बिन्देश्वरी प्रसाद मंडल (जन्म 25 अगस्त 1918 – निधन 13 अप्रैल 1982) पर विशेष
7 अगस्त 1990 को मंडल आयोग की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद धीरे-धीरे अगस्त ‘सामाजिक न्याय के माह’ के रूप में स्थापित होते गया है। इस माह पूरे देश में वर्ण-व्यवस्था के वंचितों द्वारा सामाजिक न्याय पर असंख्य संगोष्ठियां आयोजित होती हैं। यह चलन हर वर्ष बढ़ता ही जा रहा है। इस वर्ष भी अगस्त माह में देश के कोने-कोने में सामाजिक न्याय पर असंख्य संगोष्ठियां हुईं और आगामी 25 अगस्त को बी.पी. मंडल , जिनकी अध्यक्षता में ही 20 दिसंबर, 1978 को चार सदस्यीय पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन हुआ था, की जयंती के अवसर पर बड़े पैमाने पर भारी संख्या में इस मुद्दे पर संगोष्ठियाँ आयोजित होने की ख़बरें आ रही हैं। बहरहाल गत 19 अगस्त 2018 को दिल्ली के मशहूर कंस्टीच्यूशन क्लब में इस किस्म की एक बड़ी संगोष्ठी में इस लेखक को भी शिरकत करने का अवसर मिला, जिसमें हाई कोर्ट के एक वरिष्ठ अधिवक्ता ने सामाजिक अन्याय पर एक सवाल खड़ा कर श्रोताओं को विस्मित कर दिया था।
उन्होंने अपनी बात की शुरुआत करते हुए कहा था, ‘हम सभी यहाँ सामाजिक न्याय के सिपाही बैठे हुए हैं। पर, सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ते हुए हमने यह समझने का गंभीर प्रयास ही नहीं किया कि सामाजिक अन्याय था, इसलिए उसे दूर करने के लिए हमें सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़नी पड़ रही है। सामाजिक अन्याय की उत्पत्ति के कारण को ठीक से न समझ पाने के कारण ही आज हम सामाजिक न्याय की लड़ाई लगभग हार चुके हैं : सामाजिक अन्यायकारी वर्गों का दबदबा कायम हो चुका है। यह एक नया सवाल था, जिसे सुनने की मैं अरसे से प्रतीक्षा कर रहा था। मेरा भी दृढ विश्वास रहा है कि सामाजिक अन्याय को ठीक से न समझ पाने के कारण ही देश का आरक्षित वर्ग आरक्षण बचाने, निजी क्षेत्र, न्यायपालिका, प्रमोशन में आरक्षण बढ़ाने के नाम पर सामाजिक न्याय की सीमित लड़ाई में व्यस्त रहा और आज शासकों द्वारा साजिश करके सरकारी नौकरियां ख़त्म किये जाने से वह गुलाम वर्ग में तब्दील होने जा रहा है।
बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें
बहरहाल सामाजिक अन्याय को लेकर सवाल उठाने वाले विद्वान वक्ता ने इसकी उत्पत्ति का जो कारण बताया, उससे लगा ,उन्होंने खुद ही इस पर पर्याप्त चिंतन नहीं किया है। उन्होंने सामाजिक अन्याय का कारण जोतीराव फुले की इस कविता-’विद्या बिना मति गयी,मति बिना नीति गई ;नीति बिना गति, गति बिना वित्त गया; बिना वित्त शुद, इतने अनर्थ एक अविद्या ने किया’- में ढूंढते हुए ‘अविद्या’ को ही मुख्य कारण बताया। अर्थात शासकों द्वारा बहुजनों को अज्ञान बना कर ही सामाजिक अन्याय को जन्म दिया गया, जिससे निजात दिलाने के लिए बहुजन महापुरुषों ने अपने-अपने स्तर पर सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ी।
निस्संदेह सामाजिक अन्याय की सृष्टि में भारत में वंचित जातियों का शिक्षा के क्षेत्र से बहिष्कार एक अहम कारण रहा। लेकिन सामाजिक अन्याय तो एक वैश्विक परिघटना रही है और भारत से बाहर दुनिया में और कहीं वंचितों को शिक्षा से पूरी तरह बहिष्कृत नहीं किया गया, बावजूद इसके वहां भी सामाजिक अन्याय का अध्याय सृष्ट हुआ। ऐसे में वंचितों का शिक्षा से बहिष्कार सामाजिक अन्याय का मूल कारण नहीं माना जा सकता। बहरहाल सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वालों के लिए सामाजिक अन्याय की तह में जाना जरुरी था, जो नहीं किया गया।
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अगर भारत में सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले नेता, एक्टिविस्ट और प्रोफ़ेसर सामाजिक अन्याय के मूल को समझने का गंभीर प्रयास किये होते तो पाते कि नस्ल, लिंग, धर्म, भाषा, क्षेत्रादि के आधार पर विभाजित समाज के विभिन्न सामाजिक समूहों में से कुछेक का शासकों द्वारा शक्ति के स्रोतों(आर्थिक-राजनैतिक-शैक्षिक-धार्मिक इत्यादि) से जबरन बहिष्कार ही सामाजिक अन्याय कहलाता है। इस लिहाज से दुनिया में स्त्री के रूप में विद्यमान आधी आबादी सर्वत्र ही सामाजिक अन्याय का शिकार रही। सर्वाधिक अन्याय के शिकार समुदायों में अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत तथा भारत के बहुजन रहे। यदि मानव जाति के इतिहास के सर्वाधिक वंचित तबकों- प्राचीन रोम के प्लीबीयंस-नाइट्स-दास,यूरोप की सामंतवादी व्यवस्था के कृषक दास, अमेरिका-अफ्रीका इत्यादि के अश्वेत, मलेशिया-न्यूजीलैंड-आस्ट्रेलिया इत्यादि के मूलनिवासियों, भारत के दलित-आदिवासी–पिछड़ों इत्यादि की दुर्दशा के मूल में जाएँ तो पता चलेगा कि इन सभी में एक खास साम्यता रही। वह यह कि सभी को ही कमोबेश शक्ति के उपरोक्त स्रोतों में वाजिब हिस्सेदारी न देकर ही उन्हें सामाजिक अन्याय का शिकार बनाया गया।
सम्पूर्ण इतिहास में जिन्हें शक्ति के स्रोतों से दूर धकेल कर अशक्त बनाया गया, उनमें सर्वाधिक अभागे रहे भारत के बहुजन, विशेषकर दलित। सामाजिक अन्याय का शिकार बनाये गए दूसरे देशों के वंचितों को न तो शिक्षालयों से दूर रखा गया और न ही देवालयों से; राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियाँ भी उनके लिए पूरी तरह निषिद्ध नहीं रहीं। यह दुर्भाग्य एकमात्र दलितों के हिस्से में आया।
बहरहाल पूरी दुनिया में शासकों की साजिश से अशक्त बनाये गए तबकों के पक्ष में लेखक, पत्रकार, साहित्यकार, सोशल एक्टिविस्ट और राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने जो अभियान चलाया, उसका चरम लक्ष्य रहा शक्ति के स्रोतों में उनको वाजिब हिस्सेदारी दिलाना। इस अभियान से आज की तारीख में भारत के शुद्रातिशूद्रों को छोडकर सामाजिक अन्याय का शिकार बनाये गए विश्व के बाकी समुदाओं के जीवन में चमत्कारिक बदलाव आ चुका है। इससे सर्वाधिक उपकृत होने वाले समूहों को यदि चिन्हित किया जाय तो अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के दलित अर्थात काले शीर्ष पर नजर आयेंगे।
अमेरिका के जो अश्वेत दास–प्रथा से मुक्त होने के सौ साल बाद भी दलितों से कहीं ज्यादा बदहाली में थे, 1970 के दशक में वहां आंबेडकरी आरक्षण से उधार ली हुई सर्वव्यापी आरक्षण वाली डायवर्सिटी पाॅलिसी ने उनके जीवन में आश्चर्यजनक बदलाव ला दिया है। आज अमेरिका में सर्वत्र उनकी हिस्सेदारी दिख रही है। वे फिल्म और टीवी के सितारे हैं। वे बड़े–बड़े उद्योगपतियों में शुमार हैं। वे बड़ी–बड़ी कंपनियों के सीइओ हैं। नासा से लेकर हार्वर्ड और वालमार्ट से हॉलीवुड:जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहां उनकी प्रभावी उपस्थिति न दिख रही हो। इस बीच उनके मध्य का ही एक व्यक्ति अमेरिका का प्रेसिडेंट तक बन चुका है। जहाँ तक दक्षिण अफ्रीका के गोरों द्वारा शासित मंडेला के लोगों का सवाल है, 1994 में रंग–भेदी सत्ता के अवसान के बाद के दो दशकों में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनका प्रभुत्व स्थापित हो गया है। कभी जिन 9-10 प्रतिशत गोरों का वहां शक्ति के स्रोतों पर 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा हुआ करता था, आज वे तमाम क्षेत्रों में अपने संख्यानुपात पर सिमटते जाने से दुखी होकर वहां से पलायन करते जा रहे हैं। गोरो का एकमात्र कब्ज़ा बचा था भूमि पर। किन्तु फरवरी 2018 में दक्षिण अफ़्रीकी सरकार ने एक कठोर निर्णय लेते हुए, जिन 9-10 प्रतिशत गोरों की वहां की जमीन पर 72 प्रतिशत कब्ज़ा था,उसे बिना मुआवजा दिए अपने कब्जे में ले लिया है। अब वह जमीन सदियों के शोषित-वंचित बहुसंख्य अश्वेतों के मध्य बांटी जा रही है।
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बहरहाल बहुत पहले संवैधानिक अधिकार मिलने के बावजूद भारत के बहुजनों की स्थिति अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के अश्वेतों के मुकाबले अत्यंत कारुणिक है; इनमें नाममात्र का ही बदलाव आया है। आज भी हजारों साल पूर्व की भांति उद्योग—व्यापार पर 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा वर्ण–व्यवस्था के विशेषाधिकारयुक्त तबकों का ही है। पूरे देश में आज जो असंख्य गगनचुम्बी भवन खड़े हुए हैं,उनमें 80-90 प्रतिशत फ्लैट्स उन्ही के हैं। पॉश काॅलोनियों में आज भी किसी दलित-आदिवासी-पिछड़े को वास करते देखना अचम्भे जैसा लगता है। मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर छोटे–छोटे कस्बों तक में छोटी–छोटी दुकानों से लेकर बड़े–बड़े शॉपिंग माल्स में 80-90 प्रतिशत से ज्यादा दुकानें इन्ही की हैं। चार से लेकर आठ–आठ लेन की सड़कों पर चमचमाती गाड़ियों का जो सैलाब नजर आता है ,उनमें प्रायः 90 प्रतिशत से ज्यादा गाड़ियाँ उन्हीं की ही होती हैं। देश के जनमत निर्माण में लगे छोटे–बड़े अख़बारों से लेकर तमाम चैनल उन्हीं के हैं। फिल्म और मनोरंजन उद्योग पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा उन्हीं का है। संसद–विधानसभाओं में बहुजनों के जनप्रतिनिधियों की संख्या भले ही ठीक–ठाक हो, पर मंत्रिमंडलों में 90 प्रतिशत वे ही हैं। मंत्रिमंडलों के लिए गए फैसलों को अमलीजामा पहनाने वाले प्रायः 80-90 प्रतिशत अधिकारी इन्हीं वर्गों से हैं। शासन–प्रशासन,उद्योग, व्यापार, ज्ञान–उद्योग, फिल्म–मीडिया, मठ-मंदिरों इत्यादि पर जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग का बेहिसाब वर्चस्व आँख में अंगुली डाल कर बताता है कि भारत में हजारों वर्ष पूर्व की भांति सामाजिक अन्याय की धारा आज भी जोर–शोर से प्रवाहमान है।
अब यहाँ स्वाभाविक रूप से सवाल पैदा होता है कि धरती की छाती पर एकमात्र भारत में क्यों सामाजिक अन्याय की धारा हजारों साल पूर्व की भाँति आज भी कायम है? इसके दो कारण हैंद्ध। एक तो यह कि डॉ. आंबेडकर की भाषा में यहाँ का प्रभु वर्ग न सिर्फ सामाजिक विवेक, बल्कि देश-प्रेम से भी से भी शून्य हैं। इस कारण इस स्वार्थी वर्ग को इस बात की रत्ती भर भी चिंता नहीं है कि इस भयावह अन्याय के के कारण देश टूट सकता है। डॉ.आंबेडकर के शब्दों में लोकतंत्र का ढांचा विस्फोटित हो सकता है। अब जहाँ तक वंचित वर्गों का सवाल है, सदियों से शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत रहने के कारण इन वर्गों से फुले,शाहूजी,आंबेडकर, पेरियार, रामस्वरूप वर्मा, जगदेव प्रसाद, नामदेव ढसाल ,कांशीराम इत्यादि जैसे सर्वोच्च स्तर के चिन्तक व बहुजन मुक्तिकामियों का उदय न हो सका।
अपने अधकचरे ज्ञान और संघर्ष के जज्बे के अभाव में सामाजिक न्याय के आन्दोलन के नाम पर आरक्षण और संविधान बचाने तथा निजी क्षेत्र-न्यायपालिका-प्रमोशन की लड़ाई में समाज का मूल्यवान समय व धन का निवेश करवाते रहे। उधर सामाजिक विवेकशून्य जन्मजात शोषक वर्ग निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकारण, विनिवेशीकरण को हथियार बनाकर आरक्षित वर्गों, विशेषकर सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले सबसे मुखर समूह दलितों को नए सिरे से गुलाम बनाने का लक्ष्य पूरा कर लिया है। लेकिन आज जबकि 21वीं सदी के सभ्यतर युग में जन्मगत कारणों से शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत किये गए शेष विश्व के वंचित तबके प्रायः अपना वाजिब हक़ पा चुके हैं; भारत के सामाजिक न्यायवादी नेताओं-एक्टिविस्टों और बुद्धिजीवियों ने उनसे सबक लेते हुए शक्ति के सभी स्रोतों में हिस्सेदारी की लड़ाई ही नहीं लड़ा। वे आज भी कागजों की शोभा बन चुके आरक्षण को बचाने अर्थात नौकरियों में बहुजनों को हिस्सेदारी दिलाने में उलझाये हुए हैं। इस कारण ही भारत में सामाजिक अन्याय की धारा आज भी सदियों की भाँति प्रवाहमान है।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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