आइए महसूस करिये जिन्दगी के ताप कोे। यह पुस्तक आपको मैला ढोने के बजबजाते यथार्थ तक ले जाएगी। वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह ने इस पुस्तक के माध्यम से हमें एक ऐसे भारत को दिखाने की कोशिश की है जिसे हम देखना तो दूर इसके बारे में सोचना भी नहीं चाहते। परन्तु हकीकत यही है कि मानव मल साफ करने के लिए हमारे आपके जैसेे लाखों लोग रोज इस सड़ांध मारती सच्चाई से रूबरू होते हैं। उनका कसूर यही है कि वे एक जातिवादी भारत में पैदा हुए हैं जहां जन्म से ही उनपर यह पेशा थोपा गया है। वे पितृसत्तात्मक व्यवस्था वाले देश में पैदा हुए हैं जहां एक जाति विशेष की, समुदाय विशेष की महिलाओं को सिर पर मैला ढोने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। ये उस देश में पैदा हुए हैं जहां स्वच्छ भारत की बात की जाती है और इन ‘अस्पृश्य’ ‘अस्वच्छ’ लोगों को मानव की गंदगी साफ करने के नर्क में झोंक कर हम स्मार्ट भारत – डिजिटल इंडिया की बात करते हैं।
भाषा सिंह ने इस पुस्तक का जो समर्पण लिखा है वह काबिले गौर है- ‘‘उन तमाम महिलाओं और उन साथियों के नाम जिन्होंने जाति-व्यवस्था के इस सबसे बर्बर और घिनौने रूप के खिलाफ निर्णायक जंग छेड़ी। उन औरतों के भी नाम जो सिर पर सदियों से रखी इंसानी मल की टोकरी को चाह कर भी इस सभ्य समाज के चेहरे पर उलीच नहीं पायीं।’’
इसका आमुख लिखते हुए सफाई कर्मचारी आंदोेलन के राष्ट्रीय संयोजक बेजवाड़ा विल्सन कहते हैं – ‘‘इस किताब में दोनों पहलू हैं – किस तरह से इस जातिवादी प्रथा ने हमलोगों की जिंदगियों पर असर डाला और हमारी सोच को प्रभावित किया और दूसरा, इससे बाहर निकलने और उसे बदलने की कितनी छटपटाहट हमारे भीतर है। यह सामंती उत्पीड़न की निशानी है। जातिगत विद्वेष और पितृसत्तात्मक ढांचे ने उन्हें इरादतन इस दलदल में डाल रखा है। अब हमने अपनी चुप्पी तोड़ी है। हमें दया नहीं चाहिए। अपनी गरिमा और आत्मसम्मान को हासिल करने के लिए हमारी लड़ाई चल रही है। अछूत के जो करीब आएगा, वह भी अछूत हो जाएगा – यही जाति व्यवस्था की क्रूरता है।’’
वे आगे दलित समुदायों पर भी सवाल उठाते हुए कहते हैं -‘‘विडंबना यह है कि बाकी दलित समुदायों के भीतर भी इस मुद्दे के प्रति संवेदना का अभाव दिखता है। दलित आंदोलनों ने कभी अपने ही भीतर के इस तबके की पीड़ा को मुद्दा नहीं बनाया। क्यों?’’
पुस्तक के बारे में वे कहते हैं – ‘‘मुझे उम्मीद है कि यह किताब ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचेगी और लोगों के भीतर इस अमानवीय प्रथा के खिलाफ जागरूकता पैदा करेगी। यह किताब परिवर्तन की कड़ी बने, ऐसी मेरी कामना है।’’
मैला ढोने वाले मैनुअल स्केवेंजर्स और खास तौर पर मैला ढोने वाली महिलाएं बताती हैं कि उनके लिए पीली दाल और करी खाना भी मुश्किल होता है। क्योंकि इन्हें देखते ही उनके मन में मानव मल की छवि उभरती है जिससे वे रोज दो-चार होती हैं। सुखद यह भी है कि अब मैला ढोने वाले समुदाय के प्रति सहानुभूति ही नहीं बल्कि समानुभूति रखने वाले भी बहुत से लोग हैं। स्वयं लेखिका भाषा सिंह तो हैं ही जिन्हें मैला ढोने वाले समुदाय एवं अन्य लोगों ने भी ‘मैला ढोने वाली पत्रकार’ का दर्जा दे दिया।
इसी कड़ी में वरिष्ठ साहित्यकार मैत्रेयी पुष्पा ‘लोकतांत्रिक मुखौटे’ के अंतर्गत लिखती हैं -‘‘…बड़ी चालाकी से शुतुगमुर्गी मुद्रा ओढ़ पहन कर अनदेखा करते हुए निकल जाते हैं कि हमारे मल-मूत्र का वीभत्स और बजबजाता बोझ ढोते हुए ये इंसान हमें न दिखें जो हमारी सेवा में मवेशियों से भी बदतर जीवन जीते हैं। हमारा इससे बड़ा जघन्यतम अपराध, अक्षम्य पाप और बर्बर अत्याचार भला क्या होगा?…’’
पुस्तक की भूमिका में भाषा सिंह कहती हैं कि -‘‘…यह दुनिया इतनी अदृश्य है कि मैंने खुद 33 साल की उम्र के बाद ही एक जातिगत प्रथा के रूप में इसे महसूस किया।..इस यथार्थ से यह मेरी पहली मुठभेड़ थी कि हिन्दू धर्म ने जाति-व्यवस्था में किस तरह से दलितों की भी अलग-अलग जातियाें के भीतर ऐसी भेदभाव व दूरियां पैदा की हैं कि उनके बीच व्यापक एकता ही नहीं बन पाती है। हिन्दू धर्म की जाति-व्यवस्था उस जहरीली बेल की तरह है जो धर्म बदलने, जातिगत पेशा छोड़ने के बाद भी पीछा नहीं छोड़ती बल्कि डंसती रहती है। भारत में कोई अपने काम की वजह से सफाईकर्मी नहीं है बल्कि जन्म के चलते सफाईकर्मी है। एक ख्वाहिश भी है – बस जरा सी कि इस पुस्तक के जरिये यह सवाल आपकी चेतना को भी कुलबुलाने लगे, परेशान करने लगे कि आखिर क्यों और कब तक इंसान के सिर पर इंसान के मल की टोकरी रखी जाती रहेगी।’’
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इस पुस्तक में भाषा सिंह ने 11 राज्यों के मैला ढोने वाली महिलाओं व पुरुषों से बातचीत की है। उन्हें उनके मैला ढोने के कार्यस्थल पर जाकर काम करते हुए यानी मानव मल साफ करते हुए देखा है। एक जगह तो वे लिखती हैं कि …गटर का दृश्य बताना-लिखना असंभव है। मल ही मल था चारों तरफ, …उफ्फ! उसे पार करते हुए वे मानव मल साफ करने वाली महिलाएं उस जगह गईं जहां जाली लगी हुई थीं। उसे बाल्टी से मल उस जाली के ऊपर ही डालना होता था ताकि पानी या तरल मल अंदर जाए और ठोस मल बाहर रहे। मैं जहां खड़ी होकर फोटो ले रही थी, वहां पैर के नीचे से पत्थर हिला और मैं मल की गंधाती नदी में गिरने को हुई। पीछे खड़े देवाशीष ने देख लिया और दौड़कर थाम लिया।…सब कुछ देख सुनकर लगा कि वाकई सब कुछ बाहर आ जाएगा….पेट उछलने लगाा….भयानक गंध से बजबजाती गटर जैसे जंक्शन पर तो जब उन महिलाओं को बाल्टियां पलटते देख रही थी, तो वाकई कैमरा हाथ से फिसल ही गया, सिर घूम गया और बस, जाति की गंधाती सच्चाई पर चीखने का मन हुआ।…’’
पुस्तक दो खंडों में है। दूसरे खंड में उन्होंने सरकारी योजनाओं एवं पुनर्वास के बारे में बताया है। इसके अलाावा परिशिष्ट में उन्हाेंने मैला ढोने वालों को किस राज्य में क्या-क्या नाम लेकर बुलाया जाता है उसकी सूची दी है। मैला ढोेने वालों के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को रखा है। मैला ढोने वालों के बारे में जो पहला कानून वर्ष 1993 में बना, उसके बारे में विस्तार से बताया है। साथ ही देश में मैला ढोने वालों पर काम करने वाले जो संगठन हैं उनको सूचीबद्ध किया है।
उन्होंने मैला ढोने वाली महिलाओं एवं पुरुषों के आक्रोश को भी दर्शाया है। उनके टोकरी जलाओ आंदोलन की सराहना की है। उनकी इस अमानवीयता से मुक्ति की छटपटाहट को दर्ज किया है। गरिमापूर्ण जीवन जीने और सामाजिक न्याय के लिए दस्तक देते मैनुअल स्केवेंजरों और उनके संगठनों को उल्लेखित किया है। पुस्तक पढ़कर एक उम्मीद जगती है। दुष्यंत कुमार के शब्दों में कहूं तो –
दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा जरूर
हर हथेली खून से तर और ज्यादा बेकरार!
समीक्षित पुस्तक : अदृश्य भारत
लेखिका : भाषा सिंह
प्रकाशक : पेंग्विन
प्रकाशन वर्ष : 2012
पृष्ठ : 240
मूल्य : 199 रुपए
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(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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