महिलाओं पर होने वाले अत्याचार व उनसे जुड़े मुकदमों को लेकर सक्रिय अरविन्द जैन सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। भारतीय कानून की नजर में महिलाओं की स्थिति को केंद्र रख लिखी, उनकी किताब औरत होने की सजा अत्यन्त चर्चित है। प्रस्तुत पत्र उन्होंने बीते गुरूवार को सुप्रीम कोर्ट के फैसला आने के पहले लिखा था जिसमें उन्होंने धारा 497 को लेकर न्यायालयों में चल रही अलग-अलग व्याख्याओं के बारे में आगाह किया था। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद उनका यह पत्र और भी प्रासंगिक हो गया है। -संपादक
बहन के नाम पाती
- अरविन्द जैन
बहन के नाम पाती
प्रिय बहन !
तुम्हारा पत्र मिला। पढ़कर परेशान हूं कि तुम्हें क्या सलाह दूं? सारे कानून पढ़ने, सोचने समझने और विचारने के बाद मैं तो सिर्फ इतना ही समझ पाया हूं कि तुम ‘व्यभिचार’ के आधार पर अपने पति को कोई सजा नहीं दिला सकती क्योंकि तुम्हारे पति जो कर रहे हैं वह कानून की नजर में ‘व्यभिचार’ नहीं है और अगर हो भी तो सजा दिलवाने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है। अपने पति के विरुद्ध तुम सिर्फ तलाक के लिए मुकदमा दायर कर सकती हो और वह भी बिना किसी ठोस सबूत और गवाहों के मिलना तो मुश्किल ही है।
सालों कोर्ट कचहरी, वकीलों की मोटी फीस और एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने के बाद तलाक ले भी लोगी तो फिर क्या करोगी? कहां जाओगी? कैसे रहोगी? बच्चों की संरक्षता तुम्हें शायद ही मिले और मिल भी गयी तो उन्हें तुम कैसे पढ़ा-लिखा पाओगी? आजकल नौकरी मिलना भी क्या कोई आसान काम है? नौकरी मिल भी गई तो तुम वहां से भी भागोगी, न जाने कब किस शक्ल में तुम्हें व्यभिचारी रूप दिखने लगें? दुबारा विवाह करोगी तो क्या गारंटी है कि वह ऐसा नहीं होगा?
समाज में अभी भी ऐसी परिस्थितियां कहां हैं कि कोई अकेली औरत सम्मान-पूर्वक जी सके? तुम्हारे सवालों का फिलहाल मेरे पास कोई जवाब नहीं है। तुम मेरी स्थितियों से अच्छी तरह परिचित हो। एक, दो, दस दिन की बात तो है नहीं, उम्र भर का प्रश्न है। बाउजी और अम्मा को तो अभी पता ही नहीं है। पता लगेगा तो न जाने क्या होगा?
तुम ठीक ही कहती हो कि ‘समाज, संसद, सत्ता, सम्पत्ति, शिक्षा और कानून व्यवस्था सब पर मर्दों का सर्वाधिकार सुरक्षित है।’ नियम, क़ायदा-कानून, परंपरा, नैतिकता, आदर्श और सिद्धांत सब पुरुषों ने बनाये हैं और वे ही इन्हें समय-समय पर परिभाषित और परिवर्तित करते रहते हैं, मगर हमेशा अपने वर्ग-हितों की रक्षा करते हुए। औरतों को आदर की आड़ में सदा अपमानित ही किया गया है और छोड़ दिया गया है समाज के हाशिए पर। दादी मां से लेकर मुझ तक शायद कहीं कुछ नहीं बदला। जो थोड़ा बहुत बदला हुआ दिखायी पड़ता है, वो भी निश्चित रूप से वैसा है नहीं, जैसा दिखाया गया है। ‘भ्रूण हत्य़ा’ से लेकर सती बनाये जाने तक सभी कानून महिला कल्याण के नाम पर क्या सिर्फ मजाक नहीं है? शायद इसी पीड़ा से उपजी होगी कविता ‘ मां, पैदा होते ही बेटियों को मार क्यों नहीं दिया।’( “सबद मिलावा” में कविता ‘देस मिलावा’ -पद्मा सचदेव)
सच है कि संविधान में कानून के समक्ष समता और समान कानूनी संरक्षण के मौलिक अधिकार के बावजूद औरतों को इस अधिकार से वंचित किया जाता रहा है और यह कहा या कहलवाया जाता है कि ऐसा उनके हित में किया गया है, क्योंकि राज्य को महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान बनाने का अधिकार प्राप्त है। (भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14और 15 (3))
शायद तुम जानती नहीं कि व्यभिचार संबंधी फौजदारी कानून (भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा-497) में 157 साल पहले जो प्रावधान बनाया गया था वह आज भी उसी रूप में लागू है। समाज ने इसे बदलने की जरूरत महसूस की या नहीं, मैं नहीं जानता, परन्तु एक औरत ने इसकी संवैधानिक वैधता को चुनौती दी थी लेकिन देश की सबसे बड़ी अदालत के न्याय-मूर्तियों ने कानून को ही उचित ठहराया (श्रीमती सौमित्र विष्णु बनाम भारत सरकार, आॅल इंडिया रिपोर्टर, 1985 सुप्रीम कोर्ट 1618)। उस समय मुख्य-न्यायाधीश वाई. वी. चंद्रचूड़ थे।
तुम्हारे पति कानून की नजर में कोई दंडनीय अपराध नहीं कर रहे। वेश्याओं, कालगर्ल या अन्य महिलाओं से संबंध अपराध कहां है? धारा-497 के अनुसार अगर कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की पत्नी से, उसके पति की सहमति से या मिली-भगत के बिना सहवास (बलात्कार नहीं) करता है, तो व्यभिचार का अपराधी माना जाता है, जिसके लिए उसे पांच साल की कैद या जुर्माना या दोनों हो सकते हैं। लेकिन ऐसी किसी भी स्थिति में महिला को उत्प्रेरणा का अपराधी नहीं माना जाएगा। जबकि तलाक के लिए पति या पत्नी द्वारा शादी के बाद (पहले नहीं) पति-पत्नी के अलावा किसी भी अन्य व्यक्ति के साथ स्वेच्छा से सहवास करने पर एक-दूसरे के विरुद्ध तलाक का मुकदमा दायर किया जा सकता है। मतलब सजा के लिए व्यभिचार की परिभाषा अलग और तलाक के लिए परिभाषा अलग।
धारा-497 का दूसरा साफ-साफ अर्थ यह है कि व्यभिचार सिर्फ किसी दूसरे की पत्नी के साथ संबंध रखना है और वह भी माफ अगर उसके पति की भी सहमति या मिली-भगत हो। दो पति आपस में अपनी पत्नियां एक-दूसरे से बदल लें तो कोई व्यभिचार नहीं। मैं नहीं जानता कि भारतीय समाज में ऐसा भी होता है या नहीं, लेकिन इस संदर्भ में कुछ साल पहले एक कहानी जरूर पढ़ी थी और पढ़कर बहुत दिन तक भुनभुनाता रहा था ( ‘हंस’, अक्तूबर 1998 में ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानी“ अंततः” पृष्ठ 24)।
खैर…इसका अर्थ यह हुआ कि आपसी सहमति से तुम्हारे पति किसी भी बालिग, अविवाहित, विधवा या तलाक-शुदा महिला से कोई अपराध किए बिना यौन संबंध रख सकते हैं, चाहे ऐसी महिला उनकी अपनी ही मां, बहन, बेटी, बुआ, मौसी, भाभी, चाची, ताई, भतीजी या भानजी क्यों न हो। हालांकि ऐसी कुछ महिलाओं के साथ वैध विवाह नहीं किया जा सकता। विवाहित महिला से भी संबंध रख सकते हैं बशर्ते उसके पति को कोई ऐतराज न हो। पति का क्या है, वह सहमति दे सकता है या सब कुछ देखते हुए भी चुप्पी साध सकता है, अगर उसका कोई हित सधता हो। अपने हित के लिए सब कुछ उचित है शायद। शानीजी की कहानी ‘इमारत गिराने वाले’ और कृष्णा सोबती का उपन्यास ‘दिलो दानिश’ पढ़े हैं तुमने? नहीं पढ़े, तो पढ़ लेना जरूर।
कुल मिलाकर कानूनी मतलब यह कि पत्नी पति की संपत्ति है, वह चाहे तो खुद इस्तेमाल करे, न चाहे तो न करे या चाहे तो किसी को इस्तेमाल करने दे और न चाहे तो न करने दे। पत्नी की अपनी इच्छा, मर्जी या सहमति का न कोई अर्थ है, न अधिकार। पति की सहमति के बिना संबंध रखने का परिणाम होगा पुरुष के लिए जेल और पत्नी के लिए तलाक। पति अगर व्यभिचारी हो तो पत्नी को पति या उसकी प्रेमिका के खिलाफ शिकायत तक करने का अधिकार नहीं (आपराधिक दंड संहिता की धारा-198)।
तुम्हें शायद मालूम नहीं कि व्यभिचार की धारा-497 की संवैधानिकता वाले मुकदमे में न्यायधीशों ने अपने निर्णय में कहा था कि कानून पति को अन्य महिलाओं के साथ यौन-संबंध की खुली छूट नहीं देता (जबकि देता तो है) लेकिन यह सिर्फ एक खास किस्म के वैवाहिक संबंधों से विचलित होकर विवाह संबंधों से बाहर स्थापित किए गये यौन-संबंधों को अपराध मानता है। अवहेलनाकारी पति ऐसे संबंध स्थापित करके हमेशा जोखिम (?) उठाता है या शायद पत्नी द्वारा तलाक के दीवानी दावे को निमंत्रण देता है।
मैं मानता हूं कि पत्नी व्यभिचार के आधार पर पति से तलाक लेने का दावा कर सकती है, लेकिन आसपास और समाज पर विचार करें तो उस हाल में दंड पत्नी को ही मिलेगा क्योंकि तलाक पत्नी के लिए अभिशाप और पति से पीछा छूटने का ही पर्यायवाची माना-समझा जाता है और फिर तलाक की मुकदमेबाजी भी क्या कोई बच्चों का खेल है।
तुम स्वयं देखो कि निर्णय में आगे स्वीकार भी किया गया है, “ये एक-दूसरे के विरुद्ध विकल्प नहीं है या कहा जा सकता है कि वे एक-दूसरे पर व्यभिचार का दावा (फौजदारी) दायर नहीं कर सकते लेकिन दीवानी कानून में ऐसा प्रावधान है कि व्यभिचार के आधार पर दोनों में कोई भी एक-दूसरे के विरुद्ध मुकदमा (तलाक) दायर कर सकते हैं।” फौजदारी कानून की अपेक्षा दीवानी कानून में बेहतर व्याख्या दी गई है। अगर हम फरियादी की दलील मान लें तो धारा-497 को कानून से निकाल फेंकना पड़ेगा। उस हालत में व्यभिचार और भी निरंकुश हो जाएगा और तब किसी को भी व्यभिचार के अपराध में सजा देना नामुमकिन हो जाएगा, इसलिए समाज का हित इसी में है कि “सीमित व्यभिचार दंडनीय बना रहे” या (असीमित व्यभिचार फैलता है, तो फैलता रहे)।
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तुम अच्छी तरह समझ लो कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का महत्वपूर्ण पक्ष (विडंबना) यह है कि विद्वान न्यायधीशों के अनुसार धारा-497 को रद्द करना नुकसानदेह होगा यद्यपि उन्होंने यह स्वीकार भी किया कि फरियादी के विरुद्ध लगाए गये व्यभिचार के आरोप सुनवाई या जांच से अब कोई उपयोगी लक्ष्य सिद्ध नहीं होगा क्योंकि परित्याग के आधार पर ही फरियादी के पति को तलाक मिल चुका है। न्यायधीशों ने धारा-497 के तहत दायर पति की शिकायत (पत्नी के प्रेमी के विरुद्ध) को खारिज करते हुए यह हिदायत दी है कि इस मामले को अब यहीं खत्म कर दिया जाए (आगे खतरा है)।
तुम वही सवाल करोगी कि फौजदारी कानून में व्यभिचार की शिकायत और दीवानी कानून में तलाक का मुकदमा-दो अलग मामले है : अगर कानून का लक्ष्य व्यभिचार के आधार पर सिर्फ तलाक दिलाने तक ही सीमित है तो फिर धारा-497 को असंवैधानिक घोषित करना समाज के लिए अहितकर क्यों है? और अगर व्यभिचार का प्रावधान संविधान सम्मत है, तो देश की सबसे बड़ी अदालत द्वारा एक व्यभिचारी पुरुष के विरुद्ध दायर शिकायत यह कहकर रद्द कर देना कहां तक उचित है कि इससे कोई उपयोगी लक्ष्य सिद्ध नहीं होगा।
हां, मुझे भी यह लगता है कि अदालत ने एक पुरुष को तलाक (छुटकारा) और दूसरे को अपराधमुक्त करके औरत को सार्वजनिक रूप से व्यभिचारी घोषित किए बिना व्यभिचारी कहकर चौराहे पर छोड़ सबके साथ न्यायपूर्ण फैसला सुनाया है। कानून के साथ तो कम-से-कम न्याय नहीं ही किया गया (पर मानना तो पड़ेगा ही)।
मुझे लगता है कि व्यभिचार के कानूनी प्रावधान (धारा-497) में पुरुषों को ऐय्याशी की खुली छूट ही नहीं दी गई, बल्कि कहीं यह अधिकार भी दे दिया गया है कि वह जरूरत पड़ने पर अपनी पत्नी को अपने हितों की खातिर वस्तु की तरह इस्तेमाल भी कर सके। इधर अखबारों में पति-पत्नी द्वारा मिलकर वेश्यावृत्ति करने की बहुत सी खबरें छपी हैं, जो मेरी धारणा को और अधिक पुष्ट करती हैं।
तुम कहती हो तो ठीक ही कहती होगी कि तुम्हारा पति हफ्तों कालगर्ल के साथ होटलों में मस्ती करता रहता है क्योंकि नम्बर दो का बहुत पैसा कमा लिया है। मुझे लगता है कि वास्तव में, धारा-497 ही ऐसा कानूनी सुरक्षा-कवच है जिसके कारण समाज में व्यापक स्तर पर वेश्यावृत्ति और काल-गर्ल व्यापार फैल रहा है। वेश्यावृत्ति के बारे में बने कानून के अनुसार अनैतिक देह-व्यापार नियंत्रण अधिनियम के किसी भी प्रावधान में पुरुष ग्राहक (या तुम्हारे पति) पर कोई अपराध ही नहीं बनता। पकड़ी जाती हैं हमेशा वेश्याएं, कालगर्ल या दलाल। देह व्यापार में अरबों का लेन-देन हर साल होता है लेकिन वेश्याओं की आर्थिक स्थिति?
कानून पुरुषों को वेश्याओं, कालगर्ल या अनैतिक चरित्र की किसी भी महिला के साथ बलात्कार तक का कानूनी अधिकार देता है। संशोधन से पहले साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा-155 (4) में कहा गया था कि गवाह की विश्वसनीयता खत्म करने के लिए किसी व्यक्ति पर बलात्कार का आरोप हो तो उसे यह सिद्ध करना चाहिए कि अमुक महिला आमतौर पर अनैतिक चरित्र की महिला है। मतलब महिला को अनैतिक चरित्र की स्त्री प्रमाणित करने पर बलात्कार का अपराध माफ। या फिर पुरुषों को बलात्कार का कानूनी अधिकार है वेश्याओं या कालगर्ल के साथ? ‘मथुरा’ और ‘सुमन’ जैसे न जाने कितने फैसले हैं इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के।
वेश्या, कालगर्ल या अनैतिक चरित्र की महिलाएं ही क्यों, भारतीय कानून पति द्वारा 18 साल से बड़ी उम्र की पत्नी के साथ सहवास को भी बलात्कार नहीं मानता (भारतीय दंड संहिता की धारा 375 का अपवाद)। इंग्लैंड की एक अदालत ने कुछ साल पहले एक निर्णय में पति द्वारा पत्नी से जबरदस्ती सहवास को बलात्कार माना था, लेकिन भारत में अभी ऐसे किसी फैसले की उम्मीद करना मूर्खता होगी।
तुम्हारी तरह बहुत से सवाल मेरे मन में भी हैं। व्यभिचार की धारा-497 भले ही संविधान सम्मत ठहराया गया है लेकिन क्या सारे कानून संवैधानिक रूप से वैध होकर नैतिक रूप से भी वैध होते हैं? अदालतें सामाजिक नैतिकता की ‘सुरक्षा प्रहरी’ क्यों नहीं होती? सामाजिक नैतिकता का कानून से कोई संबंध हो या न हो लेकिन कानून की अपनी भी तो कोई नैतिकता होनी ही चाहिए? सामाजिक नैतिकता और कानून के बीच जो गहरी खाई है, वह समाज में अनैतिकता और व्यभिचार को बढ़ावा नहीं दे रही? या फिर समाज में लगातार बढ़ती अनैतिकता और व्यभिचार को रोकने में कानून पूरी तरह लाचार और बेकार नहीं है? व्यभिचार पर कानूनी अंकुश न होने के कारण ही कहीं अवैध संबंधों की पृष्ठभूमि में तनाव, लड़ाई-झगड़े, मारपीट, तलाक, आत्महत्या या हत्या के मामले नहीं बढ़ रहे? व्यभिचार के परिणामस्वरूप इसकी सबसे अधिक शिकार या पीड़ित पक्ष औरतें ही क्यों हैं? क्या इसलिए कि उऩके पास कोई विकल्प या बचाव का कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा गया है?
मैं महसूस करता हूं कि व्यभिचार के आधार पर तलाक-संबंधी प्रावधान फौजदारी कानून से कहीं बेहतर हैं क्योंकि वहां पति या पत्नी द्वारा एक-दूसरे के अलावा किसी से भी यौन संबंध को व्यभिचार माना गया है। परिभाषा बेहतर है लेकिन व्यभिचार को प्रमाणित करना कितना मुश्किल है या कितना आसान? अधिकतर इस प्रावधान का प्रयोग पुरुषों द्वारा अपनी पत्नी पर व्यभिचार का झूठा आरोप लगाकर अपमानित करने और छुटकारा पाने के लिए ही किया जाता है। भरण-पोषण भत्ता न देने-लेने के लिए तो अक्सर ऐसे ही आरोप लगाए जाते हैं क्योंकि बचाव के लिए ऐसे कानूनी प्रावधान बनाए गये हैं।
व्यभिचार के आधार पर तलाक के एक मुकदमे में (ए.आई.आर.1982, दिल्ली 328) पत्नी ने पति को एक लड़की के साथ कमरे में आपत्तिजनक अवस्था में रंगे हाथों पकड़ा और फिर तलाक का मुकदमा दायर किया। तलाक मिल जाता लेकिन अपील में हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति श्री महेंद्र नारायण ने कहा कि अधिक से अधिक यह पति के असभ्य व्यवहार का प्रमाण है, व्यभिचार का नहीं क्योंकि यह प्रमाणित नहीं किया गया है कि पति ने लड़की के साथ सहवास किया जो कानून की परिभाषा के अनुसार आवश्यक है। अपने फैसले की पुष्टि में इंग्लैंड के दो फैसलों का उदाहरण भी दिया गया था कि पत्नी द्वारा किसी अन्य से हस्तमैथुन या बिना सहवास के यौन-संबंध व्यभिचार नहीं है। इसी फैसले में एक जगह (पृष्ठ 331) लिखा है ‘कृत्रिम गर्भाधान’ व्यभिचार नहीं है।
तुम देखोगी कि कृत्रिम गर्भाधान को व्यभिचार नहीं माना गया? क्योंकि इसमें सहवास नहीं है या पुरुषों का कृत्रिम गर्भाधान द्वारा पिता बनने का गौरव पाने में कोई परेशानी नहीं है? पिता भी बन गये और किसी को पता भी नहीं चला कि पति नपुंसक है। पत्नी को कृत्रिम रूप से गर्भाधान करने का अधिकार तो है लेकिन बच्चे गोद लेने का फैसला और अधिकार सिर्फ पति को, पत्नी की तो सहमति-भर चाहिए। हां, ऐसे ही दोहरी चरित्र(हीन) वाला है हमारा कानून और समाज।
यह सच है कि अवैध संबंधों में स्त्री-पुरुष समान रूप से भागीदार होते हैं। दो बालिग स्त्री-पुरुष आपस में जैसे संबंध रखना चाहें रखें लेकिन मौजूदा कानून में विवाहित स्त्रियों के साथ जिस तरह पक्षपात किया जा रहा है वह उचित ही नहीं, अन्यायपूर्ण भी है। पत्नी को व्यभिचारी पुरुष या प्रेमिका के विरुद्ध फौजदारी कानून में शिकायत करने का अधिकार दिया जाना चाहिए परन्तु पुरुष समाज को डर है कि अगर ऐसा हो गया तो उनकी ऐयाशी ही नहीं, सारा देह व्यापार, नारी शोषण के हथकंडे और औरतों पर हुकूमत के सारे हथियार ही चौपट हो जाएंगे। सामाजिक नैतिकता से जुड़े बिना कानून समाज का कोई भला नहीं कर सकते। कानून सामाजिक नैतिकता के प्रहरी नहीं बन सकते तो न्याय के प्रहरी कैसे बन सकते हैं? तब तो मानना पड़ेगा कि अदालतें न्याय नहीं सिर्फ फैसले सुनाती हैं और न्यायाधीश, न्यायमूर्ति नहीं मात्र निर्णायक भर हैं। नैतिकता के बिना न्याय नपुंसक नहीं होता क्या?
ऊपर जो कुछ लिखा है उसमें कहीं कोई वकील बैठा है जो सिर्फ मर्दों की वकालत का व्यवसाय करता है, कहीं मध्यवर्गीय मानसिकता और संस्कारों का शिकार एक भाई, कहीं समाज, साहित्य धर्म, राजनीति और न्याय-व्यवस्था पर एक साथ सोचने समझने, विचारने, झल्लाने, कसमसाने और सब कुछ तोड़ कर नया रचने की महत्वकांक्षाएं लिए एक व्यक्ति जो अभी बहुत-बहुत अकेला और उदास है लेकिन निराश बिल्कुल नहीं है। कानून, समाज, परिवार, संबंधी, मित्र-सब शायद तुम्हारी बहुत अधिक मदद न कर पाएं लेकिन तुम अकेली नहीं हो…और अगर हो भी तो इतनी शक्तिहीन और प्रतिभाहीन भी नहीं कि स्वयं अपने जीने के सम्मानजनक आधार और रास्ते न तलाश पाओ। तुम्हें सदा सौभाग्यवती रहने का आशीर्वाद दिया है तो समझ लो कि तुम्हारा सौभाग्य सिर्फ तुम्हारा पति नहीं है। तुममें अनंत संभावनाएं छुपी पड़ी हैं, क्या तुमने उन्हें खोजने, जानने-पहचानने और तराशने की कोशिश भी की है कभी? तुम लाचार, बेबस, विवश और अपंग नहीं हो। दरअसल बार-बार सुनते-सुनते हो सकता है ऐसा समझने लग गई हो। सजा दिलवा भी दो तो क्या होगा? तलाक मिले न मिले चिंता क्यों करती हो? हत्या या आत्महत्या समस्या का कोई समाधान नहीं। तुम कुछ ऐसा भी नहीं करोगी..तुम्हें अपने बेटे की कसम।
अन्त में सिर्फ इतना ही चुपचाप बिना कोई झगड़ा किये घर आने का प्रोग्राम बनाओ। जरूरी कागजात, कपड़े, कैश, गहने वगैरह समेटकर तैयार हो जाओ। बिटिया के जन्मदिन का निमंत्रण-पत्र साथ भेज रहा हूं अलग से जीजा (जी) के नाम। अगले शनिवार को खुद लेने आ जाऊंगा। इस बीच तीन अंतर्देशीय पत्र मेरे, भाभी और बाउजी के नाम पोस्ट कर देना। चिट्ठियां बाद में लिखवा लेंगे, गर जरूरत पड़ी तो। विश्वास रखो कि सब ठीक हो जाएगा। जीजा (जी) या तो नाक रगड़ते फिरेंगे कि आपसी सहमति से तलाक करवा दो, नहीं तो जेल में बैठ चक्की पीसेंगे। बस थोड़ा ‘व्यावहारिक’ होना पड़ेगा। सीधी उंगली से घी कहां निकलता है?
बेटे को बहुत-बहुत प्यार।
शुभाशीर्वाद सहित तुम्हारा
वकील भाई
पुनश्च:
पत्र लिख ही रह था कि अभी-अभी एक नया फैसला आ गया। सुप्रीम कोर्ट के पाँच न्यायमूर्तियों की संवैधानिक पीठ ने जोसफ शाइन बनाम भारत सरकार (रिट पेटिशन क्रिमिनल 194/2017) मामले में 27.09.2018 को भारतीय दंड संहिता की धारा 497 (व्यभिचार) को असंवैधानिक करार दे ही दिया और कोई रास्ता भी नहीं था। अदालत इस कानून को असंवैधानिक ही करार दे सकती थी। पत्नियों को पति के विरुद्ध शिकायत का अधिकार देती, तो पितृसत्ता के लाडलों की सारी पोल ही ना खुल जाती। अब मर्दों को विवाहित स्त्रियों से भी विवाहेत्तर संबंध बनाने की खुली छूट मिल गई। कानून ही नहीं रहा तो कैसा अपराध? ‘व्यभिचार’ के आधार पर पत्नी या पति अब सिर्फ तलाक़ के लिए ‘कोर्ट-कचहरी’ कर सकते हैं। करें…करते रहें।
सौमित्र विष्णु बनाम भारत सरकार मामले में न्यायमूर्ति वाई. वी. चंद्रचूड के फैसले के ठीक विपरीत है, उनके पुत्र न्यायमूर्ति धनन्जय चंदचूड के विचार। फैसले के दूरगामी परिणाम होंगे। लिंग समानता और स्त्री मुक्ति के नारे की आड़ में, यह निर्णय मर्दों को व्यभिचार/एय्याशी/शोषण/देह व्यापार की असीमित छूट ही देगा। यही सार है बदलते समय और समाज में, पितृसत्ता के नये समाजशास्त्र का। अब पितृसत्ता के युवा राजकुमारों (समलैंगिक भी शामिल) को ‘सम्पूर्ण यौन स्वतंत्रता’ चाहिए, जो वो हर कीमत पर पाने-हथियाने के रास्ते और हथकंडे जानते-समझते हैं। हालांकि स्त्री को इस फैसले से कुछ भी ‘हासिल’ नहीं हुआ और होना भी ना था।
चलते-चलते बता दूँ की पिछले हफ्ते ही भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने अपना पूर्व फैसला बदलते हुए भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 377 (समलैंगिकता) पर भी कह दिया है कि बालिग स्त्री-पुरुष आपसी सहमति से एकांत में समलैंगिक संबंध (अप्राकृतिक यौन संबंध) बनाते है, तो इसे भी अपराध नहीं माना-समझा जाएगा। मतलब पितृसत्ता ने अपने बेटे-बेटियों को समलैंगिक यौन संबंधों की छूट देकर ‘सम्पूर्ण यौन क्रांति’ सूत्रपात कर ही दिया है। खैर….शेष मिलने पर।
तुम्हारा
वकील भाई
(कॉपी-संपादन : सिद्धार्थ/राजन)
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