जहां एक तरफ देशभर में दशहरा और दुर्गा महोत्सव की तैयारियां जोर–शोर से चल रही हैं, वहीं इसी देश में बीसियों जगह आदिवासी–पिछड़े इसे जश्न नहीं, बतौर शोक मनाते हैं। शोक इसलिए कि महिषासुर को अपना आराध्य मानने वाले बहुजनों की मान्यता है कि इतिहास में उनके आदर्श राजा देवता को हिंदुओं ने न सिर्फ छल–कपट से मारा, बल्कि अब भी वे उनका वध दिखाकर उन्हें अपमानित करने का काम करते हैं। उनके लिए यह विजय नहीं, शोक का उत्सव है।
इसी कड़ी में महिषासुर को याद करते हुए झारखंड के बोकारो के सियालजोड़ी थाने के अंतर्गत आने वाले भागाबांध गांव के कुबाटांड़ टोले के महिषासुर चौक पर ‘शिकार दिशम खेड़वाल वीर लाकचार कमेटी‘ द्वारा बहुत बड़ा ‘हुदूड़ दुर्ग (महिषासुर) शहीद स्मृति दिवस‘ 19 अक्टूबर 2018 को आयोजित किया जा रहा है, जिसमें देशभर के दर्जनों आदिवासी–पिछड़ों से जुड़े संगठनों के पदाधिकारियों के साथ–साथ कई पूर्व आईपीएस, आईएएस व समाजसेवियों के साथ लगभग 10 हजार लोग हिस्सेदारी करेंगे।
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‘हुदूड़ दुर्ग (महिषासुर) शहीद स्मृति दिवस‘ कार्यक्रम के सह संयोजक जगन्नाथ टिडुआर कहते हैं, “आदिवासी संथाल, मुंडा, उरांव, खड़िया समेत अन्य जातियों के लोग जब देशभर में हिंदू नवरात्रि मना रहे होते हैं, तब हम शोक मनाते हैं। जिसमें अपनी छाती पीटकर ‘हाय रे, हाय रे‘ कहते हुए पुरुष स्त्री वेश में दसाईं और काठी नाच करते हैं। हालांकि, आदिवासी सालोंसाल से अपने आदर्श देवता महिषा की मौत के शोक में दसाईं और काठी नाच करते आ रहे हैं। मगर गरीबी, अज्ञानता, अपने सांस्कृतिक मूल्यबोधों से अपरिचय और वास्तविकता से अनजान होने के कारण लोग दुर्गा पूजा में भी हिस्सेदारी करते आ रहे थे, जो अब सांस्कृतिक मूल्यों से परिचय के कारण घट रही है और आदिवासी–बहुजन अपनी जड़ों की तरफ लौटकर आ रहे हैं। हम आदिवासियों की मान्यता है कि जब आर्यों ने अपनी कन्या दुर्गा द्वारा छल–कपट से महिषासुर का वध करवाया था, तो बचे हुए अनार्य- जिन्हें हिंदुओं का इतिहास राक्षस कहता है -स्त्री वेष में वहां से भागकर जंगलों, कंदराओं और दूर-दराज के क्षेत्रों में अपनी जान बचाने के लिए जाकर छिप गए थे। उसी को याद करके अभी भी दसाईं और काठी नाच में स्त्री वेशभूषा धारण करते हैं।”
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जगन्नाथ टिडुआर कहते हैं, “हम लोग दसाईं के रूप में महिषासुर शहादत दिवस को मनाते आ रहे हैं। हम आदिवासी दसाईं धान की बाली को कहते हैं। एक बाली में 10 से ज्यादा शाखाएं नहीं होती हैं, जिन्हें 10 भुजाएं माना जाता है। आदिवासी दसाईं को अन्नपूर्णा मानते हैं और उसी को देवी के बतौर पूजते हैं। गौर करने वाली बात है कि जब धान की बाली पककर तैयार होती है, उसी मौसम में महिषासुर का दुर्गा ने वध किया था, तो दसाईं पर्व में आदिवासी अन्नपूर्णा की पूजा के साथ–साथ महिषासुर के शोक का उत्सव भी मनाते हैं। मूर्तिपूजा के विरोधी आदिवासी इसमें धान की बाली को ही पूजते हैं।”
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महिषासुर के स्मरण के लिए उनका हिंदुओं से अलग रूप में दर्शाया गया चित्र रखते हैं, जिसे वो श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। राक्षसी तौर पर दुर्गा के साथ दर्शाये गए चित्र से अलग यह चित्र हाथ में धनुष–बाण लिए आदिवासी आदर्श के रूप में चित्रित किया जाता है। जहां महिषासुर शहादत दिवस आयोजित किया जाता है, उस चौक का नाम भी आदिवासियों ने अपने स्तर पर अपने देवता और आदर्श महिषासुर की याद में ‘महिषासुर चौक‘ रखा हुआ है।
जगन्नाथ टिडुआर के मुताबिक, “आर्याें–अनार्यों के बीच हुआ युद्ध सदियों पहले की बात है, मगर ब्राह्मणवाद–मनुवाद के पोषक हिंदुवादी आज भी हमारे पुरखा महिषासुर को दुर्गा द्वारा छाती में पैर मारकर शूल मारते हुए वीभत्स रूप में दर्शाते हैं, इससे घिनौनी बात भला क्या हो सकती है? हिंदुओं की आस्था दुर्गा पर है, तो वे शौक से उसे पूजें। मगर महिषासुर को वीभत्स रूप में दर्शाना और छाती पर पैर रखकर शूल मारकर चित्रित करना बंद करें। यह आदिवासी–पिछड़ों के सांस्कृतिक बोधों के साथ किया जा रहा सरासर घिनौना कृत्य है, जिसे हम लोग सदियों से सहते आ रहे हैं। कम-से-कम अब हिंदुवादी यह करना बंद करें। इतने बड़े स्तर पर आदिवासियों–पिछड़ों को एकत्र कर ‘हुदूड़ दुर्ग (महिषासुर) शहीद स्मृति दिवस‘ आयोजित करने का हमारा एकमात्र मकसद भी यही है कि आदिवासी–पिछड़े अपने सांस्कृतिक बोधों, आदर्शों के अपमान के प्रति चेतें और एक सुर में यह बात रखें कि हिंदुवादी अब हमारा अपमान करना बंद करें, क्योंकि यह असहनीय है।”
आदिवासी संस्कृति के लिहाज से हुदूड़ का मतलब है- अस्त्र-शस्त्र में पारंगत; और दुर्ग किले को कहा जाता है। इस बार के हुदूड़ दुर्ग (महिषासुर) शहीद स्मृति दिवस में दर्जनों जनसंगठन भागीदारी कर रहे हैं। शिकार दिशम खेड़वाल वीर लाकचार कमेटी के अलावा छह आदिवासी संगठन इसके आयोजकों में शामिल हैं। आदिवासी कुड़मी समाज बोकारो, बाउरी महिला कल्याण समिति बोकारो, कुड़मालि भाखिचारी अाखड़ा, बोकारो, ओलचिकि इतुन आसड़ा चंदनकियारी, आतु सुसार समिति बोकारो और रविदास समिति चास, बोकारो महिषासुर की याद में आयोजित किए जा रहे कार्यक्रम के सह आयोजक हैं।
जगन्नाथ टिडुआर के अनुसार यह कार्यक्रम 19 अक्टूबर को सुबह 9 बजे से शुरू होगा और पूरे दिन चलेगा। इसमें कोलकाता के कलाकारों द्वारा संथाली नाच भी प्रस्तुत किया जाएगा। दसाईं और काठी नाच में हजारों आदिवासी बहू–बेटियां सीधे हिस्सेदारी करेंगी। विदेश जाने वाले पहले आदिवासी इंजीनियर नित्यानंद हैम्ब्रम कार्यक्रम में शहीदवेदी का उद्घाटन करेंगे। वहीं लेखक और पूर्व आईपीएस डॉ. नजरूल इस्लाम बतौर मुख्य अतिथि शामिल रहेंगे। इनके अलावा तमाम समाजसेवी, संगठनों से जुड़े पदाधिकारी, आदिवासी समाज से जुड़े लेखक–शिक्षक इसमें भागीदारी करेंगे। इनमें पूर्व आईएएस स्वप्न कुमार विश्वास, पूर्व आईएएस डॉ. प्रकृति रंजन मल्लिक, राष्ट्रीय मूलनिवासी बहुजन कर्मचारी संघ के केंद्रीय अध्यक्ष सुधीर महतो, पूर्व विधायक सूर्य सिंह बेसरा, आदिवासी कुड़मी समाज, पश्चिम बंगाल के अजीत महतो, मानभून दलित साहित्य सांस्कृतिक संघ के चारियान महतो, आदिवासी छात्रसंघ रांची के संजय महली, सनोत संथाल समाज के केंद्रीय अध्यक्ष सनातन सोरेन, बाउरी संघर्ष मोर्चा झारखंड के केंद्रीय अध्यक्ष रंजीत बाउरी, भीम आर्मी के बोकारो जिलाध्यक्ष हरेंद्र दास, बाउरी समाज कल्याण समिति, पाड़ा के सभापति दिलीप बाउरी, पश्चिम बंगाल से शिक्षक–लेखक बाबूलाल रजवार, पूर्वांचल आदिवासी कुड़मी समाज के फणिभूषण महतो, मूलनिवासी समिति से जुड़े रविंद्र नाथ, विद्यासागर विश्वविद्यालय मेदनीपुर से डॉ. सुशील हांसदा, बोकारो स्टील सिटी के एडीएम बादल राम, एनसी एयरपोर्ट आॅफिसर, दमदम पीयूष गायेन, डॉ. राकेश महतो, दलित मुस्लिम फ्रेंडशिप सोसायटी के संपादक एम.एम. अब्दुर्रहमान, वामसेफ नादीया के जाफरल्ला मुल्ला, झारखंड के समाजसेवी चैत असुर, वेतार शिल्पी मोतीलाल हांसदा, आदिवासी कुड़मी समाज से तरनि बानुहड़, धनबाद से समाजसेवी गणपत महतो और बीएमपी के अध्यक्ष अरविंद पुनअरिआर मुख्य रूप से शामिल हाेंगे।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क/प्रेम बरेलवी)
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