डॉ. भीमराव आंबेडकर एक भारतीय राजनेता और राजनीतिक सुधारक थे। उनके व्यक्तित्व के विकास में उनके खुद के बौद्धिक प्रयासों की अहम भूमिका है। उनके व्यक्तित्व के विकास में पश्चिमी शैक्षिक संस्थाओं की बड़ी भूमिका रही है, जहां उन्होंने औपचारिक शिक्षा प्राप्त की, जैसे कि कोलंबिया विश्वविद्यालय, लंदन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स, ग्रेस इन और यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन। लेकिन उनके व्यक्तित्व के विकास सारा श्रेय इन्हीं संस्थाओं को नहीं दिया जा सकता है। उनके व्यक्तित्व के विकास में उनके स्वध्याय की अहम भूमिका है। जिन किताबों का उन्होंने अध्ययन किया, उनकी सूची बहुत लंबी है। वे आजीवन अध्ययन करते रहे। जब विद्यार्थी रहे तब भी, एक परिपक्व राजनेता बने तब भी, और बाद में जब बौद्ध धर्म अपनाया, उस समय भी। जिन लेखकों और किताबों को उन्होंने पढ़ा. उसे आत्मसात किया, उस पर चिन्तन-मनन किया व अपनी राय कायम की। यह कहा जा सकता है कि आंबेडकर के बाद के जीवन को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाले व्यक्ति जॉन डेवी थे। जॉन डेवी ने आंबेडकर के सोचने के तरीके को गहरे में प्रभावित किया और सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता का रास्ता चुनने में मदद की। कोलंबिया विश्वविद्यालय में 1913-1916 के अध्ययन के दौरान जॉन डेवी उनके सबसे पसंदीदा अध्यापक थे। जॉन डेवी ने ही उन्हें सबसे ज्यादा प्रभावित किया था, इस निर्णय पर हम आंबेडकर द्वारा बाद की अपनी किताबों और भाषणों में डेवी के व्यवहारिकतावादी विचारों, शब्दों और पद्धतियों के व्यापक इस्तेमाल और उनके व्यक्तिगत पुस्तकालय में डेवी के किताबों के विशाल संग्रह के आधार पर पहुंच सकते हैं।[i] यद्यपि कि इस संक्षिप्त अध्ययन में एक अन्य ख्यातिलब्ध पश्चिमी दार्शनिक ने किस रूप में उन्हें प्रभावित किया, इसे देखना चाहते हैं, जिनकी चर्चा अक्सर आंबेडकर को प्रभावित करने वाले व्यक्तित्व के रूप में की जाती है, वह व्यक्तित्व ब्रिटिश दार्शनिक बर्टेड रसेल (1872-1970 ) हैं।
आंबेडकर और रसेल के बीच ठीक-ठीक क्या सम्बन्ध रहे हैं। इसे समझने की शुरूआत करने के लिए हमारी मदद करने वाली बुहत कम सामग्री हमारे पास उपलब्ध हैं। आंबेडकर रसेल की किताबों से परिचित थे, विशेषकर 1916 की किताब ‘प्रिंसिपल्स ऑफ सोशल रिकंस्ट्रक्शन’। यह उनकी बाद की किताब थी। इस किताब की आंबेडकर ने समीक्षा की थी। यह समीक्षा 1918 में ‘जर्नल ऑफ दी इंडियन इकोनामिक सोसाइटी’ में प्रकाशित हुई।[ii] जिस किताब की उन्होंने समीक्षा की थी, वह 1917 की पुनर्मुद्रित प्रति थी। यद्यपि कि सिद्धार्थ कॉलेज मुम्बई और सिमबियोसिस इस्टीट्यूट पुणे में इस किताब की कोई प्रति उपलब्ध नहीं है। इन्हीं दो जगहों पर आंबेडकर के व्यक्तिगत पुस्तकालय की किताबें रखी गई हैं। आंबेडकर पर रसेल के प्रभाव को उनके आपसी सम्बन्धों के आधार पर खोजा जा सकता है। बहुत सारे महत्पूर्ण माध्यम और आंबेडकर के विकास का काल-क्रम यह साबित करते हैं कि दोनों मिले थे। यह मुलाकात रसेल की किताब की 1918 में की गई आंबेडकर द्वारा की गई समीक्षा पर बात-चीत के सिलसिले में 1920 में हुई थी। धनंजय कीर द्वारा अंग्रेजी में लिखी गई, आंबेडकर की प्रमाणिक जीवनी में इस तरह की किसी मुलाकात का कोई जिक्र नहीं है, लेकिन अन्य लोग इस मुलाकात की चर्चा करते हैं। विजय मानकर 1920 में आंबेडकर के लंदन लौटने की बात करते हुए लिखते हैं कि “लंदन में दार्शनिक बर्टेड रसेल ने डॉ. आंबेडकर को ‘दी प्रिंसिपल्स ऑफ सोशल रिकंस्ट्रक्शन’ पर बात-चीत करने के लिए आंमत्रित किया था, जिस किताब पर 1918 की शुरूआत में आंबेडकर ने अपनी राय रखी थी।”[iii] के.एन. कदम भी एक दिलचस्प घटना का संदर्भ मुहैया कराते हैः “ डॉ. आंबेडकर को 1920 में बर्टेड रसेल द्वारा ‘प्रिंसिपल्स ऑफ सोशल कंस्ट्रक्शन’ के संबंध में उनके द्वारा लिखी गई समीक्षा पर बातचीत करने के लिए आमंत्रित किया गया था। दुर्भाग्य से इन दो बुद्धिजीवियों के बीच हुई बातचीत का कोई दस्तावेज हमारे पास उपलब्ध नहीं है।[iv]” कदम अपनी आगे के 1920 के कालक्रम में दर्ज करते हैं कि “ डॉ. आंबेडकर को प्रतिष्ठित दार्शनिक बर्टेड रसेल द्वारा ‘प्रिंसिपल्स ऑफ सोशल रिकंस्ट्रक्शन’ पर बातचीत के लिए आंमत्रित किया गया था।”[v] विजय मानकर आंबेडकर के लंबे जीवन-क्रम के अपने विवरण “1920” में ठीक यही बात कहते हैं।[vi] राजकुमार भी कदम के कालक्रम का ही अनुसरण करते हैं और 1920 में रसेल के आमंत्रण को दर्ज करते हैं।[vii] पूर्ण आत्मविश्वास के साथ हम इन दो चिन्तकों के संबंध के बारे में क्या कह सकते हैं? क्या एक ऐसे आमंत्रण या मुलाकात की घटना 1920 में घटी थी? इन दोनों चिन्तकों के आपसी संबंधों से कौन-कौन सी ऐसी चीजें है, जिसके आधार पर हम यह तय कर सकते है कि रसेल ने डॉ. आंबेडकर को प्रभावित किया था। ज्यादा प्रमाणों के साथ इस बात का जवाब तभी दिया जा सकता है, जब आंबेडकर की शिक्षा, चिन्तन और उनके ऊपर पड़ने प्रभावों का गहराई से अध्ययन करें।
बर्टेड रसेल कौन थे?
बर्टेड रसेल ने जिन विषयों पर काम किया है, उसका दायरा अत्यन्त विस्तृत है। वे एक नैतिक दार्शनिक और कार्यकर्ता थे। नोबेल पुरस्कार विजेता होते हुए जनता के बुद्धिजीवी थे। उन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटेन के शामिल होने का सख्ती से विरोध किया था। रसेल ने अपने जीवन के अन्तिम दिनों में परमाणु निशस्त्रीकरण के लिए अभियान चलाया। परमाणु निशस्त्रीकरण के उनके अभियान को बर्टेड रसेल पीस फाउंडेशन द्वारा आज भी चलाया जा रहा है। गणित और तर्क के दार्शनिकों के बीच वे अपने गणित और तर्क में बिल्कुल नई प्रस्थापनाएं प्रस्तुत करने के लिए जाने जाते हैं। जिन प्रस्थापनाओं को उन्होंने ‘प्रिसिंपिया मैथमेटिका’ में दिया। जिसे उन्होंने अल्फ्रेड नार्थ ह्वीटहेड के मिलकर लिखा था। रसेल ने मनोविज्ञान और भौतिकी में भी काम किया। इस विषय पर उनकी दो किताबें- ‘दी एनालिसिस ऑफ माइंड’ (1921) और ‘दी एनालिसिस ऑफ मैटर’ हैं। जो आज भी अपने विद्वतापूर्ण अध्ययन के लिए ध्यान खींचती हैं। शायद एक आम पाठक के लिए उनका सबसे ज्यादा रोमांचक काम ज्ञान-मीमांसा और तत्व-मीमांसा है जिसमें उन्होंने अपने तर्कों का व्यवहारिक इस्तेमाल किया है। इस इस्तेमाल को उनकी किताबों ‘आवर नॉलेज ऑफ एक्शटरनल वर्ल्ड एज ए फिल्ड फार साइंटिफिक मेथड इन फिलॉसफी’ (1914 ) और ‘दी फिलॉसफी ऑफ लॉजिकल एटोमिज्म’ ( 1918 ) में हम देख सकते हैं। दर्शन को लोकप्रिय बनाने वाली उनकी किताब ‘दी प्राब्लम ऑफ फिलॉसफी’ लगभग प्रकाशित होने के साथ ही एक उत्कृष्टतम रचना का दर्जा हासिल कर लिया। इसे अंग्रेजी में दर्शन की सबसे अच्छी प्रस्तावना प्रस्तुत करने वाली किताबों में गिना जाता है। कुछ इसी प्रकार की बात गणित और तर्क के काम को लोकप्रिय बनाने वाली उनकी दो किताबों के बारे में कहा जा सकता है। इन किताबों का क्रमशः नाम है ‘इंट्रोडक्शन टू मैथमेटिकल फिलॉसफी’ ( 1919 ) और ‘सापेक्षिकता का एबीसी’ (1925)।
यह संक्षिप्त और अधूरी जानकारी बताती है कि रसेल विविध रूचियों के दार्शनिक थे, लेकिन 1900 से 1925 तक के उनके कामों के सार को विषय-वस्तु की दृष्टि से इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता हैः 1903 से 1910 तक वह मुख्यतः तर्क से जूझते रहे और ‘प्रिसिपिया’, लिखा, 1910 से 1914 तक रसेल ने ज्ञानमीमांसा और तत्वमीमांसा पर भी ध्यान केन्द्रित किया और 1918 से 1925 तक भौतिकी और मनोविज्ञान पर।[viii] तर्क रसेल के लिए शुष्क और व्यवहारिक अध्ययन का क्षेत्र नहीं था। वे तर्क का इस्तेमाल महत्वपूर्ण सैद्धांतिक और समाज-सम्बन्धी समस्याओं का समाधान खोजने के लिए करते थे। 1910 से 1925 के पूरे दशक में वे स्वयं को ‘प्रिंसपिया’ के अपने तार्किक कामों को, दर्शन की अनसुलझी पुरानी समस्याओं के समाधान करने में इस्तेमाल करते रहे। इसके पीछे यह उम्मीद थी कि इससे दार्शनिक प्रगति सुनिश्चित होगी। लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने दर्शन के तकनीकी कामों के बड़े हिस्से को किनारे लगा दिया। मानव के भविष्य की चिन्ता व्यापक उनके लिए महत्वूर्ण हो गई, जो उनकी अन्य रूचियों पर भारी पड़ गई। उन्होंने खुल्लम-खुल्ला युद्ध और सेना में अनिवार्य सैन्य भर्ती का विरोध किया। युद्ध का विरोध करने के चलते उन्हें जुलाई 1916 में व्याख्याता की नौकरी खोनी पडी, यहाँ तक कि वे 1 मई 1918 से 14 सितंबर 1918 तक जेल में बन्द रहे।[ix] अपनी इस राजनीतिक सक्रियता के तौर में उन्होंने बहुत विस्तृत रूप में राजनीति और समाज पर लिखा। इसका उद्देश्य यह था कि कैसे एक अन्य युद्ध को टाला जा सकता है और मानवता के भविष्य को सुरक्षित किया जा सकता है। उन्होंने 18 जनवरी से 7 मार्च 1916 तक व्याख्यान दिए, ये व्याख्यान 1917 में ‘ प्रिंसिपल्स ऑफ सोशल रिकंस्ट्रक्शन’ के रूप में प्रकाशित हुआ और अक्टूबर 1916 का व्याख्यान ‘ पोलिटिकल आडियल्स’ के रूप में प्रकाशित हुआ।[x]
रसेल–आंबेडकर मुलाकात की संभावनाओं की तलाश
यह सुनिश्चित करने के लिए कि इन दो चिन्तकों के बीच मुलाकात हुई थी या नहीं, हमें यह सावधानीपूर्वक यह जरूर तय करना चाहिए कि इस प्रकार की मुलाकात कब हो सकती थी। जो कालक्रम इस प्रकार के मुलाकात का जिक्र करते हैं, वे सभी “1920” की ओर संकेत करते हैं। लेकिन ये संकेत इस मुलाकात के तारीख के बारे में कोई ठोस सूचना नहीं देते हैं। लंदन में आंबेडकर और रसेल के मिलने की कब संभावना बनती है, इस बात का ठीक-ठीक पता लगाने के लिए हम एक तरीका अपना सकते हैं। वह तरीका यह है कि दोनों के बीच मुलाकात हुई थी या नहीं, इसका समर्थन करने वाले और इसे खारिज करने वाले तथ्यों को संग्रहित करें। 1920 में कब आंबेडकर लंदन आए थे? इस साधारण से प्रश्न का उत्तर देना भी कठिन है। कदम के दिए गए कालक्रम के अनुसार 5 जुलाई 1920 को आंबेडकर मुम्बई से लंदन के लिए जहाज( समुद्री रास्ते से ) से चले।[xi] यद्यपि कि किस तारीख को वे लंदन पहुँचे यह पक्के तौर पर नहीं पता है । प्रथम विश्व युद्ध से पहले 1910 के दशक में ब्रिटिश साम्राज्य ने पानी के जहाज से जिस यात्रा की शुरूआत की थी, उसके विवरणों के अनुसार बाम्बे से लंदन की यात्रा में 10 से 12 दिन का समय लगता था।[xii] इसके आधार पर हम एक मोटे तौर पर अनुमान लगा सकते है कि चाहे जितनी भी जल्दी आंबेडकर लंदन पहुँचे होंगे, 15 जुलाई 1920 से पहले नहीं पहुँचे होंगे। सारी संभावनाएं यह बताती हैं कि इसके बाद ही आंबेडकर लंदन पहुंचे थे। आंबेडकर के लंदन में दूसरे प्रवास का जो सबसे शुरूआती पत्र हमारे पास हैं, वह एक संदेश है। यह संदेश उन्होंने कोलंबिया के अपने प्रोफेसर एडविन सेलिगमैन को लिखा था। जिनसे आंबेडकर ने एक परिचयात्मक पत्र लिखने को कहा था। इस पत्र पर आंबेडकर ने “लंदन 3/8/20” की तारीख का जिक्र हैं, जो इस बात को प्रमाणित करता है कि वे 3 अगस्त 1920 को तो लंदन में थे ही।[xiii]
इस पहेली का दूसरा पहलू रसेल से जुड़ा है। 1920 में ही रसेल ने एक वर्षीय लंबी यात्रा प्रारंभ की थी। इस यात्रा में उन्हें चीन के विश्वविद्यालयों में व्याख्यान भी देना था। इस व्याख्यान का एक हिस्सा ठीक उसी समय था, जो आंबेडकर के अमेरिकन गुरू जॉन डेवी के व्याख्यान का समय था। इस लंबी यात्रा के लिए रसेल ने कब लंदन छोड़ा? इस बारे में निर्णय रसेल के पत्र के आधार पर ले सकते हैं। उन्होंने चीन की यात्रा करने के आमंत्रण को स्वीकार करने का निर्णय 23 जुलाई 1920 को लिया।[xiv] रसेल और उनकी साथी डोरा विनिफ्रेड ब्लैक ने 15 अगस्त 1920 को मारसाइलेश (फ्रांस का एक बंदरगाह) जाने के लिए लंदन से प्रस्थान किया।[xv] फ्रांस से अन्ततोगत्वा 6 सितंबर 1920 को एक जहाज से चीन के लिए प्रस्थान किया। 25 अगस्त 1921 के पहले रसेल इंग्लैण्ड वापस नहीं आए, 25 अगस्त 1921 को ही वे लीवरपुल पहुँचे थे।[xvi] इन दो चिन्तकों के बीच 1920 में किसी भी मुलाकात की संभावना आंबेडकर के लंदन में 15 जुलाई के सम्भावित आगमन और रसेल के 15 अगस्त को लंदन छोड़ने के बीच की अवधि ही हो सकती है। वास्तव में यह मुलाकात हुई या नहीं इसे हम इस बीच की अवधि के आधार पर ही प्रमाणित कर सकते हैं या यह मानना पडेगा कि इस मुलाकात कहानी मनगढ़ंत है?
आंबेडकर और रसेल के बीच मुलाकात के प्रमाणों की खोज
अगस्त 1920 में आंबेडकर और रसेल दोनों लंदन में मौजूद थे। उस समय के आंबेडकर के निवास स्थान 96 ब्रुकग्रीन से रसेल के निवास स्थान ओवरस्ट्रैंड मेंशन पहुंचने में डेढ़ घंटे का समय लगता था। लंदन में आंबेडकर और रसेल के निवास स्थान का आसपास होना और उनकी कॉमन रूचियां किसी को भी यह अनुमान लगाने के लिए प्रेरित करती हैं कि वे 1920 की गर्मियों में मिले थे। यद्यपि कि इस प्रकार की किसी मुलाकात का कोई ऐसा पुख्ता प्रमाण नहीं मिलता है, जिसे हम रेखांकित कर सकें। इसका निहितार्थ यह नहीं है कि ऐसी मुलाकात कभी हुई ही नहीं थी। ऐसे अनखोजे दस्तावेज या स्रोत हो सकते हैं जो इस मुलाकात का पुख्ता प्रमाण प्रस्तुत कर सकें। लेकिन वे मिले थे, बिना पुख्ता प्रमाणों के यह अनुमान लगाते समय हमें सचेत रहना चाहिए। जिन सम्भव प्रमाणों को हमने चिन्हित किया, उस पर संक्षिप्त चर्चा के बाद हम यह कह सकते हैं कि इस तरह की कोई मुलाकात हुई थी, उस पर संदेह करने के पर्याप्त कारण हैं।
पहली बात यह कि रसेल अपने जीवन-काल के अधिकांश हिस्से में अपनी मुलाकातों और मिलने के समयों का रिकॉर्ड रखने के लिए एक पॉकेट डायरी रखते थे। 1906 से 1907 के बीच के समय को छोड़कर 1902 से 1969 तक यह डायरी उनके पास रही। उनकी मृत्यु के एक वर्ष पहले तक।[xvii] इस आलेख के एक लेखक (एलकिंड) मई 2017 में कनाडा के एम.सी. मास्टर यूनिवर्सिटी के बर्टेड रसेल लेखागार गए। उन्होंने 11 जुलाई 1920 से 17 अगस्त 1920 के बीच की अवधि के बारे में उनके पॉकेट डायरी का निरीक्षण किया। यह वही समय है, जब 1920 के दौरान आंबेडकर और रसेल दोनों लंदन में थे। इस पॉकेट डायरी में जबकि बहुत सी मुलाकातें दर्ज हैं, लेकिन रसेल की पॉकेट डायरी इन तारीखों में अबेडकर और रसेल के मुलाकात का कोई संदर्भ सामने नहीं लाती। यह डायरी उन दो पतों के बारे में भी कुछ नहीं कहती, जहाँ 1920 से 1922 के बीच आंबेडकर रहे। यहाँ एक संभावना यह बनती है कि यह मुलाकात किसी तीसरे व्यक्ति के नाम पर तय की गई हो। लेकिन डायरी में कोई भी प्रविष्टि आंबेडकर या उनके जाने-पहचाने की किसी सहयोगी से संबंधित नहीं है।
दूसरी बात यह कि रसेल की आर्काइव्स के ऑनलाइन डाटाबेस को सर्च करने पर यह तथ्य सामने आता है कि आंबेडकर और रसेल के बीच मुलाकात का कोई रिकॉर्ड नहीं है। रसेल के आर्काइव्स का ऑनलाइन डाटाबेस जिसे ब्रेसर्स की संज्ञा दी गयी है, वह अध्येताओं को सुविधा देता है कि वे रसेल से संबंधित 131,537 पत्रों और दस्तावेजों की खोजबीन कर सके।[xviii] इस पुस्तकालय के रिकॉर्ड में, पत्र के प्राप्तकर्ता और प्रेषक दोनों के द्वारा पत्र प्रेषित करने और प्राप्त करने की तारीख, वह जगह जहाँ से पत्र भेजा गया (यदि प्रेषक रसेल हैं), का विवरण है। ब्रेसर्स डाटाबेस अध्येता को की-वर्ड्स, नामों तारीखों और अन्य चीजों के लिए संग्रहित सूचनाओं की खोज करने की सुविधा देता है। लेकिन इसी को एकमात्र सबसे पुख्ता प्रमाण मानने के प्रति जरूर सावधान रहना चाहिए, क्योंकि ऐसा कभी-कभी ही होता है कि डाटाबेस में मौजूद सारांश दिए गए दस्तावेज के समग्र विषय-वस्तु को अपने में समाहित किए हो। दूसरे शब्दों में ब्रेसर्स का सर्च इस बात का पुख्ता प्रमाण नहीं है कि कोई कीवर्ड या नाम रसेल आर्काइव में हाल में शामिल किए किसी पत्र में है ही नहीं। लेकिन यह भी तथ्य है कि 131,537 स्रोतों के सारांशों में कभी न पाए जाने वाले कीवर्ड या नाम न होना, इस दावे को काफी हद तक खारिज करता है कि वहां पर मुलाकात की पुष्टि करने वाले संदर्भ कहीं दबे पडे हैं।
ब्रेसर्स का सर्च आंबेडकर के साथ किसी मुलाकात या मुलाकात के लिए आमंत्रण का कोई संकेत नहीं देता है। रसेल के पत्रों का ऑनलाइन डाटाबेस “भीमराव” और “आंबेडकर” सर्च करने पर प्रत्युत्तर नहीं देता है। 1920 से 1922 के बीच आंबेडकर लंदन के दो जिलों में रहे। पहले हैमरस्मिथ के 96 ब्रुकग्रीन में और उसके बाद चाल्क फार्म के 10 किंग हेनरी रोड[xix] में रहे। स्ट्रीट एड्रेसेज को पत्र-व्यवहार से परस्पर संबंधित करके ब्रसर्स में सर्च करने पर कोई परिणाम नहीं आता है। चाल्क फार्म डिस्ट्रिक्ट सर्च करने पर कोई परिणाम नहीं आता है, जबकि हैमरस्मिथ जिला सर्च करने पर 1920 के संदर्भ में केवल दो परिणाम सामने आते हैं। इनमें से पहला रसेल द्वारा मार्च 1920 में कॉन्स्टैन्स मैलेसन्स को लिखा गया पत्र है[xx]। दूसरे में रसेल की कोई भूमिका ही नहीं हैः यह दूसरा पत्र 1920 का है जो रसेल के भाई को निगेल प्लेफेयर द्वारा लिखा गया है, जो हैमरस्मिथ के लिरिक थियेटर के अभिनेता और प्रबंधक थे[xxi] जुलाई-अगस्त के दौरान किसी भी तारीख को कोई भी पत्र आंबेडकर और रसेल के बीच मुलाकात हुई होगी, यह नहीं बताता। इसके अलावा रसेल के पत्र-व्यवहार की सूची में 44,796 सुस्पष्ट नाम सामने आते हैं।
यह सारी चीजें हमें इस निष्कर्ष की ओर ले जाती हैं कि आंबेडकर और रसेल के बीच मुलाकात या मुलाकात के आमंत्रण का हमारे पास पर्याप्त प्रमाण नहीं हैं। हो सकता है कि ऐसी कोई मुलाकात हुई हो, लेकिन आंबेडकर और रसेल जैसे प्रतिष्ठित व्यक्तियों के इतिहास के लिए इस तथ्य का सटीक होना अत्यन्त आवश्यक है, चाहे इसके लिए कितनी ही कड़ी मेहनत ही क्यों न करनी पड़े। इसलिए हमारे सामने जो प्रमाण मौजूद हैं, वे हमें इस ओर ले जाते हैं कि हम इस मुलाकात से इंकार करें, हालांकि हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि ऐसे प्रमाण मिल सकते हैं, जो यह दिखाएं कि ऐसी मुलाकात हुई थी। फिलहाल यही निष्कर्ष हमारे सामने आता है कि यदि आंबेडकर पर रसेल का कोई प्रभाव था, तो वह उनके लिखित साहित्य के माध्यम से ही था।
आंबेडकर ने किया था रसेल के बौद्धिक प्रभाव को स्वीकार
जबकि हम यह चिन्हित कर चुके हैं कि आंबेडकर से रसेल की मुलाकात का हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है। तो अब हम रसेल की कृतियों का आंबेडकर पर क्या प्रभाव पड़ा इसका आकलन करते हैं। हम देखते हैं कि रसेल के लेखन ने एक चिन्तक और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता के तौर पर आंबेडकर के विकास को प्रभावित किया। हम जानते हैं कि आंबेडकर ने रसेल की 1916 में प्रकाशित किताब ‘प्रिंसिपल्स ऑफ सोशल रिस्कंस्ट्रक्शन’ की एक समीक्षा लिखी थी। आंबेडकर की यह समीक्षा ‘जर्नल ऑफ दी इंडियन इकोनामिक सोसाइटी’ के पहले वाल्यूम में 1918 में प्रकाशित हुई थी। हम अनुमान लगा सकते हैं कि आंबेडकर ने इस किताब का 1917 का पुनर्मुद्रित ब्रिटिश संस्करण पढ़ा था। आंबेडकर ने इस किताब के शीर्षक और प्रकाशन की तारीख का जिक्र अपनी समीक्षा में किया है। इस किताब का अमेरिकन संस्करण भी 1917 में मुद्रित हुआ था[xxii], जिसका शीर्षक ‘व्हाई मैन फाइट’ था। इस किताब का ब्रिटेन में प्रकाशित होना हमें इस बात का अंदाजा लगाने की ओर ले जाता है कि आंबेडकर ने 1916-1917 में लंदन में अपने अध्ययन के दौरान इस किताब को पढा। हालांकि यह जानना कठिन है कि वास्तव में कब उन्होंने इसकी समीक्षा लिखी थी।
वास्तव में किस रूप में रसेल की किताब ने आंबेडकर को प्रभावित किया? इस मामले की खोजबीन करने वाले एक लेखक (स्ट्राउड) ने रसेल की किताब के साथ आंबेडकर के रिश्ते की खोज की है। इस रिश्ते के बीच में आंबेडकर के अध्यापक जॉन डेवी की क्या भूमिका थी, इसका विस्तार से वर्णन किया है। लेकिन यहां हम आंबेडकर को प्रभावित करने वाले कुछ मुख्य तत्वों को सार रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं।[xxiii] रसेल की किताब अमेरिकी व्यहारवादी बिलियम जेम्स के मनोविज्ञान से प्रभावित थी। जेम्स की चिन्ता का विषय संस्थाओं और मानवीय मनोविज्ञान के बीज के अन्तर्सम्बन्ध थे[xxiv]। उदाहरण के लिए कैसे व्यक्तिगत आक्रामकता की आदतें सामाजिक संस्थाओं से संलग्न हो जाती हैं, जो हिंसा और जोर-जबर्दस्ती को बढ़ावा देती है। रसेल अपनी किताब में जिन विषयों का उल्लेख करते हैं, उनमें से यह एक है। सुधार का प्रश्न भी रसेल की चिन्ता का विषय है। वे इस पर विचार करते हैं कि कैसे हम उन सामाजिक संस्थाओं को परिवर्तित करने के लिए हस्तक्षेप करें, जिन्हें हम पसंद नहीं करते हैं? अपने वयस्क जीवन के अधिकांश हिस्से में रसेल किसी न किसी प्रकार की सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता में शामिल रहे। इस किताब में रसेल सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता के प्रभावों पर चिन्तन-मनन करते हैं, यहां तक कि सैन्य हिंसा के माध्यम से दुनिया को बदलने का राज्य-प्रेरित प्रयास भी इसमें शामिल हैं। लेकिन कुछ बिन्दुओं पर रसेल के मन में दुविधा हैं। वे सोचते हैं कि सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता और सुधारक भी उसी तरीके से ताकत का इस्तेमाल करते हैं, जैसा कि उत्पीड़क करते हैं। जो लोग दुनिया को या सामाजिक संस्थाओं को बदलना चाहते हैं और अपने बदलाव का लक्ष्य ‘न्याय’ की स्थापना मानते हैं। ऐसे लोगों के बारे में रसेल टिप्पणी करते हैं कि “जिन बातों का न्याय के नाम पर दावा किया जाता है या जिनका परंपरा और रूढ़िगत अधिकार के नाम पर विरोध किया जाता है। ऐसा करने वाला प्रत्येक पक्ष ईमानदारी से यह विश्वास करता है कि वह ही विजय का अधिकारी है। इसका कारण यह है कि समाज ये दोनों विचार एक साथ ही हमारे चिन्तन में चलते रहते हैं। आदमी अचेतन रूप से उस सिद्धांत को चुनता है, जो उसके हितों के अनुकूल होते हैं। यह संघर्ष लंबा और दुष्कर होता है। इसका परिणाम होता है कि सारे सामान्य सिद्धांत धीरे-धीरे भूल जाते हैं और अन्त में खुद के लिए संघर्ष के अलावा कुछ नहीं बचता। रसेल कहते हैं कि जब उत्पीड़ित जीत जाता है और अपनी आजादी प्राप्त कर लेता है, तो वह अपने भूतपूर्व मालिक के लिए वैसा ही उत्पीड़क हो जाता है, जैसा वह था[xxv]।
रसेल ने न्याय के लिए संघर्ष करने वालों के सामने एक प्रश्न रखा था । इस प्रश्न की गंभीरता को आंबेडकर ने भी महसूस किया। वह प्रश्न यह था कि कैसे एक सुधारक न्यायपूर्ण समाज की रचना कर सकता है, अन्याय के नए रूपों की रचना किए बिना? इस प्रश्न के जवाब की खोज में आंबेडकर अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में बुद्ध की शिक्षा व संदेशों की ओर देखते हैं। उन्होंने अपनी समझ को अपनी किताब ‘बुद्ध और उनका धम्म’ (1957) में प्रस्तुत किया। इस किताब के विविध स्थल ऐसे हैं, जहां कहा गया है कि हर किसी को अपने शत्रु के साथ करूणा और प्रेम का व्यवहार करना चाहिए। यहां तक उस स्थिति में भी जब आप उस व्यक्ति को ‘शत्रु’ का दर्जा भी दे सकते हों, क्योंकि वह आपके प्रति करूणा या प्रेम प्रकट नहीं करता।
वे लोग जो समाज को सुधारने में लगे हैं, उनके साथ यह एक गहरी समस्या है कि वे मतभेदों और अपने भीतर के अनजाने अन्याय से भरे होते हैं। वे लोग यह सोचते हैं कि कैसे आप उस व्यक्ति को सहन कर सकते हैं या प्रेम कर सकते हैं, जो आपको सहन नहीं करता और आपको प्रेम भी नहीं करता, या कैसे आप उस व्यक्ति का सम्मान करेंगे। आंबेडकर के बौद्धिक विकास के आरंभिक दौर में प्यार और दयालुता को मुख्य स्थान नहीं प्राप्त है। बल्कि साधन और साध्य की समस्या से जूझते हुए उन्होंने अपनी बौद्धिक यात्रा की शुरूआत की थी। अपनी जिंदगी के बाद के वर्षों में उन्होंने इस समस्या का समाधान धैर्यपूर्वक संवाद करने के बुद्ध के विचारों और सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता में तलाशा। अपनी 1918 की समीक्षा में आंबेडकर ने रसेल की हिंसा की आलोचना को अपने अमेरिकी अध्यापक जॉन डेवी के दर्शन के आधार पर जांचा परखा। उन दिनों 1913 से 1916 तक जॉन डेवी कोलंबिया यूनिवर्सिटी में थे। ‘प्रोफेसर डेवी की भाषा’ का उपयोग करते हुए आंबेडकर रसेल की हिंसा की आलोचना का पुनर्पाठ करते हुए कहते है कि रसेल वास्तव में ‘केवल हिंसा के रूप में ताकत प्रयोग का विरोध’ करते हैं, पर ‘ऊर्जा के रूप में ताकत के प्रयोग’ का वह पूर्ण समर्थन करते हैं।[xxvi] यहां एक दुविधा दिखती है। इस दुविधा की तलाश आंबेडकर के कोलंबिया यूनिवर्सिटी के दिनों में की जा सकती है और इसकी व्याख्या 1915 से 1916 के दौरान डेवी के व्याख्यानों के आधार पर की जा सकती है।[xxvii] डेवी का मानना है कि जो कुछ आप चाहते हैं, उसके लिए कुछ ताकत की जरूरत होती है। यह बात न्याय के मामले में भी लागू होती है। रसेल की किताब की समीक्षा में आंबेडकर अपने विचारों को आगे बढ़ाते हुए तर्क देते हैं कि “ जो लोग ताकत के प्रयोग का विरोध करते हैं, उन्हें यह जरूर याद रखना पड़ेगा कि ताकत के प्रयोग के बिना सभी आदर्श उसी प्रकार कोरे आदर्श रह जाएंगे, जिस प्रकार किसी सचेत अथवा अचेत आदर्श अथवा प्रयोजन के बिना संपूर्ण पुरूषार्थ केवल व्रजमूर्खता होगी।[xxviii] सुधार ताकतवर साधनों की मांग करते हैं।“
अन्य लोगों की तरह रसेल भी ‘महान युद्ध’ का विरोध करते हैं। इसका कारण यह है कि वे देख रहे थे कि यदि हिंसा का इस्तेमाल करके न्याय हासिल भी हो जाता, तो भी इसके बारे में ज्यादा से ज्यादा यही कहा जा सकता है कि यह गलत रास्ते पर ले जाने वाला प्रयास था। वे युद्ध को हिंसात्मक साधनों का इस्तेमाल करने वाली संस्थाओं और मनोवैज्ञानिक आदतों को पोषित करने वाला और उन्हें बढ़ावा देने वाला मानते थे। डेवी के एक व्यवहारवादी अनुयायी के रूप में आंबेडकर रसेल की इस आलोचना पर अपनी राय देते हैं और हर उस व्यक्ति की आलोचना करते हैं, जो वर्तमान यूरोपीय युद्ध’ का इस्तेमाल ताकत के दर्शन की निंदा करने, पलायनवाद के सिद्धांत और अ-प्रतिरोध के सिद्धांत का समर्थन करने के लिए करता हैं।[xxix] ऐसा करते समय निश्चित तौर पर आंबेडकर के दिमाग में कहीं न कहीं अतीतकालीन और उनके समकालीन भारत की अहिंसा के प्रति झुकाव की मनोवृत्ति ध्यान में थी। यह मनोवृत्ति हिंदुओं के सोचने की परंपरागत हिंदू व्यवस्थाओं पर आधारित थी। आंबेडकर देख रहे थे कि रसेल की हिंसा की आलोचना हिंदुओं के सोचने के तरीकों से मेल खाती है, यह चीज उनके द्वारा रसेल की किताब की समीक्षा की इन पंक्तियों में प्रकट होती है – “ समकालीन भारतीय पाठक रसेल के नजरिए को सटीक तरीके से प्रकट करते हैं। निष्क्रिय जीवन और अ-प्रतिरोध के सिद्धांत के प्रति उनका आग्रह उन्हें अनजाने ही रसेल की हिंसा की आलोचना से सहमति की ओर ले जाता है।“ इसी बात को ध्यान में रखकर आंबेडकर कहते हैं कि मैं सशंकित हूं कि रसेल की किताब उनके ( हिंदुओं के ) जीवन दर्शन को न्याय संगत ठहरा सकती है।[xxx] आंबेडकर उस औपनिवेशिक भारत की संरचना में रसेल की समीक्षा को आरोपित करने के खतरनाक परिणामों से चिन्तित थे। जो भारत राजनीतिक स्वतंत्रता और संभवतः सामाजिक सुधार के रास्ते की खोज में उथल-पुथल के झंझावातों से गुजर रहा है।
हम यह कह सकते हैं कि रसेल की किताब ने आंबेडकर को प्रभावित किया था। इस किताब ने इस भारतीय सुधारक को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वह इस बात को स्पष्ट करें कि सुधार और उसकी सीमाओं के बारे में वह क्या सोचते हैं। रसेल के प्रभाव ने आंबेडकर को सुधार और सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता के मामले में खुद के व्यवहारवदी दर्शन को विकसित करने के लिए प्रेरित किया। यह सच है कि आंबेडकर ने रसेल से सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता की सदाचार संबधी अवधारणा को लिया था। लेकिन वह इस बात से चिन्तित भी थे कि कैसे हिंसा की रसेल की यह समीक्षा बहुत सारी हिन्दू विचारधाराओं से बंधी हुई है। जिन हिन्दू विचारधाराओं को आंबेडकर दमनकारी और पलायनवादी विचारधारा के रूप में देखते थे। आंबेडकर खास कर रसेल द्वारा जाति-आधारित समाज-व्यवस्था की उपेक्षा और उसमें उनके उलझने से ज्यादा असहज महसूस करते थे। लेकिन इसके बावजूद भी वे रसेल की किताब की ओर शिक्षित भारतीयों का ध्यान खींचना चाहते थे। जिस जर्नल में उनकी समीक्षा प्रकाशित हुई, उसने ऐसा किया भी। इस समीक्षा में आंबेडकर ने भारत के सामने उपस्थित समस्याओं के संदर्भ में रसेल की किताब की उपयोगिता या सीमाओं को भी रेखांकित किया। आंबेडकर की दृष्टि में ये समस्याएं देश की स्वतंत्रता से हल होने वाली नहीं थी। उनकी बुनियादी चिन्ता का विषय यह था कि कैसे भारतीय समाज के सामाजिक समूहों के बीच के युगों पुराने सभी बंटवारों को समाप्त किया जा सकता है और एक गहरे अर्थों में लोकतांत्रिक और समता-आधारित सामाजिक समुदाय का सृजन किया जा सकता है।
इसलिए हम यह कह सकते हैं कि रसेल की यह किताब युवा आंबेडकर पर इस ब्रिटिश दार्शनिक के प्रभाव का सबसे अहम और प्रामाणिक कारक बनी थी। आंबेडकर रसेल की इस इस चिन्ता को आंशिक तौर पर उचित मानते थे कि कैसे बिना कोई अन्य अन्याय सृजित किए, प्रभावी न्याय की स्थापना की जाए। यह काम उन्होंने डेवी के सैद्धांतिकी के माध्यम से किया। इसमें पश्चिमी की सशक्त अभिव्यक्ति क्षमता भी दिखती है। उदाहरण के लिए आंबेडकर की इस समीक्षा में डेवी द्वारा साध्य और साधन के संदर्भ में कक्षा में दिए गए उनके व्याख्यानों की गुंज भी सुनाई देती है। आंबेडकर लिखते हैं कि “साध्य और साधन (कार्रवाई की शक्ति) काया और छाया की भांति एक दूसरे से जुड़े हैं, इस लोकोक्ति में ऐसा गहन सत्य निहित है, जिसे केवल इसलिए विकृत किया जाता है क्योंकि उसे गलत ढंग से समझा जाता है। यदि साध्य साधन का औचित्य सिद्ध नहीं करेगा, तो कौन करेगा? कठिनाई यह है कि किसी भी साध्य को प्राप्त करने के लिए एक बार जिन साधनों का हम प्रयोग करते हैं, उनके संचालन पर हम पर्याप्त नियंत्रण नहीं रख पाते हैं।[xxxi]” जॉन डेवी की तर्क पद्धति के आधार पर कोई भी साध्य प्राप्त करने के लिए अपने साधन के तौर पर ताकत का इस्तेमाल जरूर करता है, लेकिन ताकत को अपने आप ही हिंसा के बराबर नहीं माना जाता। इस चिन्ता को रेखांकित करते हुए भी कि किस तरह की ताकत एक तरह के अन्याय के खिलाफ इस्तेमाल करने पर दूसरे तरह के अन्याय के जन्म का कारण बनती है। भले ही यह चीज अनजाने ही होती है, लगता है इस मामले में रसेल सही थे। अतः हम इस बात का आकलन कर सकते हैं कि जब युवा आंबेडकर रसेल की किताब की समीक्षा लिख रहे थे, तो रसेल की चिन्ताओं और दृष्टिकोण में सच्चाई का अंश देख रहे थे, लेकिन उन्हें अपनी भीतरी समझ के आधार पर इसमें एक अपूर्णता भी लगती थी। यह अपूर्णता आंबेडकर को परेशान करती थी। यह परेशानी तब और बढ़ जाती थी, जब वे डेवी के विचारों को इस पर लागू करते थे। कब ऊर्जा के तौर पर ताकत हिंसा की ताकत में बदल जाती है? इस मामले में क्या यह सोच कर हम अपने को बहला सकते हैं कि सामाजिक अन्याय का इलाज करने के लिए जो ताकत हम लगाते हैं वह शायद प्रभुत्व के नए रूपों की ओर नहीं ले जायेगा, उस स्थिति में भी जब इस ताकत को पुराने अत्याचारी के खिलाफ भी इस्तेमाल किया जाए?
आंबेडकर के व्यवहारवाद के विकास में रसेल ने एक प्रेरक की भूमिका निभाई-
रसेल ने आंबेडकर को एक प्रेरक के रूप में प्रभावित किया। उदाहरण के लिए उन्होंने आंबेडकर को उनके सुधार और सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता के व्यवहारवादी दर्शन को विकसित करने और उसे क्रियान्वित करने के लिए प्रेरित किया। यह सच है कि आंबेडकर आजीवन क्रियाशीलता के अपने नजरिए और काम के अपने तौर-तरीकों में बदलाव करते रहे। 1920 के दशक में उन्होने समाज सुधार के एक पृथक मार्ग का अनुसरण किया। उसके बाद 1930 के दशक में उन्होंने हिंदू धर्म को छोडने वाला विस्फोटक भाषण दिया। इन दोनों ही दौरों में जाति-उन्मूलन के उनके कार्यक्रम में उस बुद्धत्व की छाया दिखाई नहीं देती, जिसे उन्होंने 1950 के दशक में अपनाया। जिसकी अभिव्यक्ति उनकी प्रामाणिक पुस्तक ‘बुद्ध और उनका धम्म’ में हुई। आंबेडकर एक बार पुनः उन विशिष्ट बातों को उठाते हैं जिसे उन्होंने डेवी की कक्षा में सुना था और जिसे उन्होंने 1918 में रसेल की पुस्तक की अपनी समीक्षा में उठाया था। अपनी बाद की अप्रकाशित पांडुलिपि ‘बुद्ध और कार्ल मार्क्स’ में सामाजिक न्याय की प्राप्ति के मार्क्सवादी रास्ते का वे विरोध करते हैं। सामाजिक न्याय पाने के भिन्न रास्ते का जिक्र करते हैं,जिसका इस्तेमाल उन्होंने रसेल की पुस्तक की समीक्षा में किया था। वे कहते हैं कि ‘‘जैसा कि प्रो. डेवी ने ध्यान दिलाया था, हिंसा, ताकत के इस्तेमाल का मात्र एक और नाम है यद्यपि कि रचनात्मक कार्यों के लिए ताकत का इस्तेमाल अवश्य किया जाना चाहिए। परन्तु ऊर्जा के लिए ताकत के इस्तेमाल और हिंसा के रूप में ताकत के इस्तेमाल में अन्तर करना भी जरूरी है। किसी भी उद्देश्य की प्राप्ति में यह निहित होता है कि जिस लक्ष्य को नष्ट करने की हमारी चाहत है, उसके साथ अनेक अन्य लक्ष्य भी नष्ट न हो जायें, जो उसके साथ संयुक्त हैं। ताकत के इस्तेमाल को इस प्रकार से नियन्त्रित किया जाना चाहिए कि बुरे लक्ष्य को नष्ट करते समय, जितना सम्भव हो, अन्य लक्ष्यों को सुरक्षित कर लिया जाये।[xxxii]
अपने समय के अनेक कम्युनिस्टों से अलग आंबेडकर सुधार का ऐसा तरीका खोजना चाहते थे, जो अधिकतम मूल्यवान चीजों को संभव हो तो बचाकर रख सके, उन लक्ष्यों को भी जिन्हें विरोधी मूल्यवान समझते हैं। उत्पीड़न के स्रोत अवश्य तलाशे जाएं, परन्तु अपने प्रयासों से नये उत्पीड़न न पैदा किये जायें। यह आंबेडकर का आदर्श वाक्य प्रतीत होता है। एक लक्ष्य को वे मंत्र के समान बार-बार दोहराते रहते थे, ‘‘समानता, स्वतन्त्रता और बन्धुत्व’’।[xxxiii] अपनी अप्रकाशित पांडुलिपि ‘बुद्ध और कार्ल मार्क्स’ में वे कम्युनिस्टों के अक्सर हिंसक तरीकों की आलोचना करते हैं और कहते हैं कि इससे समानता और स्वतन्त्रता की प्राप्ति होती है,लेकिन समुदाय के सभी सदस्यों के बीच के बन्धुत्व की कीमत पर। कम्युनिस्ट तरीके के बरक्स वे अपना उपाय उन साधनों पर आधारित करते हैं जिन्हें वे बौद्ध परम्परा में जीवन्त और लाभदायक पाते हैं। वे कहते हैं कि ‘‘बुद्ध का मत भिन्न था। उनका तरीका मनुष्य का दिमाग बदलने का था: ताकि मनुष्य जो कुछ भी करे, बिना बल प्रयोग के भय या दबाव के, अपनी मर्जी से करे। मनुष्यों की स्थिति बदलने के लिए बुद्ध का धम्म था और धम्म पर दिये गये उनके निरन्तर उपदेश थे। बुद्ध का तरीका लोगों को वह करने के लिए बाध्य करने का नहीं था जो वे नहीं करना चाहते थे, भले ही उससे उनका भला होने वाला हो। उनका तरीका मनुष्यों की स्थिति को ही बदल डालने का था, ताकि वे उनके कामों को स्वेच्छा से करें, जो वे अन्यथा नहीं करना चाहते।[xxxiv]’’ अपने शत्रुओं को बलपूर्वक बदलने से कोई उन्हें अपना साथी नहीं बना सकता।
स्वतन्त्रता, समानता और बंधुत्व के सभी मूल्यों को कायम रखने वाले सामाजिक परिवर्तन के रास्ते की तलाश आंबेडकर आजीवन करते रहे। इस बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है। लेकिन जो कुछ हम यहां कह सकते हैं वह सीधा-सादा और महत्वपूर्ण है। वह यह है कि मुख्य रूप से 1916 की अपनी पुस्तक के जरिये, रसेल ने आंबेडकर को अपनी समाजिक-राजनीतिक सक्रियता, समाज परिवर्तन और सुधार के संदर्भ में ताकत के इस्तेमाल पर जॉन डेवी की पश्चिमी धारणा पर सोचने को प्रेरित किया। इस प्रक्रिया ने भारतीय उपमहाद्वीप की विशिष्ट समस्याओं और परम्पराओं की रोशनी में साधन और साध्य की समस्या पर नये सिरे से समग्रता में चिन्तन करने के लिए आंबेडकर को प्रेरित किया। रसेल और डेवी ने एक साथ मिलकर युवा आंबेडकर को अपनी खुद की चिन्तन प्रक्रिया विकसित करने के श्रमसाध्य काम में सहायता प्रदान की थी। यह सच है कि इस चिन्तन को दर्शन की व्यवहारवादी परम्परा के दायरे के भीतर ही समाहित होते देखा जा सकता हैं, परन्तु इसके साथ ही हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने भारत के सामाजिक और बौद्धिक परिवेश में सामाजिक अन्याय के विशिष्ट तरीकों और विशिष्ट परम्पराओं पर आधारित भारतीय व्यवहारवाद के एक नये रूप का निर्माण किया। रसेल इस कहानी के महत्वपूर्ण हिस्से हैं क्योंकि वे उन शुरुआती व्यक्तित्वों में से एक हैं जो जाति-सुधार के आंबेडकर के प्रयासों के साथ डेवियन व्यवहारवाद के संश्लेषण की प्रक्रिया में उत्प्रेरक का कार्य करते हैं।
नोट- बर्टेड रसेल की किताब ‘ प्रिंसिपल्स ऑफ सोशल रिकंस्ट्रक्शन’ की डॉ. आंबेडकर की समीक्षा का हिंदी अनुवाद बाबा साहब डॉ. आंबेडकर संपूर्ण वाड्गमय खंड-2 में प्रकाशित है(पृ.277 से 288)
(अनुवाद : सिद्धार्थ)
[i] आंबेडकर की विकास यात्रा में पश्चिमी विद्वान जॉन डेवी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, देखें: क्रिस्टोफ़र क्वीन, ‘ए पेडोगोगी ऑफ़ धम्म; बीआर आंबेडकर और जॉन डेवी ऑन एजुकेशन’, इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ बुद्धिस्ट थॉट एंड कल्चर, 24 (2015), 7-12; स्कॉट आर. स्ट्राउड, “व्हाट डिड भीमराव आंबेडकर लर्न फ़्राम जॉन डेवीज़ डेमोक्रेसी एंड एजुकेशन?” द प्लुरिस्ट, 12 (2017), 78-103; स्कॉट आर. स्ट्राउड, “द इन्फ्ल्युएंस ऑफ़ जॉन डेवी एंड जेम्स टफ़्ट्स- इथिक्स ऑन अम्बेडकर्स क्वेस्ट फॉर सोशल जस्टिस”, द रिलिवेंस ऑफ़ डॉ. आंबेडकर: टुडे एंड टुमारो, प्रदीप अगलावे, संपादक (नागपुर यूनिवर्सिटी प्रेस, 2017), 33-54; अरुण पी मुखर्जी, ‘बी.आर. आंबेडकर, जॉन डेवी एंड द मीनिंग ऑफ़ डेमोक्रेसी’, न्यू लिटररी हिस्ट्री 40 (2009), 345-370.
[ii] बर्ट्रेड रसेल; प्रिंसिपल्स ऑफ़ सोशल रीकंस्ट्रक्शन (लंदन: जॉर्ज एलेन एंड अनविन लि., 1916; 1917 में पुनर्प्रकाशित). आंबेडकर की समीक्षा के लिए देखें- ‘मिस्टर रसेल एंड रीकंस्ट्रक्शन ऑफ़ सोसाइटी’, राइटिंग एंड स्पीचेज, खंड-1 (बॉम्बे: महाराष्ट्र सरकार, 2014). रसेल की किताब जनवरी 1017 में व्हाई मेन फ़ाइट शीर्षक से अमरीका में प्रकाशित हुई थी (रिचर्ड ए. रेम्पेल, ‘इंट्रोडक्शन’, प्रिंसिपल ऑफ़ सोशल रीकंस्ट्रक्शन, लंदन: रूटलेज, 1997, ix). आंबेडकर इस किताब के ब्रितानी शीर्षक का ज़िक्र करते हैं. ये दिखाता है कि 1916-17 के बीच लंदन में अपनी पहली यात्रा के दौरान आंबेडकर इस किताब पर मंथन कर रहे थे.
[iii] विजय मंकर, डॉ बी.आर. आंबेडकर: एन इंटेलेक्चुअल बायोग्राफ़ी (नागपुर, ब्लूवर्ल्ड सिरीज़, 2016), II.
[iv] के.एन. कदम, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर एंड सिग्निफ़िकेंसेज़ ऑफ़ हिज़ मूवमेंट (बॉम्बे पापुलर प्रकाशन, 1991), 16.
[v] उपरोक्त किताब की पृष्ठ संख्या 77 देखें.
[vi] विजय मंकर, लाइफ़ एंड द ग्रेटेस्ट ह्यूमैनिटेरियन रिवोल्यूशनरी मूवमेंट ऑफ़ डॉ. बी.आर. अम्बेडकरः ए क्रोनोलॉजी (नागपुर, ब्लूवर्ल्ड सिरीज़, 2009), 29.
[vii] राजकुमार, आंबेडकर एंड हिज़ राइटिंग्सः ए लुक फॉर द न्यू जेनेरेशन (ग्यान पब्लिशिंग हाउस, 2008), 227.
[viii] कई अपवादों के साथ ये कुछ साधारीकरण हैं. उदारहरण के लिए रसेल ने भी 1925 में प्रिंसीपिया का संस्करण तैयार किया था और 1919 और 1923 में भाषा और अर्थ के बारे में लिखा था. प्राब्लम्स एंड ऑवर नॉलेज भी तत्वमीमांसा और तर्क को लेकर ही है.
[ix] जॉन जी. स्लेटर, ‘क्रोनोलॉजीः रसेल्स लाइफ़ एंड राइटिंग्स’, कलेक्टेड पेपर्स ऑफ़ बर्ट्रेड रसेलः खंड-8 में 1914-19, (लंदन, जॉर्ज एलेन एंड अनविन, 1986), pp xxxviii-xxxix.
[x] उपरोक्त किताब में ही xxxviii-xxxix.
[xi] कदम, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर एंड सिग्निफ़िकेंस ऑफ़ हिज़ मूवमेंट, 77. ये तारीख़ मंकर की क्रोनोलॉजी में दुहराई गई है, 27.
[xii] छेयेनी मैकडोनल्ड, ‘व्हाट ट्रैवल लुक्ड लाइक 100 ईयर्स एगो,’ डेली मेल, नवंबर 30, 2015; http://www.dailymail.co.uk/siencetech/article-3339902/what-travel-looked-like-100-years-ago-map-shows-days-took-travel-abroad-1900s.html.
[xiii] भीमराव आंबेडकर, 3 अगस्त 1920 को लिखा गया पत्र, सेलिग्मैन पेपर्स, रेयर बुक एंड मैन्यूस्क्रिप्ट लाइब्रेरी, कोलंबिया यूनिवर्सिटी.
[xiv] बर्ट्रेंड रसेल, पत्र 337 (कोलेट ओ’ नील को), सेलेक्टेड लेटर्स ऑफ़ बर्ट्रेंड रसेलः द पब्लिक ईयर्स, 1914-1970, निकोलस ग्रिफ़िन, संपादन (लंदन, रूटलेग, 2001), 205.
[xv] उपरोक्त किताब, 210.
[xvi] जॉन जी. स्लेटर, द कलेक्टेड पेपर्स ऑफ़ बर्ट्रेंड रसेलः खंड-9, में क्रोनोलॉजीः रसेल्स लाइफ़ एंड राइटिंग, 1919-26, (लंदन जॉर्ज एलेन एंड अनविन, 1983), xxxiii.
[xvii] अन्य सामग्रियों के साथ इन तथ्यों को कनाडा के मैकमास्टर यूनिवर्सिटी के बर्ट्रैंड रसेल आर्काइव में देखा जा सकता है. http:/archives.ncmaster.ca/index.php/pocket-diaries.
[xviii] http:/bracers.mcmaster.ca (यहां दी गई सूचना 20 जून 2017 तक की है).
[xix] अगर आज के यात्रा योजनाकर्ता, 1920 के दशक में यात्रा का सटीक आंकलन करने वाले हैं, तो आंबेडकर को अपने पते- 96 ब्रुक ग्रीन से रसेल के घर तक जाने में डेढ़ घंटा लगता था.
[xx] http:/bracers.mcmaster.ca/19626
[xxi] http:/bracers.mcmaster.ca/128935
[xxii] http:/bracers.mcmaster.ca/php/correspondent/php. ये 26 फ़रवरी 2015 तक की सूची है.
[xxiii] स्कॉट आर स्ट्राउड, ‘प्रैग्मेटिज़्म, परसुएशन, एंड फ़ोर्स इन भीमराव आंबेडकर रीकंस्ट्रक्शन ऑफ़ बुद्धिज़्म’, जर्नल ऑफ़ रिलीजन, 97 (2017), 214-243.
[xxiv] रिचर्ड ए रेम्पेल, इंट्रोडक्शन, प्रिंसिपल्स ऑफ़ सोशल रिकंस्ट्रक्शन (लंदनः रूटलेग, 1997), x.
[xxv] बर्ट्रेड रसेल, प्रिंसिपल्स ऑफ़ सोशल रीकंस्ट्रक्शन, 30.
[xxvi] भीमराव आर. आंबेडकर, मिस्टर रसेल एंड रीकंस्ट्रक्शन ऑफ़ सोसाइटी, 485.
[xxvii] स्कॉट स्ट्राउड, प्रैग्मेटिज़्म, परसुएशन, एंड फ़ोर्स इन भीमराव आंबेडकर रीकंस्ट्रक्शन ऑउ बुद्धिज़्म, 222-223.
[xxviii] भीमराव आर आंबेडकर, मिस्टर रसेल एंड रीकंस्ट्रक्शन ऑफ़ सोसाइटी, 486.
[xxix] उपरोक्त किताब, 486
[xxx] उपरोक्त किताब, 486
[xxxi] उपरोक्त किताब, 485
[xxxii] भीमराव आर. आंबेडकर, बुद्ध या कार्ल मार्क्स, राइटिंग एंड स्पीचेज़, खंड-3, 451.
[xxxiii] अनुमान है कि आंबेडकर ने इसे पहली बार डेवी की 1915-16 की कक्षाओं में सुना था. इस बात के पीछे सबूत के लिए देखें, स्कॉट आर स्ट्राउड, प्रैग्मेटिज़्म, परसुएशन, एंड फ़ोर्स इन भीमराव आंबेडकर रीकंस्ट्रक्शन ऑउ बुद्धिज़्म, 222.
[xxxiv] उपरोक्त किताब, 461.
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