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दलित राजनीति की प्रयोगशाला

दलित परिवारों के धरने-प्रदर्शन के खिलाफ जाट तल्ख हैं। यहां मामले का दूसरा पक्ष भी उभरकर सामने आता है। बलात्कार की शिकार किशोरियों के खिलाफ ये लोग उसी तरह के स्त्री-विरोधी आरोप लगा रहे हैं जैसा कि खाप पंचायतों में होता है

पिछले 23 मार्च को भगाना की दो नाबालिग समेत चार दलित लड़कियों का अपहरण गांव के ही जाट युवकों ने करके उनके साथ बलात्कार किया था। इनमें दो नाबालिगों की उम्र 15 वर्ष और 17 वर्ष है तो दोनों बालिगों की उम्र 18 वर्ष है। घटना के बाद से इंसाफ और पुनर्वास की मांग को लेकर ये पीडि़ताएं अपने परिजनों और गांव के करीब 90 दलित परिवारों के साथ दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना दे रही हैं।

इनका आरोप है कि 23 मार्च की रात, जब वे शौच के लिए खेतों में जा रहीं थीं तब पांच युवकों ने उन्हें जबरन चारपहिया गाड़ी में बिठा लिया और कुछ सूंघाकर बेहोश कर दिया। अगले दिन जब उन्हें होश आया तो उन्होंने खुद को पंजाब के भटिंडा रेलवे स्टेशन के किनारे पड़ा पाया। खुद की हालत से उन्हें पता चला कि उनके साथ रात में बलात्कार किया गया है। लेकिन कहानी इतनी भर नहीं है। 17 वर्षीय बलात्कार की शिकार लड़की के पिता कहते हैं, ‘इसी वर्ष जनवरी में गांव के सरपंच राकेश कुमार पंघाल ने मुझे मारा-पीटा और बुरा अंजाम भुगतने की धमकी दी थी।’ वे राकेश के खेतों में ही काम करते थे। वे कहते हैं, ‘मैं रात में पानी देने के बाद थोड़ी देर के लिए सो गया था। इससे नाराज होकर राकेश ने मारपीट की थी।’ उनका कहना है कि पुलिस अधीक्षक तक से गुहार लगाने के बाद भी कोई मामला दर्ज नहीं हुआ और ना ही कोई कार्रवाई की गई। इस तरह बात महज बलात्कार तक सीमित नहीं रहती। यह हरियाणा में दलितों के लगातार जारी उत्पीडऩ की कहानी बन जाती है।

बलात्कार पीडि़त प्रेतात्माएं

हिसार जिला मुख्यलय पहुंचते ही मुझे अहसास हुआ कि आप शहर के किसी भी कोर्ट, थाने या अन्य प्रशासनिक मुख्यलय चले जाइए, आपको बलात्कार पीडि़ताएं, प्रेतात्माओं की तरह मंडराती मिल जाएंगी। प्रशासनिक उदासीनता और लापरवाही से तंग, न्याय की आस लिए चक्कर काटती असंतुष्ट प्रेतात्माएं। और शायद प्रशासनिक अधिकारी भी उन्हें प्रेतात्माओं के रूप में ही देखते हैं, जिनके साए तक से वे दूर रहना चाहते हैं। हिसार पहुंचते ही मेरी मुलाकात डाबड़ा गांव की उस 17 वर्षीय दलित लड़की से हुई, जिसके साथ 2012 में जाट युवकों ने सामूहिक बलात्कार किया था। इस घटना के बाद उसके पिता ने आत्महत्या कर ली थी। वह लड़की कोर्ट में एक 10 वर्षीय बच्ची को लेकर आई थी, जिसके साथ किसी अधेड़ शख्स ने बलात्कार किया था। वह अपनी ही तरह दरिंदगी की शिकार लड़कियों के लिए आवाज उठाती है और भगाना गांव में बलात्कार की शिकार लड़कियों के आंदोलन में उतरी हुई है। वहीं थोड़ी देर में मुझे एक और बलात्कार की शिकार हुई युवती मिल जाती है जिसके साथ एक जाट युवक ने बलात्कार किया था लेकिन अब तक उसे सजा नहीं मिल पाई है और इसकी वजह यह है कि उस आरोपी युवक का रिश्तेदार जज है। पुलिस ने आरोपी को पकडऩे की बजाय इस युवती को गिरफ़्तार कर बुरी तरह से टार्चर किया था जिसकी वजह से वह विक्षिप्त-सी हो गई थी। वह इंसाफ के लिए लड़ तो रही है लेकिन उसके चेहरे पर अदालतों-प्रशासनिक ढांचों के प्रति वितृष्णा साफ नजर आ रही थी। हां, यह ध्यान देने वाली बात जरूर है कि इन दोनों लड़कियों ने हार नहीं मानी और ना ही किसी तरह की झिझक के भाव उनके चेहरे पर दिखाई पड़ते हैं।

भगाना वाया हिसार

मुख्यलय की छत के नीचे ही भगाना के वे दलित भी मिल गए जो दो साल से वहां धरने पर बैठे हुए हैं। भगाना 2012 में तब सुर्खियों में आया था जब सामुदायिक जमीन को लेकर यहां विवाद हुआ था। दलितों का आरोप है कि ग्राम पंचायत की जमीन पर आम्बेडकर की मूर्ति लगाने और खेल के मैदान पर पट्टे देने की मांग के खिलाफ जाटों ने उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया था। उनकी धमकियों से तंग आकर 136 दलित परिवार हिसार के मिनी सचिवालय में धरने पर बैठ गए और दिल्ली तक पैदल मार्च किया लेकिन उन्हें मिला कुछ नहीं। हिसार के मिनी सचिवालय पर ये दलित परिवार आज भी धरने पर बैठे हुए हैं। वहां धरने पर बैठे भगाना के 32 वर्षीय सतीश काजल बताते हैं, ‘अब भी हमें धरना देना पड़ रहा है। न तो प्रशासन और ना ही सरकार हमारी बात सुन रही है। उनके अनुसार करीब 80 परिवार अब भी वहां डेरा जमाए हुए हैं। मैंने वहां करीब दर्जन भर लोगों को धरने पर बैठा पाया।

एक स्वर

प्रशासन और पुलिस का नजरिया भला अलग कैसे हो सकता है? हिसार के पुलिस अधीक्षक शिवास कविराज से इस संबंध में मुलाकात के लिए उनके पीए से मिलना पड़ा। उनके पीए ने अनौपचारिक तौर पर जो कहा वह उनकी महिला विरोधी पुरुष मानसिकता को दर्शाता था। उन्होंने यह कहते हुए लड़कियों को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की कि दरअसल एक आरोपी जाट युवक से एक पीडि़ता का प्रेम-प्रसंग चल रहा था और वह अपनी मर्जी से गई थी। बाकी तीन लड़कियां भी उसके साथ हो ली थीं। एसपी शिवास कविराज का भी ठीक यही रवैया था। उन्होंने बताया, ‘चीजों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है।’ वे बताते हैं कि गांव में लगातार पुलिस गश्त होती है। दो साल से जारी भगाना के दलितों के धरने के बारे में पूछने पर वे कहते हैं, ‘बैठे लोग गांव जाएं तो सही, हम उनके लिए पूरी सुरक्षा का बंदोबस्त कर देंगे।’ लेकिन जिस गश्त और सुरक्षा की बात वे कर रहे हैं, वह तो प्रशासन दो साल से कह रहा है। फिर ऐसी घटनाएं क्यों जारी हैं? हालिया गैंगरेप की घटना के बारे में पूछने पर वे कहते हैं, ‘मामले का राजनीतिकरण किया जा रहा है। हमने 24 घंटे के अंदर तीन आरोपियों और फिर दो दिन बाद ही बाकी दो आरोपियों को गिरतार कर लिया था।’ दरअसल एसपी जिस राजनीतिकरण की बात कर रहे हैं, उसे साफ करते हुए वे बसपा की ओर इशारा करते हैं। जाहिर है, प्रशासन-सरकार और जाटों को यह चुभ रहा है कि दलितों को राजनीतिक जमीन मुहैया हो रही है।

उत्पीडऩ के केंद्र भगाना में

प्रशासन ने सब कुछ सामान्य बताया लेकिन हिसार के करीब 20 किमी दूर भगाना के माहौल की तल्खी साफ महसूस की जा सकती है। यहां महिलाओं को गले के नीचे तक पूरा घूंघट किए देखा जा सकता है। दलितों और जाटों के बीच यहां बोल-चाल भी नहीं है। उनके बीच बना फासला साफ महसूस हो रहा था। दलित परिवारों के धरने-प्रदर्शन के खिलाफ जाट तल्ख हैं। बलात्कार की शिकार किशोरियों के खिलाफ ये लोग उसी तरह के स्त्री-विरोधी आरोप लगा रहे हैं जैसा कि खाप पंचायतों में होता है। गांव के फूल सिंह हों या सूरजमल, दलवीर सिंह या नफे सिंह, मैंने दर्जन भर जाटोंसे बातचीत की और सभी पीडि़ताओं को ही दोषी ठहराते नजर आए। वहां के जाट फूल सिंह पूछते ही फट पड़ते हैं, ‘वे अपनी मर्जी से गईं थी। कोई जबरदस्ती नहीं ले गया था’ यह ध्यान दिलाने पर कि दो किशोरियां तो नाबालिग थीं, जाट समुदाय के लोगों का वही जवाब होता है, ‘इससे क्या जी, सब मर्जी थी उनकी।’ गांव के जाट सामाजिक बहिष्कार की बात से भी इनकार करते हैं।

भगाना का सरपंच राकेश

उन पर लगे आरोपों से गांव के सरपंच राकेश बेफिक्र नजर आते हैं। वे  पूरी धमक के साथ कहते हैं, ‘लगाने दीजिए आरोप, आरोप से क्या होता है? पुलिस जांच कर रही है। वे दावा करते हैं, ‘ हम भी तो मुयमंत्री तक जा सकते हैं।’ कृष्ण की बात पूछने पर वे कहते हैं, ‘हां, मैंने उसे दो-तीन थह्रश्वपड़ मार दिए थे क्योंकि वो काम में लापरवाही बरत रहा था। लेकिन फिर हमारा समझौता हो गया था।’ जाहिर है कि उन्हें या यों कहें उनके जाट समुदाय को किसी प्रकार का डर नहीं है और उन्हें अपनी ताकत पर पूरा भरोसा है। सामाजिक बहिष्कार की बात पूछने पर वे स्वीकार करते हैं, ‘हां, जाटों ने अपनी सुरक्षा के लिए ही उस समय अपने खेतों में दलितों को काम देने या घास वगैरह ले जाने से मना कर दिया था ताकि वे हमारे खेतों में आकर हमारे ही खिलाफ कोई आरोप न लगा दें। लेकिन अब ऐसा नहीं है।’ जाटों में इस बात को लेकर भी नाराजगी है कि दलित परिवार धरना देने चले क्यों जाते हैं। एक जाट धर्मवीर सिंह उलाहना देते हैं, ‘सरकार उन्हें मुआवजा दे देती है, इसी वजह से वे धरना करते हैं।’

गांव के दलितों के आरोप भी कायम हैं। वे थोड़े झिझके या हो सकता है जाटों के डर की वजह से से ऐसा हो। पर जब उन्हें लगा कि उनकी बात सुनने कोई आया है तो वे सब अपनी पीड़ा बयान करने लगे। 22 वर्षीय दलित सुरेंद्र बताते हैं, ‘जाटों ने हमसे बातचीत, खेतों में काम देना, मंदिरों में जाने देना सब कुछ बंद कर दिया था जो अब तक कायम है। जो जाट हमसे बात करेगा उस पर 1,100 रुपये का जुर्माना भी लगाने की बात कही गई है।’ इस बार जिन दलित किशोरियों का बलात्कार हुआ है वे धानक नामक दलित समुदाय से हैं जिन्होंने उस समय गांव नहीं छो ड़ा था। गांव में रहने की कीमत उन्हें चुकानी पड़ी। मैं उनके घरों की ओर भी जाता हूं, जो जाटों के घरों से अलग बसे हुए दलितों के मोहल्ले में है। यहां पीडि़त लड़कियों के घर के बाहर ताला लटकता नजर आ रहा है।

दलित राजनीति के रास्ते प्रतिरोध

जैसे-जैसे हरियाणा दलितों के प्रतिरोध की प्रयोगशाला बनता जा रहा है, जाटों में नफरत बढ़ रही है। दूसरी ओर प्रशासन भी इसे राजनीति के लिए चीज़ों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने की कोशिश के रूप में देख रहा है। दरअसल, इस मुद्दे को समझने की जरूरत है। हरियाणा की राजनीतिमें जाट ही केंद्रीय ताकत है। यहां के दोनोंप्रमुख दलों का नेतृत्व जाटों के हाथ में है। हिसार में भी ठीक ऐसा ही है जबकि दलितों को गैर-जाट नेतृत्व वाले दल की जरूरत है। इसी वजह से वे अपनी अलग राजनीतिक जमीन बनाने की कोशिश कर रहे हैं। यहां हो रहा उत्पीडऩ या जाटों में दलितों के प्रति आक्रामकता केवल सामाजिक मुद्दा नहीं है। यह एक राजनीतिक मुद्दा भी है। यहां दलितों की राजनीतिक जमीन तैयार करने में बसपा जुटी हुई है और इसका असर देखने को मिल रहा है। दलितों का इन जगहों पर आंदोलन इसी दृष्टि से ही हो रहा है और जहां तक मैं समझ पा रहा हूं, यह सब बसपा की जमीन तैयार करने की कोशिश भी है। यह यों ही नहीं था कि एसपी भी इशारों में  बसपा को जिम्मेदार ठहरा रहे थे और गांव का सरपंच भी बसपा पर ही आरोप लगा रहा था। उसका कहना था कि लड़कियां अपनी मर्जी से जाट युवकों के साथ गई थीं लेकिन 25 मार्च को बसपा की हिसार में रैली के बाद लड़कियों और उनके परिजनों को भड़काकर एफआइआर दर्ज कराई गई और उन्हें दिल्ली ले जाया गया। साफ है कि प्रशासन, सरकार और जाटों को यह कतई रास नहीं आ रहा है कि दलितों की अपनी कोई मजबूत
जमीन तैयार हो।

तंवर के फार्महाउस में मिर्चपुर के दलित

मिर्चपुर समेत दलितों के उत्पीडऩ के खिलाफ कई आंदोलनों के अगुआ और इस बार पीडि़तों को दिल्ली लाने वाले सर्व समाज संघर्ष समिति के अध्यक्ष वेदपाल सिंह तंवर कहते हैं, ‘वे मनुष्य को मनुष्य नहीं मानते, अधिकार की बात तो दूर है। यह लड़ाई इसी अधिकार की है।’ मिर्चपुर में 2010 में सिर्फ इसी वजह से दलितों के घरों में आग लगा दी गई थी क्योंकि एक दलित के कुत्ते ने जाट को काट लिया था और जाट ने जब कुत्ते को मारना शुरू किया तो दलित ने मना किया। फिर एक अपाहिज लड़की को उसके बूढ़े पिता के साथ जलाकर मार दिए जाने की वीभत्स घटना को कौन भूल सकता है। इसी मिर्चपुर कांड के पीडि़त कई दलित परिवारों ने अब तक इन्हीं के फॉर्म हाउस पर शरण ले रखी है। आखिर क्या वजह है कि दलितों का उत्पीडऩ बदस्तूर जारी है और वे उपेक्षा के शिकार हैं? तंवर कहते हैं, ‘दरअसल हरियाणा की राजनीति में जाटों का वर्चस्व है। राजनीतिक नेतृत्व इन्हीं के हाथों में है। राजनीतिक पार्टियां जाटों को किसी भी तरह नाराज नहीं करना चाहतीं।’ यही वजह है कि उनके लिए दलित मायने नहीं रखते।’ इसी बात की ओर ध्यान मेरा मिर्चपुर के दलितों ने दिलाया।

जाटों के हवेलियों ऑर दलितों के मकान

हिसार और भगाना की आबादी भी कुछ ऐसा ही बयान करती है। हिसार में दलित आबादी करीब 22 फीसदी है और हरियाणा में 19 फीसदी। दलितों की आबादी कम नहीं है लेकिन उनके मुकाबले जाट कहीं अधिक हैं। भगाना इसका उदाहरण है। यहां जाट आबादी करीब 60 फीसदी है तोदलितों की आबादी करीब 27 फीसदी। हरियाणा में जाट बहुसंख्यक हैं, इसलिए सरकार और पार्टियों के लिए वे ज्यादा जरूरी हैं और राजनीतिक रसूख की वजह से प्रशासन भी उन्हीं के पक्ष में खड़ा रहता है। यह यों ही नहीं है कि तंवर इन आंदोलनों में दलितों को न केवल अपने बूते शरण दे रहे हैं बल्कि उन्हें एकजुट भी कर रहे हैं। तंवर इस साल राजनीति में भी उतर गए हैं। मार्च में उन्होंने बसपा ज्वाइन की तथा लोकसभा चुनाव में पार्टी ने उन्हें भिवानी-महेंद्रगढ़ सीट से बतौर उम्मीदवार उतारा। जाहिर है बसपा के लिए दलितों की जमीन तैयार करना भी उनकी इस सक्रियता की एक वजह है। बहरहाल, यह शख्स मिर्चपुर से लेकर भगाणा जैसे तमाम दलित उत्पीडऩ के खिलाफ के आंदोलन की सालों से अगुआई कर रहा है।

 

(फारवर्ड प्रेस के जून, 2014 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

सरोज कुमार

सरोज कुमार युवा पत्रकार हैं

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