(मुथुवेल करूणानिधि : जन्म 3 जून 1924 – मृत्यु 7 अगस्त 2018)
तमिल राजनीति के दिग्गज राजनेता करूणानिधि 7 अगस्त 2018 की शाम दिवंगत हो गए। वह 94 वर्ष के थे और स्वाभाविक था उम्र के कारण लम्बे अरसे से अस्वस्थ थे। इस उम्र में किसी की मृत्यु शोक का विषय नहीं बनना चाहिए। यह समय उस व्यक्ति के मूल्यांकन का होना चाहिए। करूणानिधि एक व्यक्ति से अधिक संस्था थे, इसलिए भारतीय राजनीति में जब कभी विषम स्थितियां आईं, उनकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार किया गया। वह दक्षिण की राजनीतिक-वैचारिक चेतना का प्रतिनिधित्व करते थे। तमिलनाडु में लोकप्रियता और चुनावी सफलता एम. जी. रामचंद्रन और जयललिता को भी मिले। लेकिन वे द्रविड़ वैचारिकता का संवहन करने में विफल थे। द्रविड़ चेतना की आग को अपने जीते-जी करूणानिधि ने कमजोर भले किया, बुझने नहीं दिया। यही उनकी खासियत थी और मेरी समझ से इसके लिए ही वह याद किये जाते रहेंगे।
तमिलनाडु पहले मद्रास प्रान्त था। 1969 में यह अन्नादुरै-करूणानिधि के साझे प्रयास से तमिलनाडु बना। वहां सामाजिक आंदोलनों की एक परंपरा रही है, जिसे उत्तर भारतीय लोगों को समझना मुश्किल होता है। तमिल मिजाज को समझना हमारे लिए आज भी आसान नहीं है। मसलन ,हमारी हिंदी-संस्कृत बुद्धि को यह स्वीकारने में कठिनाई होती है कि तमिल संस्कृत से पुरानी भाषा है और उसका साहित्य भंडार कहीं समृद्ध है।
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करूणानिधि की राजनीतिक भूमि
उत्तर भारतीय की बहुजन राजनीति और द्रविड़ बहुजन राजनीति में भी चरित्रगत भेद है। द्रविड़ अस्मिता आंदोलन की शुरुआत 1930 के दशक में पेरियार रामासामी नायकर ने की थी। यह उस क्षेत्र के बहुजनों का आत्मसम्मान आंदोलन था। इसने उत्तर भारतीय आर्य संस्कृति को कड़ी टक्कर दी। पेरियार ने द्रविड़नाडु की मांग करके उस प्रक्षेत्र में एक हलचल पैदा कर दी। उन्होंने कांग्रेस की राजनीति का एक प्रतिपाठ प्रस्तुत किया, जिसमे ईश्वर, धर्म और ब्राह्मण का पूर्ण निषेध था। कुछ यही कारण था कि ईश्वर-धर्म -ब्राह्मण आधारित राष्ट्रवादियों को प्रथम दृष्टया यह आंदोलन राष्ट्रविरोधी लगा।
यह तो अवश्य था कि पेरियार ने राष्ट्र के स्वरूप और उसकी अंतर्वस्तु पर गंभीर सवाल उठाये थे। इसके वस्तुपरक विश्लेषण का समय अब आया है। यह एक सबाल्टर्न विद्रोह था, जो अनगढ़ जरूर था, विचारहीन बिलकुल नहीं था। इस आंदोलन के परिणामस्वरूप वहां अब्राह्मण समुदाय में तो राजनीतिक-सामाजिक चेतना विकसित हुई ही; कांग्रेस पर भी राजाजी जैसे ब्राह्मण नेताओं की पकड़ आहिस्ता-आहिस्ता कमजोर हुई और कुमारसम्भव कामराज जैसे पिछड़े नेता उभर कर सामने आये। 1959 तक स्थिति यह बनी कि राजाजी कांग्रेस से अलग हो गए और उन्होंने अपनी पृथक स्वतन्त्र पार्टी बना ली। राजा जी के इस फैसले का नतीजा यह निकला कि कांग्रेस और अधिक कमजोर हो गयी। क्योंकि ब्राह्मण दो भागों में बंट गए। इससे द्रविड़ राजनीति को विकसित होने का अवसर मिला। इस तरह एक लम्बे संघर्ष के बाद पेरियार का आंदोलन 1960 के बाद ही प्रभावपूर्ण बना। अब तक कभी पेरियार के ही सहयोगी रहे अन्नादुरै ने उनसे तनिक असहमति प्रदर्शित करते हुए द्रविड़ राजनीति की कमान संभाल ली थी। अन्नादुरै के अनुयायी मित्र करूणानिधि ने उस लकीर को और आगे बढ़ाया। विसंगतियां भी उभरीं,लेकिन धारा को गति मिल गयी।
रुसी कम्युनिस्ट स्टालिन के नाम रखा अपने बेटे का नाम
करूणानिधि कुल मिला कर दिलचस्प नेता थे। मूलतः वह लेखक थे और मेरी जानकारी के अनुसार फ़िल्मी पटकथा लेखक के रूप में उनकी ख्याति थी। वैचारिक रूप से वह समाजवादी थे। उनके एक बेटे ,जिन्होंने उनका राजनीतिक उत्तराधिकार हासिल किया है, का नाम स्टालिन है, जो उन्होंने रुसी कम्युनिस्ट नेता जोसेफ स्टालिन से प्रभावित होकर रखा था। इससे करूणानिधि की तत्कालीन सोच का पता मिलता है। सामाजिक रूढ़िवादिता और अंधविश्वासों के विरोध और नास्तिकता के लिए वह कुछ-कुछ अपने दादागुरु पेरियार की तरह ही चर्चित रहे। स्थापित सामाजिक वर्चस्व का जिस तरह उन्होंने विरोध किया, और जिस तरह समाज की धारा बदल दी वह अपने आप में एक उदाहरण है।
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राजनीतिक सफलताएं व्यक्तित्व को विवादित भी बनाती हैं। यह करूणानिधि के साथ भी हुआ। वह पांच बार राज्य के मुख्यमंत्री बने और ग्यारह बार विधायक। अन्ना दुरई की मृत्यु के बाद उन्होंने अपनी पार्टी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम की कमान जो संभाली, उसे मृत्यु पूर्व तक सँभालते रहे। वह वैचारिक नास्तिकता जरूर पालते रहे, लेकिन अपने को भगवान की तरह स्थापित करने का प्रयास भी किया। राजनीति में कुनबावाद तो स्थापित किया ही। जब भी करूणानिधि पर विचार होगा, इन चीजों पर भी होगा ही।
बावजूद इसके हम अनेक चीजें उनसे सीख सकते हैं। अनेक बार वह राजनीतिक लड़ाई में बुरी तरह पराजित हुए, आरोपों से घिरे, जेल गए, सत्ता द्वारा प्रताड़ित किये गए। लेकिन घबड़ाये नहीं। फिर से उठकर खड़े हुए और सफलताएं हासिल की। तमिल भाषियों पर हिंदी थोपे जाने के विरोध का हम हिंदी भाषी अपने नजरिये से आकलन करते हैं। लेकिन इस विरोध में उनकी अपनी भाषा -संस्कृति से जो जुड़ाव व आत्मीयता है, उसे हम समझना नहीं चाहते। बाद में परिस्थितियों के अनुसार उन्होंने स्वयं को और अपनी राजनीति को भी परिवर्तित किया था। द्रविड़ आंदोलन को उन्होंने भारतीयता के साथ नत्थी कर दिया और समय-समय पर राष्ट्रीय राजनीति में गंभीर दिलचस्पी ली।
अब वह दिवंगत हैं। उम्मीद है देश के लोग उन्हें याद रखेंगे। उन्हें मेरी श्रद्धांजलि।
(कॉपी एडिटर : एफपी डेस्क)
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