ऐसा नहीं है कि आदिवासियों द्वारा मुख्यधारा में शामिल होने का प्रयास कभी हुआ ही नही। संविधान निर्माण सभा में डॉ. जयपाल सिंह मुंडा शामिल थे। भारतीय राजनीति में डॉ. जयपाल सिंह से लेकर कार्तिक उरांव, करिया मुंडा, शिबू सोरेन से होते हुए हीरासिंह मरकाम तक, यह कोशिश जारी थी। आदिवासी नेताओं और आदिवासियों के रहनुमाओं की ओर से जब–जब इस दिशा में यह कोशिश की गई, तब-तब उनके साथ विश्वासघात किया गया अथवा जान से मार दिया गया। आदिवासियों द्वारा न्याय पाने के लिए संघर्ष का इतिहास शुरू से ही रक्त-रंजित रहा है।
आजादी के समय लगभग 565 रियासत थीं, जिनके शासक नवाब या राजा कहलाते थे। आजाद भारत की कई प्रमुख समस्याओं में एक समस्या इन रियासतों के विलय की भी थी। ऐसे कई राजा या नवाब थे जो आजादी और विलय को देशहित में मानते थे। इसीलिए कुछ रियासतों को छोड़ कर अधिकांश रियासतों ने स्वेच्छा से भारत के संघीय ढांचे का हिस्सा बनना स्वीकार कर लिया।
नए रंग और देश की आजादी व रियासतों के विलय से बस्तर नरेश और काकतीय वंश के अंतिम राजा प्रवीर चंद भंजदेव बहुत आशान्वित थे। उन्होंने ही बस्तर रियासत के विलयपत्र पर दस्तखत किए थे और राष्ट्रीय राजनीति में भाग लेने के लिए कांग्रेस में शामिल हुए। बस्तर के आदिवासी दंतेश्वरी देवी और राजा प्रवीर चंद भंजदेव में असीम आस्था रखते हैं। बस्तर के आदिवासियों में राजा प्रवीर चंद भंजदेव के प्रति लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उनकी तस्वीर बस्तर के सभी आदिवासियों के घरों में देखने को मिल जाएगी। 75 दिनों तक चलने वाला बस्तर दशरा, जो विश्व का सबसे अधिक दिनों का पर्व कहा जाता है, के मेले में प्रवीर चंद भंजदेव के फोटो की अप्रत्याशित बिक्री होती है। बस्तर के आदिवासी इनकी पूजा करते हैं।
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राजा प्रवीर चंद भंजदेव की एकमात्र तस्वीर ही प्रचलन में है या कहें सहज उपलब्ध है– वह तस्वीर उनके विवाह के समय की है। इसी तस्वीर को अलग-अलग ढंग से डिजाइन कर बेचा जाता है।
राजा भंजदेव ने आदिवासियों के हक के लिए संघर्ष किया। वे आजाद भारत से बहुत उम्मीद रखने वाले रौशनख्याल राजा थे। उन्हें लगता था कि आजाद भारत में आदिवासियों का शोषण अंग्रेजों की तरह नहीं होगा। वे मानते थे कि आदिवासियों को उनकी जमीन पर बहाल करना अब आसान होगा। साथ ही आदिवासियों को भी विकास की प्रक्रिया का हिस्सा बनने का अवसर प्राप्त होगा। एक तरह से वे आजादी को बस्तर के पूर्ण विकास के लिए एक बेहतरीन अवसर के रूप में देखते थे।
एक समय था, जब बस्तर भारत का सबसे बड़ा जिला था। एक संभाग के रूप में वह आज भी देश के सबसे बड़े संभागों में से एक है। इसमें कुल चार जिले शामिल हैं – बस्तर, दंतेवाड़ा, कांकेर और कोंडागांव। यहां की प्रमुख बोली गोंडी और उसकी उपबोली हल्बी है। हल्बी से याद आया कि हल्बी गीतों में भंजदेव का इतिहास समाया हुआ है। इस काकतीय वंश के प्रथम राजा अन्नमदेव थे और इस अन्नमदेव को हल्बी गीतों में चालकी राजा कहा जाता है। चालक का अर्थ हुआ चालुक्य। यह सर्वविदित है कि चालुक्यों से ही काकतीयों का विस्तार हुआ है।
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आदिवासियों की देवी दंतेश्वरी के साथ काकतीयों का आत्मीय रिश्ते मिथक के रूप में पाए जाते हैं, जो किस्से-कहानियों और गीतों में बस्तर की माटी का हिस्सा बने हुए हैं। बस्तर को पहले दक्षिण का कोशल कहा जाता था, जिसका उल्लेख सोलह जनपदों में है। बस्तर संभाग अर्थात राजा प्रवीर चंद्र का प्रिसिंस्तान भारत के केरल राज्य और बेल्जियम व इस्राइल से भी बड़ा था।
बस्तर के अंतिम राजा थे प्रवीर चंद्र भंज देव, जिनका जन्म 25 जून 1929 को शिलांग में हुआ था। बचपन में ही माता-पिता की मृत्यु के पश्चात 6 वर्ष की अवस्था में ब्रिटिश शासन द्वारा उनका राजतिलक कर दिया गया। उनकी अागे की देखरेख ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा की गई। 18 वर्ष उम्र होने के बाद आजादी के कुछ समय पूर्व ही उन्हें बस्तर की सत्ता सौंपी गई, लेकिन जल्द ही उसे उन्होंने भारतीय गणराज्य में विलय कर दिया।
आजादी के बाद अनेक रियासतें भारतीय गणराज्य में शामिल होना नहीं चाह रही थी, उसमें हैदराबाद निजाम भी थे। उसी समय बस्तर के बैलाडिला (वर्तमान में दंतेवाड़ा जिला) में लौह अयस्क के भण्डार होने की जानकारी मिली। यह आर्थिक रुप से भारत या बस्तर रियासत के लिए बहुत महत्वपूर्ण था। हैदराबाद निजाम अनेक प्रलोभन देकर बस्तर रियासत को अपने पक्ष में करना चाहते थे, लेकिन प्रवीर चंद भंजदेव ने हैदराबाद निजाम की सलाह को ठुकरा दिया। आजाद भारत में आदिवासियों के बेहतर जीवन की कल्पना कर भंजदेव ने 1 जनवरी 1948 को विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर बस्तर को भारतीय गणराज्य में शामिल कर दिया।
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जब भारत आजाद हो चुका था और झारखंड के आदिवासी नेता डॉ.जयपाल सिंह मुंडा आदिवासियों के हक की बात कर रहे थे। डॉ. अांबेडकर संविधान के भाग पांच और छ: में आदिवासियों के हक में तमाम प्रावधानों को निर्मित कर चुके थे। तो एक तरह से संविधानगत रोडमैप तैयार हो चुका था, जरुरत थी बस संवैधानिक अधिकारों को अमल में लाने की। जयपाल सिंह मुंडा कहीं न कहीं तत्कालीन बड़ी राजनीति पार्टी की चाल को समझ नही पा रहे थे। यह बात प्रवीर चंद्र भंजदेव को पसंद नही आ रही थी। वे पहले बस्तर और बाद में गोंडवाना और उसके बाद पूरे देश के आदिवासियों को राजनीतिक रूप से जागरूक करने की कोशिश करने लगे। सन 1957 में वे जगदलपुर विधान सभा का चुनाव लड़े और भारी मतों से विजयी हुए। जीतने के बाद उन्होंने स्थानीय लोगों का काम ईमानदारी से करना शुरू किया।
चार साल में भंजदेव अविभाजित मध्य प्रदेश के सबसे बड़े नेता के रूप में उभर चुके थे। सत्ताधारी पार्टी राजा से नेता बने प्रवीर चंद को तमाम प्रलोभन के बाद भी आदिवासी दमनकारी वाले खेमे में नहीं कर पाई। तल्खियां बढ़ती जा रही थीं। हालांकि कांग्रेस का सदस्य रहते हुए ही 1957 में वे विधायक बने थे। लेकिन आदिवासियों के प्रति सरकार के रवैए से निराश होकर 1959 में विधानसभा सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। मामला था मालिक-मकबूजा भ्रष्टाचार कांड का। बस्तर रियासत के दौरान ही कानून बना था कि आदिवासी की जमीन गैर आदिवासी नहीं ले सकता। लेकिन आजादी के बाद उसमें संशोधन कर उसमें कई छेद कर दिये गये। नतीजा यह हुआ कि एक बोतल शराब या कुछ पैसों में ही बाहरी लोग आदिवासियों के जंगल, जमीन हड़पने लगे। साल और सांगवान के जंगल खत्म होने लगे। इसे मालिक-मकबूजा भ्रष्टाचार कांड नाम दिया गया। राजा ने इस भ्रष्टाचार और संशोधन का व्यापक विरोध किया। आदिवासी विरोधी सरकारी नीतियों के खिलाफ जब पूर्व राजा की सक्रियता बढ़ गई तब फरवरी 1961 में उन्हें कुछ दिनों के लिए हिरासत में भी लिया गया। केंद्र सरकार ने कार्रवाई आगे बढ़ाते हुए राष्ट्रपति के एक आदेश के जरिए राजा के रूप में मिली उनकी सुविधाएं भी समाप्त कर दीं।
बस्तर के आदिवासी सरकार के इस कदम से हैरान थे। एक तरह बस्तर में विद्रोह की स्थिति खड़ी हो गई। राजा के समर्थन में व्यापक स्तर पर विरोध प्रदर्शन किया। आदिवासियों में राजा के प्रति लोकप्रियता से चिढ़कर प्रशासन ने आदिवासियों का दमन करने का निश्चय किया। मार्च 1961 में बीस हजार आदिवासियों पर निर्ममतापूर्वक गोलियों की बौछार की गई, जिसमें अनेक आदिवासी मारे गये। राजा को लग चुका था कि हमें अलग से राजनीतिक राह बनानी होगी। इसलिए सन 1962 तक आते-आते वे पूरे देश के आदिवासियों के लिए एक आदिवासी पार्टी की नींव रखने के विषय में विचार करने लगे। सारी व्यवस्था कर ली गयी थी। इसी साल होने वाले विधान सभा में इनके साथियों ने विधान सभा चुनाव का सामना किया और बस्तर के दस विधानसभा सीटों में से 9 पर बड़ी जीत हासिल कर ली। उनके बढ़ते राजनीतिक प्रभाव से देश की सबसे बड़ी सत्ता परेशान हो गई। राजा की यह जीत सरकार को आदिवासियों के जनसंहार का प्रत्युत्तर था।
इस बीच अनेक मुद्दों जबरन लेवी वसूली, आदिवासी महिलाओं से पुलिस का दुर्व्यवहार, भुखमरी, दण्डकारण्य प्रोजेक्ट इत्यादि पर भंजदेव का सरकार से सामना होता रहा। आदिवासी मुद्दों को लेकर वे अनेक अनशन और शांतिपूर्ण प्रदर्शन भी किये। भंजदेव प्रशासन के लिए हमेशा चुनौती बने रहे, क्योंकि वे हमेशा जन मुद्दों पर सरकार को घेरते रहे। आदिवासियों के बीच उनकी लोकप्रियता भी सरकार को अखर रही थी। भंजदेव के रहते बस्तर में जंगल काटने वाले या खनिज निकालने वाले उद्योगपतियों का घुसना मुश्किल हो गया था। वह इसलिए भी कि उद्योगपतियों के तरफ से तमाम अनियमितताएं की जा रही थी, जिसे सरकार में बैठे लोगों का स्पष्ट समर्थन मिल रहा था। सरकार किसी तरह से इन समस्याओं से निजात पाना चाहती थी।
इसी बीच 25 मार्च 1966 को एक घटना घट गई। पूरे बस्तर से बड़ी संख्या में आदिवासी अपनी समस्याओं को लेकर भंजदेव के समक्ष इकट्ठा हुए थे। इन्ही लोग में से एक विचाराधीन कैदी को ले जाते समय पुलिस और आदिवासियों में झड़प हो गई, जिसमें एक पुलिसकर्मी की मौत हो गई। पुलिस ने आनन-फानन में पूरे राज महल को घेर लिया। सभी आदिवासी राजमहल के अंदर जा चुके थे। पुलिस ने सभी को आत्मसमर्पण करने के लिए कहा। भंजदेव ने पहले महिलाओं और बच्चों को आत्मसमर्पण करने के लिए भेजा। इस दौरान पुलिस ने निहत्थे औरतों और बच्चों फायरिंग शुरु कर दी, बड़ी संख्या में महिलाएं और बच्चे मारे गये। पुलिस के इस हरकत से फिर किसी को आत्मसमर्पण करने की हिम्मत नहीं हुई। इसके बाद और अधिक पुलिस बल मंगा लिये गये। राजमहल में घुसकर पुलिस ने अनेक आदिवासियों समेत राजा को गोलियों से भून दिया। दोपहर तक राजमहल में सन्नाटा पसर चुका था। पुलिस ने 61 राउंड फायरिंग की।
एक राजा जिसने कभी राज नहीं किया, लेकिन हमेशा अपने लोगों के जेहन में राजा के रुप में राज किया।
एक ऐसा राजा जो एक ही बार में नौ आदिवासियों को विधानसभा भेज चुका था। प्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों में आदिवासियों का हक चाहता था। बस्तर की आदिवासी आबादी उम्मीदों से जगमगा रही थी। वह राजा जो आदिवासियों के लिए शिक्षा और रोजगार चाहता था, वह 25 मार्च 1966 को अपने ही महल की सीढ़ियों पर सीने में 25 गोलियां लिए पड़ा था। यह उस समय की बात है जब लाल गलियारा नहीं बना था। भारत में नक्सलवाद नहीं था। राजा लाल गलियारा और नक्सलवाद दोनों से आदिवासियों को बचाना चाह रहा था।
राजा की मौत से सरकार के प्रति आदिवासियों के मन में अविश्वास का जो भाव पैदा हुआ, वह आज तक झलकता है।
तब से लेकर आज तक बस्तर जल रहा है। हर दिन आदिवासी हलाक हो रहे हैं। आदिवासियों का बड़ा जत्था पत्थलगड़ी के माध्यम से अपनी पहचान और हक के लिए लड़ने पर मजबूर है। एक सवाल जिसे भंजदेव हल करना चाहते थे, वह आज भी मुंह बाए खड़ा है और वहां की समस्याएं निरंतर बड़ी होती जा रही हैं।
(कॉपी एडिटर : राजन/नवल/सिद्धार्थ)
(यह आलेख जगदलपुर के इतिहास और स्व. प्रवीरचद्र भंजदेव के छोटे बेटे श्री मोहित चंद्र भंजदेव से लिए गए एक साक्षात्कार पर आधारित है।)
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