बाबा साहेब डॉ. बी. आर. आंबेडकर की पुस्तक ‘एनिहिलेशन आफ कास्ट’ का हिन्दी अनुवाद ‘जाति का विनाश’ फारवर्ड प्रेस ने प्रकाशित किया है।
हालांकि ऐसा नहीं था कि इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद उपलब्ध नहीं था। हिन्दी अनुवाद तो उपलब्ध था लेकिन अनुवाद की भाषा में सहजता और सरलता का अभाव खटकता था। जिससे यह पुस्तक साधारण पाठकों तक पहुंच बनाने में उतनी सफल नहीं हो पायी थी, जितनी समाज को इसकी जरूरत थी। इसी अभाव को दूर करने के लिए प्रख्यात पत्रकार व लेखक राजकिशोर ने कठिन परिश्रम से इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद किया जिसे फारवर्ड प्रेस ने प्रकाशित किया है। हालांकि वे इस पुस्तक के प्रकाशित होने के पूर्व ही 4 जून 2018 को हमसे सदा के लिए विदा हो गये। वे अपनी प्रिय पुस्तक को अपने हाथों से समाज को नहीं सौंप पाये, इसका दुःख हम सभी को आजीवन रहेगा।

यह पुस्तक एक अन्य कारण से भी उपयोगी है। बाबासाहेब ने इस भाषण को ‘जात–पात तोड़क मंडल, लाहौर’ के अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण के लिए तैयार किया था, इसलिए इसमें सन्दर्भ और टिप्पणियां नहीं जोड़ी गयी थीं। डॉ. सिद्धार्थ ने इस पुस्तक में सन्दर्भ और टिप्पणियों को कठिन परिश्रम से जोड़ा है। सन्दर्भ और टिप्पणियों से विषय और अधिक स्पष्ट हो जाता है।
बाबासाहेब की पहचान ‘जाति’ के सन्दर्भ में एक गम्भीर अध्येता की भी है। 1916 में उन्होंने ‘भारत में जातियाँ: उनका तंत्र, उत्पत्ति और विकास’ शीर्षक पर शोध पत्र कोलंबिया विश्वविद्यालय में प्रस्तुत किया था। उनकी इच्छा थी कि ‘जाति का विनाश’ नामक भाषण के साथ ‘भारत में जातियाँ’ नामक शोधपत्र भी प्रकाशित हो। फारवर्ड प्रेस धन्यवाद का पात्र है कि बाबासाहेब की इच्छा के अनुरूप सुन्दर कलेवर में दोनों निबंधों को एक साथ इस पुस्तक में प्रकाशित किया है।
अब ‘जाति का विनाश’ पुस्तक के मजमून और उस समय की परिस्थितियों की थोड़ी चर्चा करते हैं। जैसा कि पहले ही स्पष्ट किया गया है कि इस भाषण को ‘जात–पात तोड़क मंडल, लाहौर’ के वार्षिक अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण के लिए तैयार किया था लेकिन जाति तोड़ने से संबंधित बाबासाहेब के विचारों से मण्डल के सदस्यों की सहमति न बन पाने के कारण अधिवेशन ही रद्द कर दिया गया, लिहाजा यह भाषण प्रस्तुत नहीं किया जा सका जिसे बाबा साहेब ने अस्वस्थता की स्थिति में भी मंडल के अनुरोध पर कड़ी मेहनत से तैयार किया था। विषय की महत्ता को देखते हुए बाबासाहेब ने 15 मई 1936 को अपने खर्च पर इस भाषण को पुस्तक के रूप में प्रकाशित करवाया। इस पुस्तक के दूसरे संस्करण (1937) में बाबा साहेब व जात पात तोड़क मंडल के सदस्यों के बीच हुए पत्राचार एवं पुस्तक प्रकाशित होने पर महात्मा गांधी की प्रतिक्रिया तथा उस पर बाबा साहेब के जवाब को भी प्रकाशित किया गया। ‘जाति का विनाश’ बाबा साहेब द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘एनिहिलेशन आॅफ कास्ट’ के तीसरे संस्करण (1944) में प्रकाशित सम्पूर्ण सामग्री का अनुवाद है।
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इस पुस्तक में प्रकाशित बाबा साहेब के दो व्याख्यानों ‘जाति का विनाश’ (1936) और ‘भारत में जातियाँ’ (1916) में भारतीय समाज में जाति–व्यवस्था की एक व्यवस्थित तस्वीर पेश की गयी है। जाति की उत्पत्ति, विस्तार एवं जाति के विनाश सम्बन्धी तरीके पर बाबा साहेब ने प्रमाण सहित तार्किक ढंग से प्रकाश डाला है। ‘जाति का विनाश’ व्याख्यान पढ़कर महात्मा गांधी ने कहा था ‘‘कोई भी सुधारक इस व्याख्यान की उपेक्षा नहीं कर सकता। जो रूढ़िवादी हैं वे इसे पढ़कर लाभान्वित होंगे। इसका मतलब यह नहीं कि व्याख्यान में आपत्ति करने योग्य कुछ भी नहीं है। इसे सिर्फ इसलिए पढ़ना चाहिए कि इस पर गंभीर आपत्ति की जा सकती है। डॉ. आंबेडकर हिन्दुत्व के लिए एक चुनौती है।’’ स्वतंत्रता के पश्चात् भारतीय समाज और राजनीति की दिशा बदलने वाले कांशीराम का जीवन बदलने में इस व्याख्यान का विशेष योगदान है। उन्हें जब यह पुस्तक मिली तो उसी रात उन्होंने इस पुस्तक को तीन बार पढ़ा और अगले कई दिनों तक उनको नींद भी नहीं आई। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘चमचा युग’ में इन दोनों व्याख्यानों को जाति–व्यवस्था को समझने के लिए बेहद महत्वपूर्ण माना है।

डॉ. आंबेडकर की स्थापना है कि ‘जाति’ स्वतंत्र ईकाई नहीं है। ‘जाति’ ‘हिन्दू समाज व्यवस्था’ का अभिन्न अंग है। इसकी उत्पत्ति ‘पुरोहित वर्ग’ द्वारा अपने को बन्द वर्ग घोषित करने के उपरान्त हुई। जाति एक स्वेच्छा से बन्द वर्ग है। बन्द वर्ग का अर्थ है विजातीय विवाह पर रोक। विजातीय विवाह पर रोक ही जाति व्यवस्था का मुख्य आधार है।
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डॉ. आंबेडकर के शब्दों में, ‘‘अन्य समाजों की तरह भारतीय समाज भी चार वर्गों में विभाजित था और सबसे पुराने वर्ग, जिनके बारे में हमें पता है, ये हैं– (1) ब्राह्मण या पुरोहित वर्ग, (2) क्षत्रिय या सैनिक वर्ग, (3) वैश्य अथवा व्यापारिक वर्ग, (4) शूद्र अथवा शिल्पकार और सेवक वर्ग। इस तथ्य पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है कि यह सारतः एक वर्ग समाज था, जिसमें व्यक्ति योग्यता हासिल कर लेने पर, अपना वर्ग बदल सकता था और इसलिए किसी भी वर्ग में शामिल व्यक्तियों की परिवर्तनशीलता स्वीकार्य थी। हिन्दुओं के इतिहास में किसी समय पुजारी वर्ग ने सामाजिक रूप से समाज के अन्य वर्गों से अपने को अलग कर लिया और बंद घेरे में रहने की नीति अपनाने हुए उन्होंने अपने को एक जाति में बदल लिया।’’ सजातीय विवाह की प्रथा जाति का मूल लक्षण है। सजातीय विवाह के बगैर जाति एक धोखा थी, विधवा विवाह पर रोक, बाल विवाह और सती प्रथा जैसी कुरीतियाँ सजातीय विवाह को बनाये रखने के लिए बनायी गयीं तथा हिन्दू धर्मशास्त्रों द्वारा इन कुरीतियों का महिमामंडन किया गया। इसलिए डॉ. अांबेडकर जाति को तोड़ने के लिए हिन्दू धर्म को नष्ट करने की सलाह देते हैं।
वैसे तो यह पुस्तक ‘जाति’ पर केन्द्रित है, लेकिन इस पुस्तक में डॉ. आंबेडकर की छवि एक समग्र दार्शनिक के रूप में उभरती है। भारतीय समाज को समझने के लिए यह पुस्तक न केवल अतुलनीय है बल्कि आवश्यक भी है। आशा है यह पुस्तक हिन्दी पाठकों की चेतना को विकसित करने में उपयोगी सिद्ध होगी।
किताब : जाति का विनाश
लेखक : डॉ. भीमराव आंबेडकर
अनुवादक : राजकिशोर
प्रकाशक : फारवर्ड प्रेस
मूल्य : 400 रुपए (सजिल्द), 200 रुपए(अजिल्द)
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