उत्तर प्रदेश और बिहार की मिट्टी में जरूर कुछ खासियत है। ये दोनों प्रदेश जाति, रूढ़ि और परंपरावाद के मजबूत किले हैं। भारत में मौजूद किसी भी प्रतिक्रियावादी विचार को यहाँ लोगों की जिंदगी से खेलते हुए देखा जा सकता है। स्त्री यहाँ सब से ज्यादा दमित है। लेकिन इसी मिट्टी में रह-रह कर क्रांतिकारी खयालों के बीज भी अंकुरते और पल्लवित होते रहते हैं। 1967 में सब से पहले गैरकांग्रेसी सरकारें यहीं बनी थीं। 1975-77 के दौरान इमरजेंसी से विद्रोह करने वाले इलाकों में यह सब से आगे था। पिछड़ावाद का ताकतवर स्फुरण यहीं दिखाई पड़ा और और आरक्षण के लिए जीवंत संघर्ष भी यहीं समकालीन इतिहास का हिस्सा बना। बिहार में ही वह तूफानी आंदोलन हुआ था, जिसने चार परस्पर विरोधी पार्टियों का विलय संभव कराया और केंद्र में पहली गैरकांग्रेसी सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका अदा की। वस्तुतः ये दोनों राज्य कभी भी चकित कर सकते हैं – राजनीति को पीछे ले जाने में भी और आगे ले जाने में भी।
कुछ समय पहले का नजारा देखिए। पिछले साल उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों में भाजपा ने दो-तिहाई सीटें हासिल कर लीं। मोदी का जादू बड़े पैमाने पर सफल हुआ। बिहार में भाजपा को शिकस्त देते हुए नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के महागठबंधन की सरकार बनी, लेकिन डेढ़ वर्ष के बाद नीतीश कुमार ने महागठबंधन से पगहा तुड़ा कर फिर भाजपा की शागिर्दी स्वीकार कर ली। उत्तर प्रदेश में लोक सभा के दो उपचुनाव हुए – एक मुख्यमंत्री आदित्यनाथ द्वारा और दूसरा उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य द्वारा लोक सभा की सीट खाली करने पर – गोरखपुर और फूलपुर। आदित्यनाथ संसद में 1998 से संसद में गोरखपुर का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं। यहीं उनका समृद्ध और शक्तिशाली गोरखनाथ मंदिर भी है। बिहार की अररिया लोक सभा सीट राजद के मोहम्मद तस्लीमुद्दीन के निधन से खाली हुई थी। तीनों सीटों पर 11 मार्च को मतदान हुआ। तीनों ही सीटों पर भारतीय जनता पार्टी बुरी तरह हार गयी। बहुजन वोट ब्राह्मणवाद पर भारी पड़ा।
बिहार में स्थिति राष्ट्रीय जनता दल के बिल्कुल प्रतिकूल थी। उसके नेता लालू प्रसाद प्रसिद्ध चारा घोटाले में भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में हैं। सरकार जनता दल (यू) की है, जिसका समझौता केंद्र में सत्तारूढ़ नेता नरेंद्र मोदी से ही। राज्य में दोनों की मिली-जुली सरकार है। फिर भी अररिया लोक सभा क्षेत्र के मतदाताओं ने राज्य और केंद्र दोनों की सत्ता से विद्रोह कर दिया। उन्होंने साफ-साफ बता दिया कि उनका हृदय किस तरफ है। यह पिछड़ी जातियों और मुसलमानों की एकता की एक शानदार अभिव्यक्ति थी। जाहिर तौर पर दलितों ने भी भाजपा उम्मीदवार को वोट नहीं दिया होगा, क्योंकि केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद से दलितों पर अत्याचार बहुत बढ़ा है। कोई दिन नहीं जाता, जब किसी दलित लड़की के साथ बलात्कार नहीं होता।
दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश में यह एकता सशक्त राजनैतिक तरीके से प्रगट हुई। लगभग ढाई दशक से एक-दूसरे की शत्रु समाजवादी पार्टी और बहुजन सनाज पार्टी ने लोक सभा के इन दोनों उपचुनावों में एक-दूसरे से हाथ मिला लिया। यह अप्रत्याशित थी और परिणाम भी अप्रत्याशित ही आया। दोनों सीटों पर समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार जीत गये। इनका मुस्लिम वोट काटने के लिए जेल में बंद एक दुर्दम्य अपराधी को भी चुनाव मैदान में उतारा गया, जिसे सिर्फ 48.094 वोट मिले।
सपा और बसपा के हाथ मिलाने के पीछे जो भी सौदा रहा हो और भले ही बसपा की नेता मायावती ने कहा हो कि यह समझौता सिर्फ इन दो उपचुनावों के लिए है, लेकिन जब कोई बच्चा पैदा होता है, तो वह अपना तर्क अपने साथ ले कर आता है। इतने लंबे अरसे तक अकेले रह कर दोनों ही शक्तियों ने देख लिया है कि उनके किले में कहाँ-कहाँ कमजोर दीवारें हैं। जब दोनों साथ थे, तो उन्होंने कोई ऐसी सामाजिक-सांस्कृतिक जमीन विकसित नहीं की जिस पर चलते हुए एक बहुजन संस्कृति का विकास किया जा सके। राजनीति शून्य में नहीं होती। वह लोगों के द्वारा और लोगों के बीच पनपती है। इसी से राजनैतिक नेतृत्व भी निकलता है। जब मुलायम सिंह यादव पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, तब उनमें प्रगतिशीलता की धार थी। वे जनता की भाषा बोलते थे। बाबरी मस्जिद को बचाने के लिए उन्होंने गोली चलाने में भी हिचक नहीं दिखायी। लेकिन अपनी फिसलन के दिनों में उन्होंने उन्हीं कल्याण सिंह से हाथ मिला लिया जिनके मुख्यमंत्री रहते हुए बाबरी मस्जिद को ढाहने दिया गया। फिर सैफई महोत्सव की संस्कृति आयी, अमर सिंह आये और परिवारवाद का ज्वार आया और मुलायम सिंह यादव धीरे-धीरे राजनैतिक अपसंस्कृति का शिकार होते गये।
दूसरी तरफ, मायावती जब बहुमत पा कर उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनीं, तो यह एक ऐतिहासिक घटना थी, क्योंकि पहली बार कोई दलित नेता अपनी सामाजिक-राजनैतिक ताकत के बल पर इतने बड़े राज्य का प्रमुख बना था। इसके साथ बहुजन संस्कृति का एक सुनहरा सपना भी जुड़ा हुआ था, क्योंकि इसकी नींव में सामाजिक पुनर्रचना की एक प्रगतिशील योजना थी। दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों के साथ उदार सवर्णों को भी एक मंच पर लाने का संकल्प था। अगर इस संकल्प पर ईमानदारी और निरंतरता से काम किया गया होता, तो उत्तर प्रदेश सामाजिक एकता, सांस्कृतिक पुनर्रचना और आर्थिक न्याय की दृष्टि से देश भर में एक आदर्श राज्य बन सकता था और मायावती को प्रधानमंत्री के पद पर देखने वालों की संख्या बढ़ती जाती। लेकिन मायावती भी अहंकार, प्रदर्शन और आत्ममुग्धता के छलावे में पड़ कर इतनी कमजोर और अविश्वसनीय हो गयीं कि स्वयं दलितों की निगाह में भी उनकी साख गिरने लगी।
इस संक्षिप्त विवरण से यह निष्कर्ष निकालना अनुचित नहीं होगा कि राजनैतिक सुलह, गठबंधन और एकता अक्सर सतही होते हैं और सांस्कृतिक पुनर्निर्माण की सामूहिक चेष्टा एक बड़ा और टिकाऊ वितान बनाती है। राजनीति के बदलने से जरूरी नहीं कि समाज भी बदले, पर समाज बदलता है तो वह राजनीति को एक नयी दिशा देता है। पिछले साठ-सत्तर सालों में भारतीय जनसंघ और तदंतर भारतीय जनता पार्टी का राजनैतिक भविष्य फल बहुत ऊपर-नीचे होता गया है, लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रगति का ग्राफ लगातार ऊँचा होता गया है। 2014 में भाजपा की जीत अकेले मोदी की जीत नहीं थी, यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भी जीत थी। 2019 में मोदी लुढ़क सकते हैं, पर इससे संघ की शक्ति कमजोर नहीं होगी।
इस समय बहुजन समाज के सामने सब से बड़ी चुनौती यह है कि क्या वह एक ऐसी मजबूत, टिकाऊ और विश्वसनीय सामाजिक और संस्कृतिक परिवर्तन का विकास कर सकती है, जो क्षैतिज विकास, समता और न्याय का सशक्त औजार बन सके? सामाजिक न्याय का नारा घिस चुका है। अन्य क्षेत्रों में नवोन्मेष ला कर ही उसकी इज्जत बचायी जा सकती है और प्रतिक्रियावाद का सफल मुकाबला किया जा सकता है। बहुजनवाद में यह संभावना है, हम यह कई बार लक्ष्य कर चुके हैं, पर इस बार की लड़ाई निर्णायक और शायद अंतिम है, जिसका बीड़ा नहीं उठाने से इस सुंदर देश का छिन्न-भिन्न हो जाना निश्चित है।
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