस जनजाति के बच्चे मिट्टी से बने शेर के खिलौनों से खेलते तो हैं, लेकिन उनमें से किसी के कंधे पर सिर नहीं होता। बच्चे शेरों की गर्दन मरोड़ देते हैं। यह दुर्गा की सवारी जो है।सात साल का आनंद असुर ऐसा ही एक खिलौना दिखाते हुए कहता है, “मैं एक असुर हूं। शेरों से मुझे सख्त नफरत है। इसलिए पहले दिन ही मैंने इसकी गर्दन मरोड़ दी।” ”
(BBC HINDI,2015)[42]
इसी तरह अन्य स्थानीय जनजातीय समुदाय रावण और मेघनाद को पूजते हैं और उन्हें अपना पूर्वज मानते हैं और उनकी मृत्यु का शोक मनाते हैं। महिषासुर सहित अन्य सभी राक्षसों और दैत्यों की ह्त्या से जुड़े ब्राह्मणी मिथक एक आयामी और कृत्रिम लगते हैं और उनके विस्तार में जाने पर यह प्रतीत होता है कि उन्हें छलपूर्वक मारा गया है, बहुत प्रयास करने पर भी यह स्पष्ट नहीं होता कि असुरों को किस अपराध के लिए मारा जा रहा है। उनकी हत्याओं के जो कारण मिथकों में बताये जा रहे हैं वे कहते हैं कि आर्यों के यज्ञ को बाधित करने के अपराध के दंड स्वरुप उन्हें मारा जा रहा है। इन सभी मिथकीय कथाओं में और विशेष रूप से महिषासुर के मिथक में बहुत कुछ छिपाया गया है। आज भी असुर जनजाति के लोगों की यही मान्यता है। महिषासुर न केवल असुर जनजाति से बल्कि यादव व अहीर जैसी पिछड़ी जातियों से भी आसानी से जुड़ते प्रतीत होते हैं। जैसा कि प्रेम कुमार मणि (2012)[43] बतलाते हैं:
महिष का मतलब भैंस होता है। महिषासुर यानी महिष का असुर। असुर मतलब सुर से अलग। सुर का मतलब देवता। देवता मतलब ब्राह्मण या सवर्ण। सुर कोई काम नही करते। असुर मतलब जो काम करते हों। आज के अर्थ में कर्मी। महिषासुर का अर्थ होगा भैंस पालने वाले लोग अर्थात भैंस पालक। दूध का धंधा करने वाला। ग्वाला। असुर से अहुर और अहुर से अहीर भी बन सकता है।
शब्दों के आधार पर यह समानता और उस समानता का ये अर्थ अचंभित नहीं करता। असल में भारतीय मिथक और भारतीय सामाजिक परम्पराएं जिस तरह से आकार लेती रही हैं, उनमे इस तरह के अर्थों के सत्य होने की पूरी संभावना होती है। कुछ विद्वान तो आर्य आक्रमण सिद्धांत को आधार बनाकर यह भी सिद्ध करते हैं कि आर्यों का दुर्गा का मिथक भी असल में सुमेरियन/मेसोपोटामियन मिथकों से लिया गया है। सुमेरियन लोगों में “इनन्ना” नामक युद्ध और उर्वरता की देवी की मान्यता थी और यह देवी भी सिंह पर सवारी करती थी।
ऐसा माना जाता है कि इसी देवी के मिथक ने इरान, सिन्धु सभ्यता और बाद में अन्य भारतीय महाद्वीप के मिथकों को आकार दिया (Wolpert, 2006)[45] यह भी एक संभावना हो सकती है। अगर यह सत्य है तो यह माना जा सकता है कि आर्यों ने अपने शत्रुओं का छलपूर्वक नाश करते हुए अपने प्राचीन मिथकों की कथाओं में ही कोयवंशीय गोंडों असुरों और अन्य भारतीय मूलनिवासियों को खलनायक की तरह शामिल कर लिया। इन खलनायकों के नाश के लिए जिस दुर्गा की कल्पना की गयी उसकी प्रेरणा उनकी देवी इनन्ना में ही थी। इसीलिये अलग अलग कालखंडों में अलग अलग मूलनिवासी शूरवीरों के खिलाफ इस देवी तथा इनके जैसी अन्य देवियों का मिथक खडा किया गया है और चूँकि आर्य गौर वर्ण और तीखे नैन नक्श वाले थे आज भी इन देवियों की सुन्दर मूर्तियाँ बनाई जाती हैं। लेकिन संभुशेक के मूल चरित्र से जुडी “कलि कंकाली”- जो कि मेघनाद की आराध्या के अर्थ में महाकाली जैसी प्रतीत होती हैं – उन्हें काली और विकराल चित्रित किया गया है। यहाँ भी गौर से देखने पर एक अन्य षड्यंत्र उजागर होता है । वो ये कि गोंडों की पूज्य दाई कलि कंकाली को भी काली के रूप में घृणित बनाने का शुरुआत में प्रयास हुआ है और बाद में उन्हें भी उसी तरह आत्मसात कर लिया है जिस तरह संभुशेक को महादेव के रूप में कर लिया गया। हालाँकि इनन्ना देवी के लिए भारतीय सन्दर्भ में पक्ष या विपक्ष में प्रमाण जुटाने की उतनी सुविधा नहीं है। लेकिन इसके विपरीत भारतीय गोंडों में संभुशेक पर हमले और असुर व अन्य जनजातियों में महिषासुर की ह्त्या के बारे में ज़िंदा वाचिक परम्परा में जो किंवदन्तिया और लोक कहावतें हैं वे बहुत आसानी से एक स्थानीय नेरेटिव को उभारती हैं। ये स्थानीय नेरेटिव बहुत अर्थों में दूसरी दिशा से देवी इनन्ना के मेसोपोटामियन या सुमेरियन सभ्यता के मूल का होअने का संकेत देता है और जिस अर्थ में इस देवी को वहां उर्वरता और युद्ध की देवी माना गया है उसी के समानांतर अर्थ में उन्हें भारत में भी आर्यों द्वारा स्थापित किया जा रहा है। इसीलिये गोंडों और असुरों की वाचिक परम्परा से उभर रहा ये नेरेटिव वास्तव में आर्य गोंड और बाद में आर्य असुर संघर्ष की सबसे महत्वपूर्ण और निर्णायक घटना बन जाती है। अब चूँकि महिषासुर बहुत गहराई से गोंडों और असुरों की धार्मिक दार्शनिक परम्परा में के लिए भी एक महत्वपूर्ण कड़ी बनकर उभरते हैं इसीलिये महिषासुर आन्दोलन के इम्प्लीकेशंस बहुत बड़े हैं और इसी कारण इसमें भारत के धार्मिक दार्शनिक विमर्श को हिला देने की इतनी विराट ताकत है।
उपसंहार (कन्क्लूजन)
महिषासुर आन्दोलन या इसके साथ आरंभ हुआ मिथकीय पुनर्पाठ का आन्दोलन कोइ छोटी सी घटना नहीं है। इसकी ऐतिहासिक दार्शनिक और धार्मिक सांस्कृतिक प्रष्टभूमि बहुत विराट है और इस एक आन्दोलन ने जिन खो गयी कड़ियों को आपस में जोड़ा है वैसा भारतीय इतिहास में बहुत कम हुआ है। अन्य शोध और मिथक अनुवाद किन्ही खो गयी परम्पराओं की दार्शनिक, धार्मिक या भाषागत समानता के आधार पर सिद्ध किये जाते रहे हैं। लेकिन पहली बार एक समाज शास्त्रीय और मानवशास्त्रीय आधार पर ठोस दार्शनिक विमर्श को केंद्र में रखने वाला आन्दोलन उभर रहा है। असुरों और गोंडों की बची हुई आबादी और उनके साथ उनकी मिथकीय कथा में शामिल अन्य दलित पिछड़ी और मूलनिवासी जातियों से एक तरह का दार्शनिक और धार्मिक सांस्कृतिक सम्बन्ध निर्मित होता दिखाई दे रहा है। और सबसे बड़ी बात ये है कि ये संबंध असल में प्राचीन भारत की सभी विद्रोही परम्पराओं को मूलनिवासी साबित करने की तरफ बढ़ रहा है।
अन्य विद्वानों के पूर्व में किये हुए शोध को देखें तो भी इस तरह की प्रवृत्तियाँ आकार लेती नजर आती हैं। प्राचीन भारतीय भौतिकवाद के गहन अध्ययन से लोकायतिक अर्थात प्राचीन असुरों और उनके बाद के बौद्धों के बीच में ऐतिहासिक क्रमविकास का एक सीधा संबंध निर्मित होता दिखाई देता है। यह प्रतीत होता है कि असुर या लोकायतिक या मूल सांख्य या तांत्रिक दर्शनों को मानने वाले मूलनिवासी समुदायों में ही लोकायत के रूप में एक भौतिकवादी दर्शन ने आकार लिया और संभवतः यही श्रमण परम्परा के लिए एक दार्शनिक आधार बनकर प्रकट हुआ। साथ ही इसने ‘इस लोक’ (इहलौकिक) के सुख की प्राप्ति (चार्वाक) और ‘इस लोक’ के दुःख की निर्जरा (बौद्ध) जैसे दर्शनों को भी ठोस भौतिकवादी आधार दिए। संभवतः यही असुर जनजातीय लोकायत (जिसके मानाने वाले सुदूर लंकावासी रावण और मेघनाद आदि भी थे) और जो तन्त्र और मूल सांख्य की अपनी प्रवृत्तियों में आरंभ में अल्पविकसित था वही बाद में अपने पूर्णतः विकसित रूप “बौद्ध धर्म” के रूप में प्रकट हुआ।। फिर संभूशेक और महिषासुर सहित असुरों की संस्कृति को छल से नष्ट किया गया और ब्राह्मणवादी धर्म में आत्मसात कर लिया गया। बाद में इसी तरीके से बुद्ध और कबीर को भी आत्मसात कर लिया गया। यह एक ऐसा सूत्र है जो प्राचीन भौतिकवाद और आधुनिक बौद्ध रहस्यवाद सहित मध्यकालीन संतों के भक्ति आन्दोलन को और उनके सनातन शत्रुओं को एकसाथ एक सीधी रेखा में बाँध देता है।
इसी पूरी विमर्श यात्रा में यह लेख तीन दावे करना चाहता है पहला यह कि देव असुर संग्राम के बहुत पहले ही आर्य और कोयावंशी गोंड संग्राम हो चुका था। दूसरा दावा ये कि गोंडों के संभुशेक, असुरों के महिषासुर और ब्राह्मणी धर्म के महादेव एक ही व्यक्ति या संस्था हैं व आज के ‘शिव’ या ‘शंकर’ उनका विकृत व ब्राहमणीकृत रूप हैं । तीसरा दावा ये कि श्रमण दर्शन और पारी कुपार लिंगो का पुनेम दर्शन आपस में जुड़े हुए हैं और बहुत बाद में गौतम बुद्ध इसी पुनेम दर्शन की आरंभिक प्रवृत्तियों और मान्यताओं पर अपने विस्तृत दर्शन का भवन खड़ा कर रहे हैं। इसी कारण महिषासुर के मिथक सहित संभूशेक, गोंडी धर्म, असुर व श्रमण व मातृसत्तात्मक या तांत्रिक या लोकायतिक दर्शनों पर और अधिक गहराई से शोध की आवश्यकता है। यह शोध बहुजन समाज की मूल संरचना और उसके ऐतिहासिक उद्विकास सहित उसके पतन की खोज है ताकि ब्राह्मणी या आर्य षड्यंत्र को उसकी सम्पूर्णता में देखा जा सके। यही शोध आज हमारी आँख के सामने चल रहे उसी सनातन षड्यंत्र को दुबारा उजागर करेगा। यह न केवल ऐतिहासिक अर्थों में उद्विकास और पतन की नयी तस्वीर को उजागर करेगा, बल्कि भविष्य में ब्राह्मणवादी पाखण्ड के शमन के लिए प्रगतिशीलों और मुक्तिकामियों सहित संपूर्ण बहुजन समाज के सभी धडों को एक साथ संगठित भी करेगा। यही अंततः एक निरीश्वरवादी प्रकृतिरक्षक मातृसत्तात्मक और ‘इस लोक’ में भरोसा करते हुए परलोक को नकारने वाले वैज्ञानिक व समतामूलक समाज की भारत में स्थापना का आधार बनेगा।
सन्दर्भ –
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[28] मुख्य पुजारी
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[43] प्रमोद रंजन (संपादक), 2014 महिषासुर दुसाध प्रकाशन कल्याणपुर लखनऊ p 11
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