क्या हम सब ‘मैं’ सर्वनाम से प्रेम नहीं करते? यह अनूठेपन का प्रतीक है। दुनिया के पहले विवाह में एक ‘मैं’ का दूसरे ‘मैं’ से मिलन हुआ और वे ‘हम’ बतौर स्थायी बंधन में बंध गए। एक ‘मैं’ बहुत महत्वपूर्ण है परंतु दूसरा ‘मैं’, जिससे उसका मिलन होता है, वह भी उतना ही महत्वपूर्ण है। दुनिया की पहली शादी हुए सदियां गुजऱ गईं हैं परंतु अभी भी वैवाहिक संबंधों में गलत ‘मैं’ हावी है।
शादी के पहले तक मैं प्रेम में गले तक डूबा हुआ था-गहरे, अंधे और त्यागी प्रेम में। मेरी प्रिया, मेरे लिए सबसे कीमती थी। उसे खुश देखने के लिए मैं अपने समय, धन, इच्छाओं और कभी-कभी अपनी आवश्यकताओं का भी त्याग करने के लिए तत्पर रहता था। मेरे अस्तित्व के केंद्र में दूसरा ‘मैं’ था।
फिर हमने विवाह कर लिया। वह स्वार्थी ‘मैं’, जो अब तक प्रेम की अगणित परतों के नीचे दुबका बैठा था, उभर आया और युद्ध शुरू हो गए। हम छोटे-छोटे मुद्दों पर लडऩे लगे। हम केवल अपने ‘मैं’ की जीत चाहते थे। जल्दी ही हम स्वयं से पूछने लगे कि ”हमारे प्रेमपूर्ण सौहार्द का क्या हुआ?’’
स्वार्थी ‘मैं’, दूसरे को बदलना चाहता था। हमारी जिंदगी उथलपुथल से भर गई। हम एक-दूसरे पर शब्दों के तीर चलाते, एक-दूसरे को दोषी ठहराते, अपने को बड़ा सिद्ध करने की हर संभव कोशिश करते। हम एक-दूसरे को नियंत्रित करना चाहते थे और इसके लिए गड़े मुर्दे उखाडऩे से भी नहीं चूकते थे। वैवाहिक जीवन का संघर्ष जारी था।
इस संघर्ष में कभी मैं पराजित होता था और कई बार जीतता भी था। परंतु हम दोनों में से चाहे जो भी जीते, हमें यह एहसास था कि ‘हम’ की हार होती थी। हमारे परस्पर प्रेम को चोट पहुंचती थी। हम स्वयं को बदलना नहीं चाहते थे परंतु दूसरे से हमारी यह अपेक्षा रहती थी कि वह अपने आपको बदले। मुझे याद है कि जब मैं उसे बदलना चाहता था, उस पर कोई आरोप लगाना चाहता था, उसे दु:ख या चोट पहुंचाना चाहता था तो ‘मैं’ का स्थान ‘तुम’ले लेता था। ‘मैं’ की जगह ‘तुम’के इस्तेमाल ने हमें एक-दूसरे का मानो दुश्मन बना दिया।
हमारी बातचीत अक्सर कुछ इस तरह होती थी -”तुम नहीं समझते। तुम कुछ नहीं समझते!’’”ये काम तुम जिस तरह से करते हो, उसे तुम्हें बदलना चाहिए।’’”तुम कभी सुनती ही नहीं हो!’’
शब्द क्या नहीं कर सकते। एक युवा महिला ने कहा, ”वह कभी मेरी पाककला की तारीफ नहीं करता’’। युवा पुरूष ने जवाब दिया, ”मैं हमेशा करता हूं। मैं कभी शिकायत नहीं करता। जो भी मेरे सामने रखा जाता है, मैं उसे चुपचाप खा लेता हूं! शादी का अर्थ है त्याग। मैंने पीना छोड़ दिया, धूम्रपान बंद कर दिया, मांसाहार छोड़ दिया परंतु वह फिर भी मुझसे लड़ती रहती है!’’
”मैंने नॉनवेज खाना पकाना शुरू कर दिया, मैं अक्सर उसके दोस्तों के लिए खाना बनाती थी, मैंने साड़ी पहनना शुरू कर दी परंतु वह मुझे समझता ही नहीं है!’’ उसका जवाब था।
इस बिंदु पर मेरे दिमाग में एक विचार आया। ‘मैं’, जो कि अक्सर झगड़े की जड़ बनता है, वह शांति स्थापित करने और उसेे बनाए रखने में कैसे सहायक हो सकता है? ‘मैं’कै से हमें वह रास्ता दिखा सकता है, जिस पर चलकर हमारे वैवाहिक जीवन में लड़ाई-झगड़े बंद हो जाएं और परस्पर सौहार्द और प्रेम में बढ़ोत्तरी हो?
मैंने इस समस्या के संदर्भ में ‘मैं’ पर विचार करना शुरू किया। हमें कुछ समय लगा, परंतु इसके जो परिणाम हुए उनने हम दोनों को चमत्कृत कर दिया। हम दूसरे की बात पर केवल प्रतिक्रिया करने की बजाए उसका तार्किक उत्तर देने लगे। इसके चलते हमने यह सीखा कि हमें बोलने से पहले सोचना चाहिए। हमें दूसरे के प्रति सहानुभूति रखनी चाहिए और हमें अपनी समस्या साफ-साफ शब्दों में दूसरे के समक्ष रखनी चाहिए और ऐसा करते समय, कभी एक-दूसरे पर हमला नहीं करना चाहिए। उसके बाद हमारी बातचीत में हम स्वयं की बजाए दूसरे की भावनाओं को अधिक महत्व देने लगे।
मैंने कहा ”जब तुम केवल टीवी से चिपक जाती हो और यह भूल ही जाती हो कि मैं भी कमरे में हूं तो मुझे बहुत अकेलापन लगता है।’’टीवी तुरंत म्यूट कर दिया जाता, हम दोनों एक-दूसरे से बातें करना शुरू कर देते, फिर टीवी बंद हो जाता और हम दोनों ‘स्क्रेबल’ खेलते हुए बहुत मजे करते!
मैं कहता ”आज जब हम बाहर जायेंगे तो मुझे बहुत खुशी होगी अगर तुम वो वाली ड्रेस पहनोगी’’। और कमाल हो जाता। वह वही ड्रेस पहनती।’’वह कहती ”जब तुम दूसरी लड़कियों से मेरी तुलना करते हो तो मुझे बुरा लगता है।’’ मैंने ऐसा करना बंद कर दिया।उसने कहा ”जब तुम अपने अन्य दोस्तों के साथ शाम बिताते हो तो मैं उपेक्षित महसूस करती हूं।’’ वह भी बंद हो गया।तो आपने देखा कि क्या हुआ।
हम अपनी बातचीत में ‘मैं’ को वापस ले आए और हमने अपनी भावनाओं और इच्छाओं को अपने शब्दों व भाव-भंगिमाओं से स्पष्ट रूप से व्यक्त करना शुरू कर दिया। ऐसा हो सकता है कि कुछ लोग जब यह करना शुरू करें तो उन्हें यह बेवकूफाना लगे। ऐसा इसलिए क्योंकि आपने बरसों पहले यह करना बंद कर दिया था और अव्यक्त भावनाओं को जंग लग गई थी-कहने वाले और सुनने वाले दोनों की। तो इसलिए सबसे पहली जरूरत यह है कि हम अपनी भावनाओं की जड़ तक पहुंचें-जब भी आपको गुस्सा आए तो एक कागज लीजिए और उस पर अपने दिमाग का खाका खींचकर, आपके मन में जो भाव आ रहे हैं, उनकी जड़ तलाशिए और फिर उन्हें ईमानदारी से दूसरे के साथ सांझा कीजिए। याद रखिए कि आपको शब्दों और भाव-भंगिमाओं में संतुलन बनाना पड़ेगा वरना यह सचमुच बहुत मूर्खतापूर्ण लगेगा। और कोशिश करना जारी रखिए। सिर्फ इसलिए कोशिश करना बंद न करिए क्योंकि वह आपको मूर्खतापूर्ण लगती है या आपका जीवनसाथी आपको संदेह भरी निगाहों से देखता है। एक बार जब उसे समझ में आ जाएगा कि आप अपने मन की बात कह रहे हैं और आप वही कह रहे हैं जो आपके दिमाग में है, तो हालात बेहतर ही होंगे।
जैसा कि आप जानते ही हैं, जब आप कोई नई चीज़ सीखते हैं तो उसे आपकी बातचीत का हिस्सा बनने में कम से कम एक महीना लगता है। मेरा विश्वास कीजिए, जब आप अपनी भावनाओं-असली भावनाओं-को अभिव्यक्त करने की कोशिश करेंगे तो आपको बहुत कठिनाई होगी-क्योंकि ऐसा करके आप अपने आपको आसान शिकार बना रहे होंगे। अब, अगर आप अपनी पत्नी के लिए भी आसान शिकार नहीं बन सकते तो आपको ऐसा बनना सीखना होगा क्योंकि पारदर्शिता ही सच्चे व खुशियों भरे वैवाहिक रिश्ते की कुंजी है। इसलिए इस रिश्ते में आपकी जो भूमिका है, उसकी जिम्मेदारी आप स्वयं लीजिए और इसके परिणाम आपको चौंका देंगे। उन अनावश्यक भिडंतों से छुटकारा पाइए जिनसे आपके रिश्ते कमज़ोर होते हैं और प्रसन्नता व शांति से अपनी जिंदगी बिताइए।
यह लेख ”फैमिली मंत्र’’(www.familymantra.org) से अनुमति प्राप्त कर प्रकाशित किया जा रहा है। यह पत्रिका शहरी परिवारों की समस्याओं पर केंद्रित है और इसका उद्देश्य परिवारों को मजबूती देना और उन्हें पुन: एक करना है।
( फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2016 अंक में प्रकाशित)