युवा आलोचक ‘कमलेश वर्मा’ की पुस्तक ‘जाति के प्रश्न पर कबीर’ कबीर को नए नजरिए से देखने की प्रस्तावना करती है। पुस्तक कबीर पर लेखक के जाति सम्बन्धी निबंधों का संकलन है, जो समय-समय पर अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। पुस्तक इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि लगभग दो दशक पूर्व तक आलोचना के क्षेत्र में ‘मार्क्सवादी विमर्श के वर्चस्व’ के दौरान शायद इस किस्म की बहस की गुंजाइश नहीं थी। लेखक पुस्तक की भूमिका में इस ओर इशारा भी करता है। “कबीर की जाति और धर्म को लेकर कई प्रकार के दावे किए जाते रहे हैं। अनेक अगर-मगर के बीच कबीर के दो सामाजिक पक्ष हमारे सम्मुख हैं, एक यह है कि कबीर दलित थे और दूसरा कबीर मनुष्य थे। डॉ. धर्मवीर पहले पक्ष में हैं और डॉ. पुरूषोत्तम अग्रवाल दूसरे पक्ष में। पहला पक्ष कबीर के सामाजिक पक्ष पर दलित दृष्टि से विचार करता है जबकि दूसरा पक्ष इसे गौण करने का प्रयास करता है।”
यह तथ्य इस पक्ष की ओर भी इशारा करता है कि विभिन्न विचारों, वर्गों तथा जातीय समूहों से जुड़े लोगों ने अपने-अपने दृष्टिकोणों से कबीर की व्याख्या की है। हजारी प्रसाद द्विवेदी की पुस्तक ‘कबीर’ क्लासिक मानी जाती है। वह कबीर को नाथपंथी बताते हैं। वह उनकी जाति के बारे में कोई स्पष्ट राय नहीं रखते। उनका सारा फोकस इस बात पर है कि कबीर को मुसलमान न माना जाए। विधवा ब्राह्मणी की अवधारणा को वह खारिज नहीं करते, तथा कबीर को मूलरूप से हिन्दू समाज की व्यक्ति बनाए रखना चाहते हैं। वह अपनी पुस्तक की पहली पंक्ति में ही लिखते हैं कबीर दास का पालन-पोषण जुलाहा परिवार में हुआ था, मतलब कबीर का जन्म विधवा ब्राह्मणी से हुआ था। कबीर जन्मना हिन्दू थे, मुसलमान नहीं। इस पुस्तक का सुप्रसिद्ध टुकड़ा कि ‘कबीर जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वन्दनीय थे।’ उनके लेखन का यह मुख्य अंतर्विरोध है। अस्पृश्यता का अर्थ अनुसूचित जाति में जन्मा व्यक्ति हो सकता है। इस्लाम सैद्धांतिक रूप से अस्पृश्यता को नहीं मानता। डॉ. धर्मवीर भी कबीर को अछूत तथा जुलाहा दोनों बता रहे थे। लेखक का यह स्पष्ट मानना है कि यह दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। डॉ. धर्मवीर कबीर को दलितों का संत मानते हैं। ब्राह्मण बनाम दलित मुद्दा इस पुस्तक में सिर चढ़कर बोलता है। दलित विमर्श की खुली घोषणा यह है कि दलित ही दलित साहित्य रच सकता है, तथा गैर दलित द्वारा रचित साहित्य किसी भी हालत में दलित साहित्य नहीं माना जा सकता।
कमलेश वर्मा का कहना है कि यह आचार्य शुक्ल के समय से चली आ रही एक लम्बी परंपरा है, जिसमें एक ओर कबीर को नीची जात बताया गया, तो दूसरी परंपरा में उन्हें सीधे-सीधे अस्पृश्य और दलित घोषित कर दिया। डॉ. धर्मवीर कबीर को जन्मना मुसलमान मानने के पक्ष में हैं। इस तरह वह कबीर को जुलाहा जात में जन्मा दलित मुसलमान मान रहे हैं।
मार्क्सवादी आलोचना प्रत्यक्षतया जाति पर विचार करने से भले ही कतराती हो, पर यह ध्वनि ज़रूर उत्पन्न करती रही कि ‘निर्गुण संत दलित समाज से थे।’ कबीर तथा रैदास को एक साथ दलित बतलाया गया। रैदास का दलित होना स्पष्ट है, परन्तु कबीर को दलित बतलाने में भूल हुई है। दलित आलोचना ने कबीर को लेकर जो किया सो किया, मार्क्सवादी आलोचना ने भी कबीर को दलित बताने तथा इसी कारण से क्रांतिकारी बताने की लगातार कोशिश की। नामवर सिंह लिखते हैं,‘कबीर की विद्रोही भावना स्वयं उनकी सामाजिक स्थिति की स्वाभाविक उपज थी। वह अपने समर्थन में हजारी प्रसाद द्विवेदी को उद्धृत करते हैं। वह दरिद्र और दलित थे। डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल को भी मार्क्सवादी आलोचक माना जाता है। उनकी कबीर पर पुस्तक ‘अकथ कहानी प्रेम की’ 2009 में प्रकाशित हुई, और साहित्य जगत में बेस्ट सेलर पुस्तक के रूप में चर्चित हो गई। इस पुस्तक के संदर्भ में लेखक का कहना है, ‘अग्रवाल जी की आलोचना भाषा से कुछ निकाल पाना आसान नहीं लगता.’ यह पुस्तक अपनी सम्पूर्णता में एक जटिल भाषायिक संरचना है। इसमें भाषा का ज़बरदस्त मैनेजमेंट है। पुस्तक की भूमिका से ही वह सामाजिक पक्ष को नया रूप देना शुरू कर देते हैं। कबीर को हाशिया के लोग बनाया किसने? जबकि कबीर व्यापारियों जैसे शक्तिशाली लोगों के बीच मान्य थे। मतलब यह है कि कबीर को गरीब, कमज़ोर या अशक्त न माना जाए। वह किसी कमज़ोर समुदाय से नहीं थे। वास्तव में डॉ. अग्रवाल व्यापारियों या कारीगरों को एक ही वर्ग का मान कर चल रहे हैं। यह दोहराने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए कि कारीगर व्यापारी नहीं होते। व्यापारी कारीगर के श्रम से उत्पन्न होने वाले माल को बेचने का काम करता है। यह पुस्तक मार्क्सवादी आलोचना के इस अंतर्विरोध को दर्शाती है, जो सामाजिक पक्ष पर इतना जोर देती है कि अनजाने में ही सही उन्हें शोषक वर्ग के पक्ष में खड़ा कर देती है। यद्यपि इस पक्ष पर अभी और बहस और शोध की ज़रूरत है।
वास्तव में ‘जाति के प्रश्न पर कबीर’ पुस्तक का मुख्य उद्देश्य कबीर को दलित बताए जाने की परंपरा और विकास की तलाश करना है। लेखक का स्पष्ट मत है कि वह न तो ब्राह्मण थे, न ही दलित, वह जुलाहा थे, पिछड़ी जाति के मुसलमान। आज भी जुलाहा जाति पिछड़ी जाति के मुसलमान के रूप में अपनी पहचान रखती है। कबीर मानते थे कि उनकी असली पहचान उनकी जुलाहा जाति है। यह बहस यदि एकमत का रूप ले ले कि कबीर दलित नहीं थे, पिछड़ी जाति के थे, तब उनकी कविता से संभवत: कुछ नई बातें छन आएं। हिंदी साहित्य के घनघोर जातिवादी माहौल में सर्वाधिक संख्या वाली यह आबादी अपनी भागीदारी की अब तक कोई पहचान नहीं करा पाई है। पुस्तक की भूमिका में ही लेखक का कथन है, ‘अस्मिता मूलक विमर्श, मार्क्सवाद, अम्बेडकरवाद और गांधीवाद की हू-ब-हू भाषा में पिछड़ी जातियों के प्रसंगों पर विचार करने में अनेक असुविधाएं सामने आ खड़ी होती हैं। इसलिए ज़रूरी है कि रचनाकारों की तरफ रुख किया जाए। व्यापक समाज को ध्यान में रखकर साहित्य रचने वाला हिंदी का कोई रचनाकार पिछड़ी जातियों के समुदाय को छोडकर नहीं चल सका है। कबीर से लेकर प्रेमचंद तक के साहित्य में जाति के प्रसंग भरे पड़े हैं, मगर हिंदी आलोचना में इन प्रसंगों पर संतोषजनक ढंग से विचार नहीं हो सका है।’अगर इस आलोक में पुस्तक तो देखें तो यह महत्वपूर्ण तथा रोचक लगेगी। इसके लेखन का उद्देश्य भी संभवत: यही है। पुस्तक में कबीर के जाति सम्बन्धी विमर्श के लगभग 300 छंद संकलित हैं, जो समूचे विमर्श को और महत्वपूर्ण बनाते हैं।
आंबेडकरवादी दलित विमर्श तथा आलोचना पर संकलित निबंध, ‘दलित विमर्श का अतिवाद’ नामवर सिंह के दलित विमर्श सम्बन्धी विचारों पर केन्द्रित है। यह लेख महत्वपूर्ण होने के बावजूद इस संकलन में गैर-ज़रूरी लगता है. क्योंकि यह पुस्तक के मूल विषयों से तालमेल नहीं बैठा पाता।
बहरहाल, पुस्तक अनेक विवादास्पद स्थापनाओं के बावजूद बहस को आमंत्रित करती है। सुधी पाठकों को यह पुस्तक अवश्य पढनी चाहिए।
किताब : जाति के प्रश्न पर कबीर (लेख-संग्रह)
लेखक : कमलेश वर्मा
पृष्ठ : 166
मूल्य : 150 रुपए (किंडल), 165 रुपए (पेपर बैक), 400 रुपए (हार्डबाऊंड)
पुस्तक सीरिज : फारवर्ड प्रेस बुक्स, नई दिल्ली
प्रकाशक व डिस्ट्रीब्यूटर : द मार्जिनलाइज्ड, वर्धा/दिल्ली, मो : +919968527911 (वीपीपी की सुविधा उपलब्ध)
किंडल : http://www.amazon.in/dp/8193258479
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