बीते 28 सितंबर 2018 को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया। फैसला केरल के सबरीमाला मंदिर में उन महिलाओं के प्रवेश पर लगे प्रतिबंध से जुड़ा था जिन्हें माहवारी होती है। यह प्रतिबंध मंदिर का संचालन करने वाली त्रावणकोण देवासवाम बोर्ड द्वारा लगायी गयी थी। इसके मुताबिक 10-50 वर्ष की महिलायें सबरीमाला मंदिर में भगवान अय्यप्पा का दर्शन नहीं कर सकती थीं। लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद यह प्रतिबंध खत्म हो गया है। यह फैसला कई मायनों में खास रहा। मसलन संविधान पीठ में शामिल पांच जजों में से चार ने प्रतिबंध खत्म किये जाने के पक्ष में फैसला सुनाया। ये सभी जज पुरुष थे। जिस एक जज ने प्रतिबंध को जायज ठहराया वह महिला हैं। उनका नाम न्यायमूर्ति इंदू मल्होत्रा है। फैसला के ऐतिहासिक होने की एक और वजह यह कि संविधान पीठ ने भारतीय समाज में पुरुषों के वर्चस्व को संपोषित करने वाली हिंदू धर्म की मान्यताओं के विरोध में जाकर यह फैसला सुनाया।
लेकिन सबसे खास रहा ब्राह्म्ण जाति से आने वाले जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ का फैसला। अपने फैसले में उन्होंने जोतीराव फुले, सावित्री बाई फुले और आंबेडकर के विचारों को शामिल किया। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 17 का उल्लेख किया। यह अनुच्छेद अस्पृश्यता के खात्मे से जुड़ा है। उन्होंने महिलाओं पर लगे प्रतिबंध को अस्पृश्यता के समान माना। अपने फैसले में जस्टिस चंद्रचूड़ ने इसकी व्यापक व्याख्या की। फैसले से पहले कोर्ट की मदद कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता राजू रामचंद्रन ने कहा कि महिलाओं के साथ यह व्यवहार अस्पृश्यता है और इसलिए यह अनुच्छेद 17 में आता है।
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने इस राय से सहमति व्यक्त की और इस दलील को स्वीकार कर लिया। उन्होंने कहा कि जीवन जीने का मौलिक अधिकार आज सिर्फ जीने के अधिकार तक ही सीमित नहीं रह गया है, बल्कि वह गरिमा के साथ जीने के अधिकार तक विस्तृत हो चुका है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के एक और फैसले ने इस विचार को आगे बढ़ाया है। यह फैसला आईपीसी की धारा 377 से जुड़ा है जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार को महत्वपूर्ण माना और समलैंगिक, ट्रांसजेंडरों व किन्नरों आदि को सम्मान के साथ जीने के अधिकार को मान्यता दी।
इसके बाद सबरीमाला मामले में जस्टिस चंद्रचूड़ का फैसला व इसकी व्याख्या पूरे विमर्श को नया आयाम देता है। अनुच्छेद 17 और इसके आधार पर बने बहुत सारे कानून भी आजादी के बाद इन 70 से अधिक सालों में जातिवाद के दंश को पूरी तरह समाप्त करने में सफल नहीं हो पाए हैं। इसीलिए अनुच्छेद 17 की परिधि को सबरीमाला मामले में जो विस्तार मिला है वह स्वागत योग्य है।
कोर्ट और विशेषकर न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने बहस में अनुच्छेद 17 को जगह देकर समाज में व्याप्त एक ऐसे कोढ़ की ओर देश और दुनिया का ध्यान खींचा है जो लगभग 70 साल के संवैधानिक वादे के बाद भी जाने का नाम नहीं ले रहा है। खूबसूरत समाज बनाने के रास्ते में जातिवाद और छुआछूत का आड़े नहीं आना महज उन लोगों की चिंता नहीं हो सकती जो आज भी समाज के हाशिये पर खड़े हैं बल्कि यह उस वृहत्तर समाज की भी चिंता होनी चाहिए जो दुनिया में सर्वाधिक तेजी से आर्थिक विकास की सीढ़ियाँ चढ़ रहा है। चिंता की बात यह है कि यह समाज जातिवादी बने रहकर अपने सफलताओं के झंडे गाड़ना चाहता है और वह ऐसा कर रहा है। ऐसे में अगर इस समाज को हम प्रगतिगामी कह भी लें, या उन लोगों को प्रगतिशील बता भी दें, तो फर्क क्या पड़ता है? बल्कि ठीक उल्टा हो रहा है, जब कोई व्यक्ति जातिवादी भेदभाव को कंधे पर उठाते हुए ‘सफलताओं के झंडे’ गाड़ता है, तो उसका जातिवादी अहंकार सातवें आसमान पर पहुंचा होता है। जातिवाद और छुआछूत कहीं से उसे अमानवीय नहीं लगता क्योंकि उसकी सामाजिक और मानवीय नैतिकता समाज में एक ‘सफल व्यक्ति’ के रूप में उसको मिल रही वाहवाही की भेंट चढ़ चुकी होती है। वह जातिवाद और छुआछूत में विश्वास करते हुए भी एक सफल व्यक्ति बनने में कामयाब होता है। जातिवादी होने और छुआछूत में विश्वास करने के बावजूद उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा को कोई धक्का नहीं पहुंचा है।
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कोर्ट ने इस मामले में वरिष्ठ अधिवक्ता राजू रामचंद्रन को अमीकस क्यूरी (कोर्ट का मददगार) नियुक्त किया था। मामले की सुनवाई के दौरान अपने हस्तक्षेप में रामचंद्रन ने सबरीमाला मंदिर में कुछ रीति रिवाजों के आधार महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध को “छूआछूत” बताया और कहा कि इस वजह से यह अनुच्छेद 17 का उल्लंघन करता है। पर उनकी इस दलील का यह कहते हुए विरोध किया गया कि अनुच्छेद 17 जाति-आधारित छूआछूत से संबंधित है न कि लिंग-आधारित बहिष्करण से। इस पर हुए दावे प्रतिदावे के बाद न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ ने अनुच्छेद 17 की ऐतिहासिकता पर व्यापक प्रकाश डाला।
अनुच्छेद 17 में कहा गया है –
“छूआछूत को समाप्त कर दिया गया है और किसी भी रूप में इसको मानने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। ‘छूआछूत’ के कारण उत्पन्न होने वाली किसी भी तरह की अशक्तता को अपराध माना जाएगा और इसके लिए कानूनसम्मत दंड दिया जाएगा”।
अनुच्छेद 17 के द्वारा संविधान ने समाज में गैर बराबरी को समाप्त किया और इसके सभी लोगों को समानता और न्याय का वादा किया। अनुच्छेद 17 को किसी के भी खिलाफ लागू किया जा सकता है – राज्य, समूह, किसी व्यक्ति, कानूनी व्यक्तियों, एककों और संगठित धर्मों के खिलाफ भी। अनुच्छेद 17 संविधान के रूपांतरकारी आदर्श का प्रतिबिंब है जो सामाजिक रूप से वंचित समूहों की आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति देता है और मौलिक सामाजिक बदलाव के लिए नैतिक फ्रेमवर्क उपलब्ध कराता है।
संविधान निर्माताओं ने ‘अस्पृश्यता’ को अपरिभाषित ही छोड़ दिया और ऐसा जानबूझकर किया गया था। संवैधानिक सलाहकार बी.एन. राऊ ने “अस्पृश्यता” को परिभाषित करने की जरूरत बताई। सलाहकार समिति जब मौलिक अधिकारों पर बनी उप समिति के सुझावों पर गौर करने के लिए बैठी, तो जगजीवन राम ने उनसे एक प्रश्न पूछा : क्या समिति हिन्दू, ईसाई और अन्य समुदायों में ‘अस्पृश्यता’ को समाप्त करना चाहती है या उसका उद्देश्य ‘अंतर-सांप्रदायिक’ अस्पृश्यता को भी समाप्त करना है। बी. शिव राव ने कहा कि समिति का उद्देशय ‘अस्पृश्यता के सभी रूपों’ को समाप्त करना है भले ही यह किसी समुदाय के भीतर का छुआछूत हो या विभिन्न समुदायों के बीच का।
अन्तरिम रिपोर्ट को संविधान सभा में 29 अप्रैल 1947 को वल्लभभाई पटेल ने पेश किया। इस पर अपनी प्रतिक्रिया में संविधान सभा के एक सदस्य प्रोमथ रंजन ठाकुर ने कहा कि ‘जाति व्यवस्था’ को समाप्त किए बिना अस्पृश्यता को समाप्त नहीं किया जा सकता क्योंकि अस्पृश्यता इसका मात्र लक्षण है। कुछ सदस्यों ने “अस्पृश्यता” पर स्पष्टीकरण चाहा।
डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में अनुच्छेद 11 (यह बाद में अनुच्छेद 17 बना) को प्रस्तावित किया। इस पर नजीरुद्दीन अहमद और प्रो. टी. के. शाह ने इसे बेहतर रूप देने का आग्रह किया। पर डॉ. आंबेडकर ने इन सुझावों पर कोई ध्यान नहीं दिया। इसका कारण यह था कि संविधान के निर्माता ‘अस्पृश्यता’ को सीमित नहीं करना चाहते थे। वे चाहते थे कि इसे दोनों ही छोरों पर खुला रखा जाए ताकि इसके दायरे के विस्तार में आसानी हो।
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि डॉ. आंबेडकर ने हमें आजादी के आंदोलन के दूसरे पक्षों पर भी गौर करने को बाध्य किया। ब्रिटिश शासन से लड़ाई के साथ साथ सामाजिक पुनरुद्धार की लड़ाई भी चल रही थी। यह लड़ाई थी आसमान सामाजिक व्यवस्था को समाप्त करने की। यह लड़ाई थी ऐतिहासिक अन्याय का अंत करने की और मौलिक अधिकार के औज़ार से मौलिक गलतियों को समाप्त करने की।
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न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि डॉ. आंबेडकर के अनुभव और उनके साहित्य को समझने की जरूरत है यह जानने के लिए कि संविधान निर्माण विशेषकर अनुच्छेद 17 के पीछे किस तरह का दर्शन काम कर रहा था। डॉ. आंबेडकर को खुद अपने जीवन में अस्पृश्यता का दंश झेलना पड़ा, उन्हें कलंकित किया गया जिसने उन्हें अस्पृश्यता के खिलाफ आंदोलन शुरू करने को उद्यत किया। 1924 में उन्होंने बहिष्कृत हितकारी सभा का गठन किया। आने वाले दिनों में डॉ. आंबेडकर ने अछूतों के लिए समान अधिकारों के लिए मोर्चा निकाला।
अपने फैसले में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले को भी उद्धृत किया है, उनके गुलामगिरी पुस्तक की चर्चा की है। सावित्रीबाई फुले की चर्चित कविता की भी चर्चा की गई है –
उठो बंधुओं, शूद्रों और अतिशूद्रों
तुरंत जागो, उठो।
उठो और अपनी वो बेड़ियाँ तोड़ फेंको
रिवाजों ने जो हम पर डाले हैं।
उठो बंधुओं, उठो, और सीखो…
हम शिक्षित करेंगे अपने नौनिहालों को
और पढ़ाएंगे खुद को भी।
हम हासिल करेंगे ज्ञान
धर्म का और सच्चाई का।
किताबों की भूख जगाओ और
ज्ञान का नृत्य होने दो नस-नस में
आओ हम सब संघर्ष करें और
हमेशा के लिए मिटा दें
थोपा गया नीची जाति का कलंक।
(अंग्रेजी से अनुवाद : अशोक झा/शेखर)
अनुच्छेद 17 के माध्यम से संविधान ने आजाद देश में अस्पृश्यता को दोहराए जाने की आशंका को समाप्त कर लोगों को सुरक्षित किया है। इस तरह, अनुच्छेद 17 का पृष्ठभूमि ऐसे लोगों की गरिमा को संरक्षित करने से जुड़ा है जो भेदभाव, पक्षपात और सामाजिक बहिष्करण के शिकार रहे हैं।
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने आज देश में जिस तरह के हालात हैं, उस पर तीखी प्रतिकृया व्यक्त की है। उन्होंने संविधान सभा में हुई बहसों का उल्लेख करते हुए कहा कि बहुत सारे सदस्यों ने अस्पृश्यता के लिए जातिवाद को जिम्मेदार बताया और शुद्धता और स्पृश्यता को जाति का मूल बताया। डॉ. आंबेडकर ने अपनी पुस्तक “जाति का विनाश” में जाति से जुड़े हुए विशेषाधिकारों का बहिष्कार किया और इसे मानवीय गरिमा की लड़ाई कहा। डॉ. आंबेडकर ने जाति को व्यक्तिगत गरिमा का दमन करने वाला बताया। और अनुच्छेद 17 इस जाति व्यवस्था की रीढ़ शुद्धता और अस्पृश्यता पर आक्रमण करता है।
बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि “शुद्धता और स्पृश्यता” का भाव जाति व्यवस्था में रचा बसा है और आज भी समाज में इसका वर्चस्व है। यद्यपि संविधान ने हाशिये पर मौजूद लोगों और दलितों के साथ होने वाले छुआछूत और अन्य तरह के सामाजिक उत्पीड़न को समाप्त कर दिया है, व्यक्तिगत गरिमा आज भी एक दैनिक संघर्ष बना हुआ है। जिस तरह के हालात ‘अस्पृश्यता’ को पैदा करते हैं वे आज भी मौजूद हैं। उन्होंने कहा कि आजादी मिलने के 70 साल बाद भी दलितों के एक वर्ग को मैला ढोने जैसे गरिमाहीन कार्य करने पड़ते हैं।
अपने फैसले में चंद्रचूड़ ने साफ कहा कि अनुच्छेद 17 ने यह वादा किया था कि निचली जाति के लोग सामाजिक उत्पीड़न से मुक्त हो जाएंगे। लेकिन आज भी उनके लिए कुछ भी नहीं बदला है। उनके खिलाफ हर दिन होने वाले अपराधों की सूची अंतहीन है। दलितों को मूँछें उगाने के लिए मार दिया जाता है, ऊंची जातियों के लोगों को नाचते हुए देखने पर मार दिया जाता है, घोड़े पर चढ़ने के लिए मार दिया जाता है। कानून को अपर्याप्त रूप से लागू किए जाने के कारण इन लोगों को जो अधिकार दिलाने की बात थी, उन्हें नहीं दिलाया जा सका है।
उन्होंने अनुच्छेद 17 की चार विशेषताएँ गिनाई हैं –
- मानवीय गरिमा का नैतिक समर्थन और समाज में सबको समान अधिकार प्राप्त है।
- ‘अस्पृश्यता’ का अंत
- ‘किसी भी रूप में’ अस्पृश्यता पर रोक, और
- अस्पृश्यता के कारण उत्पन्न होने वाली अशक्तता को लादना कानूनी रूप से दंडनीय अपराध है।
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि संविधान एक निरंतर विकसित होने वाला दस्तावेज़ है और इसको लचीला होना चाहिए ताकि यह अस्पृश्यता से पैदा होने वाले किसी भी तरह के अन्याय के खिलाफ कार्रवाई कर सके। उन्होंने कहा कि यह नहीं कहा जा सकता कि महिलाएं, जिन्हें सर्वाधिक बदतर बहिष्करण का शिकार होना पड़ा है, अनुच्छेद 17 के बाहर हैं।
इस पीठ की एकमात्र सदस्य न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा ने इस मामले में बहुमत के खिलाफ अपना फैसला लिखा और वह न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की इस बात से भी सहमत नहीं हुईं कि इस मामले में अनुच्छेद 17 की कोई भूमिका है या उसका उल्लेख किया जा सकता है।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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